खग्रास ग्रहण से व्यापक उथल पुथल सम्भावित

March 1980

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सूर्य ग्रहणों की शांखला में 16 फरवरी 80 का ग्रहण ऐसा है जिनकी अपनी ऐसी विशेषताएँ है जैसी पिछली कई सौ वर्षों में नहीं पाई गई। इसलिए उसका महत्व असाधारण रुप से बढ़ जाता है। वस्तुस्थिति को देखते हुए वैज्ञानिकों की दृष्टि इस अवसर पर विशेष खोजबीन पर केन्द्रित है वे प्रकृति के रहस्यों में से कुछ और प्राप्त करने की आशा इस विशेष अवसर से करते हैं।

यह अंक पाठकों के हाथ में 5 मार्च के लगभग पहुँचेगा। यह पंक्तियाँ 10 फरवरी को पूरी की जा रही हैं। प्रस्तुत सूर्य ग्रहण के इस दिन से छै दिन शेष है। ऐसी दशा में समय से पूर्व यह कहना तो कठिन है कि उस अवसर की गई शोधों का क्या प्रतिफल निकला। यह समयानुसार प्रकट होगा कि धरती पर उसके साधनों और प्राणियों पर सौर मण्डीय हलचलें क्याप्रभाव डालती हैं, पर इतनी आशंका तो बनी ही रहेगी कि चलते हुए सामान्य क्रम में जब व्यतिरेक होता है तो उसका परिणाम भी उठक पटक के रुप में देखा जाता है। सामान्यतया हर उथल-पुथल असुविधाजनक ही होती है।

सर्वविदित है कि चन्द्र ग्रहण एवं सूर्य ग्रहण के समय पर धरती के साथ जुड़े हुए संबंध सूत्र और प्रवाह क्रम में व्यतिरेक उत्पन्न होता हैं व्यतिरेक से सामान्य प्रक्रिया में अन्तर पड़ता है। फलतः प्रतिक्रिया और परिस्थिति में अनतर पड़ना भी स्वाभाविक है। ग्रहणों के प्रभाव को चिरकाल से अनुभव किया जाता रहा है और उनके सम्बन्ध में कितनी ही चित्र-विचित्र मान्यताएँ भी हें उनमें से कुछ अलंकारिक, कुछ वास्तविक और कुछ निरर्थक है। प्राचीन काल के अलंकारिक प्रतिपादनों में ऐसी रहस्यमय वास्तविकताओं का पता चलता है और जो सत्य के अत्यन्त समीप होती है। ग्रहणों का प्रभाव असामान्य होता है। इस मान्यता में कोई भ्रान्ति नहीं है। सूर्य का प्रभाव अधिक है इसलिए उस पर लगने वाले ग्रहण को धरती पर श्रस्त व्यस्तता भी अधिक होती है। उस्त व्यस्तता से अस्वाभाविक ही नहीं अवाँछनीय परिणित भी होती है इसलिए ग्रहणों को सदा से चिन्ता का विषय माना जाता रहा है विशेषतया सूर्य ग्रहण की। सूर्य ग्रहणों की शोध का प्रामाणिक प्रयास 28 जुलाई 1851 के सूर्यग्रहण से आरम्भ हुआ। स्पेन के पूर्वी प्रायःद्वीप से सैनी और वारेन नामक ज्योतिषियों ने उसके चित्र खींचे और ग्रहण के समय की वस्तुस्थिति का पता लगाया। इसके बाद नये उपकरों की सहायता से विज्ञानी जानसन 18 अगस्त 1868 के सूर्य ग्रहण की तस्वीरें मलाया प्रायःद्वीप में जाकर उतरी। सन् 1870 में सिरुली ने और भी अधिक स्पष्ट चित्र खींचे। इनसे पता चला कि उस अवसर पर सूर्य पर कुछ चमकीली रेखाएँ दृष्टिगोचर होती हैं और इर्द-गिर्द खास किसम की तेजोवलय छाया रहता है। सन् 1871 में नया ‘स्वक्टा स्कोप’ यन्त्र बना और उसने नई गैसों के प्रवाह तथा वर्णमण्डल का अधिक परिचय दिया। पूर्ण सूर्य ग्रहण के समय वर्ण मण्डल की गइराई 15000 किलोमीटर आँकी गई है उसे लाल रंग की विलक्षण निकारियाँ छूटती देखी गई। 17 मई 1882 को सूर्य ग्रहण मिश्र में देखा गया था उसमें एक चमकीला पुच्छल तारा पकड़ में आया। 22 जनवरी 1998 कोसूर्य ग्रहण ब्रिटीश वैज्ञानिकों ने अतिरिक्त लाल लपटें उछलती देखीं। खण्ड ग्रहण तो समय-समय पर होते रहते हैं पर उनसे इतनी जानकारी नहीं मिलती जितनी कि पूर्णग्रहण से। 30 जून 1954 का सूर्य ग्रहण बाल्टिक सागर क्षेत्र में था और 12 अक्टूबर 1958 का प्रशान्त महासागर में। इस अवसर पर डेजर द्वीप में एक विशेष वेधशाला फिट की गई और पाया गया कि ग्रहण काल में पराबैंगनी विकरण घटता है किन्तु एक्स किरणों में कोई अन्तर नहीं आता है।

