योग साधना का उद्देश्य चित्त वृत्तियों का निरोध!

January 1977

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योग का उद्देश्य “ चित्त-वृत्तियों का संशोधन है। महर्षि पतंजलि की योग-परिभाषा यही है। पशु-वृत्तियों को परिवर्तित कर दिव्य आस्थाओं का स्वरूप दे देने की प्रक्रिया योग है। दीर्घकाल से संगृहीत कुसंस्कारों को उच्चस्तरीय आस्थाओं में परिणाम करने के लिए प्रचण्ड पुरुषार्थ अपेक्षित होता है। सद्ज्ञान और सद्भावनाओं का सतत् सम्बोधन ही इस पुरुषार्थ का स्वरूप है।

शरीर को सक्रिय और मन की सन्तुलित रखने पर ही इतना प्रबल पुरुषार्थ सम्भव है। छेनी, हथौड़ा ठीक रहे, तो लुहार ढलाई, गढ़ाई भली-भाँति कर सकता है। नाई हजामत बनाने का काम ठीक से कर सके इसके लिए कैंची, उस्तरे पर धार होनी जरूरी है। शारीरिक सक्रियता तो योगी ही क्यों भोगी के लिए भी जरूरी है और मन की एकाग्रता व सन्तुलन की शक्तियाँ भी दोनों को जरूरी है। आसन, प्राणायाम आदि शारीरिक, मानसिक व्यायामों का यही उपयोग है। इनकी जरूरत तो भोगी-योगी दोनों को ही है। इन क्रियाओं का महत्त्व व उपयोग तो है, पर यही योग नहीं।

एकाग्रता मन-मस्तिष्क की व्यवस्थित चिन्तन विधि है। सभी प्रतिभाशाली अपने काम को मनोयोगपूर्वक करते हैं ओर इस तरह मेडीटेशन की प्रक्रिया को ही अपनाते हैं। मेडीटेशन वस्तुतः मस्तिष्क की अस्त-व्यस्तता और बिखराव पर नियन्त्रण पाने की एक कला है। वह एक मस्तिष्कीय व्यायाम है। उसे आध्यात्मिक साधना का पर्याय बताना अनुचित है। आध्यात्मिक साधना का क्षेत्र इतना संकीर्ण नहीं है। मस्तिष्कीय व्यायाम का महत्त्व तो बताया जाना चाहिए, पर उसे ही रहस्यमयी शैली में योग व अध्यात्म-साधना का समानार्थक नहीं प्रचारित कर दिया जाना चाहिए। मस्तिष्क को साधने की कला का एक अत्यन्त छोटा-सा हिस्सा एकाग्रता है। निस्सन्देह उसका महत्त्व है। पर उस एकाग्रता का उद्देश्य क्या है? अध्यात्म की दृष्टि से यह प्रश्न अधिक महत्त्वपूर्ण है।

ध्यान के अभ्यास में तरह-तरह की आकर्षक प्रतिमाएँ सामने रखकर अथवा उन्हें कल्पना-क्षेत्र में बिठाकर उनके साथ एकाग्रता जोड़ने का अभ्यास किया जाता है। यदि उसमें पूर्ण सफलता मिल जाए और मन उन प्रतिमाओं में पूरी तरह एकाग्र रहने लगे, तो भी आध्यात्मिक प्रगति में इससे कोई सहायता मिलने वाली नहीं। वह तो तभी सम्भव है, जब अपनी चेतना को विश्व-चेतना का घटक मानकर स्वार्थ का परमार्थ में विकास किया जाय।

योग का लक्ष्य है- आत्मा को परमात्मा से जोड़ना। व्यक्तिसत्ता का समष्टिसत्ता में समर्पण ही योग है। यह भावोत्कर्ष की साधना द्वारा ही सम्भव हैं। व्यक्तिवादी, अहंता और स्वार्थवादी महत्त्वाकाँक्षा में परिधिबद्ध मन को सार्वभौम चेतना से जोड़कर अपने चिन्तन और कर्तृत्व को उत्कृष्ट बनाना ही आध्यात्मिक प्रगति है। इससे कम कुछ भी नहीं। सही दिशा में चलने पर मनुष्य में देवत्व के उदय की प्रक्रिया का प्रारम्भ अनिवार्य है। योग वस्तुतः एक भाव विज्ञान है, जो जीव को ब्रह्म से चिरमिलन की भाव भूमिका की और ले जाता है। लघु को महान् बनाने की यह विद्या है। यह मूल लक्ष्य यदि विस्मृत-उपेक्षित रहा, तो फिर आसन, प्राणायाम मेडीटेशन, एक सामान्य व संकीर्ण मन क्रीड़ा के अतिरिक्त और कुछ नहीं कहा जा सकता।

