मनुष्य जाति पर गहराते संकट के बादल

March 1980

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समाजशास्त्रियों और इतिहासकारों के अनुसार ईसा के समय विश्व की कुल जनसंख्या 30 करोड़ थी अब तो अकेले भारत की ही आबादी इतनी है कि यह ईसा के समय की आबादी से दुगनी हो जाती है, ईसा के 1750 वर्ष बाद जनसंख्या लगभग ढाई गुनी अर्थात् 75 करोड़ हुई। इसके बाद से अब तक चक्रवृद्धि गणित के क्रम से जनसंख्या निरन्तर बढ़ती जा रही है। सन् 1850 में आबादी 110 करोड़ हुई, 1900 में 160 करोड, 1920 में 181 करोड़ 91 लाख, 1940 में 224 करोड़ हो चुकी है। इस प्रकार जनसंख्या की वृद्धि निरन्तर तीव्र से तीव्रतर ही होती जा रही है।

कहा जा चुका है कि पृथ्वी के पास सीमित प्राणियों के लिए ही स्थान और साधन उपलब्ध है। अन्य प्राणियों की तरह यह नियम मनुष्यों पर भी लागू होता है। मनुष्येत्तर प्राणें के सम्बन्ध में देख गया है कि जब उनकी संख्या बढ़ने लगती है और सीमा रेखा को लाँध जाती हे तो प्रकृति उनका सफाया करने लगती है। यह स्वाभाविक भी है। प्रकृति द्वारा उपलब्ध कराये जाने वाले सुविधा साधन अधिक संख्या में प्राणियों के लिए कम पड़ने लगते हैं। कम साधन और अधिक उपभोक्ताओं के कारण निश्चिय ही संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। शक्तिशाली दुर्बल को दबाता है और उसके हिस्से का भाग छीनता है। इस प्रकार के संघर्ष में जो सशक्त होते हैं, वही बचते हैं और दुर्बल मारे जाते हैं, संघर्ष की यह स्थिति अन्ततः पूरे के पूरे वर्ग को ही नष्ट करके रख देती है। नृतत्व शास्त्रियों को प्राचीनकाल में विद्यमान रहे ऐसे कई प्राणियों के अवशेष मिले हैं, जो उन दिनों काफी शक्तिशाली और विशालकाय थे किन्तु उनकी संख्या इतनी बढ़ गई कि प्रकृति के पास उपलब्ध साधन स्त्रोत कम पड़ने लगे, संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हुई और फलतः वह पूरा का पूरा प्राणी वर्ग ही अपना अस्तित्व नष्ट करा बैठा।

क्या मनुष्य के लिए भी प्रकृति यही न्यायनीति बरतने वाली है? उसके विद्यान में किसी से भी पक्षपात करने या किसी को भी छूट देने की गुँजाइश नहीं है, सो इसमें जरा भी संदेह नहीं है कि मनुष्य के लिए भी संघर्ष और अन्ततः विनाश का चक्र घूमने को तैयार बैठा है। इस आधार पर संसार भर के विचारशील और बुद्धिजीवी व्यक्ति लेगों को तरह-तरह से सीमित सन्तानोत्पादन के लिए समझाते, बड़े परिवारों की हानियाँ और जनसंख्या वृद्धि के पुष्परिणामों की विवेचना करते रहे हैं। इन बातों का कोई प्रभावशाली परिणाम उत्पन्न हुआ हो ऐ देखने में नहीं आता, आखिर प्रकृति को ही अपना कुल्हाढ़ा तेज करने के लिए बाध्य होना पड़ता रहा है।

