मूर्धन्य विश्व विचारकों का अभिमत

March 1980

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विश्व के मूर्धन्य विचारकों ने अपनी सहज प्रज्ञा के आधार पर प्रस्तुत परिस्थितियों की सूक्ष्म विवेचना करते हुए यह अभिमत व्यक्त किया है कि युग परिवर्तन का समय सन्निकट है। वे इस प्रयोजन में ध्वंस और सृजन की दुहरी प्रक्रिया को पूण्र प्रखरता के साथ अपना-अपना रौल पूरा करने की सम्भावना व्यक्त करते हैं। साथ ही यह भी कहते हैं कि अन्ततः जीतेगा सृजन ही। इतने पर भी यह सब सरल नहीं है। उज्जवल भविष्य का समय आने से पूर्व मानवी दुष्कृतों और प्रकृति प्रकोपों की काली घटाएँ बरसेंगी और उनसे उड़ने के लिए स्वभावतः मानवी पुरुषार्थ प्रबल और प्रचण्ड बनेगा।

सन् 1963 में अमेरिका की प्रसिद्ध जीवशास्त्री महिला प्रो. राशेल, क्रार्सन ने अपनी पुस्तक’ साइलेंट स्प्रिंग’ में लिखा है कि पद्रह बीस वर्ष बाद दुनिया के अधिकाँश महानगरों की स्थिति ऐसी हो जायगी कि वहाँ के सभी निवासियों पर अकाल मृत्यु की सम्भावना हर घड़ी छाई रहेगी। न केवल नगर निवासी वरन् उस क्षेत्र में रहने वाले प्राणियों को भी कभी मरना पड़ सकता है। इस पुस्तक में उन्होंने इस तरह की सामूहिक मौतों का कल्पना के आधार पर चित्रण भी किया है। उस समय तो लोगों ने इन प्रतिपादनों का मखौल उड़ाया पर अभी कुछ वर्षों पहले अमेरिका के डेट्रायट शहर में इटली के जोर्निया तथा जापान के मिनिमाता कस्वे में ‘साइलेंट’ स्टिंग’ पुस्तक में दी गई स्थिति हूबहू देखने में आई।

डेटा्रयट की हवा में कारखानों की चिमनियों से निकले धुँए के कारण इतनी सल्फरडाइ आक्साइड जमा हो गई कि वह बादलों के साथ मिलकर दहकते तेजाव के रुप में बरस पड़ी। इटली के जोर्निया शहर में एक कारखाने से इतनी अधिक कार्बन डाइ आक्साइड छोड़ी गई कि मुर्गियाँ मरने लगीं। पेड़ सूखने लगे और बूढ़े खाँसते-खाँसते परेशान हो गये। जापान के मिनिमाता कस्बे में भी यही स्थिति उत्पन्न हो गई थीं।

इस तरह की घटनाओं को देख जान कर अब काफी लोग यह मानने लगे हैं कि हर व्यक्ति और हर प्राणी के सिर पर मौत नाच रही है। वह कभी भी सैकड़ों क्या हजारों लोगों को अपने पंजे में जकड़ सकती है।

सन् 1975 में अमेरिका में सम्पन्न हुए खगोल शास्त्रियों के सम्मेलन में प्रो. कार्ल सायमन ने बताया कि कुछ वर्षों बाद पृथ्वी का वातावरण अचानक शुक्रग्रह के समान गरम हो जायगा। उल्लेखनीय है कि सूर्य को छोड़ कर शुक्र अपने सौर परिवार का सबसे गर्म वातावरण वाला सदस्य है। वहाँ प्रायः 380 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान रहता है, जबकि हमारी पृथ्वी का औसत तापक्रम 47 से 52 डिग्री सेंन्टीग्रेड के बीच है। इसका कारण बताते हुए प्रो. कार्ल सायमन ने कहा कि शुक्र पृथ्वी और बुध के बीच में सूर्य के सबसे समीप पड़ने वाला ग्रह है। वहाँ सूर्य की अधिक रोशनी पहुँचती है। और सूर्य की गर्मी के कारण पानी की भाप तथा कार्बनडाइ आक्साइड का एक घना आवरण बन गया है, जो गर्मी को बाहर नहीं जाने देता। इसी कारण शुक्र पर भयानक गर्मी पड़ती है।

इन दिनों पृथ्वी पर जिस तेजी से औद्योगीकरण बढ़ता जा रहा है और वायुमण्ल में कार्बन डाइ आक्साइड की जितनी मात्रा घुलती जा रही है उससे पृथ्वी के अयन मण्डल पर धीरे-धीरे एक आवरण बनता जा रहा है। धीरे-धीरे स्थिती यह बनती जा रही है कि उस घने आवरण में ही पृथ्वी द्वारा फेंकी जाने वाली अतिरिक्त गर्मी कैद होती जा रही है। कोई आर्श्चय नहीं कि कुछ वर्षों बाद ही पृथ्वी पर असह्य गर्मी पड़ने लगे और अनेक स्तर के संकट खड़े करे।

