भले ही थोड़ा करें, पर उत्कृष्ट

January 1977

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भौतिक लालसाओं में लिपट कर मनुष्य ‘विस्तार’ के ओर खिंचा जा रहा है। ‘विस्तार’ भौतिकता का ही प्रतिफल हैं। लोभी मनःस्थिति अगणित चीजों की ओर दौड़ती दौड़ती रहती है। अधिक, अधिक और अधिक की कामना का अन्त जीवनान्त तक नहीं हो पाता। आध्यात्मिक रुचि शुचिता की विशेषता के कारण दूषित वृत्तियों का शमन करती है। आध्यात्मिकता की देन सदा उत्कृष्ट ही होती है। दिव्यता के गुण से प्रभावित मनः स्थिति द्वारा प्रेरित कर्म उत्कृष्ट होते हैं। अध्यात्म मनुष्य में दिव्यता का उदय करता है, उसे उत्कृष्ट बनाता है। अपने आन्तरिक भावों की छाप ही हमें बाहर के पदार्थों में अलग अलग झलकती दिखाई देती है। इन्हीं मनोभावों के अनुरूप हम बाहर के पदार्थों में सरलता, कोमलता तथा सुन्दरता आदि गुणों के दर्शन करते हैं और इन्हीं की प्रेरणा दृष्टि हमें वही पदार्थ क्लिष्ट, कठोर तथा कुरूप दर्शाती है। अपनी अपनी मनः स्थिति के आधार भूत ही हम पदार्थों में गुण अवगुण देखते, उनकी ओर आकर्षित होते अथवा उनकी उपेक्षा करते हैं।

उस बड़ी हवेली की जिसके हर कोने में जाला-कीड़े फर्श में गन्दगी की तहें, दीवारों में धुँआ की धुँध और नालियों में सड़ाँध हो तो कोई सुखकर न मानेगा। उसकी अपेक्षा छोटी, स्वच्छ लिपि-पुती झोंपड़ी का निवास आनन्द देने वाला हो सकता है। उत्तम रेशम के महँगे कपड़ों के मैले कुचैले स्वरूप को सभी घृणा से ही देखेंगे उनकी अपेक्षा सस्ते सादे, निर्मल कपड़ों का परिधान आदर पायेगा यह मानवीय-प्रकृति का मूल है कि स्वच्छता, तथा सरलता को सदा ही सबने स्वीकारा है। थोड़े-थोड़े जल से दिन में बार-बार बिना शरीर का मैल और दुर्गन्ध दूर किए ही स्नान करते-रहने एक बार शरीर को मल मल कर स्वच्छ तथा दुर्गन्ध रहित स्नान कराने की सभी सराहना करते हैं। कहावत हैं कि ‘सन्तान एक हो, पर उत्तम’। आकाश के अगणित तारे एक चन्द्रमा के सन्मुख नकार दिए जाते हैं। सन्तानों की संख्या बढ़ाने के बाद, उनकी उचित स्वास्थ्य शिक्षा आदि की व्यवस्था पर ध्यान न देना, संसार में व्यर्थ का भार बढ़ाना ही है। हम इतनी सन्तानों के पिता है, अतः भाग्यवान हैं, ऐसा गर्व कोरा दम्भ है, मिथ्या है।

संसार का सारा वैभव-यश हम अपने लिए ही मान लें और उसकी प्राप्ति में, संचय में सारी शक्ति लगा दें, तो क्या हम सफल हो सकेंगे? अधिक से अधिक की प्राप्ति की लालसा सुरक्षा के मुख की भाँति बढ़ने वाली है, वह बढ़ती ही जाती है। उससे तो श्री रामदूत हनुमान् जैसे सूक्ष्मता ग्रहण करने वाले सशक्त मनुष्य ह छुटकारा पा सकते हैं। लम्बी आयु कौन नहीं चाहत, पर यदि लम्बी आयु पाकर भी जीवन के प्रयोगों को अनुकरणीय अथवा उत्कृष्ट न बना पाए, तो हमसे वह आठ वर्ष का बालक श्रेष्ठ सिद्ध होगा, जिसने आती हुई रेलगाड़ी को दुर्घटना से बचा लिया। संसार के अनेक महापुरुष अल्प आयु में ही देह त्याग गए, किन्तु आज विश्व उनके बताए मार्ग का अनुसरण करते हुए, उनके प्रति अपने को पूर्ण ऋणी मानता है। जगद्गुरु स्वामी शंकराचार्य केवल बत्तीस वर्ष के जीवन काल में ही विश्व को हिन्दुत्व का अद्भुत दर्शन देकर गए। स्वामी रामतीर्थ न अल्प आयु में ही साधना, तप तथा जागरण का अनूठा उदाहरण विश्व के सम्मुख उपस्थित किया और चले गए। गुरु गोविन्दसिंह के बच्चों ने अति छोटी आयु में ही धैर्य, दृढ़ता और श्रद्धा का उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत करके मुगलों का सिर झुका दिया था। आयु का छोटा या बड़ा होना कोई महत्त्व नहीं रखता यदि हमारी जीवन पद्धति में उत्कृष्टता नहीं है। सौ वर्षों के जीवन की कामना श्रेष्ठ जीवन के लिए है, कीड़ों-मकोड़ों की तरह साधारण मूल्य-रहित जीवन के लिए नहीं।