इन दिनों संसार में हिंसा की आग बड़ी तेजी से फैल रही है। हत्या, मारपीट, उपद्रव, दंगे, लूटमार और अपराधों में बड़ी तेजी से बाढ़ जा रही है। मनोवैज्ञानिकों और प्रकृति विज्ञानियों की दृष्टि में इसका एक बड़ा कारण जनसंख्या का बहुत अधिक बढ़ जाना है, पिछले दिनों ब्रिटेन के दो प्रसिद्ध समाजशास्त्री क्लेअर रसल और डब्ल्यू.एस. रसेल, ने कई मामलों का अध्ययन करने के बाद जो निर्ष्कष प्राप्त किये, उनसे यहीं सिद्ध होता है कि इस तरह की घटनाओं के मूल में वस्तुतः प्रकृति प्रेरणा ही काम कर रही है। इन दिनों छुट-पुट कारणों से उत्पन्न हुए मन मुटाव भी भयंकर हिंसावृत्ति के रुप में उभरते हैं और उनकी चपेट में प्रतिद्वन्द्वियों के निरीह बाल बच्चे भी आ जाते हैं। धन के लालच में चोरी ठगी की अपेक्षा सफाया करके निश्चिन्ता पूर्वक लाभान्वित होने की आपराधिक प्रवृत्तियाँ पिछले दिनों तेजी से बढ़ी हैं। क्योंकि हिंसावृत्ति इतनी उग्र होती जा रही हैं? इस पर विभिन्न दृष्टियों से विचार और कई परीक्षण करने के बाद यही सिद्ध हुआ कि जनसंख्या का दबाव मनुष्य को उथलाः असहिष्णु और असंतुलित बना देता है, इसी कारण लोग जल्दी उत्तेजित हो जाते हैं अथवा हत्या और हिंसा करने में जरा भी नहीं झिझकते हैं।

संख्या के दबाव का मनोवैज्ञानिक प्रभाव जाँचने के लिए किये गए प्रयोगों में देखा गया कि छोटे-छोटे जानवर जब छिरछिरे, खुले और शाँत वातावरण में रहते थे, तब उनकी प्रकृति बहुत शान्त थी किन्तु जब उन्हें भीड़ भाड़ में रखा गया तो वे उत्तेजित और थके माँदे रहने लगे तथा उनमेंएक दूसरे पर आक्रमण करने की प्रवृत्ति भी पनपती पाई देखी गई। सर्वविदित है कि भीड़ भाड़ के कारण मल-मूत्र, पसीना तथा रद्दी चीजों की गंदगी भी बढ़ती है और शरीर से निकलने वाली ऊष्मा अपने निकटवर्ती वातावरण को प्रभावित करती हैं, मनःशास्त्रियों के अनुसार यह विकृतियाँ ही प्राणियों तथा मनुष्यों को उत्तेजित करती एवं उन्हें अशान्त बनाती है। यही कारण है कि छोटे गाँवों की अपेक्षा कस्वों में तथा कस्वों की अपेक्षा शहरों में अधिक अपराध होते हैं। हत्याओं और आत्महत्याओं का अनुपात भी इन्हीं कारणों से सघन आबादी वाले क्षेत्रों में अधिक पाया गया है।

सामाजिक और पारिवारिक वातावरण यदि संतोष जनक समाधान कारक बना रहे तो उसमें रहने वाले व्यक्ति भी शान्त प्रकृति के हो सकते हैं किन्तु जब परिवार के सदस्यों की संख्या बढ़ती है तो उसमें परिवार का वातावरण शाँत, संतुलित बना रहना प्रायः कठिन ही होता है, फलस्वरुप कलह पैदा होता है और इस कलह के कारण परिवार के प्रत्येक सदस्य को खिन्न, दुःखी एवं अशान्त होना पड़ता है। ऐसी स्थिति में स्वाभाविक ही रोष उत्पन्न होता है और यही रोष हिंसावृत्ति मं बदल जाता है। उन दिनों जितने भी उपद्रव हो रहे हैं उनके मूल में इस तरह की पारिवारिक परिस्थितियों एक बड़ी सीमा तक उत्तरदायी हैं।

