समर्थन और सहयोग

January 1977

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महाभारत के युद्ध की तैयारियाँ हो रही थी। कौरव और पाण्डव अपने अपने पक्ष को मजबूत बनाने के लिए कई राजा-महाराजाओं के पास गये और उनका समर्थन व सहयोग प्राप्त भी किया। समर्थन की दृष्टि से कौरवों का पक्ष अधिक मजबूत था-क्योंकि दुर्योधन ने वाक्पटुता, चातुरी, छत बल और साम-दाम दण्ड-भेद आदि नीतियाँ अपनाकर अपनी ओर अधिकांश राज्यों को कर लिया। उसे समर्थन तो भारी मिल गया, पर कदाचित ही आन्तरिक सहयोग मिला है। क्योंकि सभी जानते थे कि कौरवों का पक्ष अन्यायपूर्ण है और पाण्डव अत्याचार पीड़ित।

महाबली शल्य को भी दुर्योधन ने वाक्चातुरी से अपनी ओर किया। यद्यपि वह चाहता नहीं था कि कौरवों का सहयोग करे, पर वचनबद्ध हो जाने के कारण शल्य को दुर्योधन की बात रखनी पड़ी। फिर भी शल्य ने युद्ध करने के स्थान पर कर्ण का सारथी बनाना और उसकी रक्षा करना पसन्द किया। वह सोचता था पूरी तरह अन्याय को सहयोग देने की अपेक्षा विवशता हो तो किसी भी रूप में समर्थन भर आँशिक रूप से दोषपूर्ण है।

युद्ध जब आरम्भ हुआ तो कर्ण और अर्जुन आमने सामने के प्रतिद्वन्द्वी बने। युद्ध आरम्भ होने से पूर्व शल्य अर्जन के सारथी बने, कृष्ण के पास गये और क्षमा माँगते हुए बोले-भगवन् मैं किसी मूल्य पर कौरवों के पक्ष में जाना नहीं चाहता था। कुछ वचनों से बँध गया हूँ। इसलिए बड़े पश्चाताप पूर्ण हृदय से यह काम कर रहा हूँ। आपकी दृष्टि में यदि अभी भी कोई ऐसा उपाय हो जिससे कि मैं अपने वचनों की रक्षा भी कर सकूँ और हृदय को भी तप्त न होने दूँ तो बताइये।”

कृष्ण क्षणभर को चिन्तन मुद्रा में लीन हुए और फिर बोले-तुम कर्ण का रथ तो हाँक ही रहे हो। वह निश्चय ही बड़ा शूरवीर और शक्ति सम्पन्न है। अर्जुन का उसके सामने टिकना कठिन है। इसलिए तुम युद्ध में कर्ण को निरुत्साहित करते रहना। निरुत्साहित व्यक्ति की आधी सामर्थ्य समाप्त हो जाती है। इससे तुम कौरवों के पक्ष में रहते हुए भी हमारे सहयोग बन सकते हो।

युद्ध में शल्य ने ऐसा ही किया। अर्जुन को सामने देखकर कर्ण ने जब हुंकार भरी और कहा- मैं अर्जुन का आज ही समाप्त कर दम लूँगा।

शल्य हँस दिया।

कर्ण को बड़ा आश्चर्य हुआ, उसने हँसने का कारण पूछा तो शल्य ने कहा- तुम शूर वीर होकर भी बच्चों जैसी बातें करते हो।”

“तो क्या अर्जुन को मारना असम्भव है- कर्ण ने पूछा।

‘असम्भव नहीं तो टेड़ी खीर अवश्य है। अर्जुन ने इन्द्र से युद्ध करना सीखा है और भगवान शंकर से धनुर्विद्या सीखी है। तुम उसे क्या हराओगे?'

कर्ण का आधा उत्साह वहीं ठण्डा हो गया। उधर अर्जुन ने अपने सामने कर्ण को देखकर कहा- ‘भगवन् मैं कर्ण के सामने किस प्रकार टिक सकूँगा?

