सहकारिता और आदान प्रदान का ब्रह्माण्डव्यापी तथ्य

January 1977

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सामान्य दृष्टि से ऐसा प्रतीत होता है कि ब्रह्माण्ड के ग्रह नक्षत्र अपना अपना अलग अस्तित्व बनाये हुए अपनी कक्षाओं पर भ्रमण करते हुए अपना निर्धारित क्रिया कलाप चला रहे हैं। किसी का किसी से कोई परस्पर सम्बन्ध चला रहे हैं। किसी का किसी से कोई परस्पर सम्बन्ध नहीं है। यह बात मोटी समझ से ही सही हो सकती है। वास्तविकता कुछ और ही है। वस्तुतः यह सारे ग्रह नक्षत्र एक ही सत्ता सूत्र में- धागों में मनकों की तरह पिरोये हुए है और यह ग्रह नक्षत्र की माला एक ही दिशा में- एक ही नियन्त्रण में गतिशील हो रही है, इतना ही नहीं उनका परस्पर भी अति घनिष्ठ सम्बन्ध है। सूर्य और चन्द्रमा के पृथ्वी पर पड़ने वाले प्रभाव को हम प्रत्यक्ष देखते हैं। अमावस्या और पूर्णमासी को आने वाले ज्वार भाटे-कृष्ण पक्ष में वनस्पतियों का कम और शुक्ल पक्ष में अधिक बढ़ना-चन्द्रमा के पृथ्वी पर पड़ने वाले प्रभाव का परिणाम है। सूर्य के उदय होने पर गर्मी, रोशनी ही नहीं, सक्रियता भी बढ़ती है। हवा की चाल तेज हो जाती है, वनस्पतियों में हलचल शुरू हो जाती है और रात्रि की जो निद्रा सब को सताती थी वह अनायास ही समाप्त हो जाती है। शरीरों की रात्रि वाली शिथिलता प्रातःकाल होते ही क्रियाशीलता में बदल जाती है। ऐसे ऐसे अनेक परिवर्तन सूर्य के निकलने से लेकर अस्त होने के बीच होते रहते हैं। परोक्ष परिवर्तनों को तो कहना ही क्या? उनकी शृंखला को देखते हुए वैज्ञानिक चकराने लगते हैं और सोचते हैं कि जो कुछ इस धरती पर हो रहा है वस्तुतः सूर्य की ही प्रतिक्रिया मात्र है।

यह सूर्य और चन्द्रमा के द्वारा पृथ्वी पर पड़ने वाले प्रभाव की बात हुई। आगे चलकर इसी प्रक्रिया को समस्त ग्रह नक्षत्रों के बीच परस्पर पड़ने वाले प्रभावों के आदान प्रदान के रूप में देखी, समझी जा सकती है। सूर्य की चमक चन्द्रमा पर घटने बढ़ने से वह कितना अतिशय ठण्डा और कितना अतिशय गरम हो जाता है, उसी नवीनतम जानकारियाँ चन्द्र शोधों ने स्पष्ट कर दी है। पृथ्वी पर चाँदनी भेज सकना चन्द्रमा के लिए सूर्य के अनुदान से ही सम्भव होता है। अन्य ग्रह भी परस्पर ऐसे ही आदान प्रदान की व्यवस्था बनाये हुए है। एक दूसरे पर अनेक स्तरों के आकर्षण विकर्षण फेंकते और ग्रहण करते हैं। इसी आधार पर उनका वर्तमान स्तर और स्वरूप बना हुआ है। यदि इस प्रक्रिया में अन्तर उत्पन्न हो जाय तो ग्रहों की वर्तमान स्थिति में भारी अन्तर आ जाएगा और उनका कलेवर मार्ग स्वरूप आदि में अप्रत्याशित परिवर्तन उत्पन्न हो जाएगा यह थोड़ा सा भी अन्तर अपने सौर मंडल की स्थिति ही बदल सकता है और फिर उस हलचल से अन्य सौर मण्डल भी प्रभावित हो सकते हैं और उसका अन्त इतनी बड़ी प्रतिक्रिया के रूप में हो सकता है, जिससे सारा विश्व-ब्रह्माण्ड ही हिल जाय।