सुप्रसिद्ध पश्चिमी दार्शनिक ओस्वाल्ट स्पेंगुलर ने अपनी पुस्तक “दि डिक्लाइन आफ द वेस्ट” में लिखा है कि “वर्तमान सभ्यता अब बुढ़ापे के दौर से गुजर रही है। उसने संसार में क्टनीति और युद्ध का जो रंग मंच तैयार कर दिया है वह वास्तव में विनाश नदी की एक ऐसी कागार है जो अब, और एक भी बाढ़ बर्दाश्त नहीं कर जायेगी तृतीय विश्तयुद्ध अवश्य होगा और उसके बाद वर्तमान भौतिकतावादी सभ्यता का सदा के लिए अन्त हो जायगा।”

स्पेगुलर ने जो तर्क प्रस्तुत किये हैं वे जीवाश्यों की विस्तृत गवेषणा पर आधारित हैं और ये तर्क तथा तथ्यों पर इतने आधारित हैं कि प्रत्येक विचारक उन्हें मानने के लिए अपने को लगभग बाध्य-सा अनुभव करता है।

प्रसिद्ध विचारक और दिव्यदर्शी रोम्याँ रोला ने लिखा है “मुझे विश्वास है कि श्वेत सभ्यता का एक बड़ा भाग अपने गुणों अवगुणों सहित नष्ट हो जायगा फिर एक नई सभ्यता का उदय होगा।” रोम्या रोला ने उस नई सभ्यता को भारतीय सभ्यता माना है और कहा है कि आगे भारतीय संस्कृति और दर्शन ही विश्वधर्म विश्व संस्कृति के रुप में प्रतिष्ठित होगे तथा एक नये समाज की रचना होगी। मुझे जीवन का अन्त होने की चिन्ता नहीं, पश्चिम ही नहीं पश्चिमी देश आत्मा की अमरता पर विश्वास नहीं करते पर मैं करता हूँ। जो लोग इस समय पश्चिमी दुनिया में जन्म ले रहे हैं, पश्चिमी सभ्यता से प्रभावित हो रहे हैं, उन्हें भषण विपत्तियों का सामना करना पडेगा।”

स्पेन से प्रकाशित होने वालजी एक पत्रिका “साइन्स वेस्ट मिरर” में सन् 1926 के एक अंक में जी. वेजी लेटीन नामक भविष्य वक्ताका लेख छपा था जिसमें बतया गया था कि ‘56 वर्ष अर्थात् (1983 में) वायुमण्डल की जीवनदायी गैंसें विषाक्त हो जायेंगी तब प्रकृति का अग्रतम रुप देखने को मिलेगा। यह उग्रता सन् 1980 के बाद क्रमशः बढ़ती ही जायगी। प्रकृति का इतना भयंकर प्रकोप मनुष्य ने पहले कभी नहीं देखा होगा। इसमें अतिवृष्टि और अनावृष्टि से लेकर उलका पात ताि ज्वालामुखी के विस्फोट से लेकर चुम्बकीय तुफानों तक विनाश के अनेक कारण उत्पन्न होंगे। समुद्र में कई नये टापू निकलेंगे। मित्र जैसे लगने वाले अनेक देशों में परस्पर युद्ध होगा। उसके बाद एक नई सभ्यता और संस्कृति का उदय होगा जो पूर्व के देश (भारतवर्ष) की होगी। उससे ही वायुमण्डल शुद्ध होगा, बीमारियाँ दूर होंगी, आपसी कलह शान्त होंगे और संसार में फिर से अमन चैन कायम होगी। लोग भाई-भाई की तरह प्रेमपूर्वक रहने लगेंगे। देश जाति की सीमाएँ टूट कर भ्रात भावना का ही विस्तार होगा।

अन्य भविष्य वक्ताओं की तरह श्री.जी बेजीलेटीन ने भी यह स्वीकार किया है 1930 से सन् 2000 तक का समय ही विश्व के नये उद्धारक का कार्य काल होगा। उसकी विचार शक्ति इतनी तीक्ष्ण होगी कि दुनिया के तीन चौथाई नास्तिकों को तो वह अपने जीवनकाल में ही बदल देगा। उसके सहायक के रुप में न केवल उसके देशवासी अपितु सारे संसार के लोग शरीर, धन, परिवार सब का मोह त्याग कर कूछ पडेंगे। भीतर ही भीतर दीर्घकाल तक सुलगने वाली उसकी क्रान्ति के सम्मुख संसार के बुद्धिमान से बुद्धिमान व्यक्ति हतप्रभ हो जायेंगे।


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