युद्ध लिप्सा कितनी घातक हो सकती है!

March 1980

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इन दिनों विज्ञान ने जीवन के सभी क्षेत्रों में प्रगति की है। जो जानकारियाँ एवं सुविधाएँ पूर्वजों को उपलब्ध थीं, उनकी तुलना में अपनी उपलब्धियाँ कहीं अधिक बढ़ी-चढ़ी हैं। इन उपलब्धियों को ही प्रगति कहा जाय तो यह मानने में कोई हर्ज नहीं है कि मानवी सभ्यता ने प्रगति की है। लेकिन प्रगति को दिशा की कसौटी पर कसा जाय, यह प्रश्न किया जाय कि प्रगति किस दिशा में हुई? उत्थान की दिशा में अथ्वा पतन की दिशा में, तो स्थिति निस्सनदेह शोचनीय हो जाती है। क्योंकि प्रगति उत्थान की दिशा में भी हो सकती है और पतन की दिशा में भी। प्रगति का अर्थ बढ़ना है तो बढ़ना आगे भी हो सकता है और पीछे भी। मानव जाति आगे बढ़ी या पीछे बढ़ी, यह विश्लेषण किया जाय तो प्रतीत होगा कि इन दिनों सुवा साधनों के साथ-साथ विनाश, विग्रह और पतन के साधन भी उतनी ही तेजी से , कहा जाय कि उससे भी अधिक तीव्रता के साथ विकसित किये गए हैं तो कोई आर्श्चय नहीं होना चाहिए। वर्तमान प्रगति किस दिशा में हुई है, उससे मनुष्य ने क्या पाया है? शान्ति, सुरक्षा, सुव्यवस्था और प्रगति की दृष्टि से मनुष्य ने क्या अपलब्धियाँ अर्जित की हैं? यह विचार करने योग्य है। शान्ति, प्रगति ओर सुरक्षा की दृष्टि से विज्ञान ने मनुष्य को जितने सुविधा साधनों से लैस किया है, उससे भी अधिक मनुष्य के पास विनाशकरी और संहारक अस्त्र-शस्त्रों का भण्डार एकत्रित हो गया है। पिछले दिनों संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा प्रकाशित आँकड़ों के अनुसार इस समय विश्व के शक्तिशाली राष्ट्रों के पास इतनी अधिक मात्रा में गोला बारुद जमा है कि उससे पृथ्वी को एक बार नहीं सात-सात बार जलाकर राख किया जा सकता है।

प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध में जो विनाश और नरसंहार हुआ, वह सर्वविदित है। इसके बाद तीसरे विश्व युद्ध में होने वाले विनाश की सम्भावनाओं की कल्पना भी नहीं की जा सकती। प्रसिद्ध वैज्ञानिक आइस्टीन से किसी ने एक बार तीसरे विश्व युद्ध के सम्बन्ध में पूछा तो उन्होंने उत्तर दिया कि तीसरे विश्व युद्ध के बारे में तो कुछ नहीं कहा जा सकता, पर चौथे विश्व युद्ध के सम्बन्ध में जरुर कुछ-कुछ कल्पना की जा सकती है।

इसी कल्पना को स्पष्ट करते हुए आइस्टीन ने कहा था कि तीसरे विश्व युद्ध के बाद यदि कोई लड़ाई लड़ी गई, यदि इसके बाद थोड़े-बहुत मनुष्य बचे और उनमें कोई युद्ध हुआ तो वह युद्ध ईंट, पत्थरों से लड़ा जायगा। अर्थात् तीसरे विश्व युद्ध में इतना प्रलयंकार विनाश होगा कि मनुष्य जाति का अस्तित्व बचेगा, इसमें सन्देह है। यदि मनुष्य का अस्तित्व किसी प्रकार बचा रहा तो भी यह निश्चित है कि सभ्यता और संस्कृति का तो अन्त हो ही जायगा। यह सच है कि इन दिनों सुरक्षा और शान्ति के साधन बढ़ाने के नाम पर जो साधन सरंजाम जुटाये जा रहे हैं, उन साधनों के रुप में मृत्यु को अति सरल और अति निकट बना देने वाले साधनों का ही विकास तेजी से हो रहा है। लाठी, फरसेसे होने वाली मारकाट की तुलना में यह स्थिति निश्चय ही प्रगति कही जा सकती है, यदि व्यापक विनाया को सस्ता और सरल बना देना ही प्रगति कहा जाय तो कोई एक व्यक्ति, जो इस तरह के साधनों का संचालन, नियन्त्रण और प्रबन्ध का उत्तरदायित्व सम्हालता यदि थोड़ी देर के लिए बहक जाय तो इस सुन्दर संसार को भस्मीभूत करके रख सकता है।