शहरों में आबादी बढ़ रही है और परिवारों में संतान की संख्या कुल मिला कर जनसंख्या तेजी से बढ़ती जा रही है और जनसंख्या वृद्धि के साथ-साथ एक दूसरा खतरा भी मनुष्य जाति के सिर पर मँडरा रहा है, वह है औद्योगिकरण के कारण स्वच्छ जल और शुद्ध वायु का दिनोदिन दुर्लभ होते जाना। इन दिनों नये-नये उद्योग धंधे, नये नेय कल कारखाने खुलते जा रहे है। इन कल कारखानों और फैक्ट्रियों के लिए बड़ी मात्रा में पानी भी चाहिए और वह पानी उपलब्ध जलस्रोतों से ही प्राप्त किया जाता है। बात यहीं तक सीमित रहती तो भी गनीमत थी, समस्या तो तब और विकराल रुप धारण कर जाती है जब कल कारखानों से निकलने वाला कूड़ा कबाड़ा जलस्रोतों में फेंक दिया जाता है और फेंकी गई उन गंदगियों के कारण जलस्रोत दूषित हो जाते हैं। यों पृथ्वी पर पानी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है पर अधिकाँश जलस्रोत इतने दूषित हो गए हैं कि पीने योग्य पानी का एक तरह से अकाल ही पड़ता जा रहा है। अपनी पृथ्वी का 97 प्रतिशत हिस्सा समुद्र से ढंका हुआ है। समुद्र का वह पानी न तो पीने योग्य होता है और न ही कल कारखनों या कृषि उद्योगों के ही उपयुक्त है। दो प्रतिशत जल बर्फ के रुप में उत्तरी दक्षिणी ध्रुवों तथा ऊँचे पर्वतों की चोटियों पर जमा रहता है। एक प्रतिशत जल ही ऐसा होता है जो खेती, जंगल, उद्योग धन्धों तथा पीने के काम में लाया जा सकता है। उसमें भी काफी पानी बेकार चला जाता है, जितना पानी वचता है उसका सातवाँ भाग नदियाँ समुद्रों में फेंक देती हैं। अब जो पानी बचता है उसी में कल-कारखानों, खेती बागवानी और पीने पकाने की आवश्यकता पूरी करनी पड़ती है।

कल कारखानों और फैक्ट्रियों की बाढ़ पेयजल का एक बहुत बड़ा भाग झपट लेती हैं। इतना ही नहीं उत्सर्जित गंदगी से आस पास के जल स्रोतों को भी दुषित कर देती है। कल कारखानों के कारण मनुष्य को अपने भाग में से कितनी कटौती करनी पड़ती है। इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि महानगरों में रहने वाले लोंगो को अपनी आवश्यकता का केवल 40 प्रतिशत ही स्वच्छ जल मिल पाता है। इसी में उन्हें खींच तान कर काम चलाना पड़ता है।

स्वच्छ जल का कितना बड़ा भाग कारखाने और फैक्टरियाँ झटक लेते है? यह कल्पना करने के लिए इन तथ्यों से अनुमान लगाना चाहिये कि एक लीटर पैट्रोल बनाने के लिए 10 लीटर पानी फूँकना पड़ता है। 1 किलो सब्जी पर 40 लीटर, 1 किलो कागज के लिए 100 लीटर तथा 1टन सीमेंटके लिए 3500 लीटर पानी जलाना पड़ता है। इतना होने के बाद कारखाने जो जहर फेंकते हैं वह भी उपलब्ध पानी का एक बहुत बड़ा हिस्सा नष्ट कर ड़ालता है क्योंकि उसे भी नदी तालाबों में ही फेंका जाता है। इसके कारण उन नदी तालावों का पानी किसी काम का नहीं रह जाता, वह इतना विषाक्त हो जाता है। कि न केवल झील तालाबों की सुन्दता नष्ट हो जाती है वरन् उनमें रहने वाले जीव जन्तु और उनका प्रयोग करने वाले सभी अपनी संम्पदा नष्ट करने के लिए विवश हो जाते हैं। इन दिनों अमेरिका के कई झील झरने जो कभी अपनी सुन्दरता के कारण प्रकृति प्रेमियों का जी ललचाते थे और लोग उनके किनारे बैठकर अपना थोड़ा बहुत समय शाँति से बिताया करते थे, अपना आकर्षण खो बैठे हैं। प्रशासन ने अब कई झील, झरनों और नदी जलाशयों के किनारों पर बड़े-बड़े सूचनापट लगा दिए हैं, जिन पर लिखा है “डेन्जर, पोन्यूटेड वाटर, नो स्वीपिंग” खबरदार पानी जहरीला है तैरिये मत। वहाँ के औद्योगिक नगरों के निकटवर्ती सरोवर अब एक प्रकार से ‘मृतक जलाशय’ बन चुके हैं। नदियाँ अब बहाने वाली गटरें मात्र रह गईं।