अपने सौर-मण्डल के ग्रहों और उपग्रहों का परस्पर क्या सम्बन्ध है और एक दूसरे को कितना प्रभावित करते हैं इसकी थोड़ी बहुत जानकारी खगोलवेत्ताओं को उपलब्ध हो चली है। वे इस अनन्त ब्रह्माण्ड में बिखरे हुए असंख्य सौर मण्डलों के परस्पर पड़ने वाले प्रभाव को भी स्वीकार करते हैं और लगता है एक ही परिवार के सदस्य जैसे मिलजुलकर कुटुम्ब का एक ढाँचा बनाये रहते हैं, उसी प्रकार समस्त ग्रह नक्षत्र एक दूसरे के पूरक बने हुए है और परस्पर बहुत कुछ लेने देने का क्रम चलते हुए ब्रह्माण्ड की वर्तमान स्थिति बनाये हुए हैं। यह सब एक विश्वव्यापी प्रेरक और नियामक सत्ता द्वारा ही सम्भव हो रहा है।

वस्तुतः इस संसार में अकेला नाम का कोई पदार्थ नहीं। यह सब कुछ सुगठित और सुसम्बद्ध है। पदार्थ की सबसे छोटी इकाई परमाणु भी-अपने गर्भ में कितने ही घटक सँजोये हुए एक छोटे और मण्डल परिवार की तरह प्रगतिशील रह रहा है। इलेक्ट्रान आदि घटकों की भी परतें खुलती जा रही हैं और पता लग रहा है कि उनके गर्भ में भी और कितने ही समूह वर्ग विराजमान् है। शरीर एक इकाई है। पर उसे भीतर जीवाणुओं की इतनी संख्या है जितनी इस समस्त संसार में जीवधारियों को भी मिली-जुली संख्या भी नहीं होगी। हर मनुष्य का व्यक्तित्व-असंख्य अन्यों एवं प्रभाव को लेकर विकसित हुआ हैं, उसमें कम और दूसरों का अधिक है।

सृष्टि चक्र में सर्वत्र अन्योऽन्याश्रित का सिद्धान्त काम कर रहा है। जड़ चेतन से विनिर्मित यह सूचना विश्वब्रह्माण्ड एकता के सुदृढ़ बन्धनों में बँधा हुआ है। एक से दूसरे का पोषण होता है और हर किसी को दूसरों का सहयोगी होकर रहना पड़ रहा है। यह पारस्परिक बन्ध नहीं सृष्टि के शोभा सौंदर्य का, उसकी विभिन्न हलचलों का, उत्पादन विकास एवं परिवर्तन का उद्गम केन्द्र है।

पृथ्वी की आकर्षण शक्ति पदार्थ सम्पदा एवं को शान्तिपूर्वक रहने और विकसित होने का अवसर दे रही है। अन्तर्गत ही आकर्षण शक्ति से बँधे हुए ग्रह नक्षत्र अपनी कक्षाओं और धुरियों पर परिभ्रमण कर रहे हैं। यह तो मोटी जानकारी हुई। वास्तविकता यह है कि ग्रहों के बीच इतना अधिक आदान प्रदान चल रहा है, मानो विनिमय बाज़ार की धूम मच रही हो। उत्तरी ध्रुव में होकर अन्तर्ग्रही शक्तियाँ धरती पर अवतरित पचा ली जाती है और अनावश्यक को दक्षिणी ध्रुव के द्वारा अन्तरिक्ष में फेंक दी जाती हैं। उत्तरी ध्रुव के द्वारा अन्तरिक्ष में फेंक दी जाती है। उत्तरी ध्रुव पृथ्वी का मुख है और दक्षिणी ध्रुव मल द्वार। यदि पृथ्वी को अन्तर्ग्रही अनुदानों का आहार न मिले तो उसे भूखे रह कर प्राण त्यागना पड़ेगा।

ध्रुव क्षेत्रों के अतिरिक्त अन्य कितने ही छिद्र भी ऐसे हैं जिनके माध्यम से ग्रहों के बीच आदान-प्रदान होता रहता है, इन्हें रोम-कूप अथवा स्वेद छिद्र कह सकते हैं। हम इन छेदों से भी साँस लेते और भाप छोड़ते हैं। पृथ्वी पर कितने ही ऐसे छिद्र हैं जिनमें होकर सूक्ष्म ही नहीं स्थूल भी धँसता और निकलता देखा जा सकता है।