योग-विज्ञान में प्रगति का प्रमाण यही है कि उसमें प्रवृत्त मनुष्य अनेक दृष्टियों से असामान्य हो जाता है। महामानव, देवदूत, सिद्ध पुरुष, ऋषि, योगी, तपस्वी आदि इसी स्तर के होते है। यों सिंह की खाल ओढ़कर कोई गर्दभराज भी वनराज बनने का स्वाँग कुछ समय तक रचे रह सकते हैं।, पर सम्पूर्ण जीवन-क्रम ही इस प्रगति की वास्तविक कसौटी है।

पेट और प्रजनन की इच्छापूर्ति में दिन-रात जुटे सामान्य नर-कीटकों से सर्वथा मित्र मनोभूमि वाले चरित्रवान्, सन्मार्ग पर चलने का साहस रखने वाले, लोक मंडल के लिए आत्म-समर्पण करने वाले, तत्त्वदर्शी युगान्तरकारी समर्थ व्यक्ति प्रवाह पतित लोगों की भीड़ में अलग ही दीख जाते हैं। धारा को चीरकर उलटी दिशा में चल पड़ने के आमूल परिष्कार और युग-प्रवाह को पलट देने का कार्य अति उच्चकोटि की ऋद्धि-सिद्धि के ही जैसा है। इस कोटि का आत्मबल कोई बौद्धिक सामर्थ्य नहीं है। वस्तुतः वह तो अतीन्द्रिय सामर्थ्य से भी उच्चकोटि की शक्ति है। यह योग-विज्ञान की प्रगति द्वारा ही प्राप्त है।

अनिवार्य तो नहीं, पर योग की किसी-किसी शाखा का आश्रय लेकर अतीन्द्रिय क्षमताएँ भी विकसित की जा सकती हैं। वे भी चमत्कारी है, जो कि आत्म-विद्या का ही एक अंग है।

चेतन-मस्तिष्क की सक्रियता अचेतन की शक्ति-तरंगों को काटती हैं। इसीलिए चेतन मस्तिष्क ही जब अधिक सक्रिय होगा, अचेतन अविकसित ही पड़ा रहेगा। बौद्धिक संस्थान सक्रियता को शिथिल करने पर अचेतन केन्द्र जाग्रत होता है। प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि जैसी साधनाओं द्वारा चेतन मस्तिष्क को शिथिल, निष्क्रिय एवं शून्य स्थिति में ले जाया जाता है। तब ही दूर-दर्शन दूर दृष्टि विचार-प्रेरणा भविष्य ज्ञान, अदृश्य का प्रत्यक्ष आदि अनेक विशेषताएँ प्राप्त की जा सकती हैं। बौद्धिक मस्तिष्क को शिथिल करके इच्छा-शक्ति प्राण-शक्ति को अचेतन के विकास में प्रयुक्त करने पर शरीर में आँखें-जनक परिवर्तन सम्भव है। अति दीर्घजीवी होना, अति शक्तिशाली होना, अदृश्य जगत का ज्ञान प्राप्त करना आदि उसी स्थिति में सम्भव है।

कीड़े-मकोड़े और जीव-जन्तु बौद्धिक दृष्टि से मनुष्य से पिछड़े होते हैं। उनका चिन्तन ओर चेतन क्षेत्र शिथिल रहता है। इसी का लाभ उनके अचेतन को मिलता है। कुत्तों की घ्राण-शक्ति अति सूक्ष्म होती है। चमगादड़ के ज्ञानतन्त्र राडार क्षमता से सम्पन्न होते हैं। उसका अचेतन मस्तिष्क अपने साधारण से शरीर द्वारा ही विभिन्न वस्तुओं से उत्सर्जित तरंग को पहचानने में समर्थ होता है ओर इसी कारण से अँधेरे में भी वह अपने परिवेश का तथा वहाँ की वस्तुओं का स्वरूप एवं स्थान समझकर बिना किसी वस्तु से टकराये, उड़ने का क्रम जारी रखे रहता है।

