ब्रह्म वर्चस् सत्र-साधकों के अनुभव

January 1977

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समस्याओं का समाधान-समस्याओं से घिरा था। उनके समाधान को गुरुदेव का आशीर्वाद, वरदान पाने की आशा से ब्रह्मवर्चस् सत्र में गया था। नौ दिन उस दिव्य वातावरण में रहने से नई दृष्टि मिली। समस्याएँ किसी की बाहर से उत्पन्न नहीं हुई हैं। वे अपनी ही भूलों की प्रति क्रियाएँ है। इस नयी मान्यता के अनुसार ही प्रयास चालें किया है, सोचने का तरीका बदला है और क्रिया-कलाप में परिवर्तन किया है। फलतः तीन चौथाई समस्याएँ और चिन्ताएँ दूर हो गई। जो बची है उनसे जूझने और सहन करने का साहस जगा हैं। यह नया दृष्टिकोण ही गुरुदेव का अनुग्रह और सत्र का वरदान है। इस आधार को अपनाकर सुखी और समुन्नत जीवन जी सकने की सम्भावना सामने खड़ी दीखती है।

-विद्या प्रकाश तिवारी, आजमगढ़

ध्यान में आनन्द-जप के साथ ध्यान करने का अभ्यास आरम्भ से ही सीखा और किया है। ध्यान का महत्त्व भी जाना और माना है, पर ध्यानयोग कितना प्रेरक हो सकता है, यह पहली बार ही जाना है। ब्रह्म वर्चस् सत्र में गुरुदेव अपने सान्निध्य और संरक्षण में ध्यान कराते रहे हैं। उस समय वे सर्व प्रथम सब का संयुक्त मन बनाते हैं। इससे साधकों के मन गुरुदेव के मन में जुड़ जाते हैं और ध्यान का वैसा ही आनन्द आता है, जैसा कि वे स्वयं के ध्यान में आनन्द अनुभव करते हैं। सुना अवश्य था कि महर्षि रमण के मौन सत्संग में उपस्थित साधक एक दिव्य मन के साथ जुड़कर दिव्य अनुभूति पाते थे। प्रत्यक्ष में वैसा अनुभव ब्रह्म वर्चस् सत्र में मिला। चित्त को एकाग्रता, अद्भुत शान्ति और दैवी स्फूर्ति का ऐसा आभास इससे पहले कभी भी नहीं हुआ। दिव्य संरक्षण और दिव्य सहयोग में साधना की सफलता किस प्रकार होती होगी, इसका प्रत्यक्ष अनुभव मैंने इस सत्र में सम्मिलित होकर किया।

-मानकचन्द गुप्ता, राधनपुर।

दुष्प्रवृत्तियों से छुटकारा-स्वभाव में ढेरों बुराइयाँ थी। कई ऐसी आदतें थी, जिन्हें लिखने में लज्जा आती है। छोड़ने के विचार कितनी ही बार आए, संकल्प भी किए, पर वे छूटी नहीं। स्वभाव प्रबल सिद्ध हुआ और संकल्प अनेक ‘बार हारा। पर इस बार तो चमत्कार ही हो गया है। ब्रह्म वर्चस् सत्र से लौटने बाद उन आदतों से स्वतः ही घृणा हो गई है और जिनका छूट सकना असम्भव लगता था उनसे अनायास ही छुटकारा मिल गया है।

बुरी आदतों से समय, धन और स्वास्थ्य की जो बर्बादी हो रही थी, उसकी बचत से जो लाभ होने चाहिए, वह प्रत्यक्ष दिख रहे हैं। लगता है इसी बचत पूँजी के बल पर निकट भविष्य में आत्मिक सम्पदा सम्पन्न बन जाना सम्भव होगा-रमाकान्त साहित्यकार

दिव्य वातावरण और दिव्य संरक्षण-अपने पैरों चल कर लम्बा सफर करना एक बात है और किसी द्रुत गामी वाहन पर सवार होकर बिना थके स्वल्प काल में बहुत दूर आसानी से पहुँच जाना दूसरी। स्वयं तैर कर भी नदी पार की जा सकती है, पर नाव में बैठ कर पार होना अधिक सरल और अधिक सुनिश्चित होता है। यह बातें जानी तो पहले भी थी, पर प्रत्यक्ष ब्रह्म वर्चस् सत्र में ही देखी। अनुभव हुआ कि दिव्य वातावरण और दिव्य संरक्षण प्राप्त करने से आत्मिक उन्नति में कितनी सहायता मिलती है। भौतिक उन्नति में परिस्थितियों और साधनों का जो महत्त्व है, वह आत्मिक उन्नति में वातावरण और संरक्षण का है, वह आत्मिक उन्नति में वातावरण और संरक्षण का है, अब इस तथ्य पर मेरा अटल विश्वास हो गया है। ब्रह्म वर्चस् सत्र से मैं कितना कुछ लेकर लौटा हूँ, इसे व्यक्त कर सकना सम्भव नहीं है।

-सोवरनसिंह राठौर, पंचमढ़ी

दिशा धारा में परिवर्तन-ब्रह्म वर्चस् सत्र में सम्मिलित होना एक वरदान सिद्ध हुआ। साधना का समय साध्य है और उसका प्रतिफल देर में मिलता है, यही सुनता रहा हूँ। किन्तु इस बार भिन्न प्रकार का अनुभव हुआ। उपयोगी सहायता मिल जाने से देर का काम जल्दी भी हो सकता है। सत्र में जो सीखा, जो किया, वह तो उपयोगी था ही, पर जो अनुदान पाया, उसे तो परम सौभाग्य ही मानता हूँ। चिन्तन की दिशा धारा ही बदल गई है। अब जिस तरह सोचता हूँ और जिस नीति को अपना रहा हूँ, यदि वह प्रेरणा अब से पहले ही मिल गई होती, तो इतना जीवन व्यर्थ के कार्यों में नष्ट न होता।

