आलस्य त्यागें-सुसम्पन्न बनें

September 1969

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(प. श्रीराम शर्मा आचार्य द्वारा लिखित और युग-निर्माण योजना मथुरा द्वारा प्रकाशित)

(‘आलस्य छोड़िये परिश्रमी बनिये’ पुस्तिका का एक अंश)

छोटे से बीज में वृक्ष की सारी विशालता सूक्ष्म रूप से छिपी रहती है। उसी प्रकार मानव-जीवन की महान् सम्भावनायें उसकी श्रमशीलता में छिपी हुई है। अगणित विभूतियाँ, समृद्धियाँ सफलता और महान् सम्भावनायें मानव-जीवन में सन्निहित हैं पर सभी सूक्ष्म रूप में पड़ी हैं, उन्हें जगाने के लिए श्रमशीलता की आवश्यकता है। जिन्हें परिश्रम से प्रेम है, जो मेहनत करने में-व्यस्त रहने में, रस लेता है, वह किसी भी दिशा में आशाजनक प्रगति कर सकता है। जिसने परिश्रम से जी चुराया उसके लिए प्रगति का हर द्वार बन्द होता चला जाएगा आलस्य और दुर्भाग्य एक ही वस्तु के दो नाम हैं। जो आलसी है, न श्रम का महत्व समझता है, न समय का मूल्य ऐसे मनुष्य को कोई सफलता नहीं मिल सकती। सौभाग्य का पुरस्कार उनके लिए सुरक्षित है, जो उसका मूल्य चुकाने के लिये तत्पर हैं। यह मूल्य कठोर श्रम के रूप में चुकाना पड़ता है। समय ही भगवान् की दी हुई सम्पदा है। हमारी हर श्वाँस बड़ी मूल्यवान् है। यदि प्रस्तुत क्षणों का ठीक तरह उपयोग करते रहा जाय तो बूँद-बूँद से घट भरने की तरह अगणित सफलतायें और समृद्धियाँ अनायास ही इकट्ठी होने लगेंगी। पर यदि समय की आलस्य में व्यर्थ गँवाते रहा गया तो फूटे बर्तन में से बूँद-बूँद करके टपकने वाले दूध की जैसी दुर्गति होगी, हम सुख-सुविधाओं ओर सम्पदाओं से वंचित होते चले जायेंगे और केवल दरिद्रता और दुर्भाग्य भरा पश्चाताप हाथ रह जाएगा विजयलक्ष्मी केवल पुरुषार्थी का वरण करती है। आलसी का भविष्य तो दुर्भाग्य का रोना रोने के लिये है।

भगवान् ने मनुष्य जीवन में असंख्य महान् सम्भावनाओं का समावेश किया है। हर क्षेत्र में सफलता प्राप्त करने की सुविधा प्रस्तुत की है पर साथ ही यह भी नियन्त्रण रखा है कि उन विभूतियों का लाभ सत्पात्र ही उपलब्ध करें। कुपात्रों के हाथ में जाने पर हर वस्तु का दुरुपयोग होता है। सफलतायें और समृद्धियाँ कुपात्र के हाथ में चली जायें तो देर तक टिकेगी नहीं, जितनी देर टिकेगी, उसे दुर्व्यसनों और उद्धत आचरणों के लिए प्रेरित करेंगी। किसी वस्तु का लाभ तो सदुपयोग करने वाला ही उठा सकता है। सदुपयोग करने की क्षमता सत्पात्र में होती है। इसलिए सफलतायें सत्पात्र के लिए सुरक्षित है। और सत्पात्रता का पहला चिह्न है-श्रमशीलता कई अनैतिक और असदाचारी भी सफलतायें प्राप्त कर लेते हैं, भले ही पीछे उन्हें कुमार्गगामिता का दण्ड भुगतना पड़े पर संसार में एक भी उदाहरण ऐसा न मिलेगा, जिसमें परिश्रम के बिना बड़ी सफलतायें प्राप्त की गई हों। इसलिये सद्गुणों की पंक्ति में नैतिकता से भी पहला नम्बर श्रमशीलता का आता है।

