मनुष्येत्तर प्राणियों की भाषा भी समझी जाय

January 1977

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मनुष्यों के मुख से निकलने वाली भाषा को ही हम लोग आमतौर से समझ पाते हैं। विचारों और भावनाओं का प्रकटीकरण और आदान प्रदान का प्रयोजन भाषा के माध्यम से ही पूरा होता है। शिक्षितों को लिपि द्वारा भी भाषा का आदान प्रदान होता है, पर अशिक्षितों में तो उच्चारण के आधार पर ही एक दूसरे को कुछ बता पाने और समझा पाने का आदान प्रदान चलता है।

अन्य प्राणियों की भी अपनी भाषा है। भले ही वह मनुष्यों जैसी सुविकसित न हो। कीट पतंग गन्ध छोड़ते और सूँघते हैं। उनकी वाणी की अपेक्षा घ्राण शक्ति अधिक विकसित होती है। फलतः एक दूसरे के शरीरों से विभिन्न प्रकार की जो गन्धें समय समय पर निकलती रहती है, उनके सहारे यह जान लेते हैं कि दूसरे सजातीय किस स्थिति में हैं और वे किस प्रकार के सहयोग की अपेक्षा करते अथवा जानकारी देते हैं।

जिन्हें वाणी प्राप्त है वे अपने थोड़े से शब्दों के सहारे ही काम चला लेते हैं। अपने हर्षोल्लास अथवा दुःख दर्द की अभिव्यक्ति वे उतने से उच्चारण में ही कर लेते हैं। इससे उनका जी हलका होता है, उत्साह मिलता है तथा दूसरे उनका जी हलका होता है, उत्साह मिलता है तथा दूसरे साथियों को अपनी ही तरह उत्तेजित करके सम्वेदना उभारना सम्भव होता है। इससे उनका स्नेह, सौजन्य एवं सहयोग निखरता है। इससे उनका स्नेह, सौजन्य एवं सहयोग निखरता है। चिड़ियाँ जब चहचहाती हैं उससे उनके शरीर का अंग संचालन भी होता है। इस उच्चारण और संचालन को देखकर उनके सजातीय यह पता लगा लेते हैं कि उसका अभिप्राय क्या है और उस जानकारी को प्राप्त करने के उपरान्त उन्हें क्या करना चाहिए?

यही बात पशुओं के सम्बन्ध में है। उनके शब्द और भी स्पष्ट होते हैं। यों झींगुर, मच्छर, मक्खियाँ जैसे कीट पतंग भी शब्दोच्चारण करते हैं। मेंढक जैसे छोटे जीव भी कर्णकटु शब्द बोलते हैं। हलकी आवाज तो प्रायः सभी जीवों की होती है। जिव्हा अथवा दूसरे अवयवों के सहारे वे ध्वनि करते और अपनी मनः स्थिति का अन्यों को परिचय देते हैं।

हम मनुष्य यदि अन्य प्राणियों की भाषा समझने का प्रयत्न करें, उनकी अभिव्यक्तियों और आवश्यकताओं को अनुभव करे तो निस्संदेह अपने परिवार का अब की अपेक्षा असंख्य गुना विस्तार हो सकता है और उसी अनुपात से आत्मीयता के क्षेत्र बढ़ सकता है। अभी तो 400 करोड़ मनुष्यों के ही एक मानव समाज से हमारा परिचय है, उसमें भी भाषा की एकता से ही घनिष्ठता एवं सहयोग का द्वार खुलता है। भाषा की दृष्टि से जिनके बीच आदान प्रदान का माध्यम अभी नहीं बना है, वे मनुष्य समाज के सदस्य होते हुए भी एक दूसरे से अपरिचित जैसी स्थिति में पड़े रहते हैं।

मानवी भाषाओं के बीच एकता के क्षेत्र बढ़ाने के प्रयत्न चल रहे हैं। यदि प्राणियों की भाषा को समझने का क्षेत्र बढ़ सके तो जीवधारियों की दुनिया अब की अपेक्षा बहुत बड़ी हो सकती है। विकसित प्राणी अविकसितों के सहयोग का बहुत बड़ा लाभ मनुष्य जैसे विकासवानों को मिल सकता है। प्रयत्न करने पर और ध्यान देने पर हम जीवधारियों की भाषा समझने में बहुत कुछ प्रगति कर सकते हैं।

