मरने के बाद फिर से जन्म लेना पड़ता है।

January 1977

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आत्मा की अमरता और शरीर की नश्वरता का सिद्धान्त भारतीय दर्शन का तो प्राण है ही, अन्यान्य धर्मों एवं दर्शनों ने भी उसे किसी न किसी रूप में स्वीकार किया है। ‘ईसाई, मुसलमान धर्मों में पुनर्जन्म की तो मान्यता नहीं है, पर उनके यहाँ भी आत्मा का अस्तित्व मरने के बाद भी बने रहने और ‘न्याय के दिन’ ईश्वर के सम्मुख उपस्थित होने की बात है। इसका अर्थ कम से कम इतना तो है ही कि मरने के साथ-साथ ही जीव की सत्ता सदा-सर्वदा के लिए समाप्त नहीं हो जाती, वरन् फिर से सचेतन की तरह काम करने का अवसर मिलता है स्वर्ग-नरक की मान्यताएँ भी इसी सिद्धान्त की पुष्टि करती हैं कि अशरीरी आत्मा को भी एक विशेष प्रकार का जीवनयापन करने का अवसर मिलता है।

भूत-प्रेतों का अस्तित्व पिछड़े लोगों में अन्ध-विश्वास की तरह फैला हुआ है। प्रगतिशील लोग उस बात का मजाक बनाते हैं, पर दोनों की मध्यवर्ती भी एक स्थिति है जिसमें कठोर परीक्षणों की कसौटी पर भी मृतात्माओं के द्वारा शरीरधारियों जैसे आचरण होने के प्रमाण मिलते हैं। प्रेत कैसे होते हैं? क्या करते हैं? मनुष्यों के साथ किस प्रकार का व्यवहार करते हैं? क्या चाहते हैं? इन प्रश्नों पर मत-भेद हो सकता है, पर यह तथ्य अब दिनों-दिन अधिक प्रामाणिक होता जा रहा है जिसमें किन्हीं आत्माओं को मरने के उपरान्त भी अपनी हलचलें प्रत्यक्ष करने की बात विश्वासपूर्वक स्वीकार की जा सकें।

आत्मा की अमरता का एक प्रमाण पुनर्जन्म है। मरने के बाद दूसरा जन्म मिलने का तथ्य हिन्दू धर्म से सदा से माना जाता रहा है। पुराणों में इसका पग-पग पर वर्णन है। धर्म-शास्त्रों में, अगणित आप्त वचनों में आत्मा के पुनर्जन्म लेने की बात कही गई हैं। चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करने के उपरान्त मनुष्य जन्म मिलने, पुण्य और पाप का फल भोगने के लिए फिर से जन्म मिलने की बात को धर्म-ग्रन्थों में अनेकानेक उदाहरणों के साथ बताया गया है।

पुनर्जन्म की मान्यता के साथ कर्मफल का सघन सम्बन्ध है। जिन्हें भले या बुरे कर्मों का फल इस जन्म में तत्काल न मिल सका, उन्हें अगले जन्म में भोगना पड़ेगा। इस सिद्धान्त को स्वीकार करने पर पाप फल से डरने और पुण्य प्रतिक्रिया के सम्बन्ध में आश्वस्त रहने की मन-स्थिति बनी रहती है। फलतः पुनर्जन्मवादी को अपने कर्मों का स्तर सही रखने की आवश्यकता अनुभव होती है ओर तत्काल फल न मिलने से उद्विग्नता उत्पन्न नहीं होती।

