युगसन्धि की विषम बेला और जागरुकों का कर्त्तव्य निर्धारण

March 1980

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इन दिनों युग सन्धि का श्भारम्भ है। अदृश्य दर्शियों से लेकर राजनेताओं और दार्शनिकों से लेकर अर्थ शास्त्रियों तक इस तथ्य को समझते ओर स्वीकार करते हैं। तर्क और तथ्य दानों ही किसी महान परिवर्तन की आवश्यकता ही नहीं सम्भावना भी देखते हैं।

क्रिया की प्रतिक्रिया होती है। रात्रि का अन्त दिन में होता है और मरण कालान्तर में जीवन बनकर प्रकट होता है। पेड़ से टूटा फल कुछ ही समय बाद अंकुरित होता और स्वयं उस स्तर का बनता हैं जैसा कि पिछले समय उसे आश्रय के लिए मिला था।गति चक्र की प्रक्रिया में यह भी सम्मिलित है कि संकटों से सताये जाने पर पौरुष उभरे और ऐसा कुछ कर गुजरे जैसा कि सामान्य जीवन में सम्भवतः बन ही नहीं पड़ता। लंघन के बाद तेजी से भूख बढ़ती ओ रस्वास्थ्य सुधरता है। प्रसूताएँ भारी क्षति उठाने के कारण उन दिनों अत्यन्त क्षीण, दुर्बल दीखती हैं। किन्तु प्रसव के उपरान्त उनका स्वास्थ्य इतनी तेजी से सुधरता है कि उस क्षति का पता भी नहीं चलता। गर्मी में घास सर्वत्र जल जाती है। किन्तु वर्षा होते ही धरती पर हरा कालीन बिछा दिखाई पड़ता है। विनाश और विकास का, पतन और उत्थान का भी यही क्रम है। प्रकृति का गति चक्र इसी प्रकार घूमता है। न पतन स्थिर रहता हैं न उत्थान। बचपन, बुढ़ापे तक पहुँचता है और बुढ़ापा बचपन पाने के लिए परिवर्तन का नया रौल अपनाता है। संयोग और वियोग की पेण्डुलम प्रक्रिया के सहारे ही सइ संसार की सारी व्यवस्था चल रही हैं।

प्राचीन काल में इस धरती पर र्स्वग बिखरा हुआ था। मनुष्य में देव स्तर की उत्कृष्टता विद्यमान थी। संस्कृति का वह भव्य भवन जराजीर्ण होते-होते खण्डहर की स्थिति में पहुँच गया। किन्तु महत्वपूर्ण वस्तुएँ दुर्गतिग्रस्त भी तो नहीं रह सकतीं। मथुरा की कृष्ण जन्मभूमि और सौराष्ट्र का सौमनाथ मन्दिर टुटे तो सही पर प्रतिक्रिया ने उन्हें पहले की अपेक्षा कहीं अधिक समुत्रत बना दिया।

मध्यकाल अन्धकार युग की तरह बीता है। उसमें हर स्तर की विकृतियाँ बढ़ीं। अँधेरे की प्रकृति ही कुछ ऐसी है। निशा स्तर का हर प्राणी अपने-अपने ढंग के कुचक्र रचता और अनाचार करता है। मध्य काल में शासन में सामन्तवाद घुसा। साथ ही पूँजीवादी शोषण, तान्त्रिक-अनाचार, साम्प्रदायिक, विखराव, दास और स्वामी, छूत-अछूत जैसी विकृतियाँ अपने ढंग से बढंती चली गई। मत्स्य न्याय का बोलवाला हुआ। दुर्बल समर्पण करते चले गये। तूफान में विशाल वृक्ष भी टूटते उखड़ते देखे जाते हैं।

संसार की समग्र परिस्थिति पर विचार करने पर भी वैसा ही अँधेरा दिखाई पड़ता है। यों वायु प्रदूषण, रेडियो प्रकरण, जल की कमी, जनसंख्या वृद्धि, ऊर्जा संकट, उत्पादन स्रोतों का सूखना, प्रकृति प्रकोप जैसी विभीषिकाएँ भी कम भयानक नहीं हैं, पर अणु आयुधों के माध्यम से लड़े जाने वाले भावी युद्ध की परिणिति पर विचार करने मात्र से रोमा´च खड़े होते हैं और लगता है प्रलय का दिन अब दूर नहीं रहा। सामूहिक आत्महत्या के लिए मनुष्य का प्रमाद अब तक में आरम्भ होन ही बाला है।

खुली आँखों से देखने पर लोग चलते-फिरते, कमाते, खाते, सोते, जागते, सामान्य जीवन जीते दिखाई पड़ते हैं और छुटपुट उपद्रवों के अतिरिक्त कोई बड़ा प्रत्यक्ष संकट दिखाई नहीं पड़ता किन्तु जो अप्रत्यक्ष को देख और समझ सकते हैं वे जानते हैं कि स्थिति कितनी भयावह है। शहतीर में लगा घुन, रक्त में घुसा केन्सर, चढ़ा हुआ ऋण, प्रत्यक्ष नहीं दीखते, पर वे विपत्ति को क्रमशः सघन करते और निकट बुलाते रहते हैं। प्रत्यक्ष न होने के कारण उनकी विभीषिका को हलका नहीं माना जा सकता। स्थिति को और भी अधिक अच्छी तरह समझने की आवश्यकता है ताकि उसका उपाय समय रहते कुछ सोचा और उपचार असम्भव होने से पहले ही कुछ किया जा सके।

