संयम बरतें - सुखी रहें

September 1969

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(प. श्रीराम शर्मा आचार्य द्वारा लिखित और युग-निर्माण योजना मथुरा द्वारा प्रकाशित)

(‘हमारी एक महत्त्वपूर्ण-संयम पुस्तिका का एक अंश)

मनुष्य के शरीर और मन में शक्तियों का अकूत भण्डार भरा पड़ा है। उनको नष्ट होने से बचाया जा सके और उस बचत का सदुपयोग किया जा सके तो अभीष्ट दिशा में आशाजनक सफलतायें प्राप्त की जा सकती है। इस तथ्य को न समझकर हम अपनी बहुमूल्य शक्तियों का निरर्थक अपव्यय करते रहते हैं और ईश्वर प्रदत्त शक्ति भण्डार को खोकर खोखला, रुग्ण, अशक्त और असफल जीवन जीते हुए मौत के दिन पूरे करते रहते हैं।

शरीर और मन अपने-अपने आहारों द्वारा शक्तियों का निरन्तर उत्पादन करते रहते हैं और हमारा सामर्थ्य भण्डार निरन्तर बढ़ता रहता है। इस उत्पादन को यदि अपव्यय से बचाया जा सके और उसे रचनात्मक दिशा में प्रयुक्त किया जा सके तो निस्सन्देह किसी भी दिशा में आशाजनक प्रगति का सुयोग मिल सकता है।

संयम का अर्थ है-शक्तियों के अपव्यय को रोकना। यह अपव्यय अधिकतर हारी इन्द्रियों द्वारा होता है। इन्द्रियों में दो प्रमुख है-एक जीभ, दूसरी जननेन्द्रिय। जीभ के द्वारा हम निरर्थक बकवास करते रहते हैं, निन्दा चुगली, शेखी तथा गप्पें हाँकने में जिव्हा की बहुत सारी शक्ति का अपव्यय होता है। असत्य और कटु बोलने का जिह्वा संयम यदि धरता जा सके तो हमारी वाणी इतनी प्रभावशाली हो सकती है कि उसका दूसरों पर आश्चर्यजनक प्रभाव पड़े और वरदान आशीर्वाद देने की क्षमता उत्पन्न हो जाय। निरर्थक बकवास से, हमारा बहुत मनोबल नष्ट होता है। वाचाल व्यक्ति की अन्तरंग क्षमता खोखली होती जाती हैं और यह एक विदूषक मात्र रह जाता है। मौन को तप माना गया है। तपस्वियों का मौन तो हर किसी के लिए सम्भव नहीं पर इतना तो कोई भी कर सकता है कि अनर्गल बकवास पर नियन्त्रण करे और उतना ही नपा-तुला बोलें जो अपने तथा दूसरों के लिए आवश्यक एवं हितकर हो। यह किया जा सके तो कोई भी अपने व्यक्तित्व एवं प्रतिभा में आश्चर्यजनक अभिवृद्धि का अनुभव कर सकता है।

जिह्वा का दूसरा अर्थ है-चटोरापन विकृत जायके के लिए हम अवांछनीय अपथ्य पदार्थ खाते रहते हैं। स्वाद का आकर्षण आवश्यकता से अधिक मात्रा में खा जाने के लिए ललचाता है। यह बढ़ी हुई मात्रा पेट पर भारी बनती और उसे दिन-दिन दुर्बल करती चली जाती है। मसाले एक प्रकार के मन्द विष हैं। ये जीभ, पेट, आँतें ओर उदर के हर हिस्से को जलाते हैं। उत्तेजना में आदमी खा तो अधिक जाता है पर मात्रा से अधिक पचावे कौन। धीरे-धीरे अपच बढ़ता जाता है और पाचन यन्त्र इतना कमजोर बन जाता है कि स्वल्प मात्रा में आहार पहचाना भी कठिन पड़ता है। यहीं से दुर्बलता और रुग्णता की नींव पड़ती है, बिना पचा भोजन पेट का भार मात्र है, वह शक्ति पैदा न कर सकेगा तो दुर्बलता बढ़ेगी ही। अपच के कारण पेट में जो विषैली सड़न पैदा होती है, वही शिर के विभिन्न अंगों में पहुँच कर वहाँ विविध रोगों का सृजन करती चली जाती हैं और व्यक्ति व्यथा, पीड़ायें भोगता हुआ अकाल में ही कबलित होता है।