आत्मा को स्वतन्त्र सत्ता न मानने उसे शरीर चेतना भर समझने का नास्तिकवादी दर्शन प्राचीन काल में भी रहा है। चार्वाक इस मत के आचार्य थे। उन्होंने अपने प्रतिपादन की प्रतिक्रिया छिपाई नहीं, वरन् स्पष्ट कर दिया कि आत्मा और परमात्मा की सत्ता से इनकार करने के उपरान्त क्या सोचना ओर क्या करना उचित है? उनने अपनी प्रख्यात घोषणा में कहा है- यावज्जीवेत् सुखं जीवेत्, ऋण कृत्वा धृतं पिवेत्। भस्मी भूतस्य देहस्य पुनरा गमनं कुतः।” अर्थात् जब तक जीना सुख से जीना-कर्ज लेकर घी पीना। क्योंकि शरीर के साथ ही मृत्यु हो जाती है, फिर लौटकर तो आना नहीं है। इस सिद्धान्त में नीति-अनीति के पचड़े में पड़ कर जैसे भी बने मौज-मजा करने के लिए प्रोत्साहित किया गया है।

पिछले शताब्दियों में भौतिक विज्ञान की प्रगति से उत्पन्न हुए उत्साह ने यह कहना आरम्भ किया कि सत्य केवल उतना ही है जितना कि विज्ञान की मान्यता प्राप्त कर सके, चूँकि चेतना को- प्रयोगशाला में प्रत्यक्ष नहीं किया जा सका। इसलिए घोषित किया गया कि शरीर ही आत्मा है और मृत्यु के उपरान्त उसका सदा सर्वदा के लिए अन्त हो जाता है। मनुष्य को चलता-फिरता पौधा भर कहा गया, जो उगता है और सूख कर समाप्त हो जाता है। यह मान्यता मात्र एक सिद्धान्त या प्रतिपादन मात्र बनकर नहीं रह सकती, उसकी गम्भीर प्रतिक्रिया चिन्तन और चरित्र पर होती है। पुनर्जन्म, परलोक, आत्मा के अस्तित्व की जब कोई बात ही नहीं है तो पाप-पुण्य के पचड़े से क्या लाभ? चतुरता के बल पर जितना भी स्वार्थ सिद्ध किया जा सकता हो करना चाहिए। समाज और शासन के दण्ड से बच निकलने के हथकण्डों से तो भली प्रकार परिचित हैं। अंकुश मात्र परमात्मा के शासन और आत्मा को कर्मफल भोगने भर का था। नास्तिकवादी मान्यता के कारण उसका भी अन्त हुआ। ऐसी दशा में नीति, सदाचार और सामाजिक मर्यादाओं के पालन की उपेक्षा होनी स्वाभाविक थी। इस मान्यता ने उच्चस्तरीय आदर्शों को भारी क्षति पहुँचाई। भविष्य में और भी अधिक नीति संकट उत्पन्न होने और उसके फलस्वरूप व्यक्ति एवं समाज की बुरी तरह विघटन होने की आशंका है।

ऐसी विषम परिस्थितियों में मानव जाति के भविष्य का ध्यान रखने वाले प्रत्येक विचारशील व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह आत्मा की अमरता, ईश्वर का अंकुश, कर्मफल की सुनिश्चितता से गुँथे हुए आध्यात्मवाद के प्रति लोक-निष्ठा बनाये रहने का प्रबल प्रयत्न करे। यह सिद्धान्त जहाँ प्रामाणिकता की कसौटी पर खरे उतरते हैं। वहाँ उनकी प्रतिक्रिया भी होती है। शालीनता और सुव्यवस्था बनाये रहने की दृष्टि से इस आस्था का बने रहना नितान्त आवश्यक है। आस्तिकता का बाँध टूट जाने पर जो बाढ़ आयेगी उसमें वह सब कुछ डूब जाने की आशंका है, जो सभ्यता और संस्कृति के नाम पर अब तक उपार्जित किया गया है।

पुनर्जन्म के सिद्धान्त की पुष्टि में अनेकानेक प्रमाण सामने आते हैं। भारत में तो इस सम्बन्ध में चिर मान्यता होने के कारण यह भी कहा जा सकता है कि पुनर्जन्म की स्मृति बताने वाले, यहाँ के वातावरण से प्रभावित रहे होंगे। किसी कल्पना की आधी-अधूरी पुष्टि हो जाने पर यह घोषित किया जाता होगा कि यह बालक पिछले