ह्रंल मछली का अचेतन मस्तिष्क भी बहुत क्रिया-शील होता ओर उसके शरीर में पनडुब्बियों की सभी विशेषताएँ पाई जाती है।

समुद्री झींगे ‘सीएरे’ की शरीर-प्रणाली जेट-विमान की प्रणाली जैसी होती है। उसका अचेतन मस्तिष्क ही इस तीव्र दौड़ में उसे समर्थ बनाता है।

उत्तरी अमरीका की नदियों में रहने वाली व्हील मछली निकलती है। यह विद्युत्-शक्ति व्हील के अचेतन द्वारा ही नियन्त्रित है।

अचेतन-नियन्त्रित एण्टीना तितली के सींग रेडियो और टेलीविजन का काम करते हैं। नर-झींगुर के कामोत्तेजित होने पर उसका अचेतन मस्तिष्क एक विशेष से प्रकार की तान छेड़ने की प्रेरणा देता है, जिसके आकर्षण से मादा झींगुर खिंची चली आती हैं। अफ्रीका का ‘काटन रेल’ जाति का खरगोश हिंसक जन्तुओं का खतरा देखते ही पिछली टाँग एक विशेष विधि से धरती पर पटकता है, इस प्रकार से एक विद्युत धारा उत्पन्न होकर भूमि की ऊपरी परत दूर तक फैल जाती है। दूसरे खरगोश तथा अन्य छोटे जानवर भी इस ‘टेलीफोन’ का सन्देश समझकर सजग हो जाता है और सुरक्षा की व्यवस्था कर लेते हैं। यह भी अचेतन का ही करिश्मा हैं।

अपनी आवश्यकता अनेक जीव जन्तुओं का अचेतन अनेक नई शारीरिक विशेषताएँ पैदा कर लेता है। मेढ़कों की आँखों में पहले चश्मा नहीं होता था, इधर कुछ अर्से से उन्होंने एक विशेष प्रकार का चश्मा विकसित कर लिया है, जो गोताखोर की तरह जल में प्रवेश करने पर आँखों में चढ़ाया है। कछुए ने मगरमच्छों से अपनी सुरक्षा के लिए अपनी चमड़ी को मोटा किया है। तितलियों के बच्चे और रेशम के कीड़े अपने देह रस को निकाल कर उस पर पत्तियाँ चिपकाकर अपनी सुरक्षा, व्यवस्था करते हैं रीवन प्लाण्ट और ग्रेट मुलर पौधों ने आत्म-रक्षा के लिए पिछले दिनों नोकदार काँटे विकसित किये हैं, ताकि पशु उन्हें चर न पाएँ। गिलहरी के गालों में दो जेवें तथा बन्दर के गले में एक थैली खाद्य पदार्थ के संग्रह हेतु होती है। कंगारू के पेट की थैली शिशु रक्षण के काक आती हैं।

अनेक जीव जन्तु मौसम की अग्रिम जानकारी पा लेने में अपनी अचेतन सामर्थ्य द्वारा होते हैं। वर्षा की सम्भावना समीप देख मकड़ी अपना जाला खुले स्थानों से समेटकर सुरक्षित स्थान में फैलाती है। कोई मकान गिरने वाला हो, तो बिल्ली उसमें से थोड़ी ही समय पहले अपने बच्चे समेट कर अन्यत्र चली जाती है। अनुकूल ऋतु की खोज में अनेक पक्षी सहस्रों मील की उड़ान भरते हैं- पहाड़ सागर लाँघते हुए कहीं से कहीं पहुँचते हैं और फिर ऋतु परिवर्तन पर पुनः पूर्व स्थान में बिना भटके वापस आ जाते हैं। कई मछलियाँ प्रसव काल में उपयुक्त स्थान ढूँढ़ती हुई हजारों मील दूर जा पहुँचती है और वापस भी आ जाती है।