बछड़े के रँभाने से पता चलता है कि उसकी जननी गाय उससे दूर चली गई है। चिड़ियों के नन्हे बच्चे भी माँ के दूर जाते ही चीं चीं कर उठते हैं। पास आने पर पंख फड़फड़ाकर प्रसन्नता प्रदर्शित करते हैं। कुत्ते का पिल्ला माँ की उपस्थिति में हर्ष सूचक ध्वनि भिन्न रीति से करता है और दूर जाने पर रोने की आवाज भिन्न रूप से। दोनों स्थितियों में उसका स्वर एवं भंगिमा भिन्न भिन्न होती है।

इससे स्पष्ट है कि भाव सम्प्रेषण के लिए पशु पक्षी भी विशिष्ट ध्वनि-क्रमों का निश्चित विधि से उच्चारण व प्रयोग करते हैं। यानी उनकी अपनी एक भाषा है। वे अपने वर्ग के जीव की भाषा ही समझते हैं। कुत्ता-कुत्ते की, गाय अपने बछड़े, बैल व अन्य गायों की, चिड़ियाँ चिड़ियों की भाषा अच्छी तरह समझने में समर्थ हैं।

बाघ की दहाड़ का स्वर औं...............ह’ अथवा ‘ऊ...........घ् .........ह’ जैसा होता है। गुर्राहट ‘गर्र र्र र्र’ जैसी होती है। ऋतुमती शेरनी शेर को बार बार पुकारती है। शेर उसे सुनकर वहीं से प्रत्युत्तर देता है और दोनों एक दूसरे के समीप पहुँचते हैं। प्रणय-केलि के समय दोनों बहुत ही तेज आवाज करते हैं, मानो प्रचण्ड युद्ध हो रहा हो।

बाध, चीते या तेंदुआ बड़ी सतर्क चाल चलते हैं। उनकी पहचान का सर्वोत्तम माध्यम काकड़, चीतल, साँभर और हिरन की उच्च ध्वनियाँ ही हैं। काकड़ की आवाज ‘बोक् जैसी होती है, नर-चीतल भारी, दीर्घ-सी ध्वनि से सतर्क करता है, साँभर तीव्र शंख ध्वनि की तरह पैड की आवाज करता है और श्रोता को सहसा चौंका देता है। बाघ, चीता बघेराख् या तेंदुआ की उपस्थिति का सर्वाधिक प्रामाणिक अनुमान इन्हीं आवाजों से होता है। साथ ही उत्तेजित बन्दरों की ‘खो खो’ या लंगूर की खुर्र-खुर्र भी इन हिंसक प्राणियों की उपस्थिति का संकेत हैं।

यह हुई वन की ‘भाषा’ वन की ‘लिपि को भी समझना आवश्यक है। नरम या आर्द्र मिट्टी पर पशुओं के पद चिह्न ही यह लिपि हैं। उनसे वहाँ से गुजरने वाले पशु का वर्ग, आकार गुजरने का समय तथा दिशा का सूचक होता है। वनवासी इन चिह्नों को पहचानने में प्रवीण होते हैं। पटु शिकारी भी इसमें दक्ष होते हैं। जरा सी दबी घास या टूटी हुई डालें, सूखी कड़ी भूमि में भी पशु के जाने आने की दिशा का पता चल जाता है।

वन में पशु पक्षियों की बोलियों के भी अभिप्राय को समझना आवश्यक है। एक दूसरे को अपनी उपस्थिति की सूचना देने के लिए अथवा मौज की लहर में हाथ जोर दार स्वर में चिंघाड़ते हैं...............धार...........र। जब कि भय या उत्तेजना की स्थिति में वे फटी-सी और तीखी ध्वनि करते है- पै-ऐ ...........ऐ”। कभी कभी हाथी ‘गु र्र र्र र’ ध्वनि से गुर्राते हैं, जो क्रोध का परिचायक है। मानो कोई मोटर इंजिन चालू किया गया हो।

हाथी कभी कभी फुफकारते है- तेजी से। एक-दो फलाँग दूर भी फुफकारते पर लगाता है मानो 15-20 फुट दूर से ही ध्वनि आ रही हो।