‘पागल हुए हो-कृष्ण ने फटकारते हुए अर्जन को प्रोत्साहित किया-तुम जानते हो कि कर्ण को शंकर का शाप है कि वह अन्य वीरों के लिए भले ही अजेय हो, पर अर्जुन के सामने उसकी धनुर्विद्या कोई काम नहीं करेगी।

भगवान् कृष्ण से यह बात सुनकर अर्जुन बड़ा उत्साहित हुआ और उसके हौसले बढ़ गये। उसने कर्ण के आक्रमण का करारा उत्तर दिया। उधर शल्य द्वारा कर्ण को हतोत्साहित किये जाने पर प्रत्याक्रमण भी ढीला पड़ गया। पहली बार मिली असमर्थता ने कर्ण की शक्ति ही चौथाई कर दी और एक घड़ी ऐसी आयी कि कर्ण को अर्जुन के हाथों परास्त होना पड़ा।

प्रोत्साहन और हतोत्साह में बड़ी शक्ति है। इससे भी बड़ा तथ्य तो यह है कि वाक्चातुरी और छल बल से व्यक्ति को भले ही अपने वश में कर लिया जाय, पर हृदय अवश ही रहता है। जो और ज्यादा अनर्थ उत्पन्न करता है।

मन की दो सर्वज्ञात विशेषताएँ हैं- चंचलता एवं सुख लिप्सा। बन्दर जैसी उछल-कूद आवारा छोकरों जैसी मटरगश्ती, चिड़ियों की तरह यहाँ-यहाँ फुदकते फिरना, उसकी चपलवृत्ति को सन्तुष्टि पहुँचाते हैं। कल्पना के महलों की सृष्टि, कल्पना लोकों का तीव्र भ्रमण विचारणा, उसकी शक्ति का बड़ा अंश तो इन्हीं भटकनों, जंजालों में नष्ट हो जाते हैं। शक्ति का यह व्यर्थ छाजन रोककर उसे सुनिश्चित एवं सार्थक प्रयोजन में केन्द्रित करना ही योगाभ्यास है। शक्तियों का यह सही उपयोग जीवन में स्पष्ट और आश्चर्यजनक परिणाम सामने लाता है। पिछड़ेपन के स्थान पर प्रगतिशीलता आ जाती है। दरिद्रता समृद्धि में परिणत हो जाती है। भटकाव की जगह प्रचण्ड पुरुषार्थ की प्रवृत्ति पनपने पर परिस्थितियाँ अनुकूल बनने लगती है और साधन संचित होने लगते हैं। लौकिक सफलताएँ भी लक्ष्य केन्द्रित पुरुषार्थ का ही परिणाम होती है। मन की भटकन रोककर ही उसे लक्ष्योन्मुख बनाया जा सकता है।

यही सधा हुआ मन आत्मिक क्षेत्र में लगाये जाने पर सुषुप्त शक्ति केन्द्रों को जागृत व क्रियाशील बनाता है। और दिव्य क्षमताएँ प्रकाश में आती है। अन्तश्चेतना का परिष्कार सामान्य व्यक्ति को महामानव स्तर पर ले जाकर ही रहता है। प्रगति का सम्पूर्ण इतिहास मनःशक्ति के पुञ्जीभूत, लक्ष्य केन्द्रित पुरुषार्थ की ही यशगाथा है। चंचलता की प्रवृत्ति को पुरुषार्थ की प्रवृत्ति में परिवर्तित करने का पराक्रम ही प्रगति का सार्वभौम आधार रहा है।