यह पृथ्वी ब्रह्माण्ड में उड़ने वाले असंख्य ग्रह-पिण्डों से असाधारण और अद्भुत है। लगता है उसे सृष्टा ने अपनी समस्त कलाकारिता संजोकर बनाया है और उस पर रहने वाले मनुष्य को कुछ ऐसा बनाया है कि वह उसकी इच्छा के अनुरुप धरती के वातावरण को सुरम्य बना सकने में समर्थ हो सकें इतने पर भी विकृतियाँ तो विकृतियाँ ही हैं। पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति की तरह निकृष्टता भी मानवी चेतना को पतनोन्मुखी प्रेरणा देती रही। रोकथाम में ढील पड़ने पर पतन क्रम वैसा ही तेजी से घूमने लगता है जैसा कि इन दिनों देखा जा सकता है। इन परिस्थितियों के बेकाबू होने से पूर्व ही, सृष्टा को साज-सँभाल करनी पड़ती है। असन्तुलन को मनुष्य जब तक सँभाल सके तब तक ठीक-अन्यथा सृष्टा अपनी विशिष्ट सत्ता को गतिशील करते और अव्यवस्था को व्यवस्था में बदलते हैं। भगवान के अवतारों की शांखला भूतकाल में भी यही करती रही हैं और इन दिनों भी यही करने जा रही है। ऐसे विश्ष्टि अवसरों को युग सन्धि कहते हैं।

इन दिनों उत्थान और पतन के मध्य भयानक संघर्ष छिड़ा हुआ है। ध्वंस ने मरता सो क्या न करता की नीति अपनाई हु ई है। रात्रि के अन्त में सघन दाव तमिस्रा दृष्टिगोचर होती है। हारा जुआरी दूना दाव लगाता है। मरणासत्र की साँस तेजी से चलती है। चींटी की मौत आती है तो पर उगते हैं। बुझते दीपक की लौ जोरों से उठती है। युग परिवर्तन की इस सन्धि बेला में विनाश की विभीषिकाएँ अधिक भयावह होने जा रही हैं। दूसरा पक्ष सृजन का है। शुभारम्भ के दिनों की तत्परता देखते ही बनती है। शिशु जन्म, नया ग्रहस्थ, शिलान्यास जैसे अवसरों पर लोग भावावेश में होते और भार दौड़ धूप करते देखे जाते हैं। सुजन की शक्तियाँ भी इन दिनों उतनी ही सक्रिय हैं जितना कि मरणासत्र विध्वंस।

युग सन्धि की प्रसव पीड़ा से उपमा दी गई है। एक ओर असह्म व्यथा वेदना दूसरी ओर सुखद सम्भवना की गुदगुदी। ऐसे समय में डाक्टर और नर्स पूरी सतर्कता बरतते हैं। इन दिनों जागृ आत्माओं की भूमिका भी ऐसी ही होनी चाहिए जिससे विनाश से आत्म-रक्षण और विकास का परिपोषण भली प्रकार सम्भव हो सके।

इस अं में परोक्ष के गर्भ में पल रही उन सम्भावनाओं का संकलन है जो ध्वंस और सृजन के प्रवाहों का उपक्रम क्या चल रहा है-क्या चलने वाला है? क्या पक चुका-क्या पकने वाला है उसका पूर्वाभास प्राप्त कर सके। अशुभ से न तो डरना चाहिए और न शुभ के हर्षातिरेक में अकर्मण्य बनना चाहिए। विशेष अवसरों पर विशेष स्तर के धैर्य, सन्तुलन, साहस और पुरुषार्थ की आवश्यकता होती है। असन्तुलन में हानि ही हानि है। हड़बड़ाने से विपत्ति बढ़ती है और सुखद सम्भावनाओं के अस्त-व्यस्त होने का भय रहता है।

विशिष्ट अवसरों को आपत्तिकाल कहते हैं और उन दिनों आपत्ति धर्म निभाने की आवध्यकता पड़ती है। अग्निकाण्ड, दुर्घटना, दुर्भिक्ष, बाढ़ भूकम्प, युद्ध, महामारी जैसे अवसरों पर सामान्य कार्य छोड़कर भ सहायता के लिए दौड़ना पड़ता है। छप्पर उठाने, धान रोपने, शादी-खुशी में साथ रहने, सत्पयोजनों का समर्थन करने के लिए भी निजी काम छोड़कर उन प्रयोजनों में हाथ बँटाना आवश्यक होता है। युग सन्धि में जागरुकों को युग धर्म निभाना चाहिए। व्यक्तिगत लोभ, मोह का गौण रखकर विश्व संकट की इन घड़ियों में उच्चस्तरीय कर्त्तव्यों के परिपालन की इस प्राथमिकता देनी चाहिए। यही है परिवर्तन की इस प्रभात बेला में दिव्य प्रेरणा, जिसे अपनाने में ही हर दृष्टि से हर किसी का कल्याण है।

ध्वंस और सृजन की सम्भावनाओं का पूर्वाभास देने वाले तथ्य इस अं में संग्रहीत हैं। इनके आधार पर स्थिति की गम्भीरता और विषमता को भली प्रकार समझा जा सकता है। ध्वंस क्या कर सकता है और सृजन क्या चाहता है? इन दिनों तथ्यों पर जागरुकों को प्राणवानों को गम्भीर चिन्तन एवं कर्त्तव्य निर्धारण के अवसर मिल सके यही है इस संकलन का प्रयोजन सम्भावनाओं का साहसपूर्वक सामना करने की आवश्यक तैयारी करना ही पुरुषार्थ है। आशंकाओं से घबरा वाले तो अपने और दूसरों के लिए कठिनाई ही उत्पन्न करते हैं। युग सन्धि की विषम वेला में हम सबके चिन्तन में प्रौढ़ता और प्रखरता की अधिकाधिक मात्रा बढ़ने चाहिए।


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