जन्म में अमुक था। यों इस आशंका को भी कठोर परीक्षा की दृष्टि से भली-भाँति निरस्त किया जाता रहा है और बच्चे ऐसे प्रमाण देते रहे हैं। जिनके कारण किसी झाँसे पट्टी की आशंका नहीं रह जाती। पिछले जन्म के सम्बन्धियों के नाम तथा रिश्ते बताने लगने-ऐसी घटनाओं का जिक्र करना जिनकी दूरस्थ व्यक्तियों को जानकारी नहीं हों सकती, वस्तुओं के साथ जुड़े हुए इतिहास का विवरण बताना, जमीन में गढ़ी चीजें उखाड़ कर देना-अपने और पराये खेतों का विवरण बताना जैसे अनेक सन्दर्भ ऐसे हैं जिनके आधार पर पुनर्जन्म होने की प्रामाणिकता से इनकार नहीं किया जा सकता। फिर भारत से बाहर उन सम्प्रदाय के लोगों पर तो पूर्व मान्यता का भी आक्षेप नहीं लगाया जा सकता। पुनर्जन्म के प्रमाण तो वहाँ भी मिलते हैं। यह भी किम्वदन्तियों के आधार पर नहीं, वरन् परामनोविज्ञान की शोधकर्ता मण्डली द्वारा उनकी छान-बीन की गई है ओर यह पाया गया है कि यह घटनाएँ मन गढ़न्त, कपोलकल्पित या झाँसा पट्टी नहीं है। इनसे पुनर्जन्म की मान्यता की ही पुष्टि होती है।

दार्शनिक एफ॰ एच॰ विलिस की भी मान्यता है कि पुनर्जन्म व आत्मा के विकास का सिद्धान्त सत्य लेती है। श्री विलिस ने ऐसे कई जोड़े ढूँढ़े हैं, जिनके चिन्तन व कर्म में अपूर्व साम्य था। श्री विलिस इन्हें पुनर्जन्म की ही घटनाएँ मानते हैं। उनके टिमाना के रूप में जन्म लिया। शोपनहावर बुद्ध के अवतार कहें जा सकते हैं। फिश्टे, हीगल कान्ट को भी भारतीय आत्माएँ कहा जा सकता है। श्रीमती बेसेन्ट पहले ब्रूनो थी सिसरो ने ग्लैडस्टोव के रूप में पुनर्जन्म लिया।

अमरीकी पादरी जिमविशप की मान्यता है कि राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने ही राष्ट्रपति जान एफ॰ केनेडी के रूप में पुनर्जन्म ग्रहण किया। उन्होंने दोनों के जीवन का तुलनात्मक अध्ययन कर इन तथ्यों की ओर लोगों का ध्यान खींचा है।

लिंकन व केनेडी दोनों में गहरी धार्मिक भावना थी। व बाइबिल के प्रेमी पाठक भी दोनों थे। दोनों विश्व-शान्ति के उपासक थे। दोनों में 40 वर्ष की आयु में ही राष्ट्रपति बनने की इच्छा हुई। नीग्रो स्वतन्त्रता के लिए दोनों ने निरन्तर प्रयास किया। लिंकन के चार बच्चे थे, दो मर गये थे शेष दो से उन्हें गहरा प्यार था। केनेडी के भी चार बच्चे हुए दो का निधन हो गया। उन्हें भी वैसा ही प्यार था। दोनों अपने बच्चों से विनोद-परिहास बहुत करते थे।