मन की दूसरी प्रवृत्ति है- लिप्सा शारीरिक सुखों के भोग का माध्यम है- इन्द्रियाँ। उनके द्वारा विभिन्न वासनाओं का स्वाद मिलता है। पेट और प्रजनन से सम्बन्धित सुखों के लिए तरह तरह की चेष्टाओं में ही मन उलझा रहता है और अन्य सुखों की प्राप्ति के प्रयास के लिए प्रेरणा ही नहीं दे बल्कि इनकी मात्र कल्पनाएँ करने में भी बहुत अधिक संयम नष्ट करता है। फिर इन भौतिक सुखों के लिए साधन जुटाने में भी मन को जाने कितने ताने बाने बुनने पड़ते हैं। इन्द्रियों की प्रिय वस्तु या व्यक्ति देखने, सुनने, छूने, सूँघने अथवा स्वाद लेने की लिप्साएं मन को ललक से भर देती है और वह उसी दिशा में लगा रहता है। अहंकार की पूर्ति के लिए मन औरों पर प्रभाव डालने हेतु तरह तरह की चेष्टाएँ करता है और व्यक्ति भाँति भाँति के ठाट बाट बनाता है। संग्रह और स्वामित्व की इच्छाएँ भी अनेक विधि प्रयत्नों का कारण बनती हैं। इन सभी इच्छाओं, आकांक्षाओं की प्यास को व्यक्त करने के लिए ही तृष्णा शब्द का प्रयोग होता है। अहंभावना पर आघात पहुँचते ही प्रतिशोध की उत्तेजना प्रबल हो उठती है। इच्छित विषय पर अपना एक मान लेना और फिर उसके न प्राप्त होने या प्राप्ति में बाधा पड़ने पर भड़क उठना भी, अहंता पर आघात के ही कारण होता है। यह उत्तेजना ही क्रोध है। काम, क्रोध लोभ, मोह, मद, मत्सर आदि सम्पूर्ण विकार समूह वस्तुतः मन में उठने वाली प्रतिक्रियाएँ मात्र है, जो भौतिक सुख की लिप्साओं के कारण उठती रहती है। लिप्सा की इस ललक की दिशा को उलट देना ही ‘तप’ है। वह दूसरी दिशा भौतिक सुखों की वासना, तृष्णा और अहंता की पूर्ति से होने वाले क्षणिक सुखों की नहीं है। वरन् आनन्द की है। आनन्द उपभोग से नहीं, उत्कर्ष और उत्सर्ग से प्राप्त होता है। सुख मन का विषय है, जब कि आनन्द और आत्म-सन्तोष आत्मा का। सुख लिप्सा का अभ्यस्त मन आनन्द के अस्वाद को नहीं जान पाता और जिसे जाना ही नहीं, उसके प्रति गहरी स्थायी प्रीति, सच्चा आकर्षण सम्भव नहीं आनन्द की आकांक्षा विषय-लोलुप मन में प्रगाढ़ नहीं होती। उसके लिए तो मन का प्रशिक्षण आवश्यक है। यह प्रशिक्षण-प्रक्रिया ही तप है।

तपस्वी को कष्ट इसी अर्थ में सहना पड़ता है, कि अभ्यस्त सुख का अवसर जाता रहता है। शारीरिक सुख-सुविधाएँ सिमटती है, मानसिक आमोद प्रमोद का भी अवकाश नहीं रहता और आदर्श-निष्ठ आचरण आर्थिक समृद्धि के भी आड़े ही आता है। प्रत्यक्ष तौर पर तो, ऐसे परिणामों के लिए किया जाने वाला प्रयास मूर्खता ही प्रतीत होगा।

लेकिन श्रेष्ठ उपलब्धियों का राज-मार्ग यह है। किसान, विद्यार्थी, पहलवान, श्रमिक, व्यवसायी, कलाकार आदि को भी अपनी प्रगति व उपलब्धियों की प्राप्ति के लिए बाल चंचलता से मन को विरत ही करना पड़ता है और अपने नीरस प्रयोजनों में ही मनःशक्ति नियोजित करनी पड़ती है। शौक-मौज के अभ्यस्त उनके संगी उन लोगों की ऐसी लक्ष्योन्मुख प्रवृत्तियों का मजाक भी उड़ाते हैं। लेकिन सभी जानते हैं कि अन्ततः बुद्धिमान और प्रगतिशील ऐसे ही लोगों को माना जाता है, जो चित्त की चपलता को नियन्त्रित कर उसे अपने लक्ष्य की ओर ही लगाये रहते हैं- वह कृषि का क्षेत्र हो या शिक्षा, का, शरीर सौष्ठव का हो या आर्थिक समृद्धि का, कला कौशल का हो या वैज्ञानिक आविष्कार का अथवा दार्शनिक चिन्तन-मनन का।

