रोग शोकों की उत्पत्ति का कारण ‘प्रज्ञापराध’

September 1981

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मनुष्य के विषय में जब भी विचार किया जाता है, उसकी स्थूल काया-बाह्य संरचना पर ही मुख्यतः ध्यान केन्द्रित होता है। जड़वादी दार्शनिक, प्रत्यक्षवादी वैज्ञानिक काया के साथ-साथ मन की सत्ता का अस्तित्व भी स्वीकारते हैं। यही स्थिति चिकित्सा विज्ञानियों की भी है। वे यह तो मानते हैं कि मानसिक विकार एवं भ्राँतियाँ रोगोत्पत्ति में एक प्रमुख कारण हैं, पर वे भी प्रधानता शारीरिक लक्षणों-उनकी बाह्य प्रतिक्रियाओं पर देते चले आये हैं। एनॉटामी एवं फिजियोलॉजी विज्ञान इन दो से परे किसी भी सत्ता के अस्तित्व को नकारते हुए चिकित्सा हेतु मनःविश्लेषण, तनाव शामक औषधियों एवं शारीरिक लक्षणों के तात्कालिक उपचारक्रमों को ही प्रधानता देता है।

आयुर्वेद का इतिहास बहुत पुराना है। वर्तमान प्रचलित चिकित्सा पद्धतियों का विकास तो अभी-अभी गत कुछ शताब्दियों में हुआ है। परन्तु भारतीय आयुर्वेद विज्ञान रोग की जड़ के निदान का वर्णन कर उपचार हेतु दैनन्दिन के जीवनक्रम में उपलब्ध होने वाली जड़ी-बूटियों तथा रसायन आदि की व्यवस्था करता आया है। इस विज्ञान में रोगोत्पत्ति निदान व चिकित्सा हेतु समग्र मानव और उसके आन्तरिक जीवन पर विचार किया जाता है। जिस ‘साइको सोमेटिक’ रोग को पाश्चात्य वैज्ञानिक मनोरोगों की शारीरिक प्रक्रिया बताकर आज वर्णन करते हैं, उसकी व्याख्या सूत्रात्मक शैली में- ‘प्रज्ञापराध’ के रूप में आयुर्वेद में पहले ही कर दी गयी है।

चरक संहित के अनुसार-

धीधृतिस्मृतिविभ्रष्ट-कर्म,यत् कुस्तेऽशुभम्। प्रज्ञापराधं तं विद्यात् सर्वदोष प्रकोपनम्॥

अर्थात्- ‘‘बुद्धि, धैर्य और स्मृति से भ्रष्ट होकर मनुष्य जो अशुभ कर्म करता है उस प्रज्ञापराध जानना चाहिए, उससे सर्वदोष प्रकुपित होते हैं।”

किसी भी चिकित्सा विज्ञान में पूर्वजन्म के अशुभ कर्मों एवं उनकी इस जन्म में रोगों के रूप में परिणित का वर्णन इस प्रकार न हुआ होगा जैसा कि महर्षि चरक ने किया है।

निर्दिष्टं दैवशब्देन कर्मयत् पौर्वदेहिकम्। हेतुस्तदपि कालेन रोगाणामुपलक्ष्यते॥

अर्थात्- ‘‘पूर्व जन्म का कर्म भी, जिसे दैव कहते हैं, कालाँतर में रोगों का हेतु देखा जाता है।’’

प्रत्यक्षवादी वैज्ञानिक सिद्धान्तों पर ये प्रतिपादन प्रयोगशाला में सिद्ध भले न किये जा सकें, पर इनकी दैनन्दिन जीवन व्यापार में लीला सर्वत्र दृष्टिगोचर होती रहती है। ‘प्रज्ञा’ को आयुर्वेद ने परमपवित्र एवं अमूल्य निधि बताया है जो मानव को सृष्टा का वरदान है। जो इसे जितना प्रखर परिष्कृत बनाये रखता है व न केवल अपने आपको व्यक्तित्व सम्पन्न बनाता है अपितु अपने स्वस्थ जीवन का पथ भी प्रशस्त करता है। प्रज्ञा उसे कहते हैं जो दुर्भाव-द्वेषों से मुक्त हो, भावना प्रधान बुद्धि हो, जिसमें आदर्शवादी निष्ठाओं का जीवन में समावेश हो एवं कृत्रिमता रहित हो।

इस शब्द को आधार बनाकर स्वस्थ-अस्वस्थ मानसिकता एवं तदनुसार रोगों का निर्धारण कितना सूझबूझ कर किया गया है, यह आज की व्याधियों की अनेकानेक थ्योरीज एवं ‘रोगोत्पत्ति’ पर किये गये प्रतिपादनों को पढ़कर पता चलता है। ‘कीटाणुवाद’ जो आज ऐलोपैथी चिकित्सा पद्धति का मूल आधार है, को भी ‘चरक ने अस्वीकार नहीं किया है। अन्तर बस इतना ही है कि इसे पूर्व जन्म में पाप कर्म का फलोदय इस जन्म में उस प्रज्ञापराध की जीवनी शक्ति के ह्रास से परिणति तथा प्रतिक्रिया रूप में जीवाणु वर्ग का शरीर में प्रवेश बताते हैं। ‘अल्टरनेटिव मेडिसिन’ के समर्थक अब आधुनिक विश्व में बढ़ते जा रहे हैं। वे भी जीवाणु के आक्रमण को अनास्था-असन्तुलन की फलश्रुति मानते हैं। यह अनास्था ही शास्त्रों में ‘प्रज्ञापराध’ के रूप में वर्णित की गयी है।