सन् 1680 से लेकर 88 तक के आठ वर्षो में चलने वाली सूर्य ग्रहण श्रंखला आसाधरण होने से ज्ञातव्य है। इस अवधि में 23 सूर्य ग्रहण पड़ेगे। इनमें से 6 पूर्ण खग्रास होगे। 5 खण्ड ग्रस और दो कंकणा कृति पूर्ण ग्रहणों में 26 फरवरी 80 का अफ्रीका और भारत में। 31 जुलाई 82 का सोवयत संघ में। 11 जून 83 का हिन्द महासागर में। 23 नवम्बर 1684 का न्यूगिनी दक्षिणी प्रशान्त मे। 12 नवम्बर 85 का एन्टाकीटक, दक्षिणी प्रशान्त मे। और 18 मार्च 8 का प्रशान्त, सुमात्रा बोर्नियों में खग्रस दीखेगा। अन्यत्र उन्हें खण्डग्रास देखा जा सकेगा।

ग्रहण के समय देसी महत्वपूर्ण खोजे सम्भव होती है जो अन्य समयों पर नहीं की जा सकी। सन् 1668 में लार्कय और जानसन नामक वैज्ञानिकों ने सूर्य ग्रहण के अवसर पर की गई खोज के सहारे वर्ण मण्डल में हीलियम गैस की उपस्थ्ज्ञति का पता लगाया था। आस्टीन का वह प्रतिपादन भी सूर्य ग्रहण के अवसर पर भी सही सिद्ध हो सका, जिससे उनने अन्य पिण्डो के गुरुत्वाकर्ष से प्रकाश के पड़ने की बात कही थी। अवज्ञान ग्रह उपग्रहों की खोज के लिए यह ग्रहण काल सर्वोत्तम सुविधाजनक रहता है।

सूर्य ग्रहण के अवसर पर प्रकाश की तीव्रता ही कम नहीं होती वरन उसके गुण भी बदल जाते है जानवरो में बैचैनी पाई जाती है। खाना, सोना सभी को हराम हो जाता है पक्षी अपने घोसलों की ओर भागते हैं खिले हुए फूल सिकुडने और बन्द होने लगते है। तापक्रम इतना गिर जात है कि ओस पड़ने लगती है। अचानक सर्दी बढ़ने लगती है। ओर मासम में आश्चयजनक परिवर्तन दृष्टिगोचर होता है प्रकाश के मोती जैसे तैरते दिखाई पड़ते है। ग्रहण लगने से प्रायः पन्द्रह मिनट हले धूप अनास ही हलकी पड़ जाती है। 26 फरवरी 80 के ग्रहण अवसर पर सूर्य मकर और कुम्भ राशि की सीमा रेखा पर होगा। अवएवं उस समय बुध और श्क्र ग्रह आकाश में उगे हुए दिखाई देगे। भाद्र पद, उत्तर भाद्र पद पुनर्वसु ता प्राश्व और व्याध निग्रह भी उगे हुए दीखेंगे।

22 जनवरी 1868 में ठीक इन्ही दिनों जैसा पूर्ण सूर्य ग्रहण भारत में देखा गया था। 82 वर्ष पूर्व को घटनाओं का उल्लेख विजय दुर्ग (महाराष्ट्र) के परीक्षण कर्त्ताओं ने नोट किया था। उस समय सूर्य का रथ चक्र तेजी से पश्चिम की ओर भागता हुआ और चन्द्र पिण्ड को तोजी से उस पर झपटता हुआ देखा गया। भयानक अंधेरा छाया ओर सूर्य अस्त हो गया। दो बडे और तीन छोटे धब्बे उभरे हुए दीखे। ग्रहण लाल वर्ण का था। चाँदनी सी निकल आई। आकाश में तारे दीखने लगे। इन सत्र में मंगल अधिक स्पष्ट था। क्षतिज पर पहले कत्यई रंग की आभा देखी गई और फिर वह हलके बेंगनी तथा सुनहरे रंग में बदलती देखी गई। ग्रहण जिस तेजी से लगा उसी तेजी से समाप्त भी हुआ।

