परिवर्तन में प्रगति और जीवन

March 1980

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स्थिरता जड़ता का चिन्ह है और परिवर्तन प्रगति का। स्थिरता में नीरसता है, निस्तब्धता और निष्क्रियता। किन्तु परिवर्तन नये चिन्तन, नये अनुभव और नये अनुभव का पथ प्रशस्त करता है। जीवन प्रगतिशील है, अस्तु उसमें परिवर्तन आवश्यक होता है और अनिवार्य भी।

प्रगतिशील परिवर्तन से डरते नहीं, उसका समर्थन करते हैं और स्वागत भी। आकाश में सभी ग्रह गोलक गतिशील हैं। इससे उनका चुम्बकत्व स्थिर रहता और उसके सहारे उनका मध्यवर्ती सहकार बना रहता है। यदि वे निष्क्रिय रहे होते तो अपनी ऊर्जा गँवा बैठते। जो आगे नहीं बढ़ता वह स्थिर भी नहीं रह सकता। स्थिरता पर संकट आते ही, विकल्प विनाश ही रह जाता है। अस्तु जीवन को गतिशील रहना पड़ता है। जो निर्जीव है वह भी गतिहीन नहीं है।

युग बदलते हैं परिवर्तन क्रम में आशा औ निराशा के अवसर आते और चले जाते हैं। रात्रि और दिन स्वप्न और जागृति, जीवन और मरण,शौत और ग्रीष्म, हानि और लाभ, संयोग और वियोग का अनुभव लगता तो परस्पर विरोधी है, पर अन्ततः वे एक-दूसरे के साथ गुँथे रहते हैं और दुहरे रसास्वादन का आनन्द देते हैं। ऋण और धन धाराओं का मिलन ही बिजली के सामर्थ्यवना् प्रवाह को जन्म देता है।

आपत्तियाँ मनुष्य को सशक्त और जागरुक साहसी बनाती हैं। असुविधाएँ उत्साह बढ़ाती और प्रगति के लिए सुविधाएँ प्रदान करती हैं। एकाकी रहने पर दोनों अपूर्ण हैं। पूर्णता के लिए ऐसा कुछ चाहिए जिसमें अग्रगमन का उत्साह और अवरोध से जूझने का पराक्रम प्रकट होता रहे।


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