5 दिसम्बर 1945। 5 टी. बी.-एम. अमरीकी बमवर्षक वायुयान यन्त्रों तथा संचार साधनों से सभी सुसज्जित थे, उड़ाके भी अनुभवी व योग्य थे। उन्हें पहले पूर्व की ओर जाना था, फिर उत्तर की ओर, अन्त में दक्षिण पूर्व होकर लौटना था। पहले जहाज को चला रहे थे स्क्वाड्रन लीडर कण्ट्रोल टावर के निर्देश पर वह उड़ा। 5 मिनट के अन्तर से शेष चार विमान भी उड़ चले। पहले वायुयान में दो लोग थे, शेष चारों में तीन-तीन रेडियो सम्पर्क जारी था। सन्देश लगातार मिल रहे थे- अब हम 200 मील प्रति घण्टा की निश्चित गति से उड़ते हुए अटलांटिक महासागर के पूर्वी तट की ओर बढ़ रहे है। कुछ समय बाद। तीन बजकर 45 मिनट पर सहसा खतरे का संकेत मिला स्क्वाड्रन लीडर का स्वर था-अचानक हम लोग कहाँ आ गये, कुछ पता नहीं चल पा रहा। यन्त्रादि सब ठीक हैं, पर नीचे देखते हैं तो समुद्र है, न जमीन।’

कण्ट्रोल टावर से कहा गया-नक्शा देखकर अपना ‘ग्रिडरिफरेन्स’ दो। उत्तर था-जहाज भौगोलिक स्थिति के बारे में निश्चित रूप से कुछ कहा नहीं जा सकता”। और सहसा संपर्क टूट गया। जिधर से सन्देश आया था, उसी दिशा में 13 दक्ष कर्मचारियों और उत्तम यन्त्रों से लैस मार्टिन हवाई जहाज खोज के लिए भेजा गया। 5 मिनट तक तो वह अपने सन्देश देता रहा, फिर उसकी भी आवाज आनी बन्द गई। समुद्र रक्षक जहाज को रात भर उसी ओर देखते रहे। सुबह होते ही इक्कीस जहाज सागर में, 300 वायुयान अन्तरिक्ष में मँडराने लगे। चप्पा-चप्पा छान मारा। पृथ्वी तल पर 12 खोजी दल खोज करते रहे। न तो धरती पर किसी भी जहाज का एक भी इंच कोई टुकड़ा मिला, न समुद्र तल पर एक भी बूँद तेल का निशान न कोई शव, न कलपुर्जे, न चिह्न खोजी मार्टिन जहाज जो भेजा गया था, उसका सन्देश प्रसारक यन्त्र अत्यधिक सशक्त था और अन्य देशों को भी उससे सन्देश भेजे जा सकते थे। पर कहीं, भी संकेत तो ग्रहण नहीं किया गया था। अन्त में खोज से थककर अधिकारियों ने रिपोर्ट छापी-हम कुछ कल्पना भी नहीं कर पा रहे कि यह सब क्या हुआ? क्यों हुआ?”