जिन्हें अपना भविष्य उज्ज्वल बनाने में दिलचस्पी हो, जिन्हें कुछ महत्त्वपूर्ण सफलतायें पानी हों, उन्हें कठोर परिश्रम करने की आदत डालनी चाहिये और समय के एक-एक क्षण को व्यस्त रखने के लिए तत्पर रहना चाहिये। यह अभ्यास क्रमशः प्रगति पथ पर अग्रसर करता चला जाएगा और एक दिन उन्नति के उच्च शिखर तक जा पहुँचने की सम्भावनायें मूर्तिमान् होकर सामने आ उपस्थित होंगी। प्रगतिशील राष्ट्रों के नागरिक घोर परिश्रमी होते हैं। जिन समाजों ने अपना वर्चस्व प्रतिपादित किया है, उनका जातीय गुण कठोर श्रम करने में रस लेता रहा है। जिन व्यक्तियों ने उत्कर्ष किया है, उनने अपना एक-एक क्षण कड़ी मेहनत के साथ गुजारा है।

आलसी का भविष्य अन्धकारपूर्ण है। जिसे श्रम करने में रुचि नहीं जो मेहनत से डरता है, आराम-तलबी जिसे पसन्द हैं, जो समय को ज्यों-त्यों करके अस्त-व्यस्त करता रहता है, समझना चाहिये, दुर्भाग्य इसके पीछे लग गया। यह कुछ उपलब्धियाँ प्राप्त कर सकना तो दूर यदि संयोगवश उत्तराधिकार में कुछ मिल गया है तो उसे भी स्थिर न रख सकेगा। कहते हैं-लक्ष्मी आलसी के घर नहीं रहती। सुना जाता है कि दारिद्रय वहाँ घोंसला बनाता है, जहाँ आलस्य की सघनता छाई रहती है।

संसार में अनेक महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों ने अनेक महान् सफलतायें सम्पादित की हैं। उनमें मूलतः कोई विशेषता एवं प्रतिभा न थी। सामान्य मनुष्यों जैसा ही शरीर और मन उनका भी था, पर गुण उन्होंने अपने में उत्पन्न किया, श्रम में रस लेना और निरन्तर मेहनत में संलग्न रहना, बस इस एक गुण ने ही उनकी प्रतिभा का निखारा, अनेक सद्गुण पैदा किये और विद्या-बुद्धि धन, अनुभव, स्वास्थ्य, सहयोग एवं सुविधा साधनों से उन्हें भर-पूर बना दिया। जिस काम को भी हम मेहनत-लगन और दिलचस्पी के साथ हाथ में लेते हैं, वह चमकने लगता है। जिसे बेगार भुगतने की तरह आधे मन से करते हैं, वह बिगड़ता और घटिया होता है। काम का ऊँचा स्तर प्रस्तुत प्रयोजन को ही सिद्ध नहीं करता वरन् कर्ता का स्तर भी ऊँचा उठाता है। यही प्रगति का रहस्य है। जो आगे बढ़ना चाहता हो, ऊँचा उठना चाहता हो, उसे यह गुरु मन्त्र गाँठ बाँध लेना चाहिये कि “निरन्तर कठोर श्रम करने में कस लिया जाय और एक क्षण भी व्यर्थ बर्बाद न किया जाय”

आराम की ऐसी जिन्दगी जिसमें कुछ काम न करना पड़े, केवल निर्जीव, निरुद्देश्य और निकम्मे लोगों को रुचिकर हो सकती है। वे ही उसे सौभाग्य गिन सकते हैं। प्रगतिशील महत्त्वाकाँक्षी लोगों की दृष्टि में तो यह एक मानसिक रुग्णता मात्र है। जिसके कारण व्यक्ति का भाग्य, भविष्य बल और वर्चस्व निरन्तर घटता ही जाता है। अपने देश का दुर्भाग्य श्रम के प्रति उपेक्षा करने की दुष्प्रवृत्ति के साथ आरम्भ हुआ है और वह तब तक बना ही रहेगा, जब तक कि हम प्रगतिशील लोगों की तरह परिश्रम के प्रति प्रगाढ़ आस्था उत्पन्न न करेंगे।

अपने यहाँ लड़कियाँ वे सुखी मानी जाती हैं, जिन्हें हाथ से कुछ काम न करना पड़े। नौकर-नौकरानी सब काम किया करें और उन्हें आराम के साथ दिन गुजारने का अवसर मिले। ऐसी महिलायें सदा शारीरिक और मानसिक दृष्टि से रुग्ण ही बनी रहेंगी। प्रसव के समय उन्हें बहुत कष्ट सहना पड़ेगा। आये दिन जुकाम बदहजमी, सिरदर्द आदि दूसरी किस्म की बीमारियाँ घेरे रहेंगी। डाक्टरों के महँगे बिल चुकाने पड़ेंगे और इञ्जेक्शनों के दर्द दण्ड सहने पड़ेंगे। श्रमशील महिलायें निरोग रहती और स्वस्थ एवं दीर्घजीवी सन्तानें उत्पन्न करती हैं। आराम तलबी को भ्रमवश सौभाग्य भले ही मान लिया जाय, अन्ततः वह गरीब मजदूरों के पल्ले पड़ने वाले असुविधाओं से भी अधिक महँगा पड़ता है।

