“शिवाजी तू बल की उपासना कर, बुद्धि को पूजा, संकल्पवान् बन और चरित्र की दृढ़ता को अपने जीवन में उतार, यही तेरी ईश्वर-भक्ति है। भारतवर्ष में बढ़ रहे पाप, हिंसा, अनैतिकता और अनादर के यवनी-कुचक्र से लोहा लेने और भगवान् की सृष्टि को सुन्दर बनाने के लिये इसके अतिरिक्त कोई उपाय नहीं है।” समर्थ गुरु रामदास ने समझाया।
“आज्ञा शिरोधार्य देव। किन्तु यह तो गुरु-दीक्षा हुई अब, गुरु दक्षिणा का आदेश दीजिये।” शिवाजी ने दृढ़ किन्तु विनीत भास से प्रार्थना की।
गुरु की आंखें चमक उठीं। शिवाजी के शीश पर हाथ फेरते हुए बोले-गुरु-दक्षिणा में मुझे 1 लाख शिवाजी चाहिये, बोल देगा?
“दूँगा गुरुदेव। एक वर्ष एक दिन में ही यह गुरु-दक्षिणा चुका दूँगा-कहकर शिवाजी ने गुरुदेव की चरण धूलि ली और महाराष्ट्र के निर्माण में जुट गये।