साधना-सत्र पत्राचार के रूप में भी

September 1981

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युग सन्धि के प्रथम चरण में सभी प्राणवान् प्रज्ञापरिजनों को नये सिरे से उच्चस्तरीय प्रशिक्षण की आवश्यकता पड़ रही है। नव सृजन को ऐतिहासिक उत्तरदायित्व जिन्हें वहन करना है, उन्हें सर्वप्रथम अपनी आत्म-शक्ति को तद्नुरूप उगाना-बढ़ाना पड़ेगा। अन्यथा वे इच्छा रहते हुए भी कुछ कर नहीं सकेंगे, मनोरथ कितने की गढ़ते रहें। इस प्रयोजन के लिए अब शान्तिकुँज में दस दिवसीय साधना सत्रों की नई श्रृंखला चलाई गई है और महापुरश्चरण के नैष्ठिक भागीदारों- प्राण दीक्षा ले चुके भावनाशीलों- प्रज्ञापुत्रों- समयदानियों एवं वरिष्ठ परिजनों को कहा गया है कि वे इन नये निर्धारण के साधना सत्रों में सम्मिलित होने का प्रयत्न करें। भले ही वे इससे पूर्व दस वर्षों में कई सत्रों में सम्मिलित हो चुके हों।

इस अनुरोध की सन्तोषजनक प्रतिक्रिया हुई है। गायत्री तीर्थ के आरण्यक रूप में विकसित होते ही साधकों के बड़ी संख्या में आवेदन आये हैं। वे सभी ऐसे हैं, जिन्हें बिना हिचक स्वीकृति मिलनी चाहिए। किंतु प्रत्यक्ष कठिनाई यह है कि शाँतिकुँज में स्थान बहुत ही सीमित है। साधक के लिए जितना स्थान एकान्त नितान्त आवश्यक है, उतना देने पर पूरे 400 भी उसमें नहीं आ पाते हैं। जबकि अश्विन नवरात्रि के लिए ही 1000 से ऊपर के आवेदन आ चुके। वरिष्ठ प्रज्ञापरिजन एक लाख के ऊपर हैं। उनकी स्थिति के अनुरूप साधनाएं कराई जानी हैं। सभी को परामर्श किये जाने हैं। फिर स्थान, समय और माँग का तालमेल कैसे बैठे? 400 एक बार में करने से दस-दस दिन वाले सत्रों में हर महीने मात्र 1200 साधन शाँतिकुँज पहुंच सकेंगे- एक वर्ष में प्रायः पन्द्रह हजार। एक लाख वरिष्ठ परिजन अभी शेष हैं, उनके लिए प्रायः सात वर्ष चाहिए। फिर जिस तेजी से नये बढ़ रहे हैं उसे देखते हुए तो 14 वर्ष भी प्रस्तुत परिजनों के लिए कम पड़ेंगे। इतने दिनों में तो युग संधि का महत्वपूर्ण भाग ही समाप्त हो चुकेगा। इतने विलम्ब से मिला हुआ अवसर कितनों के काम आवेगा? और उससे समय की तात्कालिक आवश्यकता को पूर्ण करने में कितना योगदान मिलेगा?

लेकिन साधना के सहारे अभीष्ट आत्मबल अर्जित करने और प्रशिक्षण द्वारा सामयिक प्रेरणा एवं प्रज्ञा उभारने की आवश्यकता को इसलिये रोके नहीं रखा जा सकता है कि शाँतिकुँज में स्थान सीमित है। युग की माँग तो यथा समय पूरी होनी ही चाहिये। कठिनाई आती है तो दूसरा मार्ग खोजा जाय।

नया निर्धारण यह है कि वरिष्ठ प्रज्ञा परिजनों के लिये आवश्यक मार्गदर्शन ‘पत्राचार विद्यालय’ के रूप में चलाया जाय। ऐसे पाठ्यक्रम अधिकाँश विश्वविद्यालयों ने चलाये हैं। छात्रों की असुविधा तथा विद्यालय की सीमाबद्धता का समाधान इन पत्राचार विद्यालयों से निकाला जा रहा है। विदेशों में तो यह प्रक्रिया बहुत समय पहले चल पड़ी है, तेजी से बढ़ी है और आश्चर्यजनक रूप से सफल हुई है। इसी उपाय का अवलम्बन ‘प्रज्ञा अभियान’ को भी अपनाना पड़ रहा है।