हमें गर्मी सर्दी का सही पता थर्मामीटर द्वारा ही चलता है, पर छोटे कीड़ों को अचेतन उन्हें सामान्य स्थिति में ही इसका मान करा देता है। 160 डिग्री फारेनहाइट पर सभी कीटाणु अपना काम बन्द कर देते हैं। 50 डिग्री ताप पर मक्खियाँ अपने लिए सुरक्षित स्थान ढूँढ़ वहाँ छिप जाती है। 55 डिग्री तापमान होने के बाद ही मधुमक्खियाँ काम पर निकलती हैं। टिड्डे 95 डिग्री पर संगीत शुरू करते हैं। भोजन-सामग्री जुटा पाने की दृष्टि से वर्षा की ऋतु आने के पूर्व ही चींटियाँ तथा अन्य कीड़े आहार इकट्ठा कर लेते हैं। ये सभी विशेषताएँ इनके अचेतन मस्तिष्क का ही परिणाम हैं। मनुष्य के चेतन की अति सक्रियता से उत्पन्न ऊष्मा को दबा देती हैं। तब उसका चेतन सामान्य शारीरिक आवश्यकताओं को सुचारु रूप से पूरी करते रहने में ही जुटा रह जाता है। अलौकिक क्षमताएँ तो प्रसुप्त ही पड़ी रहती है।

मात्र शरीर-संचालन तक ही मस्तिष्कीय जागरूकता सीमित रहने पर परिस्थितियों का उतार-चढ़ाव मनः स्थिति को भी प्रभावित करता है। मन हर्ष विषाद के ज्वार भाटे से आन्दोलित होता रहे, तो उसमें उथल पुथल भरी मानसिक ऊष्मा की वृद्धि होती है। इस ऊष्मा से अचेतन मस्तिष्क की दिव्यता पर आघात पहुँचता है, वह क्षीण होती है।

इसीलिए योग में प्रथम चरण के रूप में ‘मानसिक सन्तुलन’ पर बल दिया जाता है। अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियाँ तो आती ही रहने वाली हैं। व्यक्ति, समाज और संस्थाओं का ढाँचा ही कुछ ऐसा है कि उनकी क्रिय प्रतिक्रियाएँ प्रिय-अप्रिय सम्वेदनाएँ पैदा करती ही रहती हैं। प्रकृति-क्रम भी मनुष्य की इच्छानुकूल तो रहता नहीं। अकाल-सुकाल ऋतु-परिवर्तन जरा मरण रीति नीति आदि के घटनाचक्र हमें क्षुब्ध व उत्तेजित करने को पर्याप्त होते हैं। इन स्थितियों में चित्त आन्दोलित रहने का अभ्यास योग का प्रारम्भिक चरण इसीलिए है कि उसमें मानसिक ऊष्मा में अनावश्यक वृद्धि नहीं होती। सन्तुलित मनः स्थिति में सचेतन मस्तिष्क भी अपेक्षाकृत कम शक्ति खर्च कर अधिक काम कर डालता है और अचेतन मस्तिष्क में भी क्षीणता तथा बिखराव नहीं आ पाता।

मानसिक सन्तुलन का प्रथम चरण सध जाने पर, अगला चरण उठाया जाता है। चेतन मस्तिष्क की गति विधियों को कुछ समय के लिए रोककर उस संस्थान में क्रियाशील विद्युत शक्ति को अचेतन क्षेत्र में नियोजित करने पर अतींद्रिय सामर्थ्य विकसित होती हैं।

जब उद्देश्य निश्चित हो और परम तत्त्व की खोज की प्यास प्रबल हो, तब ही इस एकाग्रता का लाभ उठाया जा सकता है। एकाग्रता को आगे बढ़ाते हुए चित्त को जागृत दिशा में ही लय कर देना समाधि है। इसके लिए प्रत्याहार, धारणा, ध्यान की भूमिकाएँ पार करनी पड़ती है। इन साधनाओं के द्वारा सचेतन मस्तिष्क की चिन्तन-शक्ति एवं संकल्प शक्ति को शिथिल करते हुए वहाँ लगे तेजस् को अचेतन में नियोजित किया जाता है, तभी अनुपम दिव्यताएँ प्रकट होना शुरू होती हैं। इस दिशा में जो जितनी अधिक प्रगति करता है वह उतना ही समर्थ सिद्ध पुरुष कहा जाता है। बौद्धिक चेतना नियन्त्रित रहे और वह अचेतन को दबाने की बजाय उसकी सहायता करे, यही योगसाधना की दिशा हैं।

