युग परिवर्तन का यही उपयुक्त समय

March 1980

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संसार के सभी विद्वान, ज्यौतिर्विद और अतीन्द्रिय दृष्टा इस सम्बन्ध में एकमत हैं कि युग परिवर्तन का समय आ पहुँचा। उनके अनुसार यह समय युग संधि की बेला है और इन दिनों संसार में अधर्म, अशान्ति, अन्याय, अनीति तथा अराजकता का जो व्यापक बोल बाला दिखाई दे रहा है, उसके अनुसार परिस्थितियों की विषमता अपनी चरम सीमा पर पहुँच गई है। ऐसे ही समय में धर्म की रक्षा और अधर्म का विध्वंस करने के लिए भगवान का अवतार लेने की शास्त्रीय मान्यता है। ‘यदा यदा हि धर्मस्य की प्रतिज्ञा के अनुसार ईश्वरीय सत्ता इस असंतुलन को संतुलन में बदलने के लिए कटिबद्ध है और संतुलन साधने के लिए सूक्ष्म जगत में उसी की प्रेरणा से परिवर्तन कारी हलचलें चल रही हैं।

युग परिवर्तन के समय ईश्वरीय शक्ति के प्राकट्य और अवतरण की प्रक्रिया सृष्टिक्रम में सम्म्लित है। असंतुलन को संतुलन में बदलने के लिए, अपनी प्रेरणा पुरषार्थ प्रकट करने के लिए भगवान वचन वद्ध हैं। ऐसे ही अवसरों पर गीता में दिया गया उनका ‘तदा त्मान सृजाम्यहं का आश्वासन ऐसे ही अवसरों पर प्रत्यक्ष होता रहा है। आज की स्थितियाँ भी ऐसी हैं कि उनमें ईश्वरीय शक्ति के प्राकट्य की भगवान के अवतार की प्रतीक्षा की जा रही है और सूक्ष्मदर्शी ईश्वरीय सत्ता की अवतरण प्रक्रिया को सम्पन्न होते देख रहे हैं।

ज्योतिष शास्त्र के अनुसार यह समय कलियुग के अंत तथा सतयुग के आरम्भ का है, इसलिए भी इस समय को युगसंधि की बेला कहा जा रहा है। यद्यपि कुछ रुढ़िवादी पंडितों का कथन है कि युग 4लाख 32हजार वर्ष का होता है। उनके अनुसार अभी एक चरण अर्थात् एक लाख आठ हजार वर्ष ही हुये हैं। इस हिसाब से तो अभी नया युग आने में 3लाख 24 हजार वर्ष की देरी है। वस्तुतः यह प्रतिपादन भ्रामक है। शास्कों में कहीं भी ऐसा उल्लेख नहीं मिलता हक 4 लाख 32 हजार वर्ष का एक युग होता है। सैकड़ों वर्षों तक धर्म-शास्त्रों पर पंड़ितों और धर्म जीवियों का ही एकाधिकार रहने लम्बे समय तक की युग गणना के कारण उसने न केवल मनो वैज्ञानिक दृष्टि से पतन की निराशा भरी प्रेरणा दी वरन् श्रद्धालु भारतीय जनता को अच्छा हो या बुरा, भाग्यवाद से बँधे रहने के लिए विश्व किया इस मान्यता के कारण ही पुरुषार्थ और पराक्रम पर विश्वास करने वाली भारतीयों को अफीम की घूँट के समान इन अति रंजित कल्पनाओं का भय दिखा कर अब तक बौद्धिक पराधीनता में जकड़े रखा गया।

इस सम्बन्ध में ज्ञातव्य है कि जिन शास्त्रीय सन्दर्भों से युग गणना का यह अति रंजित प्रतिपादन किया है, वहाँ अर्थ को उलट पुलट कर तोड़ा मरोड़ा ही गया है। जिन सन्दर्भों को इस प्रतिपादन की पुष्टि के लिए प्रस्तुत किया गया है, वे वास्तव में ज्योतिष के ग्रन्थ हैं। वह प्रतिपादन गलत नहीं है, प्रस्तुतीकरण ही गलत किया गया है अन्यथा मूल शास्त्रीय वचन अपना विशिष्ट अर्थ रखते हैं। उनमें ग्रह नक्षरों की भिन्न-भिन्न परिभ्रमण गति तथा ज्योतिष शास्त्र के अध्ययन में सुविधा की दृष्टि से ही यह युग गणना है।

