सब कुछ नहीं-उपयोगी और सीमित ही

January 1977

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प्रकृति अनन्त है। उसके अन्तराल में जो कुछ भरा पड़ा है वह सबका सब मनुष्य के लिए उपयोगी एवं आवश्यक ही नहीं है। उसमें विनाशकारी और पतनोन्मुख तत्त्व भी प्रचुर परिमाण में विद्यमान् है। रोग कीटाणुओं को ही लें, उनकी जातियाँ और क्षमताएँ विचित्र हैं, पर उन्हें समेटने में नहीं, वरन् बचने और भगाने में ही बुद्धिमत्ता है। मक्खी, मच्छर, पिस्सू, खटमल, जुए, उदरस्थ कृमि आदि सहोदरों की तरह निवास करते हैं, पर उन्हें पालने की चेष्टा कोई नहीं करता। ठीक इसी प्रकार ज्ञान और विज्ञान के अनेक क्षेत्र ऐसे हैं जिन्हें उपयोगिता की कसौटी पर बिना कसे ही जो मिले उसे पकड़ने की नीति अपनाई तो उससे हानि ही होगी।

यह संसार केवल मनुष्य के लिए ही नहीं है, इसकी साधन सामग्री ऐसी भी है जो मनुष्य विरोधी तत्त्वों के लिए काम की है। उत्थान के साधन बहुत हैं, हमें ओर संकट उत्पन्न करने वाले तत्त्व भी कम नहीं हैं। हमें उत्पादन एवं संकलन का श्रम करने से पूर्व औचित्य का सर्व प्रथम ध्यान रखना चाहिए। अन्यथा किये गये प्रयत्न आत्मघात की तरह महा विनाशक सिद्ध होंगे।

प्रकृति का जो अंश अपने लिए उपयोगी है, उसी की वैज्ञानिक खोज की जाय और उपयोगी से ही सन्तुष्ट रहा जाय, तो यह बुद्धिमत्ता पूर्ण हैं। इन दिनों असीम शक्ति लिप्सा ने ऐसे शोध क्षेत्र में दिलचस्पी पैदा कर दी जिसके किये गये प्रयत्न निकट भविष्य में अब तक की मानवी प्रगति का सर्वनाश कर सकते हैं।

ऐसी शोधों में एक है ब्रह्माण्ड का एक अंश खोया हुआ माना जाना और उसकी तलाश करना। समझा जाता है कि इस निखिल ब्रह्माण्ड में जितना कुछ पदार्थ संसार देखता है, वह सृष्टि के आरम्भ में जो कुछ था उसका एक अंश ही है। लगभग आधा अंश उसमें से गायब है? इसका क्या हुआ? यह कहाँ चला गया? इसका अता-पता क्यों नहीं लगता? यदि यह कहीं छिपा है तो वहाँ चुप-चाप बैठा है या कुछ कर रहा है? यह प्रश्न आज के नवीनतम और उच्चस्तरीय खोज-बीन का मूर्धन्य प्रश्न बना हुआ है। उस सम्बन्ध में कुछ दिन पूर्व तक सम्भावना ही व्यक्ति की जाती थी और अनुमान भर लगाया जाता था कि एक अविज्ञात दुनिया हमारे ही इर्द-गिर्द कहीं छिपी है। उसकी क्षमता और चाल प्रस्तुत प्रचलन से उलटी है। अब वह कल्पना अनुसंधानों के आधार पर तथ्य बनकर सामने आ गई है और यह स्वीकार कर लिया गया है कि एक ऐसे अविज्ञात का अस्तित्व इस संसार में मौजूद है जो विज्ञान के न केवल समतुल्य है, वरन् अधिक शक्तिशाली भी है। इतने पर भी इसकी खोज में फूँक-फूँक कर कदम बढ़ाया जा रहा है क्योंकि आशंका यह भी है कि यदि यह आग्नेय सम्पदा उभर पड़ी और नियन्त्रण से बाहर हो गई तो फिर न केवल मनुष्य को वरन् सम्पूर्ण प्राणियों को महा विनाश का सामना करना पड़ेगा। इतना ही नहीं इस ब्रह्माण्ड की प्रचलित गतिविधियाँ भी उलट सकती हैं। आधुनिक सृष्टि का एक अंश विलुप्त-सा है, उसका पता नहीं लग पा रहा है, जिससे कि सृष्टि-सम्बन्धी जानकारी में एक बड़ी अपूर्णता विद्यमान् थी।