मन लक्ष्य की ओर सरलता से नहीं लगता। सरकस का शेर जंगल से पकड़ लाये जाने के प्रारम्भिक दिनों में अपने आक्रामक रुख पर ही अड़ा रहता है। उसे आज्ञाकारी, स्वामिभक्त तथा उत्पादक बनाने में समय लगता है। मन की चंचलता और सुख लिप्सा की अनगढ़ आदतों को छुड़ाने में काफी समय लगता है, इसके लिए कई बार ऊपर से निष्ठुर तथा कठोर दिखाई देने वाले काम करने पड़ते हैं, ताकि वह अपेक्षाकृत नीरस किन्तु उपयोगी प्रवृत्तियों में संलग्न होने का अभ्यास बन सकें। यही तप हैं, जिसके बाह्य स्वरूप में तो निष्ठुरता का दुलार प्यार ही छलकता देखा जा सकता है। मन के प्रिय सुख को, गौण मानकर आत्मा को प्रिय आत्म सन्तोष, आनन्द की प्रधानता समझते हुए तद्नुरूप अपने अभ्यस्त ढर्रे में परिवर्तन लाना ही तपस्वी जीवन कहा जा सकता है। शारीरिक, मानसिक, आर्थिक असुविधाओं का, तितिक्षा का अभ्यास तप का अनिवार्य अंग इसलिए है कि मन के दीर्घ कुसंस्कारों, अनगढ़ आदतों को, लिप्सा और चपलता के छुड़ाया, धोया जा सके। उसकी ललक, अधोगामी, बहिरंग आकांक्षाओं की ओर से परिवर्तित होकर ऊर्ध्वगामी, अन्तरंग आदर्शवादिता की ओर से यह तप साधना का एक मात्र उद्देश्य है। आरम्भिक कष्ट वस्तुतः उज्ज्वल सम्भावनाओं का द्वार है। वे तप की गरिमा से उत्पन्न कष्ट है, जिनकी अन्तिम परिणति श्रेयस्कर ही होने वाली है। तपाने से वस्तुएँ गरम होती है और उनमें संशोधन होता है, दृढ़ता आती है तथा स्तर बढ़ता है। व्यक्ति के साथ भी यही होता है। कच्ची मिट्ठी से बनी ईंटों का मकान है अनगढ़ व्यक्तित्व, जिसका वर्षा के आघातों से गल जाना ही सुनिश्चित है। तप की आग में जब यही ईंटें, व्यक्तित्व के घटक तपा लिए जाते हैं, तो उनसे बना व्यक्तित्व पक्की ईंटों के मकान जैसा मुद्दतों तक टिकने वाला बन जाता है। चूने, सीमेन्ट का उदाहरण भी यही तथ्य सामने लाता है। चूना, सीमेन्ट वस्तुतः कंकड़ पत्थरों का पका हुआ चूरा ही तो है। वे ही कंकड़ पत्थर यदि यों ही पीस लिए जाएँ, तो उनसे भवन निमार्ण का कार्य चल नहीं सकता। उन्हें ही पकाने-संशोधित करने पर उनमें ईंटों को पकड़ रखने और मकान को टिकाऊ बनाने की क्षमता आ जाती है। खदान कसे कच्ची अवस्था, में निकले धातु अयस्क भट्टी में तपाये जाने पर ही शुद्ध व उपयोगी बन पाते हैं। तीक्ष्ण शस्त्रों औजारों की ‘धार’ अधिक गर्मी देकर ही सुस्थिर बनाई जाती है।