जितने समय में सूर्य अपने ब्रह्माण्ड की एक परिक्रमा पूरी कर लेता है उसी अवधि के चार बड़े भागों में बाँट कर चार देव युगों की मान्यता बनाई गई और 4 लाख 32 हजार वर्ष का एक देख युग माना गया। प्रचलित युग गणना के साथ ताल मेल बिठाने के लिए छोटे युगों को अतर्दशा को संज्ञा दे दी गई और उसी कारण वह भ्रम उत्पन्न हुआ। अन्यथा मनुस्मृति लिंग पुराण और भागवत आदि ग्रन्थों में जो युग गणना प्रस्तुत की गई है वह सर्वथ भिन्न ही है। मनुस्मृति में कहा गया हैं-

ब्राह्मस्यतु क्षपाहस्य यत्प्रामणं समारुतः। एकैकशो युगानान्तु क्रमशस्त्रात्रर्बाधत॥

चत्वार्याहु सहस्राणि वर्षाणाँतु कृतं युग। तस्यतावत् शती संध्या संध्याशश्च तथाविधः॥

इतेयेरेषु सु संध्याशेषु च त्रिपु। एकोयायेन वर्तन्ते सहस्राणि शतानि च॥

अर्थात्-ब्रह्माजी के अहोरात्र में सृष्टि के पैदा होने और नाश होने में जो युग माने गए हैं वे इस प्रकार हैं-चार हजार वर्ष और उतने ही शत अर्थात् चार सौ वर्ष की पूर्व संध्या और चार सौ वर्ष की उत्तर संध्या इस प्रकार कुल 4800 वर्ष का सतयुग इसी प्रकार तीन हजार छह सौ वर्ष का त्रेता, दो हजार चार सौ वर्ष का द्वापर और बारह सौ वर्ष का कलियुग।

हरिवंश पुराण के भविष्य पर्व में भी युगों का हिसाब इसी प्रकार बताया गया है यथा-

अहोरात्रं विभज्यनो मानव लौकिकं परं। सामुपादाय गणानाँ शाणु संख्य, मन्दिरमृ॥

चत्वार्यैव सहस्राणि वर्षाणानुकृत युगं। तावच्छसी भवेत्संध्या संध्याशश्च तथानृप॥

त्रीणि वर्ष सहस्रणि त्रेतास्या स्परिमाणतः। तस्याश्च त्रिशती संध्याशश्च तथाविधः॥

तथा वर्ष सहस्रे द्वै द्वापरं परिकीर्तित। तस्यापि द्विशती संध्या संध्याँशश्चैवतद्वियः॥

कलिवर्ष सहस्रं व संख्यातोऽत्र मनिषिभिः। तस्यापि शतिक संध्या संध्याँशश्य तथा विध॥

अर्थात्-हे अरिदंम! मनुष्य लोक के दिन रात का जो विभाग बतलाया गया है उसके अनेसार यूगों की गणना सुनिए, चार हजार वर्षों का एक कृतयुग होता है और उसकी संध्या चार सौ वर्ष की तथा उतना ही संध्याँश होता है। त्रेता का परिमाण तीन हजार वर्ष का है और उसकी संध्या तथा संध्याँश भी तीन-तीन सौ वर्ष का होता है। द्वापर को दो हजार वर्ष कहा गया है। उसकी संध्या तथा संध्याँश दो-दो सौ वर्ष के होते हैं। कलियुग को विद्वानों ने एक हजार वर्ष का बतलाया है और उसकी संध्या तथा संध्याँश भी सौ वर्ष के होते हैं।

