गायत्री महाशक्ति की एक धारा कुण्डलिनी

September 1981

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शक्ति उपासना का तत्वज्ञान भारतीय अध्यात्म शक्ति का अविच्छिन्न अंग है। गायत्री को आद्य शंकित कहा जाता है। उसकी शाखाएं प्रशाखाएं अन्य देवी देवताओं में प्रकट होती चली गई हैं। ब्राह्मी, वैष्णवी, शाँभवी के त्रिवर्ग में विभाजित होने के उपरान्त गायत्री अनेक नामों से जानी जाने वाली देवियों के रूप में विस्तृत होती चली गई है। अन्याय देवशक्तियाँ की उपासना की प्रकारान्तर से आदि शक्ति गायत्री की प्रवाह धारा में ही सम्मिलित होती जाती है।

स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों में संव्याप्त महाशक्ति को गायत्री कहते है। ब्रह्मांड के भी तीन शरीर है भूः’ भुवः स्वः उन तीनों में ही त्रिपदा ही संव्याप्त है। इस प्रकार जो कुछ भीतर और बाहर है वह सब कुछ गायत्रीमय कहा जा सकता है। आद्य शक्ति का सुविस्तृत परिचय शास्त्रकारों ने इसी रूप में दिया है।

इड़ा च पिंगला चैव सुषुम्णा च तृतीयका। गान्धारी हस्ति जिह्वा च पूषापूषा तथैव च॥ अलम्बुषा कुहूश्चैव शंखिनी प्राण वाहिनी। नाड़ी च त्वं शरीरस्था गीयसे प्राक्तनैर्बुधैः॥ हृत्पद्मस्था प्राण शक्ति कण्ठस्था स्वप्न नायिका। तालुस्था त्वं सदाधारा बिन्दुस्था बिन्दुमालिनी॥ मूले तु कुण्डली शक्तिर्व्यापिनी केश मूलगा। शिखा मध्यासना त्वं हि शिखाग्रैतु मनोन्मनी॥ किमन्यद् बहुनोक्तेन यक्तिंचिज्जगतीत्रये। तत्सव त्वं महादेवि श्रिये संध्ये नामेऽस्तुते॥ -देवी भागवत 12।5।19-24

अर्थ- इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना, गान्धारी, हस्तिजिह्वा, पूषा, अपूषा, अलम्बुषा, कुट्टू और शंखिनी आदि नामों से विख्यात प्राण वहन करने वाली नाड़ियों के रूप में तुम सबके शरीर में निवास करती हो- ऐसा प्राचीन बुधजन कहते हैं। तुम प्राण शक्ति से हृदय कमल पर विराजमान रहती हो। कण्ठ में रहकर स्वप्न का सृजन करना तुम्हारा सहज गुण है। तुम सर्वाधार स्वरूपिणी हो। तालुओं में तुम्हारा निवास है। भौंहों के मध्य में बिन्दु रूप में विराजती हो। तुम्हें बिन्दुमालिनी कहते हैं। मूलाधार में कुण्डलिनी नाड़ी तुम्हारी ही आकृति है। व्यापक रूप से तुम सबसे रोमकूप में विराजती हो। तुम्हारी शिखा के मध्य में परमात्मा तथा शिखा के अग्रभाग में मनोमनी शक्ति विराजमान रहती है। महादेव! अधिक कहने से क्या- त्रिलोकी में जो कुछ है वह सब तुम्हीं हो। संधये! मैं मोक्ष लक्ष्मी की प्राप्ति के लिए तुम्हें नमस्कार करता हूँ।

आद्य शक्ति गायत्री साधना के दो मार्ग हैं एक दक्षिण दूसरा वाम। दक्षिण मार्ग में पंचकोशों का अनावरण करना होता है और वाम मार्ग में षट्चक्रों का जागरण। षट्चक्र वेधन में प्रयुक्त होने वाली प्राण प्रक्रिया को कुण्डलिनी जागरण कहते हैं। इस शक्ति उन्नयन सरल भी है और कठिन भी। सरल उनके लिए जो उस मार्ग पर चलने का साहस जुटाते हैं। कठिन उनके लिए जो कौतूहल भर से रस लेते हैं। साधना की कठिन प्रक्रिया अपनाने का सुदृढ़ निश्चय और अविचल संकल्प नहीं करते।

दोनों ही मार्ग अपने-अपने स्थान पर महत्वपूर्ण हैं। इनमें न कोई छोटा है न बड़ा। प्रत्यक्ष जीवन में कुण्डलिनी और परोक्ष जगत में समाधि प्रक्रिया को आधार बनाना पड़ता है। दोनों की समन्वित प्रतिफल ही समग्र विकास की आवश्यकता पूर्ण करता है।

कुण्डलिनी की ताँत्रिक और समाधि योग की वैदिक प्रक्रिया का समन्वय ही श्रेयस्कर है। दूरदर्शी ऋषि परम्परा में दोनों को साथ लेकर चलने का परामर्श दिया गया है। ब्रह्मवर्चस् इसी समन्वय का परिणाम है।


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