अपने यहाँ रईस, अमीर, सन्त, महन्त, विद्वान्, कलाकार अक्सर शारीरिक श्रम से बचना चाहते हैं, फलतः वे रुग्ण बने रहते हैं और प्रस्तुत प्रतिभा से जो अपना और दूसरों का हित साधन कर सकते थे, नहीं कर पाते। धोबी, मोची, राज, मजूर, चमार, कुम्हार श्रमजीवी वर्ग को अपने यहाँ नीच समझा जाता है। मेहनत करने वाले नीच आराम तलब ऊँच। इस मान्यता ने हमारे समाज में हरामखोरी को प्रोत्साहन दिया। फलस्वरूप हम दरिद्र होते चले गये। दूसरी ओर रूस, ब्रिटेन, जापान और अमेरिका आदि समृद्ध देशों के नागरिकों में कठोर श्रम में भारी अभिरुचि लेने की प्रवृत्ति को देखते हैं तो सहज ही यह पता चल जाता है कि उनकी समृद्धियों और सफलताओं का कारण क्या है। हालैण्ड, डेनमार्क, यूगोस्लाविया आदि कितने ही देशों की समृद्धि वहाँ के महिला वर्ग की श्रमशीलता पर ही निर्भर है। हमें भी यदि वर्तमान अज्ञान और दरिद्रता के दुःखदायी चंगुल से छूटना हो तो देश के हर नागरिक में कठोर श्रम करने की-आलस्य से घृणा करने की और समय का एक क्षण भी व्यर्थ न गँवाने की प्रवृत्ति उत्पन्न करनी चाहिये।

हम विद्या से वंचित इसलिए नहीं रहते कि अमुक साधन नहीं। अशिक्षा का एकमात्र कारण इस ओर बढ़ती जाने वाली उपेक्षा है। कोई व्यक्ति यदि एक-दो घण्टा भी नियमित रूप से अध्ययन में लगाता रहे तो कुछ ही दिनों में अच्छा विद्वान् बन जाएगा परिश्रमी मनुष्य भूखा-नंगा नहीं रह सकता। उपार्जन के अनेक द्वार उद्यमी के लिए खुले रहते हैं। जो मेहनत करेगा, निरोग रहेगा। बेकार पड़े हुए चाकू को जंग खा जाती है पर जो काम में आता रहता है, उसकी जिन्दगी बढ़ती है। तलवार वही तेज रहती और चमकती है, जो शान के पत्थर पर घिसी जाती है। हीरा खराद पर चढ़कर कीमती बनता है। मकान की गरिमा भी मेहनत की खराद पर चढ़ने के बाद ही चमकती है। जिसे चमकना हो-जीवन का वास्तविक आनन्द लेना हो उसे चाहिये कि तन्मयता, तत्परता और मनोयोग पूर्वक सामने प्रस्तुत कार्यों को पूरी मेहनत और दिलचस्पी के साथ करना सीखें।

‘खाली मस्तिष्क शैतान की दुकान’ की कहावत सोलह आने सच है। जो फालतू बैठा रहेगा उसके मस्तिष्क में अनावश्यक और अवांछनीय बातें घूमती रहेंगी और कुछ न कुछ अनुचित, अनुपयुक्त करने तथा उद्विग्न संतप्त रहने की विपत्तियाँ मोल लेगा। जो व्यस्त है, उसे बेकार की बातें सोचने की फुरसत ही नहीं। गहरी नींद भी उसी को आती है। कुसंग और दुर्व्यसनों से भी वही बचा रहता है। जो मेहनत से कमाता है, उसे फिजूलखर्ची भी नहीं सूझती इस प्रकार परिश्रमी व्यक्ति अनेक दोष दुर्गुणों से बच जाता है।

प्रगतिशील वर्गों का जातीय गुण श्रमशीलता है। हमें अपने आपको कड़ी मेहनत करने का अभ्यस्त बनाना चाहिए। जो भी लक्ष्य, प्रयोजन एवं कार्य सामने हों उनमें तत्परतापूर्वक दिलचस्पी के साथ लगे रहना चाहिये। एक क्षण का भी समय बर्बाद नहीं करना चाहिये। यदि यह प्रकृति अपने में- अपने परिवार में और समाज में हम उत्पन्न कर सकें तो अगले दिनों हर दिशा में हम बहुत ही समृद्ध और समुन्नत बन सकते हैं।


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