इस स्थान का नाम रखा गया-प्वाइंट आफ नो रिटर्न’ ऐसा बिन्दु जहाँ पहुँचकर आज तक कोई वापस इष्टदेव के साथ अपना भावनात्मक संपर्क प्रगाढ़ करना पड़ता है। प्यार-दुलार मनुहार की- श्रद्धा वात्सल्य की घनिष्ठता और समीपता की- आन्तरिक एकात्मता की इस प्रकार की अनुभूतियाँ उभारनी पड़ती है कि हम दो ही एक शरीर दो प्राण हैं। दाम्पत्य-जीवन में कभी कभी ऐसी घनिष्ठता का बिजली कौंधती है, इस अभिन्न आत्मीयता का प्रगाढ़तम मनोभाव इष्टदेव के साथ सँजोना पड़ता है। इस घनिष्ठता की बिजली कौंधती है, इस अभिन्न आत्मीयता का प्रगाढ़तम मनोभाव इष्टदेव के साथ सँजोना पड़ता है। इस घनिष्ठता को प्रत्यक्ष करने वाले तरह तरह के शारीरिक, मानसिक आदान-प्रदान के कल्पना चित्र के बीच, जो भाव भरे क्रीड़ा विनोद सम्भव है, उनकी अनुभूतियाँ भावलोक में गढ़नी होती हैं। दृश्य की दृष्टि से इष्टदेव का बहिरंग परिकर और भाव की दृष्टि से प्रगाढ़ आत्मीयता के फलस्वरूप उत्पन्न होने वाली अनुभूतियों और सम्वेदनाओं की गहराई इन दोनों स्थल एवं सूक्ष्म तत्त्वों का समन्वय हो जाने से साकार उपासना की ध्यान प्रक्रिया पूर्ण हो जाती है। इससे एकाग्रता का लाभ ही नहीं विश्वव्यापी दिव्य सत्ता के साथ घनिष्ठता बना लेने और उसके साथ संपर्क साध सकने वाले आत्मिक चुम्बकत्व का भी विकास होता है। इस मार्ग पर चलने चलते मनोनिग्रह और मनोमय की स्थिति प्राप्त हो सकती है। समाधि का, आत्म-साक्षात्कार एवं ईश्वर साक्षात्कार का लाभ मिल सकता है।

निराकार उपासना में सूर्य, दीपक अथवा किसी अन्य वर्ण आकार के प्रकाश का ध्यान किया जाता है। वह प्रकाश सुदूर अन्तरिक्ष में उदय हो रहा है और साधक एक छोटे बालक की तरह उसका दिव्य दर्शन कर रहा है। उसकी धूप सेंक कर शरीर को गरम कर रहा है। इष्ट देव की की ऊष्मा और तेजस्विता साधक के शरीर में भीतर प्रवेश करके स्थूल, सूक्ष्म एवं कारण शरीरों में नव चेतना का संचार कर रही है, ऐसी भावना की जाती है। प्रकाश ऊर्जा के साधक में प्रवेश करने के साथ-साथ उसके स्थूल शरीर में ओजस्विता, सूक्ष्म शरीर में मनस्विता, कारण शरीर में तेजस्विता, सूक्ष्म शरीर में मनस्विता, कारण शरीर में तेजस्विता की वृद्धि होती अनुभव की जाती है। बल, ज्ञान और भाव के संचार की आस्था जितनी प्रगाढ़ एवं परिपक्व होगी उतनी ही निराकार प्रकाश व्यान की सार्थकता मानी जाएगी भाव रहित ध्यान से तो मात्र एकाग्रता का लाभ मिलता है। आत्मिक प्रगति के लिए ध्यान के साथ भावनाओं का गहरा पुट रहना चाहिए। सूक्ष्म शरीर में मस्तिष्कीय एकाग्रता की ओर कारण शरीर के अन्तरात्मा परत में दिव्य भाव सम्वेदनाओं की विभूतियाँ रहती है। स्थूल शरीर को ध्यान धारणा का उपक्रम बनाते समय यह समझना होता है कि ध्यान चाहे साकार का हो चाहे निराकार का, उसमें भाव सम्वेदना का गहरा पुट लगा रहना आवश्यक है। यदि नीरस मन से उपेक्षापूर्वक प्रकाश अथवा आकृति का दर्शन मात्र किया जा रहा है तो उस स्थिति में सरसता उत्पन्न ही न हो सकेगी और हजार प्रयत्न करने पर भी मन के बार बार उचटने का व्यवधान दूर न हो सकेगा। जीव बँधता तो सरसता के साथ है। ध्यान में यदि भाव सरसता मिली हुई होगी तो फिर मनोनिग्रह से लेकर मनोमय के समस्त प्रगति चरण अनायास ही उठते चले जाएँगे और लक्ष्य तक पहुँचना सरल हो जाएगा

