अदृश्य का अनुकूलन अध्यात्म प्रयोगों द्वारा

September 1981

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मानवी चेतना ब्रह्मांडीय चेतना का ही एक घटक है। ब्रह्मांड की प्रकृतिगत हलचलों एवं चेतनात्मक प्रवाहों से मानव ही नहीं, प्राणी समुदाय भी प्रभावित होते रहते हैं। सूक्ष्म में संव्याप्त इस शक्ति को अध्यात्मवादियों ने ‘ब्रह्म’ की संज्ञा दी और वैज्ञानिकों ने अपने गहन पुरुषार्थ से इस शक्ति में अंतर्निहित सत्य को खोजने का प्रयास जारी रखा। दृष्टि थोड़ी भिन्न होते हुए भी मूर्धन्य वैज्ञानिकों का यही मत था कि दृश्य जगत का संचालन करने वाली कोई अदृश्य सत्ता अवश्य है। प्रकृति के प्रकोपों, दण्ड व्यवस्था के रूप में उसकी झाँकी हमें यदाकदा देखने को मिलती है। मानवी स्वास्थ्य पर इनके संभावित प्रभावों पर भी वैज्ञानिक अब ध्यान दे रहे हैं। अपनी खोजों के प्रति अत्यधिक आशावान् तर्क बुद्धि इन विभीषिकाओं का जब कारण खोजती है तो स्वयं को असहाय पाती है। ऐसे में आवश्यक है कि भावी संकटों की पृष्ठभूमि जानकर स्वयं को सचेत रखा जाय।

प्राणी पृथ्वी पर निवास करते हैं। उन पर अन्तरिक्ष से आने वाली किरणें, सौर मण्डल की ऊर्जा, अंतर्ग्रही शक्तियों आदि का ही नहीं पृथ्वी के अन्तराल में चल रही सूक्ष्मतम हलचलों का भी प्रभाव पड़ता है। जो सूक्ष्म तरंगें पृथ्वी के अन्दर निरन्तर सक्रिय रहती हैं, वे सर्केडियन रिडम के रूप में मानव मन की हलचलों, प्राणियों के व्यवहार तथा मौसम के सन्तुलन पर गहरा प्रभाव डालती हैं। इन सब वैज्ञानिक निष्कर्ष से यही तथ्य सत्यापित होता है कि मानव की विचार तरंगें, अन्तरिक्ष जगत के कम्पन एवं पृथ्वी सहित अन्य ग्रहों के भी सूक्ष्मतम परमाणु एक ही इकाई से विनिर्मित हैं।

वैज्ञानिक अनुसंधानों से इस बात का पता चला है कि जब तूफान आने को होते हैं, मानवी स्वभाव में आकस्मिक ऐसे परिवर्तन होते हैं कि वह चिड़चिड़ा हो जाता है। स्वभाव में चंचलता आ जाती है। यदि रात हो तो भयावह सपने भी दिखाई देते हैं। हिस्टीरिया और मिरगी के रोगियों को इन दिनों रोगों के दौरे बढ़ने की सम्भावना अधिक हो जाती है। आत्महत्या की मनोवृत्ति वाले रोगी एवं निराश मन स्थिति के व्यक्ति ऐसे समय अनायास ही अपनी इच्छा पूरी करने में प्रवृत्त होते देखे गए हैं। अमेरिका के सैन फ्रांसिस्को नगर में एक पर्यवेक्षण के अनुसार गहरे कुहासे के छाने पर आत्महत्या करने वालों की संख्या उन दिनों एकाएक दस गुना बढ़ जाती है। मानवी स्वभाव में निरंकुशता का प्रादुर्भाव होने लगता है। बलात्कार और अपराधों की संख्या में वृद्धि हो जाती है। जब बैरोमीटर का पारा निम्नतम बिन्दु पर होता है तब तूफान आने की संभावना बढ़ने लगती है एवं चोरी डकैती की घटनाओं में वृद्धि का क्रम आरंभ हो जाता है।

मानव मस्तिष्क ही नहीं, प्राणी भी इन मौसम सम्बन्धी परिस्थितियों से प्रभावित होते हैं। चिड़ियाएं अपने घोंसलों को छोड़कर आकाश में मंडराने लगती हैं। मछलियाँ अपने आप मछुआरों के जाल में फंस जाती हैं। गायें अपने बन्धन तोड़कर भागने लगती हैं। प्रकृति की व्यवस्था में होने वाले इन असन्तुलनों का प्रभाव समान रूप से सभी पर पड़ता है। भले ही प्रभावित होने वाले जीवधारी इस अव्यवस्था के लिये सीधे उत्तरदायी न हों।

वस्तुतः मानव इस पृथ्वी पर एकाकी नहीं है। अपने हर प्रयास के लिए वह परावलम्बी है। जड़ चेतन जगत में अन्तराल में असंख्य ऐसी शक्तियाँ कार्य कर रही हैं, जिनमें से कुछ की ही जानकारी मनुष्य को है। जीवधारियों के हर क्रिया-कलाप का प्रभाव अन्य प्राणियों पर, वातावरण पर, मौसम पर तथा इस सृष्टि के सन्तुलन पर पड़ता है। इन सब परिवर्तनों का प्रभाव जब उलट कर हमले करता है तब प्रकृति की दण्ड-व्यवस्था अथवा अधिक जागरूकता, सहनशीलता एवं आत्मरक्षा की प्रबल पुरुषार्थ परायणता के रूप में सभी को इसे शिरोधार्य करना पड़ता है।