पिछले दिनों भारतीय वैज्ञानिक संस्थान, बेंगलोर के तीन नक्षत्र विज्ञानियों प्रो० के० पी० सिन्हा, डा० सी० शिवराम और प्रो० ई० सी० जी० सुदर्शन ने इस दिशा में नई खोज की।

सृष्टि-विज्ञानी यह कहते रहें हैं कि एक नक्षत्र पिण्ड से दूसरे को पृथक् करने वाला जो ‘शून्य’ है, वह वस्तुतः रिक्त नहीं है। अपितु उसी में यह अज्ञात सृष्टि-अंश समाया हुआ है।

19 वीं सदी में यह स्थापना की गई थी कि इस ‘शून्य’ में ‘ईथर’ नामक तत्त्व विद्यमान् है। यह ‘ईथर’ प्रकाश के संचरण के लिए वैसा ही अनिवार्य है, जिस प्रकार कि ध्वनि के लिए वायु।

किन्तु आइन्स्टीन के बाद से ‘ईथर’ का यह सिद्धान्त अस्वीकृत किया जा चुका था। अब इन तीन भारतीय वैज्ञानिकों ने अपनी खोज के अनुसार यह प्रतिपादित किया है कि ईथर का अस्तित्व वास्तविक है। यह ईथर, इलेक्ट्रान और प्रोटान जैसे कणों तथा उनके प्रतिकणों का समुद्र है। इसी समुद्र में सृष्टि का वह “खोया हुआ” अंश छिपा हुआ है। यह अंश उपरोक्त कणों तथा प्रतिकणों के ही रूप हैं। ये कण तथा प्रतिकण जोड़े में इस समुद्र में तैरते रहते हैं और कण-प्रतिकण में इस संयुक्त प्रभाव से यह समुद्र अदृश्य द्रव’ बन गया है, जिसे विज्ञान में ‘सुपरफल्यूडिटी’ की स्थिति कहते हैं। यह ‘सुपरफल्यूडिटी’ इलेक्ट्रान की ही तरह के एक अन्य प्रकार के कणों की विशेषता है, जिन्हें ‘फर्मियान्स’ कहते हैं। ईथर का यह समुद्र जिन कणों तथा लक्षणों से भरपूर है, वे सृष्टि विकास के पुष्टि करते हैं, जिसका प्रतिपादन प्रख्यात भारतीय वैज्ञानिक डा० जयन्त विष्णु नार्लीकर एवं अमरीकी वैज्ञानिक श्री फ्रेड हायल ने किया है।

खोये हुए पदार्थ का अता-पता लगाने के सन्दर्भ में 15 वर्ष पूर्व कुछ वैज्ञानिकों में इस धारणा को बल मिला कि हमारे प्रत्येक कण का प्रतिकण, परमाणु का प्रतिपादित हुआ कि प्रकृति में सर्व व्यापी सन्तुलन है। इस सर्व व्यापी सन्तुलन के आधार पर कहा जा सकता है कि मानव-ब्रह्माण्ड में काल की गति अतीत से वर्तमान तथा वर्तमान से अतीत की ओर दौड़ रहा होगा। यहाँ प्रति पिण्ड, प्रति आकाशगंगाएँ, प्रति निहारिका यूथ, प्रतिप्राणी, प्रतिजी तथा प्रतिमानव विद्यमान् होगे। वे हमारे लिए वर्तमान में अनुभूतिगम्य नहीं हो सकते हैं।