ध्यान-कल्पना और भावना के आधार पर किया जाता है। कल्पना मस्तिष्क करता है और भावना अन्तरात्मा से उठती है। यह दोनों ऊँचे स्तर है। और प्रायः आत्मिक क्षेत्र में वे प्रसुप्त स्थिति में पड़े रहते हैं। यों साँसारिक कार्यों की कल्पनाएँ तो कितनी ही उठती हैं और लोभ, मोह से सम्बन्धित राग द्वेष के भाव भी उठते रहते हैं। उनका सहज अभ्यास भी होता है, पर आत्मिक क्षेत्र की न तो कल्पनाएँ ही अभ्यास में आती रही होती है और न उस प्रकार की भावनाओं का ही अनुभव होता है। अस्तु इसके लिए प्रतीकों के सहारे चलना पड़ता है। छोटे बच्चों को तीन पहिये की गाड़ी के सहारे अथवा उँगली पकड़ कर चलना सिखाया जाता है। ज्ञान संवर्धन के लिए प्राथमिक कथाओं में वर्णमाला याद कराने के लिए चित्रों, खिलौनों एवं उपकरणों का प्रयोग किया जाता है। ऐसा ही कुछ करना आत्मिक प्रगति की दिशा में बढ़ने वाले आरम्भिक छात्रों के लिए भी आवश्यक होता है।

मूर्ति पूजा के माध्यम से प्रतीकों की छवि खुले नेत्रों के सामने रखी जाती है ताकि उसी से मिलती-जुलती जीवन्त आकृति मस्तिष्क में जम सके और ध्यान धारणा के काम आ सकें। देव प्रतिमा की पूजा, आरती करते हुए श्रद्धा, भावना का उद्भव किया जाता है। ध्यान में इष्ट देव की छवि देखते रहने भर से भी तो कुछ काम नहीं चलता उसके साथ श्रद्धा का गहरा पुट रहना ही चाहिए। प्रतिमा पूजन से छवि भी कल्पना क्षेत्र में अपना स्थान बनाती है ओर पूजा उपचार के साथ श्रद्धा की अभिव्यक्ति का जो उपक्रम चलता है उससे भावना क्षेत्र में श्रद्धा सम्वेदना को विकसित होने का अवसर मिलता है। अस्तु प्रतीक पूजा को स्थूल शरीर के क्षेत्र में की जाने वाली ध्यान धारण ही माना गया है।

निराकार ध्यान में प्रकाश धारणा की प्रमुखता है। छोटे बिन्दु से आरम्भ करना हो तो दीपक की लौ के त्राटक को निमित्त बनाते हैं। हर पूजा प्रकरण में दीपक जलाने का विधान इसी दृष्टि से रखा गया है। उसकी ओर बार बार ध्यान जाते रहने से दीपक की लौ आँखों के आगे घूमती रहती है और उस आकृति का कल्पना चित्र मस्तिष्क में उतारना सरल पड़ता है। दीपक पर त्राटक करने का विधान आत्म साधना में प्रचलित है। साधक पालथी मार कर बैठता है। तीन फुट दूर छाती की ऊँचाई से किसी चौकी आदि पर दीपक रखता है। उसे हलकी दृष्टि से दस सेकेण्ड देखता है, फिर आँखें बन्द कर लेता है और मस्तिष्क के मध्य त्रिकुटी स्थान पर उसी दीपक की लौ के जलने की कल्पना करता है। आँखें खोलकर दीपक की लौ देखने और फिर आँख बन्द करके मस्तिष्क के मध्य में जलती लौ की कल्पना करने की प्रक्रिया चलती रहती है। शास्त्रकारों ने चालीस दिन तक इस प्रकार दीपक त्राटक करने का विधान नये साधकों के लिए रखा है। इस आधार पर प्रकाश बिन्दु का ध्यान कर सकने की क्षमता उत्पन्न हो जाती है। छोटे बिन्दु से दिव्य प्रकाश की किरणें निकलती है और वे बाहर फैलती हुई सम्पूर्ण शरीर क्षेत्र में आलोक उत्पन्न करती है। यह भीतर से बाहर की ओर प्रकाश विस्तार का उपक्रम है।