आयुर्वेद में भस्मों का विशिष्ट महत्त्व है। लौहभस्म, स्वर्णभस्म, वंगभस्म, प्रवालभस्म, अभ्रकभस्म आदि के गुण प्रख्यात है। भस्मों में कई गुने अधिक गुण आ जाते हैं। ये भस्में इन वस्तुओं को तपाने का ही तो परिणाम हैं बल्ब का तनिक सा “फिलामेन्ट’ तपने पर आलोक बिखरता है। दीपक भी तपकर ह ज्योति दान देता है। रेलगाड़ी के इंजन को तपे हुए पानी की भाप ताकत देती है और वह कई गुनी वज़नी रेलगाड़ी को खींच धकेल ले जाती है। आम को पाल में पकाने की विधि प्रसिद्ध है, जो उसकी खटास को मिठास में बदल देती है। अन्य कई कच्चे फलों को भी भूसे या अनाज की गर्मी में बन्द रखकर पकाया जाता है। सामान्य पानी को तपाकर वाष्पीकरण कर’ डिस्टिल्ड वाटर’ के रूप में औषधि-उपयोगी बनाया जाता।

तितीक्षा इन्हीं कष्टों को सहने का नाम है। सुविधाजीवी व्यक्ति पुरुषार्थ खोते जाते हैं। तप-तितीक्षा द्वारा पुरुषार्थ को प्रबल बनाया जाता है। तीक्ष्णता की रक्षा, वृद्धि रगड़ द्वारा ही होती है। उस्तरे पर धार रखने से ही वह पैना और चमकदार बनता है। स्वर्ण तथा अन्य धातुएँ तपा कर ही कोमल बनाई जाती हैं ओर तभी आभूषण बनने योग्य होती हैं।

फौजी जवानों को नित्य ही परेड करनी होती और दौड़ लगनी होती है। प्राचीनकाल में गुरुकुलों में विद्यार्थियों को दैनिक जीवनक्रम में ही धर्म, कष्ट, सहिष्णुता, अनुशासन, उत्कृष्ट चिंतन तथा सादगी को स्थान देते हुए स्वस्थ शरीर, निर्मल, प्रशांत तथा सहनशील मन और विकसित अन्तःकरण की साधना में उत्तीर्ण होना पड़ता था।

इतिहास, पुराणों के असंख्य आख्यान तप-साधना के गुणगान से भरे पड़े हैं। विशिष्ट मनस्वियों को तप-साधना द्वारा ही विभूतियाँ अर्जित करनी होती थीं। पार्वती का शिव से विवाह, ध्रुव का ब्रह्माण्ड का केन्द्र बन जाना, भागीरथ द्वारा गड़ को पृथ्वी पर लाना, दधीचि द्वारा अपना अस्थि दान तथा उनसे असुर-संहारक वज्र का निर्माण, अगस्त ऋषि द्वारा समुद्र शोषण, विश्वामित्र द्वारा नूतन सृष्टि का सृजन, सात साधारण व्यक्तियों का सप्तर्षि बनना आदि अनेक असामान्य घटनाएँ तप द्वारा ही सम्भव हुई है। ऐसी आख्यायिकाएँ, कथाएँ हमारे प्राचीन वांग्मय में भरी पड़ी हैं। जो तप की ही शक्ति को अभिव्यक्त करती है।

स्वायम्भुव को मनु और शतरूपा को राम जैसा तथा स्वयं कृष्ण व रुक्मिणी को प्रद्युम्न जैसा पुत्र पाने के लिए लम्बी अवधि तक तपस्या करनी पड़ी। कश्यप तथा अदिति की तपस्या ने ही कृष्ण को उनकी गोदी में खेलने का अवसर व सौभाग्य सुलभ बनाया। दिलीप को सुसन्तति प्राप्त करने के लिए अपनी के लिए अपनी रानी के साथ दीर्घकाल तक ऋषि वशिष्ठ की गौयें चराने की तप-साधना करनी पड़ी।

तप ही विशिष्ट सामर्थ्य का स्त्रोत है। प्रसुप्त शक्तियों का जागरण तप द्वारा ही सम्भव है। आत्मसाधना में तप को ही प्रमुखता दी सुदृढ़ बनाता है।