आइये, थोड़ा इन विनाश साधनों का विवरण जानें। इन दिनों अमेरिका ने एक नये किस्म का प्रक्षेपक विमान बनाया है। इस विमान में अणुबमों से लैस मिसायलें फिट कर दी जाती हैं और उन्हें आकाश से ही चलाकर लक्ष्य पर छोड़ा जा सकता है। अब तब ऐसी मिसायलें केवल जमीन पर से ही छोड़ी जा सकती थीं। शत्रु पक्ष गुपतचरों द्वारा यह जानकारी रख सकता था कि प्रतिपक्ष के पास इस तरह के अणुबम प्रक्षेपण करने वाले अड्डे कहाँ-कहाँ हैं। इस जानकारी के आधार पर उन्हें नष्ट करने की व्यसस्था बनाई जा सकती थी। अणु अस्त्र फेंकने और शत्रु पक्ष की मार से बचने के लिए इसी आधार पर अब तक युद्ध नीति विर्धारित की जाती थी। किन्तु अब बी-बन नामक विमानों ने कई समस्याएँ पैदा कर दी हैं। मिसायलें उस पर लदी होंगी, उनमें अणुबम फिट किये हुए होंगे औ आकाश से ही निशाने पर बम दाग दिये जायेगे। ये बम वर्षक इतने ऊपर उड़ रहे होंगे कि वहाँ तक तोपों के गोले नहीं पहुँच सकेंगे। उन्हें राँकेटों से तोड़ने की बात सोची जाय तो वह भी कठिन होगा क्योंकि उस बम वर्षक यान के चालक उसे सीधी दिशा में एक गति से नहीं उड़ा रहे होंगे। आकाश में वे कभी दाएँ, कभी वाएँ, कभी आगे, कभी पीछे, कभी ऊपर, कभी नीचे इस तरह उलटी-पुलटी दिशाओं में ऊँचाई-नीचाई पर उड़ेंगे और उन्हें जमीन से राँकेट दाग कर नष्ट करना प्रायः असम्भ्व ही रहेगा। इस प्रकार ये बम वर्षक विमान बिना जोखिम उठाये अपना काम कर सकेंगे।

कैलिफोर्निया के रासवेल इन्टर नेशनल प्लाँट ने जब इसी बीवन बम वर्षक विमान को पहली बार उड़ाया तो उस समय जेट 2400 किलोमीटर प्रति घण्टे की चाल से उड़ रहा था। इसकी मार करीब दस हजार किलोमीटर पहुँचती थी। उसका भार 1लाख 15 हजार पौंड तथा मूल्य करीब 50 करोड़ डालर हे। लम्बाई 143 फीट, ऊँचाई 34 फीट और इसके पंख 137 फीट के हैं। इसमें अभी और विकास किया जाना है। आकाश से अणुबम दागने की तकनीक तक हीं बात सीमित होती तो भी गनीमत रहती लेकिन इन दिनों तो युद्ध में शत्रु पक्ष को मारने के लिए नए-नए तरीके विकसित किये जा रहे हैं।

स्मरणीय है युद्ध का उद्देश्य सदैव यही रहता है कि शत्रु राष्ट्र के जन-धन को अधिक से अधिक हानि पहुँचाई जाय। अभी तक की लड़ाइयों में यह स्पष्ट रहता था कि यु़द्ध किन देशों के बीच चल रहा है। किन्तु अब इस तरह के प्रयास चल रहे हैं जिससे कोई देश किसी के सामने न आए, यह स्पष्ट न हो कि लड़ाई किन देशों के बीच चल रही है और व्यापक स्तर पर प्रतिपक्षी को हानि पहुँचाई जा सके। इस सावधानी के लिए युद्ध के नये से नये तरीके खोजे जा रहे हैं। अब तक खोजे गये तरीकों में से नवीनतम दो तरीकों में जीवाणु युद्ध तथा भूगर्भीय युद्ध हैं।