धन की वृद्धि सभी को सुख देती है। जिसके पास धन बढ़ता है, वही सुख का अनुभव करता है। इस अपने सुख के साथ साथ यदि हम इस धन की वृद्धि को समयानुकूल परिस्थितियों के अनुसार जन हित, समाज-हित राष्ट्र-हित तथा विश्व हित में त्यागने की भावना रखते हैं, साथ ही ऐसे माध्यमों से उसका उपयोग भी कर रहे है, तो हमारा धनी होना सार्थकता की श्रेणी में आकर अनुकरणीय बन जाता है। भामाशाह क्या अकेला धनवान् व्यक्ति था? राणा प्रताप के समय कितने ही अति धनवान् भी तो थे, पर हमें किसी का नाम तक नहीं मालूम। ऐसे ही अनेक उदाहरण हैं। इस भूमण्डल पर पग-पग पर अनेक गुणवान्, विद्वान्, कला-निधान है, एक से बढ़ कर एक हैं। यदि यह सब अपने निजी सुख-साधनों तक ही अपनी विशेषता की उपयोगिता सीमित कर दें, तो उनकी शक्ति-सामर्थ्य का कोई उत्कृष्ट प्रयोग तो हुआ नहीं, वरन् पशुवत् पेट पालन और सुखी बनने की सीमा में ही उनका मनुष्यत्व भी नष्ट हो गया।

मनुष्य और मनुष्य के बीच बाहरी दृष्टि से कोई विशेष भेद नहीं दिखाई देता। खाना, सोना, हँसना, रोना, कमाना और परिवार बनाना समान क्रम से लगभग सब के लिए एक सा है। देह की बनावट, अभिरुचि आदि भी विशेष अन्तर न रखकर लगभग एक सी ही है। इतने पर भी यदि गम्भीरता से देखा जाए, तो उसमें आकाश-पाताल जैसा अन्तर दिखाई देता है। हमारे समाज में क्रूर, घृणित निकृष्ट मनुष्य भी हैं और किसी प्रकार जीवन बिता डालने वाले आलसी तथा असंस्कृत पुरुष भी। हम उनका नाम लेना भी अच्छा नहीं समझते, चाहे वे ऐश्वर्ययुक्त कंचन धाम में ही क्यों न रहते हों? हम अपने समाज के उन दिव्य देवत्व प्राप्त शरीरों को सिर-आँखों पर रखते हैं और उनका नाम लेते हमारी जवान कभी नहीं थकती, जिनका जीवन सर्व-भूत हिते रता” “वयं राष्ट्रे जाग्रयाम प्रेमराहिताः” से प्रेरित है। उनके सद्विचार, कार्य दूर-दूर तक प्रकाश एवं सुगन्ध के वातावरण का निर्माण करके कितने ही अँधेरे एवं दुर्गन्ध में भटकते हुए मनुष्यों का उद्धार करते हैं। मनुष्य और मनुष्य के बीच का यह अन्तर उनकी विद्या, बुद्धि, चतुरता तथा सम्पन्नता के कारण न होकर जीवन के प्रति उनके अलग अलग दृष्टिकोण के कारण हैं