कैंब्रिज विश्व-विद्यालय के प्राध्यापक डिराक ने इंग्लैंड की रायल सोसाइटी के सामने प्रस्तुत अपने शोष प्रबन्ध में आइन्स्टीन के सापेक्षता सिद्धान्त और क्वान्टम भौतिकी का हवाला देते हुए सिद्ध किया था कि जिस तरह क्रिया की प्रतिक्रिया होती है, । उस समय तो इस प्रतिपादन पर विस्मय मात्र ही व्यक्त किया गया, था, पर अब प्रति न्यूट्रान, आदि के अस्तित्व की जानकारियाँ मिली हैं। कोलम्बिया विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने, जिनका नेतृत्व डा० सैम्युडालठिंग तथा डा० लियन एम॰ लेडरमैन कर रहे थे, प्रतिड्यूटिकियम की खोज की। प्रति हीलियम, प्रति न्यूरेनियम आदि की सम्भावना भी स्पष्टतर हो रही है। अमरीका की ब्रूक हेवेन प्रयोगशाला के अन्वेषी वैज्ञानिक इस सम्भावना के प्रति बहुत ही उत्साही हैं कि प्रति पदार्थ से आधुनिक भौतिक में क्रान्तिकारी परिवर्तन आयेगा। वैज्ञानिकों की प्रारम्भ में उद्धृत नई खोज से यह स्पष्ट होता है कि प्रतिविश्व ईथर का ही अंश है। वैज्ञानिक इस प्रतिविश्व की यात्रा हेतु सम्भव उपकरणों पर गम्भीरतापूर्वक विचार कर रहे है।

वैज्ञानिकों की परिकल्पना है कि प्रति परमाणुओं और प्रति ब्रह्माण्ड में काल की गति भविष्य से भूत की ओर है। साथ ही वहाँ प्रकाश का अवशोषण होता है। जबकि हमारे ब्रह्माण्ड में प्रकाश का विकिरण या उत्सर्जन होता है। जबकि हमारे ब्रह्माण्ड में प्रकाश का विकिरण या उत्सर्जन होता है।

प्रति-विश्व की यात्रा के लिए प्रति-केमेसान्-राकेट बनाये जायेंगे। अभी हमारे इस ब्रह्माण्ड में यात्रा के लिए फोटान-राकेटों की योजना बन रही है। फोटोन करणों की गति प्रकाश वेग के तुल्य रहती है। अतः उन पर काल-गति का कोई प्रभाव नहीं पड़ता यानी अतीत वर्तमान और भविष्य में फोटो कणों के लिए कोई अन्तर नहीं है। फोटोन राकेटों पर सवार होने पर अन्तरिक्ष-यात्रा करते समय-समय का कोई व्यवधान ही नहीं आयेगा।

इसी तरह प्रति-केमेसान-राकेटों पर सवार होने पर हम प्रतिविश्व में पहुँच जायेंगे, जहाँ समय भविष्य से भूत की ओर भाग रहा होगा, अतः मृत्यु का कोई भय नहीं रहेगा।

केमेसान तथा प्रति-केमेसान कणों की खोज हो चुकी है। केमेसान कणों की गति प्रकाश से थोड़ी कम होती है। प्रतिकेमेसानों की भी गति वैसी ही होती है, पर उनमें समय का प्रवाह भविष्य से वर्तमान और वर्तमान से अतीत की और होता है। केमेसान तथा प्रतिकेमेसान कणों की एक विशेषता यह है कि वे विशेष परिस्थितियों में एक दूसरे में रूपांतरित होने की क्षमता रखते हैं। अतः कल्पना यह है कि इनसे बने वाहनों में यात्रा करते समय मनुष्य इच्छानुसार दृश्य या अदृश्य हो जाएगा तथा फिर इसका विपरीत भी हो सकेगा।

वैज्ञानिकों की एक नई खोज यह भी है कि शरीर में द्रव्यों के साथ प्रतिद्रव्य भी है। उनका अन्योऽन्याश्रित सम्बन्ध, परस्पर प्रतिक्रिया लेने पर, बिना किसी वाहन या कैप्सूल में बैठे ही मनुष्य शरीर अदृश्य हो सकता है। न्यूट्रिनों, केमेसानों, एण्टी केमेसानों तथा अन्य अद्भुत कणों, ब्रह्माण्डीय विकिरणों और ईथर का पूरा-पूरा भेद खुलने पर ही मानव-शरीर के लिए सूक्ष्म अदृश्य रूप धारण करना सरल हो सकेगा।