और आत्मिक प्रगति के क्षेत्र में अग्रसर हुआ हूँ। पर इस बार ब्रह्म वर्चस् सत्र में सम्मिलित होकर तो मैंने ऐसा अनुभव किया, जैसे काया-कल्प ही होने जा रहा है। प्रेरणाओं ने बुद्धि को ही मार्ग दर्शन नहीं दिया वरन् अन्तः करण को ही झकझोर दिया। पिछले दिनों ऐसा लगा करता था, मानों गुरुदेव कहते हैं और कराना चाहते हैं इस बार की स्थिति बिलकुल भिन्न हैं भीतर वाला मेरे सौभाग्य का सूर्य ही ब्रह्म वर्चस् सत्र के रूप में उदय हुआ, ऐसा अनुभव हो रहा है।

-गोपाल दत्त पाण्डेय, सिमरी कला

सर्वतोमुखी काया-कल्प-गुरुदेव के द्वारा आयोजित कई प्रशिक्षण सत्रों में सम्मिलित होता रहा हूँ। हर बार कुछ न कुछ प्रकाश और उत्साह मिला। जीवन शोधन की नई दिशा मिली है और उस पर चलते हुए क्रमशः भौतिक अन्तरात्मा ही बेचैन हो गया है। लगता है इस बार के ब्रह्म वर्चस् सत्र की प्रेरणा मेरा सर्वतोमुखी काया-कल्प ही करके रहेगी।

शान्तिलाल-ठाकुरलाल जोशी उमर गाँव

उपासना से अभिनव आनन्द-कई वर्ष से गायत्री उपासना कर रहा था। नित्य कर्म की तरह उसे अपनाये हुए था। पर कभी ऐसा अनुभव न हुआ कि इसके फलस्वरूप कोई विशेष अनुभूति होती हो। इसका कारण साधना विधि की कोई कमी ही सोचता था, जिसके कारण माता का अनुग्रह प्राप्त नहीं होता। ब्रह्म वर्चस् सत्र से लौटने के बाद स्थिति बदल गई। अन्तःकरण की धुलाई और मंजाई का जो विशेष कार्य हुआ है उससे सरसता के द्वार खुल गये हैं। अब उपासना के समय ऐसा अनुभव होता है, मानो भगवान की प्रत्यक्ष समीपता से मिलने कला आनन्द और माता का पय-पान करने जैसा सन्तोष मिल रहा है। अब यह विश्वास दृढ़ हो गया है कि जीवन का परम लक्ष्य पाने का सही आधार मिल गया और अभीष्ट सफलता मिल कर रहेगी।

-रघुवर प्रसाद वडोले, गोसाई गंज

स्वभाव बदला-स्वभाव बदलना कठिन होता है। संगृहीत संस्कार सहज ही नहीं मिटते, उनसे पीछा छुड़ाने के लिए भारी संघर्ष करना पड़ता है। यह तथ्य भी है और सत्य भी। मनस्वी व्यक्ति ही अपने को सुधार और बदल पाते हैं। आमतौर से यही बात सही है, पर इसमें एक सरल पगडंडी मार्ग दूसरा भी मिला कि शक्ति सम्पन्न सहयोग से वह कठिन कार्य सरल भी हो सकता है। ब्रह्म वर्चस् सत्र ने मेरा स्वभाव और चिन्तन दोनों ही बदल दिये। कुसंस्कार जो जीवन क्रम में सघन बन कर सम्मिलित हो गये थे, अब पतझड़ में गिरने वाले पत्तों की तरह झड़ते चले जा रहें हैं। अगले दिनों बसंती पुष्प-पल्लवों से अपना जीवन वृक्ष शोभायमान होगा, ऐसी आशा प्रबल हो रही है।

-सीताराम शरण, रामनगर

प्रगति का द्वार खुला-मनुष्य मात्र को उन्नति की इच्छा होती है। मुझे भी रही है। पर इसका उपाय किन्हीं बड़ों की सहायता से प्राप्त करना या साधन इकट्ठे करना समझता रहा हूँ। इसी के लिए निरन्तर प्रयत्न भी किया है। इतने पर भी सफलता नगण्य मिली। ब्रह्म वर्चस् सत्र में नई दिशा धारा मिली। अवरोध भीतर हैं, उन्हें हटाया जाय। वरदान बाहर हैं उन्हें पाया जाय। यह बात पहले कभी सुनी, सोची थी, इस बार यह दृढ़ मान्यता ही नहीं बनी, उसके लिए अद्भुत साहस भी पैदा हो गया। अब किसी की सहायता माँग कर अस्थायी लाभ पाने की जगह आत्म सुधार एवं विकास से स्थायी उन्नति के लिए स्वयं से लड़ पड़ा हूँ। इस प्रयास से उल्लेखनीय सफलता मिल रही है ओर उसी अनुपात से उन्नति की परिस्थितियाँ भी रही हैं। आत्म सुधार के लाभ तो पहले भी विदित थे, पर उसको प्रबल प्रेरणा ब्रह्म वर्चस् सत्र से ही मिली।

-कृष्णाकुमार कुलश्रेष्ठ, बुलन्दशहर


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