शहर और नगरों की होने वाली हलचलों का आभास हवा में गूँजने वाले शोर-वाली हलचलों को आभास हवा में गूँजने वाले शोर–शराबे से लग जाता है। कार, स्कूटर, ट्रक आदि के सड़क पर से यह पता चलता है कि कौन वह गुजरा। ताँगा, इक्का, धकेल, बैलगाड़ी, ऊँट गाड़ी के आवागमन की बात बिना उन्हें देखे ही मात्र ध्वनि के सहारे जानी जा सकती है। अगल–बगल में बच्चों की उछल कूद और बड़ों की भगदड़ में जो अन्तर होता है उसे कमरे में बैठ कर भी बिना देखे जाना जा सकता है। हवा की तेजी-वर्षा की गति आदि की हलचल कान से सुनकर आंखें मीचें मीचें भी जानी जा सकती है। हवा में गूँजने वाली ध्वनियों के सहारे हम सहज ही समीपवर्ती वातावरण का अनुमान लगा सकते हैं।

जंगल की भी अपनी भाषा है। वन्य पशु पक्षियों की उपस्थिति तथा हरकतों का अनुमान उनके संसर्ग से उत्पन्न होने वाली आवाजों के आधार पर सहज ही जाना जा सकता है। वन क्षेत्र के निवासी उनके अभ्यस्त भी होते हैं। शिकारियों को इस भाषा की अच्छी जानकारी होती है। जंगलों में निवास अथवा काम करने वाले यदि जंगल की भाषा न समझें तो उनके सामने प्राण संकट खड़ा रहेगा। अस्तु जिस प्रकार शहर, गाँवों में रहने वालों को उस क्षेत्र के निवासियों से संपर्क साधना के लिए स्थानीय भाषा की जानकारी प्राप्त करनी होती है, उसी प्रकार जिनका वन्य प्रदेशों और उनमें रहने वाले प्राणियों से वास्ता पड़ता है उन्हें “जंगल की भाषा’ जानना भी आवश्यक होता है।

ग्रीष्म ऋतु में ताजे पद चिह्न भी तेज हवा द्वारा धूल से भरकर पुराने लगने लगते और शरद् ऋतु में नरम मिट्टी पर छायादार हिस्से में कुछ पुराने निशान भी ताजे जैसे दिखते हैं। अभ्यास से यही पहचान की क्षमता आती है।

बाघ और तेंदुए के पद चिह्नों का कुत्तों के पद चिह्नों से साम्य होता है। पर बाघ और तेंदुए के पैरों के चिह्न कुत्ते के पग चिह्नों से चौगुने से भी ज्यादा बड़े होते हैं। कुत्ते के पद चिह्नों में पंजों के आगे नाखून के चिह्न दिखते हैं, बाघ तेंदुए के नाखून चलते समय सिमटकर पंजों की गद्दियों में छिप जाते हैं। अतः उनके निशान नहीं होता। बाघ तेंदुए के पग चिह्न गोल से होते हैं, सामने की ओर चार छोटी अंगुलियों के चिह्न तथा पीछे गद्दी का तिकोना सा निशान होता है।

हाथी के पग चिह्न चक्की के पाट से होते हैं। हाथी के पैर के नाखूनों का निशान जिस ओर दिखे, वही उनके जाने की दिशा होता है। घास के पौधे की गिरी हुई या झुकी स्थिति से भी हाथी के जाने आने की दिशा ज्ञात हो जाती है। टूटी घास के हरे या सूखे होने से गुजरने के समय का अनुमान हो जाता है। युवा हाथी हथनियों के तलवे साफ और पद चिह्न भी साफ होते हैं, किन्तु प्रौढ़ वृद्ध हाथियों के पद चिह्नों में उनके पैरों की बिवाइयों का निशान स्पष्ट दिख जाता है।

भालू के पिछले पैरों का निशान मानव पग चिह्नों की ही तरह, किन्तु कुछ कम लम्बा होता है। एड़ी और पंजों के बीच की दूरी भी कम होती है। अगले पैरों के निशान लगभग आयताकार होते हैं। भालू के पग चिह्नों में नाखूनों के निशान भी दिखते हैं।

टूटी शाखाएँ, टूटे या चर्वित घास, पेड़ों की छिली हुई-सी नीचे गिरी छाल आदि से हाथियों के आने जाने के बारे में बहुत कुछ पता चल जाता है।

नमकीन मिट्टी वाले स्थान में ‘चाटन’ के आस-पास छिपकर पशु देखें जो सकते हैं। पशुओं की लीद, मेंगनी इत्यादि से भी उनके बावत कई सूचनाएँ मिल जाती हैं। इसी तरह भालू, चीते, बाघों द्वारा पेड़ों के तनों पर पैना करने के लिए नाखूनों की रगड़ के चिह्नों से भी कई बातें जानी जाती हैं।