जीवाणु युद्धों के सम्बन्ध में प्रायः चर्चाएँ होती रहती हैं और इनके कारण होने वाले भयंर विनाश के बारे में पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होता रहता है। प्रतिपक्षी देश को इस युद्ध के द्वारा हानि पहुँचाने की प्रक्रिया में न ऐसा लगता है कि कोई देश हमला कर रहा है और न ही ऐसा लगता है कि कहीं किन्हीं शास्त्रास्त्रों का उपयोग हो रहा है। युद्ध का उपक्रम चुपचाप बिना किसी हल्ले के चलता रहता है, ऊपर से देखने में बेहद शान्त स्थिति लगती है, पर विनाश अपना ताण्डव नृत्य नेपथ्य में रचता रहता है, पर विनाश अपना ताण्डव नृत्य नेपथ्य में रचता रहता है, जिसकी प्रतिक्रिया असाधारण रुप से देखने में आती है। इस प्रक्रिया में विषाक्त जीवाणुओं को चुपचाप दुसरे देश में पहुँचा दिया जाता है। यह विषाणु इतने सूक्ष्म होते हैं कि आमतौर पर शक्तिशाली माइक्रोस्कोप यन्त्रों के द्वारा भी नहीं देखे जा सकते। सुई की नोक के बराबर स्थान में ये जीवाणु लाखों की संख्या में बड़ी आसानी से आ जाते हैं औंर उन्हें किसी व्यक्ति के नाखून पर लगाकर भी दूसरे देशों में बड़ी सरलतापूर्वक पहुँचाया जा सकता है।

उन देशों में पहुँचने के बाद ये जीवाणु जब सक्रिय होते हैं ता असाध्य बीमारियाँ महामारी के रुप में फैलती हैं। उनका कोई कारण भी समझ में नहीं आता, लेकिन वे इतनी तेजी से फैलती हैं कि लाखों लोग अपनी जान गँवा बैठते हैं। अब तक के युद्धों में तो ऐसा होता है कि सेनाएँ एक दूसरे पर आक्रमण करती हैं, गोली, बारुद और अग्नियास्त्रों के प्रयोग द्वारा इस प्रकार के युद्धों के केवल सैनिक ही मारे जाते हैं, परन्तु अगले दिनों जो युद्ध लड़े जायेंगे उनमें निरीह लाखों लोगों की भी हत्या होगी।

जीवाणु युद्धों के अतिरिक्त दूसरे प्रकार के युद्धों में भू-भौतिकीय अथवा भूगर्भीय युद्ध भी कम विनाशकारी नहीं है। इन युद्धों में पृथ्वी की ऊर्जा का उपयोग करके भूकम्प लाने, जलवायु बदलने तथा पृथ्वी के वायु-मण्डल में परिवर्तन कर दूसरे देशों को हानि पहुँचाने का उपक्रम रचा जायगा। इस प्रकार के युद्धों में कुछ क्रियाओं का तत्काल असर पड़ेगा और कुछ धीरे-धीरे सामान्य जीवन को प्रभावित करेंगी। प्रभाव चाहे तत्काल हो या धीरे-धीरे वे होंगे अत्यन्त घातक ही।