अब सभी वरिष्ठ प्रज्ञा परिजनों से अनुरोध किया गया है कि पत्राचार विद्यालय के माध्यम से अभीष्ट मार्गदर्शन प्राप्त करने का सूत्र जोड़ लें। इसके माध्यम से वे सामयिक परामर्श प्राप्त करें और उपासना एवं जीवन साधना में उन विशिष्ट तत्वों का समावेश करें जो इन्हीं दिनों नितान्त आवश्यक है। इन पंक्तियों द्वारा इस स्तर के सभी वरिष्ठ परिजनों से इसी का अनुरोध किया जा रहा है।

कौन क्या उपासना करे और साधना किस प्रकार चलाये इसके निर्धारण सभी के लिये एक जैसे नहीं होंगे वरन् हर व्यक्ति की मनःस्थिति, परिस्थिति, परम्परा एवं पूर्व प्रगति को ध्यान में रखते हुए अलग-अलग होंगे। किसे, किस प्रयोजन के लिये किस स्तर की आत्मशक्ति चाहिए, कौन कितना कर सकने में समर्थ है, इन सब बातों का तालमेल बिठाकर ही साधना विधि का पृथक-पृथक निर्धारण किया जायेगा।

चौरासी लाख योनियों में परिभ्रमण करने के उपरान्त मनुष्य को वर्तमान जीवन मिलता है। पिछले जन्मों में हर व्यक्ति के पृथक संस्कार थे, वही इस जीवन में छाये रहते हैं, उन्हीं में मनुष्य नाचता रहता है, न करने योग्य करता और दुष्परिणाम भुगतता है। देवोपम मनुष्य शरीर को यों रोते कल्पते गंवा देने की भूत आत्मबोध के अभाव में होती है। व्यक्ति अपना विश्लेषण कर ही नहीं पाता। यह कार्य कोई सिद्ध समर्थ ही कर सकते हैं। शरीर और मन का अध्ययन लोगों के सामान्य क्रिया-कलापों से कोई भी कर सकता है, पर अंतःकरण का वेधन कोई दिव्य तत्त्वदर्शी ही कर सकते हैं। इसे इस परिवार का सौभाग्य कहना चाहिये कि इसे वह समर्थ संरक्षण पूज्य गुरुदेव के रूप में प्राप्त है। वे न केवल प्रत्येक व्यक्ति की सूक्ष्म स्थिति के अनुरूप साधनायें सिखायेंगे अपितु उनकी पूर्वजन्मों की गाठों को खोलने, अपना प्राण देने और साधना द्वारा अर्जित शक्ति को जीवन में विकसित होने देने के लिये आवश्यक खाद पानी और संरक्षण भी देंगे। इसे अब तक के साधन-क्रम का सर्वश्रेष्ठ अध्याय मानना चाहिये। अच्छी तरह निर्वाह कर लेने पर इस पत्राचार साधना विधान के द्वारा ही लोग घर बैठे हिमालय में साधना करने वाले योगियों जैसे आत्मबोध का उपहार प्राप्त कर सकेंगे।

इस विभाग से सम्बन्ध जोड़ने वाले सर्वप्रथम ‘आवेदन पत्र’ की माँग करेंगे। यह पत्र व्यवहार शाँतिकुँज हरिद्वार से ही होगा। भेजे हुए प्रश्नों के उत्तर में वे अपनी मनःस्थिति एवं परिस्थितियों का सुविस्तृत विवरण भेजेंगे। इसकी एक-एक पंक्ति को महत्व देते हुए साधनात्मक निर्धारण उसी प्रकार किये जायेंगे जैसे कि मूर्धन्य चिकित्सक रोगी की पिछली और अब की प्रत्येक परिस्थितियों का गंभीरतापूर्वक निदान करने के उपरांत चिकित्सा का निर्धारण करते हैं।