इस परिकल्पना पर विचार करते-करते हुए वैज्ञानिकों के सम्मुख एक नई शंका आ उपस्थित हुई है। यह मान लिया गया है कि अदृश्य सूक्ष्म शरीरधारी प्रति मानव हमारे शरीर में घुसता हुआ उसके आर-पार जा सकता है। साइग्रेस और विगों नीहारिकाओं से जो सन्देश धरती पर आ रहें हैं, उनसे ज्ञात होता है कि उन क्षेत्रों में पदार्थ और प्रति पदार्थ के बीच देवासुर संग्राम जैसा रोमांचक युद्ध छिड़ा हुआ है। तब क्या यह भी हो सकता है कि प्रति मानव हमारे शरीर में घुसकर अभी भी आर-पार चले जाते होगे और हम जान भी न पाते होंगे? यहाँ पर आकर वैज्ञानिक अभी कोई उत्तर ढूँढ़ नहीं पा रहें हैं

प्रतिविश्व में हमारे शरीर के परमाणु प्रति परमाणु के रूप में क्रियाशील हो चुकेंगे, तभी तो हम वहाँ पहुँच और ठहर पायेंगे अब आशंका यह है कि वे प्रति परमाणु जो भविष्य से भूत की और भाग रहें होंगे, हमारे अस्तित्व को सुरक्षित ही रहने देंगे, इसकी तो सम्भावना नहीं ही माननी चाहिए। हम मृत्यु से जन्म की ओर भाग रहे होगे, अभी इतनी ही कल्पना वैज्ञानिक कर पा रहे है। पर जन्म से पूर्वजन्म, पूर्वयोनि पूर्वदशा और वनस्पति, जड़-जगत (प्रतिद्रव्य) के रूप में नहीं पहुँच जाएँगे, इसका क्या ठिकाना है?

शक्ति के अनेक स्त्रोत हमारे हाथ लग चुके है। यह भी स्पष्ट है कि प्रकृति के अन्तराल में अभी ज्ञात से असंख्य गुनी अधिक अविज्ञात शक्तियाँ सन्निहित हैं। मानवी प्रयासों में वे संभावनाएँ विद्यमान् है, जिनके आधार पर उनमें से भी बहुत कुछ और सब कुछ पाया जा सकता है। अग्रगामिता सदा ही सराही जानी चाहिए। पर प्रगति की इस तत्परता और तन्मयता का पूरक तत्त्व कर्तव्य निर्वाह और उत्तरदायित्वों का पालन भी भुलाया नहीं जाना चाहिए।

आज पदार्थ विज्ञान की धूम है और प्रत्यक्ष को ही मान्यता मिल रही है, पर प्राचीनकाल के तत्त्वदर्शियों ने इन्द्रिय बोध से आगे की चेतना को भी तथ्य माना था और उस सन्दर्भ में अनेक अनुसन्धान किये थे। खोये हुए ब्रह्माण्ड का प्रति पदार्थ भी उनके ध्यान में था और उसका सीमित उपयोग करने की भी उन्होंने चेष्टा की थी। योग शास्त्र के दक्षिण और वाम दो मार्ग प्रसिद्ध है। दक्षिण मार्गी साधनाएँ वे है जो प्रस्तुत प्राणियों, पदार्थों एवं परिस्थितियों को परिष्कृत करते हुए उन्हें जीवन विकास के लिए प्रयोग करने का पथ प्रशस्त करती हैं वाममार्गी साधनाएँ वे है जिनकी विज्ञान और विधान का परिचय करने के लिए तन्त्र विज्ञान की रचना की है। इसमें विघातक तत्त्व उभरते हैं। कहना न होगा हक संसाधनों की अभिवर्धन की तरह ही अवांछनीयताओं का उन्मूलन भी आवश्यक है। वाममार्गी तन्त्र साधनाओं द्वारा जो उन्मूलन परम कार्य होते थे उनके मूल में प्रकृति का वह खोया पदार्थ की संज्ञा दी गई है। कार्य कुछ भी क्यों न हो-कदम किसी भी दिशा में क्यों न बढ़े, पर उसमें औचित्य और उपयोगिता का समुचित ध्यान रखा ही जाना चाहिए।


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