सूर्य के परिमण्डल (कोरोना) और वर्ण मण्डल (क्रोमोस्फियर) की सरंचना, गर्मी तथा दबाव की जैसी सही जानकारी ग्रहण के समय मिल सकती है, वैसी और किसी समय नहीं। वैज्ञानिक इस अवसर पर जिन तथ्यों का पता लगाते है उनमें रेडियों लहरो का उत्सृजन आयनोस्फिर में परिवर्तन, भू चुम्बकत्व का प्रभा प्रमुख है।

हैदराबाद के सेन्टर आव एडवाँस स्टीडी इन एस्टोनोभी ने क्रोना के धु्रवीकरण वर्णक्रम का विश्लेषण अन्तर्ग्रही तरंगो के परिवर्तन की जाँच पड़ताल की ओर पता लगाया कि जलचरों और नभचरों को सूर्यग्र्रहण किस सीमा तक और सि प्रकार प्रभावित करता है। इस शोध को अब ‘क्रोनोवायोलाजी’ के नाम से अब अतिरिक्त नाम दिया जाने लगा है।

इण्डियन इस्टीट्यूट आँफ ऐस्ट्रो फिजिक्स के अनुसार किसी विशिष्ट स्थान से 50 सालों में 80 चन्द्र ग्रहण और 20 खण्उ सूर्य ग्रहण देखे जा सकते है। किन्तु पूर्ण ग्रहण देखने का अवसर 360 वर्ष में एक बार ही आता है। चन्द्र ग्रहणों की तुलना में सूय्र ग्रहणों का अनुपात 3ः 2 होता है। ग्रहण पथ समूची पृथ्वी पर नहीं फैलता उसका विस्तार मात्र 262 किमी रहता है।

223 चनद्रमासों अर्थात 6545 दिनाँक के उपरान्त हर बार सूर्य और चन्द्रमा ऐसी स्थिति में लौट आते है कि ग्रहण चक्र की पहले की तरह पुनरावृति होने लगे। इस आधार पर प्रायः 15 वर्ष 20 दिन का ग्रहण क्रम जान लेने के उपरान्त बहुत समय तक के ग्रहणों की भविष्यवाणियाँ की जा सकती है। इतने पर भी चन्द्र पथ की विलक्षणता के कारण ठीक उसी स्थान पर इसी रुप में दीख पड़ने में हेर-फेर भी होता रहता है।

भारत में 26 फरवरी वाले सूर्य ग्रहण का पर्यवेक्षण करने के लिए विशेष रुप से तैयारियाँ की गई। इसके लिए 60 बड़े केन्द्र और 120 छोटे निरीक्षण केन्द्र कर्नाटक, उडीसा ओर आन्ध्र के कितने ही स्थानों पर लगाये गये। कई वेधशालों से गुब्बारे छोडे जायगे पर आकाश में उस समय होने वाले परिवतनो का पता लगाया जायेगा। आन्ध्र प्रदेश चल चित्र स्थान ने इस अवसर पर ऐसी फिल्म बनाई जिससे प्राणियों और पदार्थो पर होने वाले सूर्य ग्रहण का पता चल सके।

इन्डियन इन्स्टीट्यूट आँफ ऐस्टो फिजिक्स ने रायपुर जिले के ज्वालाकन्टे गाँव में एक 21 मीटर ऊचा लोह म´च बनाया है उस पर सेलोस्टेट स्येक्टोग्राफ जैसे बहुमूल्य यन्त्र लगाये गये है। इनकी सहायता से ग्रहण से अवसर पर वर्ण मण्डल एवं प्रभा मण्डल की जानकारी देने वाले महत्वपूर्ण चित्र लिए जा सकेगे।