लिंग पुराण तथा श्रीमद् भागवत में भी इसी प्रकार की युग गणना मिलती है। भागवत के तृतीय स्कन्ध में कहा गया है-

चत्वारि त्रीणि द्वै चैके कृतादिषु यथाक्रमम्। संख्यातानि सहस्रणि द्वि गुणानि शातानि च॥

अर्थात्-चार, तीन, दो और एक ऐसे कृतादि युगों में यथा क्रम द्विगुण सैकडत्रों की संख्या बढ़ती है। आशय यही है कि कृतयुग को चार हजार वर्ष में आठ सौ वर्ष और जोड़कर 4800 वर्ष माने गए। इसी प्रकार शेष तीनों युगों की कालावधि समझी जाए। कुछ स्थानों पर मनुष्यों के व्यवहार के लिए बारह वर्ष का एक युग भी माना गया है। जिसको एक हजार से गुणा कर देने पर देवयुग होता है, इस बारह वर्ष के देवयुग को फिर एक हजार से गुणा करने पर 1 करोड़ 20 लाख वर्ष का ब्रह्मा का एक दिन हो जाता है जिसमें सृष्टि की उत्पत्ति और लय हो जाता है। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में इसी युग की बात कही है-

सहस्र युगपर्यन्त मर्ध्यद् ब्रह्मणो विदुः। रात्रि युग सहस्रान्ताँ तेऽहोरात्र विदोजना॥

अहोरात्र को तत्वतः जानने वाले पुरुष समझते हैं कि हजार महायुगों का समय ब्रह्मदेव का एक दिन होता है और ऐसे ही एक युगों की उसकी रात्रि होती है। लोकमान्य तिलक ने इसका अर्थ स्पष्ट करते हुए लिखा है कि महाभारत, मनुस्मृति और यास्कनिरुक्त में इस युग गणना का स्पष्ट विवेचन आता है। लोकमान्य तिलक के अनुसार “हमारा उत्तरायण देवताओं का दिन है और हमारा दक्षिणायन उनकी रात है। क्योंकि स्मृति ग्रन्थों और ज्योतिष शास्त्र की संहिताओं में भी उल्लेख मिलता है कि देवता मेरु पर्तत पर अर्थात् उत्तर ध्रुव में रहते हैं। अर्थात् दो अयनों छः-छः मास का हमारा एक वर्ष देवताओं के एक दिन-रात के बराबर और हमारे 360 वर्ष देवताओं के 360 दिन रात अथवा एक वर्ष के बराबर होते हैं। कृत, त्रेता, द्वापर और कलि ये चार युग माने गये हैं। युगों की काल गणना इस प्रकार है कि कृत युग में चार हजार वर्ष, त्रेत युग में तीन हजार, द्वापर में दो हजार और कलि में एक हजार वर्ष। परन्तु एक युग समाप्त होते ही दूसरा युग एकदम आरम्भ नहीं हो जाता, बीच में दो युगों के संधि काल में कुछ वर्ष बीत जाते हैं। इस प्रकार कृत युग के आदि और अन्त में प्रत्येक और चार सौ वर्ष का, त्रेता तथा कलियुग के पूर्व और अनन्तर प्रत्येक ओर सौ वर्ष का सन्धिकाल होता है, सब मिलाकर चारों युगों का आदि अन्त सहित सन्धि काल दो हजार वर्ष का होता है। ये दो हजार वर्ष और पहले बताये हुए साख्य मतानुसार चारों युगों के दस हजार वर्ष मिलाकर कुल बारह हजार वर्ष होते हैं। (गीता रहस्य भूमिका, पृष्ठ 193)