लिंकन की भी प्रथम धर्म-पत्नी फैशनेबल थीं, केनेडी की भी। दोनों लिबरल पार्टी के सदस्य थे। लिंकन 1861 में प्रेसीडेन्ट बने, केनेडी 1961 में। लिंकन के प्राणों की सर्वाधिक चिन्ता केनेडी नामक समकालीन व्यक्ति को रहती थी। केनेडी के सुरक्षार्थ उनका निजी सचिव लिंकन सर्वाधिक सतर्क रहता था। दोनों गोली से मारे गये व शुक्रवार के ही दिन। लिंकन की मृत्यु के बाद उनका पद सम्हाला दक्षिणी उपराष्ट्रपति जान्सन ने और केनेडी की मृत्यु के बाद भी इस जिम्मेदारी को सम्हालने वाले का नाम जान्सन ही था वे दक्षिण से आये उपराष्ट्रपति थे।

क्या यह अद्भुत साम्य मात्र संयोग है? या इसके पीछे कोई सूक्ष्म आत्मिक विधान निहित है?

सन् 1215 में जन्मे फ्रांस के सन्त लुइस एक महान् क्रान्ति द्रष्टा थे। 539 वर्ष बाद सन 1754 में सम्राट् लुइस 16 वें का अन्तर था और दोनों के जीवन काल में 539 वर्ष का अन्तर था और दोनों की देह यानी रूपाकर में भी एकता थी। इसके अतिरिक्त दोनों के जीवन में असाधारण समानताएँ थी।

सन्त लुइस की छोटी बहिन का नाम इसाबेल था, वह उनसे 10 वर्ष बाद पैदा हुई। सम्राट् लुइस की बहिन भी 10 वर्ष ही छोटी थी। नाम था एलिजाबेथ। दोनों के पिताओं की मृत्यु उनकी आयु के 12 वें वर्ष में हुई। 15 वें वर्ष में सन्त लुइस बीमार हुए और सम्राट लुइस भी उसी आयु में उसी रोग से ग्रस्त हुए दोनों का विवाह 17वें वर्ष में हुआ व 21 वर्ष दोनों को बालिग अधिकार मिले।

सन्त लुइस ने 29 वें वर्ष में हेनरी तृतीय से और सम्राट् लुइस ने 29वें जार्ज तृतीय से शान्ति वार्ता की।

दोनों के पास उनकी 34 वर्ष की उम्र में पूर्व के एक राजकुमार का राजदूत, राजकुमार के ईसाई बनने की इच्छा से आया। 35 वर्ष की उम्र में सन्त लुइस क्रान्ति-कारी विचारों के कारण नजर बन्द किये गये। 35 वर्ष की ही आयु में सम्राट लुइस के सभी सत्ताधिकार छिन भी। आयु के उसी वर्ष में यानी 36 वें वर्ष में सन्त लुइस ने ट्रिस्टन की स्थापना की व क्रान्ति का उद्घोष किया। सम्राट लुइस ने भी 36 वे वर्ष वैस्टीन के पतन के साथ क्रान्ति का शुभारम्भ किया। सन्त ने उसी वर्ष जैकन की स्थापना की, सम्राट ने जैको विनस का सूत्रपात किया। सन्त के 36 वे वर्ष में इसावेल ऐन्गुलुम की मृत्यु हुई। सम्राट के 36 वे वर्ष सन्त अवकाश ग्रहण कर जैकोबिन बने। सम्राट ने 39 वें वर्ष में जैकीबिन को जीवन अर्पण किया। उसी वर्ष सन्त मैडेलियपन प्रान्त में वापस पहुँचे। 39 वे वर्ष में ही सम्राट लुइस मैडेलिन के अन्तिम संस्कार में पेरिस में सम्मिलित हुए।

इस तरह दोनों के जीवन की घटनाओं में अद्भुत साम्य है। सभी घटनाएँ 539 वर्ष के अन्तर से मानो स्वयं को दुहराती रही।

वर्जीनिया विश्व-विद्यालय के मनोवैज्ञानिक डाक्टर इवान स्टीवेन्सन ने पुनर्जन्म की स्मृति सम्बन्धी तथ्यों के संकलन हेतु संसार में दौरा किया। उसी शृंखला में भारत भी आये। कन्नौज के निकट जन्मे एक बालक के शरीर पर गहरे घावों के पाँच निशान थे। उसने बताया कि पिछले जन्म में उसकी हत्या शत्रुओं ने चाकू से की थी। जाँच करने पर श्री स्टीवेन्सन ने उसे सही पाया।