एक वस्तु को भिन्न कोणों से चित्रित करने पर रूपों की भिन्नता तो प्रदर्शित होगी ही। यही बात जीवन के प्रति दृष्टिकोण की है। जीवन के प्रति जैसा दृष्टिकोण अपनाया जाएगा वैसा ही जीवन-दर्शन प्रस्तुत होगा, जिसे कोई देखना न चाहेगा। उत्कृष्ट दृष्टिकोण आकर्षक के साथ-साथ अनुकरणीय स्वरूप प्रस्तुत करेगा, जो सबको प्रिय लगेगा घटिया चिन्तन, घटिया रुचि, घटिया बातों तथा पदार्थों का संचय, घटिया लोगों का संसर्ग संपर्क हमारे जीवन के प्रति घटिया दृष्टिकोण के परिचायक हैं। ये सब हमें निश्चय ही एक दिन शोचनीय अधोगति तक पहुँचा देंगे इस महानाश से बचने के लिए हमें अपने जीवन लक्ष्य सम्बन्धी दृष्टिकोण में उत्कृष्टता लानी होगी। सदा ध्यान से देखते रहना पड़ेगा कि उत्कृष्टता के प्रति ईमानदारी कहीं पर घट तो नहीं रही है। यदि भूल से रंच-मात्र भी हमारा दृष्टिकोण घटियापन से प्रभावित हो गया तो हम क्षमा की पात्रता खो सकते हैं। आगे आने वाली पीढ़ी द्वारा निन्दनीय बन सकते हैं।

आध्यात्मिकता का प्रतिफल ‘उत्कृष्टता’ के रूप में ही उदय होता है। वास्तव में उत्कृष्टता ही अध्यात्म की प्रधानता सहित जीवन की कला अपनाना आध्यात्मिक व्यक्ति का उद्देश्य है। वह बाह्य रूपों की, अन्तस् की शुद्ध अनुभूतियों द्वारा दिशा प्रदान करता है। वह विस्तार की भौतिकतामय परिकल्पना से दूर सुसंस्कारों के आधार पर साँस्कृतिक परिमार्जन करता हुआ युग बोध कराता है। संयोगवश उसका कार्य क्षेत्र आधिक से अधिक बढ़ सकता है, पर उसमें विस्तार की भावना का लेशमात्र भी स्पर्श नहीं होता। पूर्णता में ही उसकी आस्था का मूल स्थिर रहता है, अतः वह सदा एक पूरे-कार्य की पूर्ति का पक्षधर होता है। ‘कम परणूर्ण’ का पाठ उसके द्वारा स्व तो पढ़ा जाता ही है, दूसरे भी उससे यही पढ़ते हैं। पूर्णता ही उत्कृष्टता परिलक्षित करती है। पूर्णता स्वयं उत्कृष्टता है। अधूरी बात, अधूरा काम तथा अधूरी कल्पना का भी उत्कृष्ट नहीं कही जा सकती।

जीवन के हर क्षेत्र में हमें यह मानकर चलना है कि हम अधिक के जाल में न फँसकर एक को पकड़े ओर उसी लक्ष्य को पूरा करने में अपनी सारी शक्ति को केन्द्रीभूत कर दें। किसी भी लक्ष्य की पूर्णता ही मनुष्य का गौरव हैं। प्रशंसा या प्रतिष्ठा उसी की होती है, जो कुछ पूरा कर दिखाता है, लक्ष्य को पूर्णता तक पहुँचा देता है। यह प्रशंसा उसके उत्कृष्ट दृष्टिकोण की ही तो है, जिसके आधार पर कार्य सिद्धि हुई, कार्य में सुन्दरता आई। पूरा कार्य ही सुन्दर कहा जाता है। किसी अधूरे काम को आप सुन्दर कैसे कह सकते हैं? सुन्दरता कल्याणमयी भावना के साथ उत्कृष्ट हो जाती है। वह सत्यता को सार्थक करती युगों तक प्रेरणा मूलक रूप लिए कोटि-कोटि मनुष्यों का पथ प्रदर्शन करती हैं। अध्यात्म तत्त्व के मूल में बैठी यही उत्कृष्ट भावनामय दृष्टि नये युग के निर्माण को अभिप्रेरित करती हैं। हम जहाँ कहीं भी रहें, जिस किसी मूलक दृष्टिकोण होना चाहिए। इसी में हमारे जीवन की सार्थकता तथा श्रेष्ठता सन्निहित है।


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