प्रज्ञापराध का कारण है- विवेक से च्युत होना। काम, क्रोध, लोभ इत्यादि के वश में होकर मनुष्य जब स्वयं पर संयम खो बैठता है तब उसे उचित अनुचित का भान नहीं रहता। वह अनायास ही ऐसा अपराध कर बैठता है जो काया के स्वस्थ जीवनक्रम का असन्तुलित कर देता है। असंयम चाहे वह मानसिक हो अथवा रसेन्द्रियों, कामेन्द्रियों के माध्यम से शारीरिक, समय की अनियमितता हो अथवा अर्थ एवं वाणी का असंयम- इस की परिणति होती है। असन्तुलित चित्रवृत्ति में। यही अपनी बाह्य अभिव्यक्ति शारीरिक रोगों के लक्षणों के रूप में करती है। विडम्बना यह है कि उपचार इन लक्षणों का किया जाता है न कि उस जड़ का जो गहरे में बैठी रहती है एवं उपयुक्त परिस्थितियाँ पाकर फूटती रहती हैं। गरुड़ पुराण में उल्लेख आता है-

चित्तायतं धातुवश्यं शरीरं चित्ते नष्टे धातवोयन्ति नाशम्। तस्माच्चित्तं सर्वदा रक्षणीयं स्वस्थे चित्ते धातवः सम्भवन्ति॥

अर्थात्- “मानवी काया चित्तायत्त है और धातुओं के वश में है। चित्त के नाश से धातुएं नष्ट होती हैं, इसलिए सर्वदा चित्त की रक्षा करनी चाहिए। यदि चित्त स्वस्थ है तो धातुएं पुष्ट होती हैं और पुष्ट धातुओं का अर्थ है स्वस्थ निरोग काया।”

चरक के अनुसार प्रज्ञापराध का वास्तविक रूप इस प्रकार है-

“संग्रहेण चातियोगवर्जं कर्म वांगमनःशरीर महित मनुपदिष्टं यत्तच्च मिथ्यायोगं विद्यात्। इति त्रिविध विकल्पं त्रिविधमेव कर्म प्रज्ञापराध इति व्यवस्थेत्॥

अर्थात्- ‘‘मन, वचन और शरीर के लिए अहितकर और शास्त्र निषिद्ध अतियोग, अयोग और मिथ्यारोग इन त्रिविध विकल्प रूप कर्मों को प्रज्ञापराध कहते हैं।”

आयुर्वेद का यह कथन कि वेगों (ड्राइव या मोटिव) को अनुचित रूप से रोकने या बलपूर्वक प्रवृत्त करने से रोगोत्पत्ति होती है-वैज्ञानिक शोध का विषय है। मल-मूत्र वीर्य वायु का प्राकृतिक प्रवार न तो एकाएक रोकना चाहिए, न ही उन्हें बलपूर्वक क्षरित होने देना चाहिए क्योंकि फिर ये ही अनन्तः रोगों का कारण बनते हैं।

इन अपराधों के अतिरिक्त वाणी के अपराधों को भी प्रज्ञापराधों में गिना गया है और उन्हें रोगों का कारण माना गया है। वाणी का सदुपयोग और दुरुपयोग ही आनन्द व उद्वेग का स्वास्थ्य एवं अस्वस्थता का कारण बनता है, ऐसा शास्त्रों का मत है। वाणी के संयम को वांग्मय तप बताया गया है, जो स्वस्थता का सहज साधन है। इसी आधार पर बताया जाता है कि रोगी से कहे गये प्रेम-सहानुभूति से युक्त चिकित्सक के वचन रोगी का आधा रोग दूर कर देते हैं। संयत, मिष्ट और सत्य वचन युक्त मृदु वाणी, व्यवहार एक सुसंस्कृत और स्वस्थ व्यक्ति के लक्षण हैं।

प्रज्ञापराध व्यक्ति तक सीमित नहीं है। इसकी प्रतिक्रियाएं समाज के हर घटक पर होती हैं और सामाजिक स्वास्थ्य पर इसका प्रभाव पड़ता है। दुष्कर्मों का बढ़ना- उनसे सूक्ष्म वातावरण का प्रदूषित होना तथा उसकी परिणति प्रकृति पर दुष्प्रभाव के रूप में होना एक तथ्य है। इसी व्यापक सामाजिक प्रज्ञापराध को ‘धर्मग्लानि’ के नाम से सम्बोधित किया जाता रहा है।

वस्तुतः स्वस्थ जीवन का आधार है- आध्यात्म सिद्धान्तों का जीवन के हर क्षण, हर गतिविधि में व्यापक समावेश। दवाओं से स्वास्थ्य नहीं खरीदा जा सकता। 750 करोड़ रुपयों की वार्षिक खरीद करने वाले 68 करोड़ की जनसंख्या वाले भारतवर्ष के नीति निर्माताओं को नागरिकों का स्वास्थ्य सुधारने मात्र के लिए नहीं, राष्ट्रीय अर्थनीति को आमूलचूल रूप से बदलने व राष्ट्रीय उत्पादन बढ़ाने के लिए भी इस ओर तुरन्त ध्यान देना चाहिए।

प्रज्ञापराध और कुछ नहीं, प्रकारान्तर से आस्था संकट है- अनास्था पर दैत्य का दुष्प्रभाव ही है। यही व्यष्टिगत व समष्टिगत रोगों का मूल कारण है। राष्ट्र के समग्र स्वास्थ्य हेतु इसके निवारण हेतु अध्यात्म सिद्धान्तों का, उत्कृष्टता की पक्षधर मान्यताओं का जानकार पर व्यापक प्रचार-प्रसार अति आवश्यक है।


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