इन गणनाओं के अनुसार हिसाब फैलाने से पता चलता है कि वर्तमान समय संक्रमण काल है। प्राचीन ग्रन्थों में हमारे इतिहास को पाँच कल्पों में बाँटा गया है। (1) महत् कल्प 1 लाख 9 हजार 8सौ वर्ष विक्रमीय पूर्व से आरम्भ होकर 85800 वर्ष पूर्व तक (2) हिरण्य गर्भ 85800 विक्रमीय पूर्व से 61800 वर्ष पूर्व तक (3) ब्राह्म कल्प 60800 विक्रमीय पूर्व से 37800 वर्ष पूर्व तक (4) पाद्म कल्प 37800 वर्ष तक और (5) वाराह कल्प 13800 विक्रम पूर्व से आरम्भ होकर अब तक चल रहा है।

कलियुग संवत् की शोध के लिए राजा पुलकेश्नि ने विद्वान ज्योतिषियों से गणना कराई थी। दक्षिण भारत के ‘इहोल’ नामक स्थान पर प्राप्त हुए एक शिलालेख में इसका उल्लेख मिलता है, जिससे यही सिद्ध होता है कि कल्कि का प्राक्टय इन्हीं दिनों होना चाहिए। ‘पुरातन इतिहास शोध संस्थान’ मथुरा के शोधकर्त्ताओं ने भी इसी तथ्य की पुष्टि की है और ज्योतिष के आधार पर यह सिद्ध किया है कि ‘इस समय ब्रह्मरात्र का तमोमय सन्धिकाल है।

इसी सन्धिकाल में असन्तुलन उत्पन्न होता है। दैवी शक्तियों पर आसुरी प्रवृत्तियों का संघात होता है तथा अनीति मूलक अवाँछनीयताएँ उत्पन्न होती हैं। नव निर्माण की सृजन शक्तियाँ ऐसे ही सवसरों पर जन्म लिया करती हैं, क्योंकि तपसाधन होने के कारण ऐसे समय विभिन्न अनयकारी परिस्थितियाँ उत्पन्न होती हैं। मनुष्य कृत संकटों और प्राकृतिक आपदाओं की वृद्धि जब चरम सीमा पर पहुँचने लगती है तो उसी समय निर्माणकारी सत्ता अपने सहयोगियों के साथ अवतरित होती है और जहाँ एक ओर अधर्म, अन्याय, अनाचार बढ़ता है वहाँ ये शक्तियाँ धर्म, संसकृति, सदाचार, सद्गुण तथा सद्भावों को बढ़ाकर संसार में सुख-शान्ति की स्थापना के लिए यत्नशील होती हैं।

संक्रमण बेला में किस प्रकार की परिस्थितियाँ बनती और कैसे घटनाक्रम घटित होते हैं इसका उल्लेख महाभारत के वनपर्व में इस प्रकार आता हैं-

ततस्तु मुले संघाते वर्तमाने युगे क्षये। यदा चन्द्रस्य सूर्यस्य तथा तिष्य बृहस्पति॥

एक राशौ समेष्यन्ति प्रयत्स्यति तदा कृतम्। काल वर्षी च पर्जन्यो नक्षत्राणि शुभानि च॥ क्षेमं सुभिक्षमारोग्यं भविष्यति निरामयम्॥

अर्थात्- जब एक युग समाप्त होकर दूसरे युग का प्रारम्भ होने को होता है; तब संसार में संघर्ष और तीव्र हलचल उत्पन्न हो जाती हैं। जब चन्द्र, सूर्य, बृहसपति तथा पुष्य नक्षत्र एक राशि पर आयेंगे तब सतयुग का शुभारम्भ होगा। इसके बाद शुभ नक्षत्रों की कृपा वर्षा होती है। पदार्थों की वृद्धि से सुख-समृद्धि बढ़ती हैं।

इस प्रकार का ग्रह योग अभी कुछ समय पहले ही आ चुका है। अन्यान्य गणनाओं के आधार पर भी यही सिद्ध होता है कि युग परिवर्तन का ठीक यही समय है। ठीक इन्हीं दिनों युग बदलना चाहिए। अनय को निरस्त करने और सृजन को समुत्रता बनाने वाली दिव्य शक्तियों का प्रबल पुरुषार्थ इस युग सन्धि में प्रकट होगा जो सन् 1980 से 2000 तक बीस वर्षों का है।


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