यह कैसे हुआ? मात्र एक ही कारण है कि कारखानों में जो कुछ वेस्टेज कूड़ा कबाड़ा निकलता है वह इन नदी तालाबों में फेंक दिया जाता है। विशेषज्ञों का कथन है कि इस प्रकार अगले दिनों पेयजल का गम्भीर संकट उत्पन्न होगा। प्रसिद्ध रसायन विशेषज्ञ नाटवल्ड डफिमराइट ने नार्वे की सेंट फ्लेयर झील से पकड़ी गई मछलियों का रासायनिक किया तो पाया कि उनमें पारे की खतरनाक मात्रा मौजूद है। मछलियों में पारे का अंश कहाँ से आया? अधिक बारीकी से पता लगाया गया तो मालुम हुआ कि उस झील के किनारे से लगे हुए कारखाने से जो औद्योगिक रसायन फेंका जाता था, उसमें पारे की भी एक बड़ी मात्रा होती है और वह गंदगी के रुप में बहती हुई झीलों में पहुँचती है। सोचा यह गया था कि यह पारा भारी होने के कारण जल की तली में बैठ जाएया कुछ मछलियाँ यदि पारे से मर भी गई तो कुछ विशेष हानि नहीं होगी। पर यह अनुमान गलत निकला और मछलियाँ पारे की प्रतिक्रिया से प्रभावित हुई तथा वह प्रभाव उनके शरीर में एक इकाई बनकर जम गया। उल्लेखनीय है कि इन मछलियों का भोजन के रुप में उपयोग करने के कारण कई मनुष्य अन्धे और पागल हो गए तथा सैकड़ों की तो मृत्यु हो गई।

इस तरह की सैकड़ों घटनाएँ, सैकड़ों जाँचे हो चुकी हैं जिनमें किसी क्षेत्र विशेष में कोई बीमारी अचानक फैली और उस बीमारी के कारणों की गम्भीरता से खोज बीन की गई तो पता चला कि यह विपत्ति निकटवर्ती दूषित उन जी स्रोतों का पानी प्रयोग करने से आई है, जिनमें कारखानों द्वारा गंदगी छोड़ी जाती है। औद्योगीकरण के कारण केवल जल स्रोत ही दुषित हो रहे हों, ऐसा भी नहीं हे बल्कि कल कारखानों और रेल मोटरों से जो धुँआ हवा में घोला जाता है वह भी बड़ी भारी विपत्ति बनकर निकट भविष्य में ही बरसने वाला है।

फिलहाल तो व्रिटेन, जर्मनी, फ्राँस, बेलजियम, अमेरिका जैसे उन्नत देशों में ही स्थिति विषम से विषय तर होती जा रही है किन्तु शीघ्र ही धुँए के जहरीले प्रभाव से सारा संसार संकट में पड़ने वाला है रोम की राष्ट्रीय अनुसंधान समिति के निर्देशक रावर्टो पैसिनों ने वायु प्रदूषण के कारण उत्पन्न होने वाले खतरों की ओर संकेत करते हुए कहा है कि इससे व्यापक जीवन की समस्या निकट भविष्ट में ही खड़ी होने जा रही है। भले अभी कुछेक उन्नत देश ही इससे प्रभावित होते दिखाई दे रहे हो कितु शोघ्र ही संसार भर के देश कम ज्याद रुप में इन संकटों से प्रभावित होंगे। उद्योग धंधों और कल कारखानों के कारण वायु में घुलते जा रहे विषों के प्रभाव से यह आशंका भी व्यक्त की जा रही है कि संभवतः इन विषैले तत्वों के कारण सारी पृथ्वी ही भयंकर रुप से गर्म हो कर जल जाये अथवा उस पर रहने वाले प्राणी धुँए के कारण घुट-घुट कर मरने लगे।

इस दुःखद और दुर्भाग्य पूर्ण सभावना का वैज्ञानिक आधार बताते हुए वैज्ञानिक कहते हैं कि कारखानों की भट्टियों और रेल मोटरों से निकलने वाला धुँआ आकाश में छाने लगता है तथा अवसर पाते ही धरती की ओर झुकने लगता है। यह झुकाव कभी भी इतना घना हो सकता है कि कभी भी कहीं भी कोई भी दुर्घटना घट सकती है और हजारों लोगों को अपनी चपेट में लेकर मृत्यु की गोदी में फेंक सकती है। थर्मल इर्न्वशन (ताप व्यतक्रमण की प्रक्रिया शुरु होते ही धुआ धुँध के रुप में बरसने लगता है। जब तक वायु गर्मी से प्रभावित रहती है, तब तक तो धुँआ धुँध हवा के साथ ऊपर उठता रहता है लेकिन जब शीतलता के कारण वायु नम हो जाती है तो धुलि का उठाव रुक जाता है और वह वायु दूषण नीचे की ओर गिरने लगता है। हवा का बहाव बन्द हो जाने पर तो यह विपत्ति और भी बढ़ सकती है। पिछले दिनों कई देशों में पाँच-पाँच सात दिन तक इस तरह के विषैले धुँए की धुँध छाई रही और इस धुँध के दोरान ही सैकड़ों लोगों को घुट-घुट कर बुरी तरह खाँसते-खाँसते अपने प्राण गँवाना पड़े। इस तरह की घटनाएँ अगले दिनों यत्र-यत्र घटेंगी।