साधारण ज्ञान के अनुसार सूर्य ग्रहण की विद्या बड़ा जटिल और आर्श्चयजनक है। भूगोल के छात्र जानते है कि सूर्य का व्यास 564000 मील और चन्द्रमा का मात्र 2160 मील है। इसका अर्थ है सूर्य में 400 चन्द्रमाओं का समावेश। सूर्य पृथ्वी से 62657200 मील की औसत दूरी पर है। चन्द्रमा की औसत दूरी 238840 मील है। इसका अर्थ भी यही होता है कि चन्द्रमा जितनी दूरी पर विराम देते हुए सूर्य तक पहुँचने का प्रयत्न किया जाय तो वसे विराम 400 होगे। ऐसी दशा में पृथ्वी ओर सूर्य के बीच में आ जाने पर भी चन्द्रमा की छाया पूरी तरह सूर्य को ढंक नहीं सकती। फिर भी पूर्ण सूर्य ग्रहरण दीखता है इस आर्श्चय का कारण पृथ्वी से चन्द्राम की समीपता ही हैं यदि वह अपेक्षाकृत देर होता तो फिर सूर्य के एक भाग को ही उसकी छाया ढंक पाती।

पूर्ण ग्रहण दो मिनट पचास सैकिण्ड का ही होगा। इसका 12 बजकर 42 मिनट पर दक्षिण अटलाँटिक महासागर में दक्षिण अफ्रीका के मध्य भाग से प्रायः ढाई हजार किलोमीटर दूरी से आरम्भ होगा इसके उपरान्त वह काँगे, जैरे, तंजानिया, केनिया होकर आगे बढता हुआ अरब सागर में अफ्रिका के पूर्वी तट तक चला जायगा। इस स्थान पर वह चार मिनट 12 सैकिण्ड दिखाई देगा। धरती पर यह ग्रहण देर्शन की अधिकतम अवधि होगी। भारत के कर्नाटक, आन्ध्र, मध्यप्रदेश, उडीसा, मिजोरम प्रान्तों को पार करता हुआ वह बंगाल की खाडी में बढेगा। बंगाल देश ओर वर्मा होते हुए अन्ततः वह चीन के चुँग किंग नगर में 100 किलोमीटर दूर पर समाप्त हो जायेगा। देशों के साथ इस ग्रहण की संगति जोडी जाय तो उस परिधि में प्राय पूरा अफ्रिका महाद्वीप, साऊदी अरब, ईराक, ईरान, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, भारत, नैपाल, भूटान, श्रीलंका, बंगादेश, वतर्मा, मलाया, थाइलैण्उ, फिलिपाइन्स, इण्डोनेशिया, चीन, मंगोलिया तथा सोवियत संघ के देश आते है। अन्य देशों को इस अदभुत दर्शन के वंछित रहना पडेगा। पूर्ण ग्रहण की पट्टी 115 से 130 किलोमीटर की सीमा में रहेगी। अन्यत्र वह खण्ड ग्रस दिखाई देगा।

भूमध्य रेखा पर पृथ्वी की भ्रमण गति प्रति घण्टा 1700 किलोमीटर पश्चिम से पूर्व की ओर होती है। चबकि चन्द्रमा की छाया पृथ्वी को काटते हुए प्रति घण्टा 3430 किलोमीटर है इस अन्तर को ध्यान में रखते हुए यदि पृथ्वी से अधिक समय तक यह ग्रहण देखना हो तो सामान्य अवधि 6 मिनट को बढ कर 80 मिनट तक किया जा सकता है। सुपरसोनिक विमानों की जो गति है उसे देखते हुए उनमें बेठे हुए अन्वेषकर्त्ता अपना शोध काल इतना लम्बा बढा सकते है। इस सर्न्दभ में प्रयत्न किये भी जा सकते है क्योंकि अभी जो थोडी-सी अवधि है वह अन्तरिक्ष की उथल-पुथल के पक्षो को जानने के लिए अपर्याप्त ही कही जा सकती है।

सूर्य के चारों और फैले हुए प्रभा मण्डल में विद्यमान गैस की परत का तापमान 10 लाख सेन्ट्रीगेट पाया गया जबकि सूर्य के धरातल का मात्र छै हजार सेन्टीग्रेट। यह अद्भुत अन्तर किस कारण है इसकी जानकारी ग्रहण के अवसर पर बिनने वाली विशेष स्थिति से अपेक्षाकृत अधिक सरलता से मिल सकती है।

कोणाक के सूर्य मन्दिर पर ग्रहण की मध्य रेखा आती है अस्तु वहाँ से यह अन्वेषण अधिक अच्छी तरह हो सकने की सम्भावना को ध्यान में रखते हुए वैज्ञानिकों के जत्थे वहाँ पहुँच रहे है। यह मन्दि 700 वर्ष पूर्व ठीक ऐसे स्िन पर बना है जहाँ सूर्य ग्रहण का प्रभाव अधिक स्पष्ट और अपेक्षाकृत अधिक मात्रा में देखा जा सकता है। भारत के विभिन्न केन्द्रो में प्रस्तुत सूर्य ग्रहण का पर्यवेक्षण करने के लिए संसार भर से प्रायः एक हजार वैज्ञानिक आ रहे है जो अपने-अपने शोध क्षेत्र पर होने वाली ग्रहण प्रतिक्रिया की बहुमूल्य यन्त्रों के आधार पर जाँच-पडताल करेंगे।