मनोविज्ञानी ड्रमण्ड एवं मैलाने यह मानते हैं कि चिन्तन की प्रखरता भी अचेतन द्वारा ही प्रदत्त होती है, यद्यपि प्रतीत यही होता है कि यह सचेतन मन की दक्षता है। बुद्धिमान विवेकशील, दूरदर्शी और शीघ्रता से सही निर्णय लेने में समर्थ तथा सही ढंग से काम करने वाले व्यक्ति अपने अचेतन की गहरी परतों से ही इन विशेषताओं को प्राप्त करते हैं। अचेतन एक तिजोरी है, हम उससे जिस तरह के रत्नों, आभूषणों को आगे कर लेंगे, उनकी ही आभा सचेतन में दीप्त होती दीखेंगी अचेतन एक समुद्र है, जिसमें सभी तरह के रस एवं विष भरे हैं, हम जिसे उभार ले, वे ही सचेतन पर अधिकार जमाए दीखेंगे

अचेतन में सब कुछ दिव्य और भला ही नहीं है। पाशविक कुसंस्कार वहाँ सत्प्रवृत्तियों की अपेक्षा अधिक ही हैं। जिस तरह कि उद्यान में उपयोगी पेड़ पौधों से खर पतवार की मात्रा ज्यादा ही होती है।

जे० डब्ल्यू० ब्रिज के अनुसार व्यक्तित्व की गहराई में उसे पतनोन्मुख और अस्त व्यस्त बनाने की प्रक्रिया भी भीतर ही भीतर चलती रहती है। अवांछनीयता पर नियन्त्रण न किया जाय, इनके प्रति लापरवाही बरती जाय, तो वे ही बलवती होती है।

न्यूरोलॉजिकल थ्योरी मानने वाले स्नायु सिद्धान्त वादियों के अनुसार शरीरगत स्नायु संस्थान की उत्तेजना से अचेतन मन की स्थिति बनती या बदलती है। उधर साइकोलॉजिकल थ्योरी के पक्षधरों-यानी मनो सिद्धान्त वादियों का कहना है कि मन ही शरीर का नियन्त्रक हैं। वह जिधर चलेगा, शरीर को उधर ही चलना होगा। अतः मनः स्थिति का ही शरीर पर प्रभाव पड़ता है। स्नायविक उत्तेजनाएँ भी मन की स्थितियों का ही परिणाम हैं।

विद्वान् मार्टिन प्रिंस ने अपनी ‘साइको न्यूरोलॉजिकल थ्योरी’ में इन दोनों मान्यताओं का समन्वय किया है। वे दोनों पक्षों को अपूर्ण ठहराते हैं और स्नायु संस्थान तथा अचेतन मन के समन्वय पर ही व्यक्तित्व की कोई दिशा निर्धारित होना मानते हैं।

अचेतन अत्यन्त शक्तिशाली है- यह सत्य है। पर वह स्वनिर्मित नहीं है। उसके भी निर्माता हम ही हैं। दीर्घकालीन मनोयोग एवं क्रियाकलाप ही उसे निर्मित, प्रभावित, परिवर्तित करते हैं। व्यावहारिक जीवन में मनोयोगपूर्वक दीर्घ समय तक अपनाये गए क्रिया कलापों का प्रभाव साकार रूप में अचेतन मन में समा जाता है और उन्हीं संस्कारों की प्रेरणा व्यक्तित्व की विविध धाराओं और क्रियाओं को प्रवाहित-प्रेरित करती रहती है। इसीलिए अचेतन को प्रवाहित-प्रेरित करती रहती है। इसीलिए अचेतन को कुसंस्कारों से मुक्त करने के लिए योग और तप का आध्यात्मिक साधना मार्ग अपनाना पड़ता है।


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