वह समय अब पीछे छूटता जा रहा है जब यह कहा जाता था कि चेतना जड़ की उत्पत्ति मात्र है- आत्मा का अपना स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है। संसार के मूर्धन्य दार्शनिकों एवं मनीषियों ने यह स्वीकार किया है कि मनुष्य मात्र जड़ परमाणुओं का समुच्चय नहीं है उसके भीतर ऐसी कोई सत्ता काम कर रही है जो स्वतन्त्र एवं अविनाशी है। गहराई से अपनी ही सत्ता का विश्लेषण एवं विचार करने पर उपरोक्त तथ्य की पुष्टि हो जाती है।
अपरिवर्तनीय, अविनाशी, शाश्वत शरीर से परे आत्म-सत्ता का परिचय मनुष्य जीवन के अध्ययन से मिलता है। हर व्यक्ति यह अनुभव करता है कि अमुक समय मेरा बचपन था जब मैं बाल सुलभ चेष्टाओं में निरत रहता था। किशोरावस्था में प्रविष्ट करते ही- विद्याध्ययन में अभिरुचि जगी। कुछ करने एवं विशिष्ट बनने की आकांक्षा मन में उमड़ती-घुमड़ती रहती थी। युवावस्था आई। विवाह हुआ। दाम्पत्ति जीवन में बँधे। पति-पत्नी के बीच स्नेह का आदान-प्रदान चला। कुछ समय बाद प्रौढ़ावस्था आयी और अंततः जीवन के उत्तरार्ध वृद्धावस्था में प्रवेश करना पड़ा। बचपन से लेकर वृद्धावस्था के अविराम क्रम की अनुभूति प्रत्येक व्यक्ति करता रहता है। शारीरिक एवं मानसिक परिवर्तन के इस क्रम में एक अपरिवर्तनीय तत्व भी कार्य करता है जो जीवन के समस्त घटनाक्रमों का अनुभव करता है। अमुक समय बचपन था- अमुक युवाकाल तथा अमुक प्रौढ़ावस्था। विश्लेषण करने पर यह बात स्पष्ट होती है कि हर अवस्थाओं की अनुभूति करने वाली कोई सत्ता है जो सभी शारीरिक एवं मानसिक परिवर्तनों एवं सम्बन्धित घटनाक्रमों को देखती रहती है किन्तु स्वयं उनसे अप्रभावित रहती है। परिवर्तनों, घटनाक्रमों एवं दृश्यों के इस दृष्टा को ही आत्मा कहा गया है, जो समस्त जीवन प्रवाह का आदिकारण एवं प्रणेता है। जिसके शरीर से विलग होते ही सारी शरीरगत हलचलें समाप्त हो जाती हैं और निष्प्राण भौतिक शरीर ही अवशेष बचता है। जो कभी आत्म-सत्ता की उपस्थिति में इतना अधिक कीमती एवं उपयोगी था उसे शीघ्रातिशीघ्र सड़न के डर से जलाकर छुट्टी पायी जाती है।
अपनों का अपनापन भी उस दृष्टा के बने रहने पर ही रहता है। जान से भी प्यारे- आंखों के दुलारे बच्चों, युवकों अथवा वृद्धों के प्रति मोह तभी तक रहता है जब तक आत्मा की चैतन्यता शरीर में विद्यमान है। वस्तुतः जिस शरीर अथवा जिस व्यक्ति के प्रति हमारा स्नेह झलकता है वह भी प्रकारान्तर से आत्म-सत्ता के प्रति ही होता है। दृष्टि बहिर्मुखी होने के कारण इस तथ्य को अधिकाँश व्यक्ति नहीं समझ पाते और यह आत्मानुराग व्यक्ति के प्रति मोह के रूप में प्रकट होता है। यह सत्य इस बात से भी प्रकट होता है कि शरीर की आकृति ठीक वही रहती है किन्तु न तो कोई उसे संजोकर रहता है और न ही निष्प्राण शरीर के प्रति राई-रत्ती भर आसक्ति दिखाई पड़ती है। विशेषता शरीर की रही होती तो वह बाद में भी उसकी तरह बनी रहती किन्तु ऐसा कहीं नहीं देखा जाता। अस्तु महत्ता एवं विशेषता आत्म-सत्ता की ही प्रभावित होती है।
स्वयं निर्लिप्त होते हुए भी वह जीवन में गति भरता, मन एवं बुद्धि को आलोकित करता, प्राणों से अनुप्राणित करता ज्ञानेन्द्रियों में संवेदना भरता, कठपुतली की भाँति मनुष्य से नृत्य कराता रहता है। जीवन उसी की अभिव्यक्ति है। बचपन उसका एक चरण है- यौवन दूसरा तथा वृद्धावस्था तीसरा। किन्तु वह स्वयं इन तीनों अवस्थाओं की परिधि से परे है।
आद्य शंकराचार्य ने इस अनुभूति को इस प्रकार व्यक्त किया है। ‘‘वर्तमान को मैं जानता हूँ- भूत को मैंने जाना है और भविष्य को मैं जानूंगा। अनुभव की इस परम्परा में ज्ञातव्य वस्तु का ही परिवर्तन दिखायी पड़ता है- ज्ञाता का स्वरूप कभी परिवर्तित नहीं होता- वह सदा अपने स्वरूप में यथावत् बना रहता है।” इस तथ्य को अन्यत्र प्रतिपादित करते हुए शंकराचार्य लिखते हैं कि- ‘‘हर कोई आत्मा के अस्तित्व में जाने अनजाने विश्वास करता है ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है जो अपनी सत्ता में अविश्वास व्यक्त करे और वह कहे “मैं नहीं हूँ”। ‘मैं हूँ’ यह बोध हर काल हर अवस्था में बना रहता है। अतः इस चिरंतन बोध का बना रहना आत्म-सत्ता के अस्तित्व का स्वतः प्रमाण है।