प्रकृतिगत असन्तुलनों की चर्चा करते हुए डाक्टर पीटरसन लिखते हैं कि पुरातन युग के चिकित्सक रोग निदान और उपचार प्रक्रिया में मौसम के परिवर्तनों का पहले से ही अनुमान कर- तदनुरूप व्यवस्था बनाते थे। उन्हें मौसम के कारण स्वास्थ्य और शरीर पर पड़ने वाले प्रभावों की किसी न किसी रूप में जानकारी थी। उनके अनुसार “भारत में अन्तरिक्ष विज्ञान तथा मौसम विज्ञान के संदर्भ में मनुष्य के शारीरिक विकास एवं मानसिक सक्रियता को जिस प्रकार महत्ता दी जाती है, वह अकारण नहीं है। इसे अन्धश्रद्धा नहीं, वरन् विशुद्ध वैज्ञानिक तथ्य माना जाना चाहिए।” स्वयं डा. पीटरसन इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि रोगियों पर मौसम परिवर्तन की सुनिश्चित प्रतिक्रिया होती है।

यूगोस्लाविया के भू भौतिक विशेषज्ञों का मौसम में होने वाले असामान्य परिवर्तन के संदर्भ में कहना है कि जब सौर मण्डल और पृथ्वी के झुकाव में थोड़ा भी परिवर्तन होता है तो मौसम में भी भारी उथल-पुथल होती है। ससेक्स विश्वविद्यालय के डा. जॉन ग्रिविन का कथन है कि सौर धब्बों की स्थिति में बदलाव होने से वायुमण्डल में कई अप्रत्याशित परिवर्तन होते हैं। इस प्रकार की हलचलें सौर-जगत में इन दिनों स्पष्टतया दिखाई दे रही हैं।

ब्रिटेन के मौसम विशेषज्ञ आर्थर मेन्किन्स परमाणु परीक्षणों को वातावरण के समस्त असन्तुलनों का कारण मानते हैं। अतिवृष्टि, सूखा, भूस्खलन, एवं भूकंप की बढ़ती घटनाओं के पीछे उनने रेडियो विकिरण को प्रमुख कारण बताया है। इन दिनों होने वाले मौसम परिवर्तन अप्रत्याशित से लगेंगे, पर जब परोक्ष पर दृष्टि डाली जाती है तो उनकी पृष्ठभूमि भी स्पष्ट समझ में आने लगती है।

पिछले वर्ष अमेरिका के कई नगरों में वायु मण्डल का तापमान हिमबिन्दु से भी 20 डिग्री सेण्टीग्रेड नीचे चला गया। मास्को में इतनी बर्फ पड़ी है कि विगत सौ वर्षों का रिकार्ड टूट गया। इस स्थिति को देखते हुए अमेरिका के प्रसिद्ध विज्ञानी डा. राबर्ट जैस्ट्रा का कथन है कि द्वितीय बर्फ युग के शीघ्र आने की सम्भावना है। प्राप्त इतिहास के अनुसार एक हजार वर्ष पूर्व अमेरिका को हिमयुग के मध्य होकर गुजरना पड़ा था। जहाँ इतनी अधिक ठण्ड इन देशों में पड़ी, वहीं पश्चिमी आस्ट्रेलिया में तापक्रम एक सौ पच्चीस डिग्री सेंटीग्रेड तक रिकार्ड किया गया।

ये सारे वैज्ञानिक तथ्य चेतावनी देते हैं कि मनुष्य को यथाशीघ्र वस्तुस्थिति से अवगत हो जाना चाहिए। मौसम के बदलते परिवर्तन एवं उनकी प्रतिक्रिया स्वरूप शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य की विकृतियां व्यक्ति को वैभव प्राप्ति हेतु किये जाने वाले पुरुषार्थ के लिए नया चिन्तन करने पर विवश करती हैं। उचित यही है कि अपने ऊपर आने वाले संकटों से बेखबर न रहा जाय। संभावित प्रतिकूलताओं को पहले से ही सोच कर यह निर्धारित किया जाय कि इनसे बचाव के लिए क्या किया जा सकता है। व्यक्ति को अच्छे से अच्छे की आशा करनी चाहिए पर बुरे से बुरे के प्रति असावधान नहीं रहना चाहिए। विज्ञान के क्षेत्र में प्रगति करके आधुनिक मानव सफलताओं के प्रति आशान्वित तो रहता है, पर यह प्रयास एकांगी है, यदि वह अध्यात्म का दूसरा पक्ष अपनाने के लिए तैयार न हो।

मनुष्य की उत्कृष्टता, योग्यता बढ़ाने के लिए प्रयत्नशील रहे। पराक्रम में कमी न आने दे। साथ ही यह भी ध्यान रखें कि सामाजिक परिस्थितियों तथा अदृश्य की गतिविधियां भी उसे प्रभावित करती हैं। सच तो यह है कि अदृश्य की हलचलें, कर्म विपाक की तरह ही पृथ्वी के वातावरण तथा प्राणियों की स्थिति पर छाई रहती हैं।

अदृश्य के सम्बन्ध में कुछ करने में आमतौर से मनुष्य को असहाय पाते हैं, पर बात ऐसी है नहीं, अध्यात्म के प्रयोग विश्व चेतना के साथ मिलकर ऐसे परिवर्तन कर सकते हैं जिससे प्रकृति की हलचलों की प्रतिकूलता से मोड़कर अनुकूलता में परिवर्तित किया जा सके।


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