इस प्रकार के युद्धों में सौर ऊर्जा के प्रयोग की भी सम्भावना है। स्मरणीय है सूर्य पृथ्वी पर सात लाख मैगावाट अणुबमों की शक्ति के बराबर ऊर्जा प्रतिदिन पृथ्वी पर फेंकता है। इस असाधारण ऊर्जा का एक बहुत बड़ा अंश प्रकृति पर विभिन्न रुपों में समा जाता है। समुद्र और वायु-मण्डल इस ऊर्जा का एक बहुत बड़ा भाग सोख लेते हैं और इस ऊर्जा से ही पृथ्वी पर मौसमों का चक्र बनत है। समुद्र और वायु-मण्डल इस ऊर्जा को एक समान नहीं सोंखते। कहीं-कहीं यह ऊर्जा बहुत अधिक मात्रा में केन्द्रित हो जाती है। इस केन्द्रित ऊर्जा के कारण समुद्र में तूफान के कारण जल प्रलय से ठीक वैसा ही विनाश उत्पन्न होता है, जितना होते हैं। इस तरह के तूफान प्रायः समुद्र में उड़ते रहते हैं। युद्ध विज्ञानी इस बात के लिए प्रयास कर रहे हैं कि इन तूफानों की दिशा व गति बदलकर मनचाही दिशा में मोड़ी व घटाई-बढ़ाई जा सके। इस तरह के कई प्रयोग सफल भी हुए है। अब अनुमान लगाया जा सकता है कि युद्ध के रुप में इस तकनीक का उपयोग किया गया तो इसके कितने घातक परिणाम हो सकते हैं।

आकाश में घूमती हुई अगणित उल्काएँ पृथ्वी के वायु-मण्डल में प्रवेश करती हैं। इनमें से अधिकाँश उल्काएँ तो वायु-मण्डल के ताप और घर्षण से ही जलकर नष्ट हो जाती हैं। किन्तु जो उल्काएँ पृथ्वी पर आ गिरती हैं उनका प्रभाव निश्चित होता है। इन उल्काओं का रास्ता बदलकर दूसरे क्षेत्रों में गिराने के वैज्ञानिक प्रयास भी चल रहे हैं और उनसे ठीक वैसा ही विनाश प्रस्तुत किया जा सकेगा जैसा कि बड़ी उल्काओं पृथ्वी पर गिरने से होता है। ये उल्काएँ तो कहीं भी जंगल में या आबादी में गिर सकती हैं और आमतौर पर जंगलों में ही गिरती हैं। किन्तु अणु शक्ति के सहारे इन उल्काओं का युद्ध के लिए प्रयोग किया जायगा तो निश्चित ही उन्हें आबादी वाले क्षेत्रों में गिराया जाएगा। बड़ी उल्काओं के गिरने से पृथ्वी के विभिन्न क्षेत्रों में अनेक स्थानों पर हुए विनाश के चिन्ह अभी भी मौजूद हैं। अफ्रीका में कुछ वर्षों पूर्व हुए एक उल्कापात के परिणाम स्वरुप’ऐरीजोना क्रेटर’ नाम का विशाल गड्ढा इ सर्न्दभ में उल्लेखनीय है। इसका व्यास एक धातु कण छितरे पाये गए हैं। यदि इस प्रकार उल्काओं की दिशा मोड़कर उन्हें आबादी वाले क्षेत्रों में गिराया गया तो कहा नहीं जा सकता कि कितना और कैसा विनाश ताण्डव खड़ा हो जायगा?

बर्फ को पिघलाकर भूभागों को जलमग्न कर देने, अतिवृष्टि, अनावृष्टि करने तथा भीषण गर्मी या भयंकर शीत का मौसम बदल देने जैसे प्राकृतिक परिवर्तन प्रस्तुत करने के अनेकों सफल प्रयोग किये जा रहे हैं। युद्ध की यह नई पद्धतियाँ पिछली सभी पद्धतियों की अपेक्षा विनाश की ओर, सामूहिक आत्मघात की ओर ही अधिक कदम उठाए हैं। ये तथ्य यह भी सिद्ध करते हैं कि बुद्धि और साधन क्षेत्र में मनुष्य कितना ही विकास क्यों न कर ले, चेतना और अन्तःस्थिति का परिष्कार किये बिना वह प्रगति अधूरी, एकाँगी और घातक ही है।

यह स्थिति मानवीय अस्तित्व की रक्षा के लिये अनिवार्य है। उथल-पुथल, उलट-फेर, भय और संकटों से तो नहीं बचा जा सकता, किन्तु प्रकृति उसके लिये सत्रद्ध और सचेष्ट दीखती है, सूक्ष्मदर्शी इस बात के लिये एक मत है कि अगले दिनों व्यापकक्रान्ति के मध्य नये युग का सूत्रपात सुनिश्चित है।


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