बाहर से भीतर को प्रकाश के प्रवेश का उद्देश्य सूर्य ध्यान से पूरा होता है। सुदूर अन्तरिक्ष में प्रभातकालीन स्वर्णिम बाल सूर्य को ही उपयुक्त समझा गया है। मध्यकालीन सूर्य में प्रचण्डता है और अस्त काल में उसकी आभा धूमिल हो जाती है। अस्तु ध्यान के लिए उसी को उपयुक्त माना गया है। प्रारम्भिक अभ्यास के लिए दीपक की तरह प्रभातकालीन सूर्य पर भी त्राटक करने की आवश्यकता पड़ती है। धारणा इसी से परिपुष्ट होती है और कल्पना इसी से उभरती है। प्रातः काल अरुणोदय के समय कोई ऐसा स्थान नियत करना चाहिए, जहाँ पेड़ों, मकानों आदि की आड़ न हो, तो धरती से ऊपर उभरता हुआ बाल कार्य बिना किसी अड़चन के दृष्टि गोचर हो सके। कुशासन अथवा कम्बल बिछाकर मेरुदण्ड को सीधा रखते हुए पालथी मारकर बैठना चाहिए। आँखें अधखुली रखना, ध्यान मुद्रा है। हाथों को गोदी में रखना चाहिए। बाई हथेली नीचे और दाहिनी ऊपर रहे। बैठने का यही तरीका उत्तम है। यों आँखों को तर्जनी के पोरुओं से लगाकर-हथेली ऊपर रखते हुए-दोनों हाथ दोनों घुटनों पर रखकर ध्यान के लिए बैठने की भी एक परिपाटी है, पर अधिक उपयोगी गोदी में हाथ रखकर बैठने की विधि ही है। शरीर पर लज्जा निवारण के न्यूनतम कटि वस्त्र ही पहने जाएँ, पूरा शरीर नंगा रहे।

सूर्य त्राटक में दीपक त्राटक से अधिक सतर्कता बरतनी होती है। दीपक का प्रकाश मन्द होता है और सूर्य का तीव्र। दीपक को खुली आँख से निहारने की अवधि मर्यादा दस सेकेण्ड की है दीपक को खुली आँख से निहारने की अवधि मर्यादा दस सेकेण्ड की हैं। इससे अधिक समय तक उसे लगातार न देखा जाय। दस सेकेण्ड निहारना और बीस सेकेण्ड मस्तिष्क के मध्य में लौ की कल्पना करना यह दीपक त्राटक का उपक्रम है। सूर्य का तेज प्रचण्ड होता है इसलिए उसका दर्शन एक या दो सेकेण्ड भर का होना चाहिए। खुले प्रकाश को अधिक देर देखते रहने से आँखों को हानि पहुँचती है, इस तथ्य से शरीर विज्ञान का हर विद्यार्थी परिचित है। त्राटक के नाम पर भी उस प्रकृति मर्यादा का उल्लंघन नहीं किया जाना चाहिए अन्यथा लाभ के स्थान पर हानि की सम्भावना रहेगी। मन्द प्रकाश होने के कारण दस सेकेण्ड तक दीपक को लगातार देखने से आँखों को हानि नहीं होती। इसी प्रकार प्रभात कालीन सूर्य एक या दो सेकेण्ड खुली आँख से देखा जा सकता है। श्वेत वर्ण सूर्य को देखना सर्वथा निषिद्ध है। पीला रंग समाप्त होते ही सूर्य ध्यान के योग्य नहीं रह जाता। इसी प्रकार लगातार अधिक देर खुली आँख से देखन पर भी सूर्य त्राटक से अहित होता है। मर्यादित मात्रा में ही हर वस्तु का लाभ है। अति बरतने पर तो अमृत भी विष हो सकता है।

सूर्य को एक दो सेकेण्ड खुली आँख से देखने के उपरान्त आँखें बन्द कर लेनी चाहिए और तीस सेकेण्ड तक उसी स्थान पर जहाँ सूर्य उगा हुआ है अरुणोदय के दर्शन की कल्पना की जाय। दो सेकेण्ड देखना-तीस सेकेण्ड कल्पना करना यह क्रम प्रायः पन्द्रह मिनट चलता रह सकता है। इतने में सूर्य की स्वर्णलता धूमिल पड़ जाती है और श्वेत वर्ण की प्रौढ़ता आने लगता है। तब उस पर त्राटक करना व्यर्थ है। सूर्य दर्शन त्राटक का यह उपक्रम बीस दिन करने से प्राथमिक आवश्यकता पूरी हो जाती है। दीपक और सूर्य त्राटकों के समय में अन्तर रहना स्वाभाविक है। दीपक अभ्यास चालीस दिन करना पड़ता है और सूर्य अभ्यास बीस दिन ही पर्याप्त होता है। दीपक दर्शन दस सेकेण्ड चलता है और सूर्य दर्शन दो सेकेण्ड दीपक अभ्यास बीस मिनट प्रति दिन चलता रह सकता है किन्तु सूर्य अभ्यास के लिए दस या पन्द्रह मिनट पर्याप्त है।