प्रसिद्ध दार्शनिक रेने डेकार्ड का मत है कि “मान भी लें कि आत्मा नहीं है तो भी यह तो मानना ही होगा कि मैं सन्देह करता हूँ कि आत्मा है या नहीं। यदि यह स्वीकार कर लिया जाय कि मैं सन्देह करता हूँ तो विवश होकर यह मानना होगा कि मैं उक्त सन्देह के प्रति विचार करता हूँ। अस्तु जो विचार करेगा वही सन्देह कर सकेगा, कि मैं हूँ या नहीं हूँ। अगर मैं विचार करता हूँ तो यह निश्चित हो गया कि मैं हूँ।’’
पाश्चात्य दर्शन शास्त्र के प्रसिद्ध विद्वान वर्कले का कहना है कि “रंग की अपने आप में कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं है- देखने वाला हो तभी रंग की सत्ता है। शब्द की सत्ता भी सुनने वाला हो तभी है। इसी प्रकार रंग, रस, गंध की भी अपनी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। इनको अनुभव करने वाला हो तो ही इनकी सत्ता है और अनुभूति की यह विशेषताएं, ज्ञानेन्द्रियों की भी अपनी मौलिक नहीं है। इन्हें उपरोक्त क्षमताएं आत्म-सत्ता द्वारा मिली हुई हैं।’’ इस तथ्य को और भी स्पष्ट रूप से इस प्रकार समझा जा सकता है। मरणोपरांत भी शरीर एवं सम्बन्धित ज्ञानेन्द्रियों, कर्मेंद्रियां का आकार-प्रकार उसी तरह बना रहता है। हाथ, पैर, मस्तिष्क, आँख, कान, नेत्र सभी विद्यमान रहते हैं। किन्तु न तो हाथ हिलते हैं और न ही पैर। जो कभी बड़ा से बड़ा काम देखते-देखते कर डालते थे- वे ही अपने को हिला-डुला सकने में भी असमर्थ सिद्ध होते हैं। नेत्र के सभी अवयव विद्यमान रहते हैं किन्तु उनमें न तो प्रकार होता है और न ही देखने की क्षमता। कान और नाम यथावत् होते हुए भी कहाँ वे ध्वनियों को सुन और गंध को सूंघ पाते हैं? मस्तिष्क जो कभी विलक्षण प्रतिभा का केन्द्र था- कठिन से कठिन गुत्थियों को हल करने में सक्षम था, वह भी निश्चेष्ट पड़ा रहता है। उसके सभी कलपुर्जे ठीक होते हुए भी न तो सोच पता है और नहीं उसकी प्रखरता रहती है।
कर्मेन्द्रियों एवं ज्ञानेन्द्रियों के सभी अवयव ठीक रहते हुए भी शरीर से चेतना के निकलते ही अपनी क्षमताओं एवं विशेषताओं को गंवा बैठना, इस बात का प्रमाण है कि उन सबमें आत्म-सत्ता का प्रकाश ही प्रकाशित होकर विभिन्न प्रकार की हलचलों के लिए प्रेरणा एवं शक्ति दे रहा था। उसके अपनी विभूतियों को- प्रकाश शक्ति एवं प्रेरणाओं को समेटते ही सभी इन्द्रियाँ, निष्प्राण हो जाती हैं।
अस्तु प्रत्यक्ष नेत्रों से दिखायी न पड़ना ही आत्म-सत्ता के न होने का प्रमाण नहीं है। विविध प्रकार की शारीरिक एवं मानसिक हलचलों एवं विशेषताओं में अदृश्य प्रेरणाएँ आत्मा की ही होती हैं। अभिव्यक्ति तो जड़ पदार्थों की होती है- चेतना की नहीं। आत्मा अस्तित्वपूर्ण होते हुए भी अभिव्यक्ति से परे है। उसकी अनुभूति हो सकती है। अनुभूति अपनी सत्ता की अनुभूति होना ही आत्मा का सबसे बड़ा प्रमाण है। शरीर में रहते हुए भी वह शरीर से परे है। इन्द्रियों, ज्ञानेन्द्रियों में शक्ति एवं प्रकाश भरते हुए भी उनसे परे है। मन द्वारा शरीर एवं बुद्धि को संचालन करते हुए भी वह मन से सर्वथा अलग है।
उस चिरंतन, शाश्वत अविनाशी आत्म-सत्ता के अस्तित्व को न मानने का कोई विवेकपूर्ण कारण नजर नहीं आता “चेतना जड़ की उत्पत्ति है तथा जड़ परमाणुओं के नष्ट होने के साथ ही नष्ट हो जाता है, आत्मा का अपना स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है।” ये सभी मान्यताएं दार्शनिक एवं वैचारिक दृष्टि से विवेकसंगत नहीं हैं। उचित यही है कि निष्पक्ष निर्णय वृद्धि को आधार बनाकर आस्तिकता सम्बन्धी भावनाओं पर विचार किया जाय एवं हठधर्मिता का खण्डन किया जाय।