आहार-शुद्धि का महत्त्व सर्वविदित है। आहार का सूक्ष्म अर्थ भी है, पर यदि खाद्य वस्तुओं के ही सम्बन्ध में विचार करें, तो भी हमें उसके लाभ स्पष्ट दीख जाएँगे। अन्न का मन से घना सम्बन्ध है। अन्न किस तरह से प्राप्त किया गया है, यह भी महत्त्वपूर्ण है। नीति से उपार्जित, परिश्रमपूर्वक प्राप्त अन्न ही आध्यात्मिक विकास का आधार हो सकता है। आहार का सात्विक होना भी आवश्यक है। उसे पकाने वाले तथा परोसने वाले शरीर और मन से पवित्र हों तथा भोजन करने वाले की मनोभूमि सात्विक हो, ईश्वर को मन ही मन भोग लगाकर प्रसाद रूप में, औषधि समझते हुए बचा जाय। जूठन के रूप में अन्न देवता की उपेक्षा व अपमान न किया जाय।

दो बार से अधिक भोजन न करने का नियम बना लिया जाए और दूध, छाछ, रस, क्वाथ आदि सात्विक पेय पदार्थ ही बीच में लिए जाएँ। भूख से कम भोजन किया जाए और वह भली-भाँति चबा-चबाकर

सप्ताह में एक दिन अथवा एक जून उपवास करना उचित है इससे पेट को विश्राम मिलता है। अपच दूर होकर पाचनक्रिया तीव्र होती है तथा थकान मिटती है। साथ ही मनोविकारों का भी शमन होता है। व्रत-उपवास का हमारी परम्परा में सदा से महत्त्व है। विभिन्न पुण्यकर्मों शुभ अवसरों पर उपवास का विधान है। कणाद ऋषि शिलौन्य वृत्ति से जंगली धान्य से उदर-भरण करते थे। महाभारत की कथा है कि शरशय्या पर पड़े भीष्म के सदुपदेशों से द्रौपदी के मन में शंकाएँ घुमड़ने लगीं कि इतने सुन्दर विचार तो आज ये व्यक्त कर रहे हैं, पर कौरव जब मुझे भरी सभा में निर्वसन कर रहे थे, तब यह सद्ज्ञान कहाँ चला गया था? उसने भीष्म पितामह से पूछा ही लिया। उत्तर में भीष्म ने यही कहा- कि उन दिनों कुधान्य खाने के कारण मैं धर्मबुद्धि होते हुए भी उसके अनुसार आचरण का साहस नहीं कर पाया। यह अभक्ष्य-भक्षण से मनोबल के ह्रास का ही स्पष्ट प्रमाण है।

प्रत्येक व्यक्तिगत सत्कार्य सामाजिक शुभ की भी साधना होता है। शुद्ध आहार से व्यक्ति-मन की शुद्धि एवं आत्मबल की वृद्धि के कारण जहाँ वातावरण में सात्विकता आती है वहीं सप्ताह में एक दिन के उपवास का क्रम चल पड़े, तो देश की जटिल खाद्य समस्या का भी समाधान-सम्भव है और अपच ही प्रायः सब रोगों की लड़ होने के कारण स्वास्थ्य-संकट में भी बहुत अधिक कमी आ जाए। ‘ अस्वाद व्रत भी आहार-शुद्धि का ही अंग हैं। गाँधी जी ने “सप्त महाव्रत“ प्रतिभा में अस्वाद को प्रथम व्रत माना है। नमक, मसाले, शकर आदि वस्तुओं को अलग से मात्र स्वाद के लिए ही खाया जाता है। अन्यथा अन्न, शाक, फल दूध आदि द्वारा जरूरी शकर व नमक की मात्रा मिल ही जाती है। सप्ताह में एक दिन अस्वाद व्रत करने पर स्वादेन्द्रिय में नियन्त्रण रहता है। स्वादेंद्रिय पर नियन्त्रण से मनोनिग्रह सरल हो जाता है।