दीपक को आत्मा का प्रतीक माना गया है और सूर्य को परमात्मा का। इसीलिए दीपक की आभा बिन्दु से विस्तार की ओर चलती है। आत्मा को अपना विकास विस्तार करना पड़ता है। दीपक की लौ मध्य मस्तिष्क में अवस्थित होकर अपना विस्तार करती है और उसके आलोक से शरीर के अंग प्रत्यंगों में आत्म चेतना का संचार होता है। असुर आच्छादनों का कषाय कल्मष घेरा तिरोहित होता जाता है और आत्म भावना को स्थापना होती है। यही दीपक त्राटक की पराचेतना है। सूर्य प्रतीक है। सविता उसका देवता। सविता का अर्थ है- तेजस्वी परमात्मा। ऊर्जा, आभा, गति, जीवन, मर्यादा यह पाँच प्राण सूर्य से निस्सृत होते हैं। उन्हीं को प्राण, अपान, समान उदान, व्यान नामों से पुकारा जाता है। सूर्य त्राटक करते समय साधक की भावना प्रस्तुत प्रकाश पिण्ड के सहारे तेजस्वी सविता-देवता की अभ्यर्थना करने की होनी चाहिए।

सूर्य जड़ है उसमें चेतना एवं भावना का अभाव है। इसलिए मात्र सूर्य के प्रकाश का ध्यान करने भर से आध्यात्मिक प्रगति का उद्देश्य पूरा नहीं होता। चैतन्य सविता ही उपास्य है। उसी में सद्भावनाओं, सत्प्रेरणा और विभूतियों का भाण्डागार सन्निहित है। सूर्य त्राटक करके कुछ समय अन्तरिक्ष से दिव्य चेतना की वर्षा होने का ध्यान करना चाहिए। किरणें वर्षा की जलधारा की तरह साधक के शरीर पर बरसती है और सूखी मिट्टी में जिस तरह वर्षा का जल प्रवेश करता है और उसे गीला बनाता है, उसी प्रकार यह अनुभव किया जाना चाहिए कि सविता-देवता की अनुग्रह किरणें साधक की समग्र सत्ता के ऊपर बरसती हैं और उसके अन्तराल की गहराइयों तक प्रवेश करती चली जाती हैं।

सविता देवता शरीर में बलिष्ठ श्रमशीलता, मन में प्रखर विचारणा और अन्तःकरण में उदात्त सम्वेदनाओं की बौछार करते हैं। एक्सरे की विद्युत शरीरों और पदार्थों में होकर आर पार निकल जाती है, उसी प्रकार सविता के अनुदान साधक के तीनों शरीरों में प्रवेश करते और उन पर अपनी गहरी छाप छोड़ते हैं। यह भावना यदि सूर्य ध्यान के साथ जोड़कर रखी जाएगी और उस मान्यता को वास्तविकता स्तर की प्रतिष्ठापना की जाएगी तो ही वह समग्र लाभ मिलेगा जो इस महान् साधना के साथ सन्निहित है। प्रकाश दर्शन के साथ साथ अन्त क्षेत्र में दिव्य प्रेरणाओं के अवतरण की बात जितनी गहरी श्रद्धा के साथ हृदयंगम की जाएगी, ध्यान का उद्देश्य उतनी ही मात्रा में उपलब्ध होता चला जाएगा

स्मरण रखा जाय। प्रभातकालीन सूर्य या दीपक का त्राटक आरम्भिक अभ्यास भर है। ध्यान तो कल्पना एवं भावना के सम्मिश्रण से ‘सूक्ष्म’ एवं ‘कारण’ शरीरों के माध्यम से ही सम्भव होता है। अस्तु त्राटकों की आवश्यकता अधिक समय तक नहीं रहती। बीच बीच में कभी ध्यान की प्रखरता में शिथिलता होने लगे तो एकाध सप्ताह के लिए उसका अभ्यास दुहरा लिया जाता है।