डॉ० इवान स्टीवेन्सन ने समस्त विश्व में इस प्रकार के प्रामाणिक विवरण प्राप्त किये। भारत में सर्वाधिक इसलिए पाये गये कि यहाँ की संस्कृति में पुनर्जन्म की मान्यता है। इस कारण पूर्व जन्म की बातें बताने वाले को डाँटा या रोका नहीं जाता है।

ब्रिटेन के प्रसिद्ध साहित्यकार डिक्सन स्मिथ भी काफी समय तक मरणोत्तर जीवन पर विश्वास नहीं करते थे किन्तु प्रामाणिक विवरणों ने उन्हें इसे सत्य मानने के लिए बाध्य कर दिया। उन्होंने अपनी पुस्तक ‘न्यू लाइट आन सरबाइवल में अनेक तर्कों एवं प्रमाणों को प्रस्तुत किया है।

लेबनान और तुर्की के मुसलिम परिवारों में भी पुनर्जन्म की अनेक स्मृतियाँ सामने आई हैं। जिन्हें स्वयं शोधकर्ताओं ने सही पाया।

लेबनान के एक गाँव कोरनाइल में एक मुस्लिम परिवार में बालक जन्मा, जिसका नाम अहमद था। बच्चा दो वर्ष की उम्र से ही पूर्व जन्म की घटनाओं और सम्बन्धियों के बारे बुदबुदाया करता था। किन्तु किसी ने ध्यान नहीं दिया। बड़ा होने पर अपना पूर्व जन्म का निवास ‘खेरबी ओर नाम बोहमजी बताने लगा।’ फिर भी उस पर किसी ने विश्वास नहीं किया। एक दिन उसने सड़क पर खेरबी के एक आदमी को पहिचान लिया।

पता लगने पर पुनर्जन्म के शोधकर्ता वहाँ पहुँचे और उस बालक को 40 कि० मी० दूर गाँव खेरबी ले गये। बालक ने अपने पूर्व जन्म के नाम इब्राहिम बोहमजी के बारे में जितना बताया था, वह सही निकलता गया। उसकी मृत्यु रीढ़ की हड्डी के क्षयरोग से हुई। उसके पैर उस समय अशक्त थे। इस जन्म में ठीक तरह से चलने पर वह बड़े उत्साह और हर्ष के साथ इस बात को दूसरों के सामने प्रकट करता।

खेरबी में उसने कुटुम्बी, सम्बन्धी, मित्र, परिचितों आदि को पहिचान लिया। ऐसी घटनाएँ भी सुनाई’ जो केवल सम्बन्धित लोग ही जानते थे। उसने अपनी प्रेयसी का नाम भी बताया। मित्र की ट्रक दुर्घटना से मरने की बात कही। मरे हुए भाई भाउद का चित्र पहिचाना। अपनी बहिन ‘हुडा’ को भी पहिचान लिया।

इस्तम्बूल ( तुर्की ) के विज्ञान अनुसंधान परिषद ने पुनर्जन्म की इस घटना की जाँच कर उसे सत्य पाया है। एक चार वर्ष का बालक इस्माइल अतलिट्रालिक पूर्व जन्म में दक्षिण पूर्वी तुर्की के अदना नामक गाँव का आविदसुजुलयुस था। इसकी हत्या की गई। वह अपने पीछे तीन बच्चे-गुलशराँ जैकी ओर हिकमन छोड़ आया था। वह चार साल कर बालक इस्माइल रोते-रोते पूर्व जन्म के अपने बच्चों को पुकारने लगता तथा उनकी स्मृति में रोता भी।