मनोनिग्रह ही योग का मार्ग है। मनोनिग्रह का एक महत्त्वपूर्ण व्रत ब्रह्मचर्य है। रतिक्रिया द्वारा बहुमूल्य जीवन रस को क्षणिक सुख में गाँव देने का शौक बहुत ही महंगा पड़ता है। इस दिशा में संयम बरतने पर यही शक्ति शारीरिक-मानसिक सुदृढ़ता के काम आती है और यह संचित शक्ति आत्मिक प्रगति में सहायक होती है। ब्रह्मचर्य मात्र शारीरिक नहीं, मानसिक प्रक्रिया है। मानसिक कामुकता प्रतिपल मनःशक्ति को घटाती है। घटे हुए मनो बल से आत्मोत्कर्ष सम्भव नहीं होता। शारीरिक क्रियाएँ न करते हुए भी कामुक चिन्तन करना मानसिक व्यभिचार है और आत्मिक प्रगति में उससे भारी अवरोध आ उपस्थित होता है।

मन को कामुक चिन्तन से बचाने के लिए प्रतिपक्षी पवित्र भावों को मन में लम्बे समय तक स्थान देना चाहिए। सृजनात्मक शुभ चिन्तन ही मनोविकारों को नष्ट करता है। इसके लिए स्वाध्याय सत्संग, मनन-चिन्तन द्वारा मनः स्थिति में कुविचार फैल ही नहीं सकते। ब्रह्मचर्य व्रतधारी महापुरुषों, हनुमान्, भीष्म, शंकराचार्य, समर्थ गुरु रामदास, विवेकानन्द आदि के उज्ज्वल चरित्रों का स्मरण-चिन्तन-मनोभूमि के पवित्र संस्कारों को सुदृढ़ बनाता है। स्वादेन्द्रिय और कामेन्द्रिय की स्थूल एवं सूक्ष्म लिप्साओं पर नियन्त्रण ही इन्द्रियनिग्रह की दिशा व विधि है।

तपश्चर्या का तीसरा महत्त्वपूर्ण अंग है- प्रायश्चित्त अपने द्वारा की गई भूलों के लिए शारीरिक-मानसिक दण्ड प्रताड़ना ही प्रायश्चित्त रूपी तप है। नैतिक गलतियों के लिए भोजन में व नींद में आँशिक कटौती, अतिरिक्त श्रम, अमुक समय का मौन आदि की, स्वयं ही निश्चय कर प्रायश्चित्त-व्यवस्था सम्भव है। विगत जीवन के बड़े अपराधों के लिए विशेष प्रायश्चित किसी नीतिवेत्ता के परामर्श से किये जा सकते हैं, ताकि मन पाप-भार से निवृत्ति पा सके।

सूक्ष्म शरीर से सम्बन्धित तपश्चर्या की दिशा वैराग्य है अर्थात् तृष्णा-लोभ-मोह का परित्याग। सरलता तथा सादगी से भरा जीवन, श्रेष्ठ विचारों से भरे मन-मस्तिष्कीय द्वारा ही सम्भव है। भौतिक इच्छाएँ व जरूरतें घटाकर ही समय और श्रम में बचत की जा सकती है और वह श्रमशक्ति तथा मनोयोग परमार्थ-प्रयोजनों में लगाया जा सकता है।

श्रेष्ठ जीवन की दिशा में चलने को अनीति के अभ्यस्त लोगों का उग्र विरोध और उसके परिणाम स्वरूप आक्रमण भी झेलना पड़ता है। इस हेतु आवश्यक साहस व सहिष्णुता भी तप ही है।

आलस्य व प्रमाद से मुक्त जीवन ही तपस्वी जीवन हो सकता है। इसके लिए निरन्तर जागरूकता व सत्त अभ्यास आवश्यक है। संघर्षों की रगड़ से मानवीय प्रतिभा तीक्ष्णतर होती चलती है।


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