यह पत्राचार विद्यालय इसी आश्विन नवरात्रि से आरंभ हो रहा है। जिन्हें इस दिवसीय साधना सत्रों में स्थान न मिले, वे न तो निराश हों और न प्रतीक्षा करें। उन्हें पत्राचार विद्यालय के माध्यम से घर बैठे अपनी साधना और शिक्षा की प्रकारान्तर से वैसी ही व्यवस्था बना लेनी चाहिए जैसी कि शाँतिकुँज में पहुंचने पर संभव थी।

इस संदर्भ में जिन्हें भी इच्छा अभिरुचि हो, शाँतिकुँज हरिद्वार से “पत्राचार विद्यालय के छात्रों का आवेदन पत्र” मंगालें। उसका उत्तर पहुँचने पर ही साधनाक्रम एवं परामर्श निर्देशन का सिलसिला चल पड़ेगा। इस संदर्भ में अन्य किसी प्रकार की फीस या खर्च तो नहीं देना पड़ेगा, किन्तु हर पत्र के साथ पचास पैसे के टिकट या उतने ही टिकट वाला लिफाफा भेजते रहना आवश्यक है। पाठ्यक्रम, परामर्श, उत्तर स्टेशनरी आदि का सारा खर्च तो संस्था वहन करेगी। डाक खर्च प्रवेशार्थियों को स्वयं ही वहन करना होगा। पाठ्यक्रम एवं उत्तर भारी हो जाने के कारण उन पर पैंतीस पैसे न लगकर पचास पैसे लग जाते हैं।

सन् 81 में प्रमुख प्रज्ञा परिजन इस पाठ्यक्रम को पूरा कर सकें, इस दृष्टि से उसे दस खण्डों में विभक्त किया है। हर महीने तारीख 10, 20 और 30 को यह पाठ्यक्रम भेजे जायेंगे। हर बार बड़े साइज के चार पृष्ठों का एक पत्रक उपासना सम्बन्धी- दूसरा उतने ही आकार का जीवन साधना सम्बन्धी रहा करेगा। इस प्रकार दस बार में दोनों प्रकार के मिलाकर 20 पाठ्यक्रम पत्रक पहुँच जायेंगे।

अगला पाठ्यक्रम भेजे जाते समय एक विशेष प्रश्न पत्र साथ में रहा करेगा, जिसमें पिछली बार के पत्रक के सम्बन्ध में आवश्यक पूछताछ की जाया करेगी। इनका उत्तर लिखकर साधक भेजते रहेंगे। इस प्रकार जहां दस बार पाठ्यक्रम एवं प्रश्न पत्र का लिफाफा शाँतिकुँज से साधक के पास भेजा जाया करेगा, वहाँ साधक भी उनके उत्तर दस बार ही शाँतिकुँज भेजेंगे। इस आधार पर प्रायः वैसा ही आदान-प्रदान चल पड़ेगा। जैसा कि शाँतिकुँज आकर दस दिन साधना करने वालों और सूत्र संचालकों के मध्य चलता है।

सभी प्रश्न पत्रों के अभीष्ट अनुपात में उत्तर मिलते रहने पर उत्तीर्ण साधकों को ‘प्रज्ञापुत्र’ का प्रमाण पत्र भी भेजा जायेगा। जब सुविधा होगी, तब दस दिन का एक सत्र शाँतिकुँज हरिद्वार के दिव्य वातावरण में रहकर करने के लिए कहा जायेगा। इसे इस प्रशिक्षण की पूर्णाहुति के रूप में माना जा सकता है।

पत्राचार विद्यालय के पाठ्यक्रम के रूप में नहीं छपेंगे और न वे नियमित रूप से प्रवेश पाने वालों के अतिरिक्त अन्य किसी को दिये नहीं जा सकेंगे। इस विचार विनिमय, मार्गदर्शन एवं अनुदान-क्रम को सीमित लोगों तक ही मर्यादित रखा गया है। उपयुक्त वस्तु उपयुक्त पत्रों के साथ ही पहुंचे, इसलिए अनुबन्ध अनुशासन रखे रहने, गरिमा बनाये रहने की दृष्टि से आवश्यक समझा गया है।


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