एक दिन उसी इस्माइल ने एक फेरी वाले को आइसक्रीम बेचते देखा। उसने उस अजनबी का नाम-महमूद लेकर पुकारा और उसे कहा कि तुम तो साग-सब्जी बेचते थे, आइस्क्रीम कब से बेचने लगे? महमूद चकरा उठा। पर यह कहकर तो उसके आश्चर्य को कई गुना अधिक बढ़ा दिया कि तुम भूल रहे हो, भई ! मैं तुम्हारा चिर-परिचित आविद हूँ, जिसकी छः वर्ष पूर्व हत्या की गई थी।

पत्र प्रतिनिधि इस्माइल को अदना नगर ले गये वहाँ पहुँचते ही उसने अपने पूर्व जन्म की बेटी गुलशराँ को पहिचान लिया। वह वहाँ भी पहुँचा जहाँ असबल में रमज़ान ने उसकी कुल्हाड़ी से हत्या की थी। उस कब्र पर भी गया जहाँ उसे दफनाया गया था। पुलिस से पूछ-ताछ करने पर मालूम हुआ कि उपरोक्त हत्या काण्ड हुआ था। हत्यारे रमज़ान का फाँसी का दण्ड भी दिया था। आविद की कब्र वही थी, जो इस्माइल ने बताई। बालक इस्माइल का चाचा जब उसके साथ क्रूर व्यवहार करने लगा तो उसने कहा कि तुम भूल गये, मेरे ही बाग में तुम काम करते थे ओर बहुत समय तक तुम्हें मैंने ही रोटी खिलाई थी। जानकारी प्राप्त करने पर यह पाया गया कि आविद के इस व्यक्ति पर, जो अब इस्माइल का चाचा था, कई एहसान थे।

अमेरिका के कोलोराडी प्यूएली नामक नगर में रूप सीमेन्स नामक लड़की ने अपने पूर्व जन्म की घटनाओं को बताकर ईसाई धर्म के उन अनुयायियों को असमंजस में डाल दिया जो पुनर्जन्म के सिद्धान्त को नहीं मानते हैं। इस लड़की को मोरे बर्नस्टाइन नामक आत्म-विशारद ने प्रयोग द्वारा अर्ध मूर्छित करके उसी के पूर्व जन्म की अनेक घटनाओं का पता लगाया। वह 100 वर्ष पूर्व आयरलैण्ड के मार्क नामक नगर में पैदा हुई थी। उसका नाम ब्राइडी मर्फी और उसके पति का नाम मेकार्थी था। इस घटना की जाँच की गई तो सत्य पाई गई।

पुनर्जन्म में पूर्व जन्म के संस्कारों के प्रभाव के प्रमाण लगातार सामने आ रहे हैं। लिंग-परिवर्तन भी संस्कारों का प्रतिफल नहीं है।

ब्राजील वासी श्रीमती इडा लोरेंस को ‘सियान्स’ ( मृतात्माओं के आह्वान सम्बन्धी बैठक ) में तीन बार उनकी पुत्री इमिलिया की मृतात्मा ने सन्देश दिया कि मैं अब तुम्हारे पुत्र के रूप में जन्म लूँगी इमिलिया को अपने लड़की होने से घोर असन्तोष था। वह अक्सर कहती थी कि यदि पुनर्जन्म सचमुच होता है, तो अगले जन्म में मैं पुरुष बनूँगी। उसने अपने विवाह के सभी प्रस्ताव ठुकरा दिये और 20 वर्ष की आयु में विष खाकर मर गई। बाद में ‘सियान्स’ में इमिलिया ने अपनी माँ से अपनी आत्म-हत्या पर पश्चाताप व्यक्त किया। साथ ही पुत्र रूप में अपने पुनर्जन्म की इच्छा व्यक्त की।