लुकमान सच कहते थे कि-आदमी अपनी जीभ से अपने मरने-गढ़ने के लिए कब्र खोदता है।” जीभ यदि काबू में हो तो मिठाई, खटाई, मिर्च और मसाले हमारे ऊपर सवार क्यों हों? और तरह-तरह के व्यंजन, पकवान, अचार, चटनी की लपक क्यों लगे? लोग समझते भर हैं कि हमने जायकेदार और कीमती चीजें खाकर मजा उठाया पर वस्तुतः यह अपने पैरों आप कुल्हाड़ी मारने की तरह है। यदि हम जायके को महत्व न दें और केवल गुण एवं लाभ को ध्यान में रखते हुए औषधि की तरह सात्विक आहार करें। तो पेट खराब न हो और दुर्बलता एवं रुग्णता का शिकार न होना पड़े। यह जीभ ही है, जो जायके और चटोरेपन की शिकार बनकर हमारे स्वास्थ्य, आनन्द और दीर्घजीवन पर कुठाराघात करती है। यदि जिह्वा को संयम, नियन्त्रण में रखा जा सके तो यह उपलब्धि निस्सन्देह बहुत बड़ा वरदान सिद्ध हो सकती है।

जननेन्द्रिय का संयम और भी अधिक महत्त्वपूर्ण हैं। शरीर जो कुछ उपलब्ध करता है, उसका सार तत्त्व-दूध में से घी की तरह-बचाता है। इसी का नाम शुक्र और अन्ततः ओजस है। चेहरे पर चमक, वाणी में प्रभाव, आँखों में ज्योति, मस्तिष्क में मेधा, स्वभाव में साहस इसी महत्व का प्रतिफल है। देह में यह थोड़ी-सी ही बूँदें रहती हैं पर वे समय प्रतिभा के रूप में प्रकाशवान् बनती हैं। इनमें इतनी सामर्थ्य है कि अपने जैसे कितने ही नये मनुष्य विनिर्मित कर सकें। इस आश्चर्यजनक शक्ति को सर्प की मणि की तरह कहा जा सकता है। कहते हैं कि सर्प अपनी मणि जब खो बैठता है, तब उसकी देह निर्जीव जैसी बन जाती है। मनुष्य की भी यही स्थिति है। इस सार

तत्त्व का जितना ही अपव्यय करता है, वह शारीरिक और मानसिक दृष्टि से उतना ही दुर्बल बनता चला जाता है। कामुक व्यक्ति न निरोग रह सकते हैं और न दीर्घजीवन का आनन्द ले सकते हैं। उन्हें अनेक रोग घेरे रहते हैं और मनस्विता गँवाकर दीन, दुर्बल, कायर, भीरु, अस्थिर और अन्यमनस्क बनते चले जाते हैं। मन में उत्साह की नहीं, आशंकाओं की ही भीड़ जमी रहती है। ब्रह्मचर्य की दिशा में असंयम बरतने वाले रुग्ण और दुर्बल सन्तानें ही उत्पन्न करेंगे।

कामुकता पर अंकुश लगाना ब्रह्मचर्य का समुचित ध्यान रखना, जननेन्द्रिय का संयम बरतना हर विचार शील व्यक्ति के लिए आवश्यक है। जिसे शारीरिक परिपुष्टता, दीर्घजीवन और समर्थ मनस्विता की आवश्यकता है, उसे यह तथ्य गाँठ बाँध लेना चाहिये कि शरीर के सार तत्त्व को खिलवाड़ का विषय न बनायें। सन्तान वृद्धि को जितनी आवश्यकता हो उसके अनुरूप वासना में ढील दें, अन्यथा इस दिशा में आवश्यक मर्यादाओं का निरंतर पालन करता रहे। यह स्मरण रखा जाना चाहिये कि विवाह का उद्देश्य दो आत्माओं का पवित्र गठबंधन और एक दूसरे के सहयोग से एक सम्मिलित आत्म-चेतना का विकास करना है। स्वच्छन्द अनियन्त्रित और अनावश्यक काम वासना भड़काने और एक दूसरे के शारीरिक, मानसिक सार तत्त्व को नष्ट-भ्रष्ट करने में जुट जाने का नाम विवाह मैत्री नहीं है। यह तो प्रत्यक्ष शत्रुता है। विवाह के भाव पति-पत्नि एक दूसरे की समर्थता और प्रतिभा का विकास करे यही अभीष्ट है। एक क्षणिक कुत्सित मनोरंजन के लिए एक दूसरे के शरीर और मन को हम दुर्बल बनाने लगें तो यह न तो प्रीति रही, न नीति। मित्रता की आड़ में यह प्रत्यक्ष शत्रुता है। अच्छा हो हमारे दाम्पत्य-जीवन के प्रतीक न बने और दोनों में एक दूसरे के शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य का संरक्षण करने की दृष्टि से आत्म-संयम की प्रवृत्ति पनपे