कायकलेवर को- शरीर को व्यायाम, संयम, पौष्टिक आहार के माध्यम से परिपुष्ट किया जाता है। अन्तः चेतना को परिपुष्ट करने के लिए किये जाने वाले व्यायामों में ध्यान प्रक्रिया का महत्त्व सर्वोपरि है। जप को भूमिशोधन और ध्यान को बीज बोने की उपमा दी गई है। जप की पुनरावृत्ति से जो रगड़ की जाती है उससे कषाय कल्मषों के परिशोधन का प्रयोजन पूरा होता है। यह सोने को तपाकर खरा बनाने भर की बात हुई है। अलंकार आभूषण बनाने के लिए जो प्रयत्न करना पड़ता है, उसकी तुलना ध्यान से की जा सकती है। ध्यान के फलस्वरूप जो संकल्प शक्ति प्रखर होती है उसी के सहारे अन्तः शक्तियों के जागरण और दिव्य लोक से विभूतियों के अवतरण के दोनों उद्देश्य पूरे होते हैं। ध्यानयोगी व्यक्तित्व सम्पन्न भी बनता है और दिव्य शक्तियों का कृपा पात्र भी। भीतर से सिद्धियाँ उदय होती है और बाहर से ऋद्धियाँ उपलब्ध होती हैं। इन उभय पक्षीय अनुदानों से लाभान्वित होकर साधना क्षेत्र में दूरदर्शी संकल्प लेकर उतरने वाला इतना कुछ प्राप्त करता है जितना अन्य किसी क्षेत्र में किये जाने वाले पुरुषार्थों से सम्भव नहीं हो सकता।

ध्यान को कई भागों में विभक्त किया जा सकता है। (1) अनैच्छिक ध्यान (नान वालेन्टरी अटेन्सन) जिन विचारों की इच्छा या आवश्यकता अनुभव नहीं होती फिर भी वे किसी पूर्व मनः स्थिति या कल्पना के आधार पर आ धमकते हैं। (2) ऐच्छिक ध्यान (वालेन्टरी अटेन्सन) विचारों एवं कल्पना चित्रों को इच्छापूर्वक उत्पन्न करके मस्तिष्क में जमाया जाता है। (3) इच्छा विरुद्ध ध्यान (नान वालेन्टरी फोर्स्ड अटेन्सन) सामान्य इच्छा से प्रतिकूल बलात् किसी दिशा में आकर्षण उत्पन्न करने वाले विचार (4) स्वाभाविक ध्यान (हैविचुअल अटेन्सन) अभ्यस्त गतिविधियों की स्मृति दिलाने वाले ध्यान।

बारीकी में न जाया जाय तो उन्हें दो भागों में भी बाँटा जा सकता है- एक वे जिन्हें उपयोगी आवश्यक समझ कर इच्छानुसार मनःक्षेत्र में उत्पन्न किया जाता है। दूसरे वे जिनकी प्रत्यक्ष इच्छा या आवश्यकता नहीं होती फिर भी मस्तिष्कीय क्षेत्र में घुस पड़ते हैं। साधारण स्तर के हों तो अभीष्ट चिन्तन प्रक्रिया को गड़बड़ाते हैं और ध्यान को कहीं से कहीं उड़ा ले जाते हैं। यह अवांछनीय एवं अनावश्यक विचार कई बार इतने तीव्र होते हैं कि सारे विचार तन्त्र में हलचल खड़ी कर देते हैं और असामान्य प्रबलता के कारण विवेक को विरोध करने तक में असमर्थ कर देते हैं। आवेश की तरह छाते हैं और मनुष्य को कहीं से कहीं घसीट कर ले जाते हैं। ऐसी ही आवेशग्रस्त स्थिति में व्यक्ति कुछ से कुछ अनचाहा कर बैठता है और पीछे उस कृत्य पर पछताता है।

क्रोध और काम के आवेश ऐसे ही उग्र होते हैं। उनके वशीभूत व्यक्ति अक्सर ऐसा कर गुजरते हैं, जिन को सामान्य मनःस्थिति आने पर अपने आप ही लज्जा, दुःख और पश्चाताप का अनुभव होता है।


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