श्रीमती इडा लोरेंस अब तक 12 बच्चों को जन्म दे चुकी थीं और अब सन्तान की उन्हें सम्भावना नहीं थी। पर इमिलिया की मृतात्मा का सन्देश सत्य निकला। अपनी मृत्यु के डेढ़ वर्ष बाद इमिलिया ने पुत्र रूप में पुनर्जन्म लिया। उसका नाम रखा गया-पोलो

पोलो की रुचियाँ इमिलिया जैसी ही थीं। सिलाई में इमिलिया निपुण थीं, तो पोलो भी बिना सीखे ही 4 वर्ष की आयु में सिलाई में दक्ष हो गया। इमिलिया ही तरह पर्यटन पोलो को भी अति प्रिय था। इमिलिया एक खास ढंग से डबल रोटी तोड़ती थी।

पोलो में भी वही अन्दाज पाया गया। पोलो अपनी बहिनों के साथ कब्रिस्तान जाता, तो सिर्फ इमिलिया की कब्र पर फूल चढ़ाता। वह भी यह कहते हुए कि- मैं अपनी कब्र की देख-भाल कर रही हूँ।’ शुरू में पोलो की बातें लड़कियों जैसी ही थीं। उसके व्यक्तित्व में अन्त तक नारी तत्त्वों की प्रधानता रही। अपनी बहिनों के अतिरिक्त अन्य स्त्रियों के प्रति उसमें लगाव नहीं था और वह अविवाहित ही रहा।

मनोवैज्ञानिकों और परामनोवैज्ञानिकों ने उसका परीक्षण किया। उसमें स्त्री सुलभ प्रवृत्तियाँ पाई गई।

इसी तरह श्री लंका की एक बालिका ज्ञानतिलक ने दो वर्ष की आयु में बताया कि पूर्व जन्म में वह लड़की थी। पूर्व जन्म वाले स्थान से एक दिन वह गुजरी तो सहसा उसके दिमाग में कौंधा कि वह पूर्व जन्म में यहीं पर थी। उसने अपने पूर्व जन्म की कई बातें बताई जो सत्य निकलीं। ज्ञानतिलक का पूर्व जन्म का नाम तिलकरत्न था। इमिलिया को लड़का होने की तीव्र इच्छा थी, तो तिलकरत्न में नारी व्यक्तित्व की प्रधानता थी और पुनर्जन्म में वह लड़की ही बनी। साथ ही पुरुष बनी इमिलिया में नारी-प्रवृत्ति अवशिष्ट थी, तो नारी बने तिलकरत्न में पुरुष प्रवृत्तियाँ विद्यमान् थीं

विलियम वाकर एवं केंन्सन ने अपनी पुस्तक ‘रिइकार्नेशन’ में अनेक घटनाओं का विवरण दिया है जिनमें पुनर्जन्म की धार्मिक मान्यता न होने पर भी बच्चों द्वारा प्रस्तुत किये गये विवरणों से इस सिद्धान्त की पुष्टि होती है। बड़ी आयु हो जाने पर प्रायः ऐसी स्मृतियाँ नहीं रहती या धुँधली पड़ जाती हैं, पर बचपन में बहुतों को ऐसे स्मरण बने रहते हैं जिनके आधार पर उनके पूर्व जन्म के सम्बन्ध में काफी जानकारी मिलती है।