दाम्पत्य-जीवन से बाहर का दुराचार तो अति कुत्सित है। अप्राकृतिक दुर्बुद्धि का लुक-छिपकर आज नवयुवकों में बहुत बढ़ चला है। दस दुर्व्यसन से वे कलियाँ असमय ही मुरझा जाती हैं। जवानी का आरम्भ भी नहीं हुआ कि बुढ़ापे ने आ घेरा। कितने ही नासमझ लड़के “जिस डाल पर बैठना उसी को काटना” की दुर्बुद्धि चरितार्थ करते रहते हैं। इन्हें सिखाया जाना चाहिये कि जीवन रस को फुलझड़ी समझकर उन्हें जलाने का कौतूहल न बरतें यह खतरनाक खेल हैं, जिसकी कीमत आगे चलकर भारी पश्चाताप के साथ चुकानी पड़ेगी। इसी प्रकार नर-नारी के बीच पवित्र सम्बन्धों की पुण्य परम्परा में विष घोलना हर दृष्टि से अवांछनीय है। प्रेम और मैत्री का अर्थ कामुकता नहीं है। शुभ-चिन्तक और हितैषी होने का अर्थ अपने प्रिय पात्र का चरित्र गिराना और उसे अपने गृहस्थ-जीवन के प्रति अनास्थावान् बनाना नहीं है। नर और नर की भाँति, नर और नारी में भी प्रेम हो सकता है। इसमें कोई दोष नहीं पर जब वह मैत्री कामुकता से विषाक्त होने लगे तो समझना चाहिये कि यह सद्भावना की आड़ में दुष्ट प्रयोजन खुल खेल रहे हैं। अच्छा हो-जहाँ भी नर-नारी के बीच पनपने वाली मित्रता विषाक्त होने से बची रहे और उसके दूरगामी दुष्परिणामों से व्यक्ति दूरगामी दुष्परिणामों से व्यक्ति और समाज को दुष्परिणाम न भोगने पड़े।

अन्य इन्द्रियाँ भी ऐसी ही हैं, जिन्हें संयम की शिक्षा मिलनी चाहिये। आँखों में शुद्ध सौंदर्य की आकांक्षा तो बनी रहे पर कामुकता की दुर्भावना से चारों ओर बिखरे सौंदर्य को न निहारें। इससे मिलने वाला कुछ नहीं, केवल अपनी आन्तरिक शक्ति ही नष्ट होगी और अकारण उद्विग्नता बढ़ेगी, मन कलुषित होगा, कुमार्ग पर कदम बढ़ेंगे और आध्यात्मिकता की पवित्र दृष्टि से देखें और हर घड़ी प्रमुदित और संतुष्ट रहने की ही स्थिति प्राप्त करें। कान शृंगार और अश्लीलता सुनने के लिए लालायित न रहें। निन्दा, चुगली में रस न लें। बहुत कुछ आवश्यक तथ्य सुनने के लिए शेष हैं, उन्हीं के लिए प्रवृत्ति क्यों न मोड़ी जाय? नासिका माँस, मदिरा जैसे अभक्ष्यों की दुर्गन्ध को सहन क्यों करें? अस्वच्छता भरी परिस्थितियों में रहने के लिये उसे क्यों विवश किया गया? नासिका की स्वाभाविकता प्रीति स्वच्छता और सात्विकता को पसन्द करने में है। अच्छा हो हमारी नासिका सही पथ प्रदर्शन कर सकने में समर्थ बनी रहे।

संयम अर्थात् शक्तियों का संचय। असंयम अर्थात् सामर्थ्य की बर्बादी। यह मोटा तथ्य है कि बर्बादी का अवलम्बन करने वाला एक दिन दिवालिया बन जाता है और जो थोड़ा-थोड़ा बनाता रहता है, उसकी सम्पदा समय-समय पर अनेक सुविधायें प्रस्तुत करती हैं। इन्द्रियों का संयम अपने आपको बर्बादी से बचाकर समृद्धि की ओर अग्रसर करने का बुद्धिमत्तापूर्ण प्रयास है। इसी में हम सबका कल्याण है।


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