ज्योतिषी और विज्ञानी इस सम्बन्ध में एक मत है कि ग्रहण काल से अन्तरिक्षीय विकरण का मनुष्यों औ पदार्थो पर अनुपयुक्त प्रभाव पडेगा। इसलिए उस समय भोजन न करे। खुली आँख से ग्रहण को न देखने, गर्भवतियों को भीतर रहने, बीमारों और कमजोरों की खुली जगह की अपेक्षा भीतर रहने की चेतावनी दी गई और कहा गया है कि उस विकरण के सर्म्पक में न अना उपयुक्त समझा गया हैं ससे सिद्ध होता है कि यह प्रभाव किसी न किसी रुप में अनुपयुक्त है।

सूर्य ग्रहण होते यो हर साल है, पर वे खग्रास नहीं होते। साथ ही एक क्षेत्र में भी बार-बार नहीं दीखते। एक ही स्थान पर दुबारा खग्रास का दृश्य देखना हो तो उसके लिए 360 वर्ष तक प्रतीक्षा करनी पडेगी। इस बार भी भारत में इस रुप में वह इसी रुप में इतनी ही लम्बी अवधि के बाद देखा जा रहा है।

भूतकाल में जब-जब ऐसे सूर्य ग्रहण पड़े है उसके कुप्रभाव ही सामने आये है। इस बार भी यदि ऐसा होगा तो समझना चाहिए कि आज की परिवर्तन प्रक्रिया को देखते हुए उससे अवाँछिनिय तत्वों का ही विनाश होगा। हर विराश के पीदे विकास की सम्भावना भी रहती है और वही सन्तुलन को बनाती है। इस आधार पर देर तक चलने वाले इस सूर्य ग्रहण का एक परिणाम सृजनात्मक सत्प्रवृत्तियों का सर्म्वधन भी होना चाहिए। इस प्रकार समूची प्रतिक्रिया के शुभ और अशुभ का सम्मिश्रण कह सकते है। संक्षेप में इसे युग परिवर्तन में सहायक ही समझा जाना चाहिए।

प्रस्तुत सूर्य ग्रहण देखने वालों के सम्बन्ध में उच्चस्तरीय चिकित्सकों ने चेतावनी देते हुए कहा है कि इससे आँखों का ‘रेटीना’ जल सकता है और देखने वाला सदा सर्वदा के लिए अन्धा हो सकता है इसी प्रकार इससे नपुसंक होने का भी खतरा है। इन्फ्रारेडो का सीधा असर धरती के वातावरण पर आने से कोमल काया वालों पर उसकी जल्दी और ज्यादा बसर पडेगा। पखी इससे अधिक प्राभावित होगे। इसी प्रकार बालको की कामल छाया पर विपरीत असर पडने की अधिक सम्भावना रहेगी। इसलिए उन्हे यथा सम्भव ग्रहण को देखने और उसकी धूप में जाने से रोकना ही उचित है। यही बात गर्भवती स्त्रियों के सम्बन्ध में भी है। वे उन दिनों नाजुक स्थिति में से गुजरती है विशेषतया उदरस्थ्ज्ञ बालक तो ओर भी कोमल तथा सम्वेदनशील होते है। उन किरणों के प्रभावित होने पर उनकी शारीरिक सरचना एवं मानसिक विकास में अवाँछनीय गड़बड़ियाँ हो सकती है।

अन्तरक्षि विज्ञानी डाँ. श्रीवास्तव के अनुसार-सूर्य की घातक किरणों के रक्षा करने वाली वायुमण्डल में उपस्थित गैस की परत दस प्रतिशत घट जाने के कारण ग्रहण के समय पृथ्वी पर अधिक विध्वंसक प्रभाव पड़ेगे।

इन दिनों सूर्य में कम्पन चल रहा है। वह प्रतिवर्ष 13 किलोमीटर सकुड रहा है। साथ में उसमें धब्बे भी असाधरण रीति में उभर रहे है जो अपने कुप्रभाव के लिए बहुत उत्तरदायी होंगे। इन सबके उतार-चढाव स्वरुप अगले दिनों व्यापक उथल-पुथल की कल्पना निराधार नहीं कही जा सकती।


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