जब हाथी किसी शाखा को तोड़ता है, तो ‘कड़ाक’ या ‘करड़ड़’ की लम्बी खिंचती सी ध्वनि होती है। ऐसी ध्वनि की शीघ्र शीघ्र एवं बार बार आवृत्ति हो तो अनुमान होता है कि वहाँ हाथियों का पूरा समूह है। बन्दर जब डाल तोड़ते हैं, तो ध्वनि नीचे से नहीं, पेड़ की ऊँचाई से आती है और वह हल्की तथा छोटी होती है। कुल्हाड़ी से काटी जा रही लकड़ी से ‘खट खट’ आवाज आती है और उसमें नियमितता होती है। कठफोड़वा जब लकड़ी में चोंच मारता है, तो सर्वथा भिन्न खट-खट की ध्वनि होती है।

जैसे जंगल में एक डाल टूटने की ध्वनि होती है- सम्भव है, यह किसी हाथी ने तोड़ी हो या बन्दरों की उछल-कूद से टूटी हो या फिर लकड़हारे ने लकड़ी काटी हो। इसी तरह पेड़ों के हिलने के भी कई कारण सम्भव हैं- कपि समूह की क्रीड़ाएं, चीतल-साँभर आदि का चलना या हाथियों की हलचल।

इन सबकी समुचित जानकारी द्वारा ही चल रही गतिविधियों को समझा जा सकता है और तद्नुकूल प्रतिक्रिया व तत्परता सम्भव है।

पत्तों पेड़ों के हिलने से आने वाली ध्वनियाँ भी भिन्न भिन्न होती हैं। हिरण, चीतल जैसे खुरधारी प्राणियों के चलने से अधिक आवाज निकलती है। कठोर खुरों से पत्ते भी जोर से दबते हैं और अगल बगल की झाड़ियाँ, पत्तियाँ भी हिलती है। हाथी मंदगति तो होता ही है। उसके तलुए भी नरम होते हैं। इसलिए भूमि पर रखे जाने पर उन पैरों से कोई विशेष ध्वनि नहीं होती, पर उसके शरीर की रगड़ से पेड़ पौधे हिलते खूब हैं।

साँप जब घास फूँस या शुष्क पत्तों पर चलते हैं, तो सरसराहट होती है। गोह के चलने पर भिन्न तरह की ध्वनि होती है। खड-खड खड खड क्योंकि उसके पाँव छोटे छोटे होते हैं और दुम जमीन पर घिसटती चलती है।

अन्य प्राणियों की भाषा समझने एवं शब्दों को पहचानने में कठिनाई भी हो सकती है, पर भावों की परख तो और भी सरल है। भाषा में ध्वनि और शब्दों की भिन्नता रहने से उन्हें समझने में कठिनाई हो सकती है, पर भावाभिव्यक्ति तो सार्वभौम है। संसार के किसी भी कोने में जाया जाय कष्ट के अवसर पर प्रायः सभी की विपन्न मुखाकृति होगी। सभी की आँखों में से आँसू टपकेंगे और विषाद की दर्द भरी छाया भर रही होगी। प्रसन्नता के समय सर्वत्र हँसी, मुस्कराहट, आँखों में चमक दिखाई देगी। यही बात अन्य भावनाओं के सम्बन्ध में है। मुखाकृति से अन्तरंग में घुमड़ती हुई शोक, रोष, क्रोध, आवेश, भय, चिन्ता, निराशा, उत्साह उल्लास, कामुकता आदि के भाव सहज ही उभरते देखे जा सकते हैं।

भावाभिव्यक्ति जो स्थिति मनुष्यों की है वही अन्य प्राणियों के सम्बन्ध में भी पाई जाती है। उसमें थोड़ा बहुत ही अन्तर होता है। मनुष्य अधिक संवेदनशील है इसलिए भाषा की सूक्ष्मता की तरह उसे भावों की अभिव्यक्ति भी अच्छी तरह करनी आती है। अन्य प्राणी भाषा की तरह भावों के प्रकटीकरण में पीछे हो सकते हैं, पर ध्यानपूर्वक उनके चेहरे को, आँखों तथा होठों को, अन्य अवयवों को देखा जाय तो उनके भीतर काम कर रही भावनाओं, प्रवृत्तियों एवं सम्वेदनाओं को बहुत हद तक समझा जा सकता है। इस दिशा में यदि हम प्रयास करें तो मनुष्य परिवार से आगे बढ़ कर प्राणि मात्र में अपनी आत्मीयता विकसित कर सकते हैं और आत्मविस्तार का अधिक लाभ उपलब्ध कर सकते हैं।


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