मोटे तौर से जीवात्मा के योनि-परिभ्रमण का अर्थ यह समझा जाता है कि वह छोटे-बड़े कृमि-कीटकों-पशु-पक्षियों की चौरासी लाख योनियों में जन्म लेने के उपरान्त मनुष्य जन्म पाता है। पुनर्जन्म की घटनाओं से यह सिद्ध होता है कि मनुष्य को दूसरा जन्म मनुष्य में ही मिलता है। इसके पीछे तर्क भी है। जीव की चेतना का इतना अधिक विकास, विस्तार हो चुका होता है कि उतने फैलाव को निम्न प्राणियों के मस्तिष्क में समेटा नहीं जा सकता। बड़ी आयु का मनुष्य अपने बचपन के कपड़े पहन कर गुजारा नहीं कर सकता। यही बात मनुष्य योनि में जन्मने के उपरान्त पुनः छोटी योनियों में वापिस लौटने के सम्बन्ध में भी लागू होती है। यह हो सकता है कि जीवन-क्रमिक विकास करते हुए मनुष्य स्तर तक पहुँचा हो। इसका प्रतिपादन तो एकबार मनुष्य जन्म लेने के बाद पीछे लौटने की बात तर्क संगत नहीं है। कर्मों का फल भुगतने की बात हो तो दुष्कर्मों का दण्ड जितना अधिक मनुष्य जन्म में मिल सकता है, शोक, चिन्ता, भय, अपमान, घाटा, विछोह आदि से वह तिलमिला उठता है जबकि अन्य प्राणियों को मात्र शारीरिक कष्ट ही होते हैं। मस्तिष्क अविकसित रहने के कारण उनमें भी उतनी तीव्र पीड़ा नहीं होती जितनी मनुष्यों को होती है। ऐसी दशा में पाप कर्मों का दंड भुगतने के लिए निम्नगामी योनियों में मनुष्य को जाना पड़े यह आवश्यक नहीं।

चौरासी लाख योनियों में परिभ्रमण की एक नई वैज्ञानिक मान्यता सामने आई है। भ्रूण काल में जीव शरीर में इतनी तीव्र गति से परिवर्तन होते हैं कि उनकी स्थिति में लगभग इतना ही अन्तर पड़ता जाता है जितना कि अन्यान्य योनियों के प्राणियों में पाया जाता है इस प्रकार माता के उदर में रहते समय ही- नौ महीने की अवधि में जीव को लगभग उतनी ही योनियों का परिधान बदलना पड़ता है कि पुराणों में गिनाया गया है।

वैज्ञानिक हीकल्स, जो स्वयं विकासवाद के समर्थक ही हैं, ने एक महत्त्वपूर्ण भ्रूण-वैज्ञानिक सिद्धान्त दिया है- आन्टोजेनी रिपीट्स फायलोजेनी’। अर्थात् चेतना गर्भ में एक बीज कोष में आने से लेकर पूरा बालक बनने तक समस्त योनियों की पुनरावृत्ति होती है। प्रति तीन सेकेण्ड से कुछ कम समय में ही प्रत्येक भ्रूण की आकृति बदल जाती हैं। स्त्री के ओवम ( प्रजनन-कोष ) में प्रविष्ट होने के बाद पुरुष का स्पर्म ( बीज-कोष ) 1 से 2, 2 से 4, 4 से 8, 8 से 16, 16 से 32, 32 से 64 के क्रम से कोषों में विभाजित होता जाता है और शरीर बनता है। गर्भ धारण की 9 माह 10 दिन की अवधि में लगभग 24192000 सेकेण्ड होते हैं। तीन सेकेण्ड से कुछ कम में आकृति-परिवर्तन होने के क्रम से 80 लाख 60 हजार 666 से अधिक ही आकृतियाँ बदलनी चाहिए, यानी लगभग 84 लाख।

इस तरह जीव के 84 लाख योनियों में भ्रमण का भारतीय मत पुष्ट होता है। ये 84 लाख योनियाँ, जीव जिन-जिन परिस्थितियों में रह आया है, उनका छायाचित्रण है। यह व्यवस्था की गई है कि मनुष्य इन सबके स्मरण द्वारा अपना जीवन-लक्ष्य सुदृढ़ कर ले।

पुनर्जन्म की मान्यता जितनी सत्य है, उतनी ही लोकोपयोगी भी। आत्मा की अमरता और मरणोपरान्त फिर से शरीर धारण करके कार्यक्षेत्र में उतरने की आस्था बनी रहे तो व्यक्ति दूरदर्शी विवेक अपनाये रह सकते हैं और शालीनता तथा सामाजिकता के आदर्श को सहज ही पालन करते रह सकते हैं।


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