विदाई के क्षण और कर्तव्य (Kavita)

September 1969

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देह से मानव हृदय से माँ, प्रकृति परमार्थ जिसकी।

क्षण विदाई का उसी की, अब हमें तड़पा रहा है॥

नयन जब खोले, सम्हाला होश, तो देखा धरा पर।

दुःख दर्दों से भरा जीवन, बिलखता आज जर्जर॥

सिसकती ममता, घुटे जाते दबे से- प्यार के स्वर।

जिन्दगी वे मौत मरने को चली, लाचार होकर॥

टीस सागी मोम से दिन में भ्रमित मनुजत्व के प्रति।

लक्ष्य है इसका कहाँ? मान किधर को जा रहा है॥

उस घड़ी से चेतना वह, नींद भर कर सो न पाई।

चार दिन की चाँदनी भी, हाय जिसकी हो न पाई॥

चीर दे तम को, अखण्डित ज्योति एक ऐसी जलाई।

जिन्दगी सारी ही इसी संघर्ष में अपनी बिताई॥

सोचता रहता महत् व्यक्तित्व था तब हर घड़ी वह।

‘क्या हुआ इंसान को, इंसानियत जो खा रहा है॥

देख पाया सूखता मन, तो वही अमृत बहाया।

घाव जो देखा कही-तो प्यार का मरहम लगाया॥

त्रस्त मानव को-सही जीवन जिये वह ढंग सिखाया।

धर्म का उत्थान करके निज वचन शाश्वत निभाया॥

प्यार का है हाथ फेरा, हर घड़ी दुखती रगों पर।

काल क्रम, ऐसे निकटतम से हमें पिछड़ा रहा है॥

अब समय आया हमारा, स्नेह की कीमत चुकाएँ।

है अधूरी बात जो, उसको सभी मिलकर बनाएँ॥

दी हमें उसने दिशा जो-दृढ़ चरण उस पर बढ़ाएँ।

युग नया निर्माण करने की अटल सौगन्ध खाएँ॥

भेंट दे, विश्वास की-हम दे विदा, अपने ‘परम’ को।

प्राण में प्रश्वास-सा घुलता चला जो जा रहा है॥

है पथिक मजबूर जाने को-उसे उस पार जाना।

है यही कर्तव्य अपना चेतना सोई-जगाना

रह गये पद-चिह्न जो, संसार को उन पर चलाना।

और जो अंकुर उगा है-खून दे-उसको बढ़ाना॥

प्राण की आवाज ये उस पार तक पहुँचा करेगी।

“हम मिटाएँगे सघन तम, जो धरा पर छा रहा है”॥

क्षण विदाई का उसी की, निकट आता जा रहा है।

-माया वर्मा,

*समाप्त*


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