हजारों लोगों को एक साथ मार डालने वाली घटनाओं का ताँता न भी लगे, तो भी कल कारखाने और रेल, मोटरें जिस तेजी से वायुमंडल का विषाक्त करते जा रहे हैं उनके कारण नये-नये रोगों के उत्पन्न होने की संम्भावना निश्चित ही समझनी चाहिए। वायु प्रदूषण के भयंकर खतरों की ओर वैज्ञानिक समय-समय पर ध्यान आकर्षित करते रहे हैं। हाल ही ब्रिटेन की पर्यावरण प्रदूषण शोधसंस्था के वैज्ञानिक ने यह वक्तव्य प्रसारित किया है कि “पिछले दिनों धुँए के रुप में जितना विष वायु मण्डल में छोड़ा गया है और अब भी छोड़ा जा रहा है। यदि शीघ्र ही कोई नियन्त्रण नहीं किया गया तो बहुत जल्द ही ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाने वाली है जिसमें विश्व के अधिकाँश जीवों का, जिसमें मनुष्यों के अतिरिक्त अन्य प्राणी आते हैं, सबको दम घोट कर चट कर जायेगा।”

भावी युद्ध में अणु आयुधों का निर्माण भारी मात्रा में हो रहा है। उनके परीक्षण बिस्फोटों से जितना विकरण अन्तरिक्ष में भर चुका उसके फल स्वरुप अप्रत्यक्ष रुप से करोड़ों का शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य प्रभावित हो रहा है और इससे नई पीढ़ियों की विकलाँक, विक्षिप्त, एवं अविकसित स्तर का जीवन-यापन करना पडे़गा। यह बिस्फोटों का सिलसिला अभी चल ही रहा है और उससे सर्वनाश का खतरा दिन-दिन बढ़ रहा है। अणु युद्ध हुआ तब तो समझना चाहिए कि कहा प्रलय जैसी स्थिति ही उत्पन्न होगी और इस धरती का वातावरण मनुष्य ही नहीं किसी अन्य प्राणी के जीवित रहने योग्य न रहेगा।

बढ़ता हुआ कोलाहल, नशों का अन्धा धुन्ध प्रयोग, रासायनिक खाद, कीट मारक छिड़काव आदि के फलस्वरुप मनुष्य की जीवनी शक्ति दिन-दिन घटने तथा बिपाक्तता बढ़ने का दौर घटता नहीं बढ़ता ही जा रहा है। ऐसी दशा में न शारीरिक स्वास्थ्य की रक्षा हो सकेगी और न मानसिक सन्तुलन की।

कुछ विपत्तियाँ ऐसी होती हैं जो शस्त्र प्रहार की तरह तत्काल प्राण संकट उत्पन्न करती है कुछ क्षय रोग की तरह अविज्ञात रहती और धीरे-धीरे गलती, घुलाती मरण के मुख में धकेलती हैं। जनसंख्या वृद्धि, वायु प्रदूषण; अणु विकरण, कोलाहल, रासायनिक विषाक्तता, नशे जैसे संकट होते हैं जो गलाकर समस्त मानव समाज को विनाश के गर्त में धकेलते जा रहे हैं।

स्थिति बताती है, संकट बढ़ते चले जो रहे हैं। इनसे जूझाना या मरण के सम्मुख सिर झुकाना यही दो मार्ग सामने हैं। अच्छा यही है कि विनाश के साथ मुठभेड़ करने की तैयारी की जाय। इसी में अपना बचाव है, और इसी में समस्त मानव समाज का संरक्षण।


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