ऊँच-नीच की मान्यता अवांछनीय और अन्याय मूलक

September 1969

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युग-निर्माण योजना मथुरा द्वारा प्रकाशित ‘हरिजन उत्कर्ष के लिए कदम उठें’)

पुस्तिका का एक अंश

गाय, घोड़ा, बन्दर, मोर, कबूतर आदि पशु-पक्षियों की तरह मनुष्य भी एक जाति है। उनके रंग आकृति में प्रवेश और प्रकृति के कारण कुछ अन्तर भी हो सकता है, पर मूलतः वे एक ही वर्ग या जाति के गिने जाते रहेंगे। यदि भाषा, प्रदेश, आकृति-प्रकृति आदि के आधार पर उनका वर्गीकरण भी किया जाय तो भी उससे मूल अधिकार समान स्तर का ही प्रतिपादन होता रहेगा। मनुष्य भगवान् का पुत्र है। पिता को अपने हर बच्चे से समान प्यार होता है। और वे सभी बच्चे एक वंश वर्ग के माने जाते हैं। परमपिता परमात्मा ने मानव जाति को अपनी श्रेष्ठ सन्तान के रूप में सृजा है और उसे समान स्तर एवं समान अधिकार का बनाकर संसार में भेजा है। सभी परस्पर भाई-भाई एक ही परिवार एवं अंश-वंश के हैं।

प्राचीनकाल में कार्य और व्यवसाय के विभाजन की दृष्टि से समाज की ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्गों में बाँटा गया था। वह विभाजन स्वाभाविक है। अभी तो बुद्धिजीवी, संरक्षक, उत्पादक एवं श्रमिक इन चार वर्गों में संसार के समस्त समाज बँटे हुए हैं। इस विभाजन से सामाजिक सुविधा रहती है और वंश परम्परा से चली आने वाली कुशलता में अञुच्चता एवं अभिवृद्धि होती चलती है। योग्यता, प्रकृति, परिस्थिति एवं अभिरुचि के अनुसार इस कार्य विभाजन में किसी को कोई आपत्ति नहीं हो सकती। पर कठिनाई तब उत्पन्न होती है, जब वंश या कार्य के कारण किसी वर्ग को ऊँच और किसी को नीच बताया जाने लगे। अध्यापक अपने को ऊँचा कहे और सैनिक नीचा माना जाय। इतना ही नहीं इस विभेद के कारण कोई किसी को सुने तथा हाथ से छुआ पानी पीने रोटी खाने तक से इनकार करने लगे, तब आश्चर्य होता है और कठिनाई उत्पन्न होती है।

दुष्टता भरे दुष्चक्र करने वाले को नीच कहा जाय और उनके सामाजिक बहिष्कार का क्रम बनाया जाय तो बात समझ म आती है। ज्ञान, सेवा, सद्गुण, सदाचरण के आधार पर किसी को बड़ा या ऊँचा माना जाय और सम्मानित किया जाय, इसके पीछे भी कारण है। सम्मान और असम्मान की स्थिति किसी को अपनी चारित्रिक उत्कृष्टता-निकटता के आधार पर मिले तो इसमें औचित्य माना जाएगा पर गुण-कर्म स्वभाव को समानता होते हुए भी केवल वंश के आधार पर कुछ लोग ऊँचे समझे जायें और कुछ को नीच कहा जाय, यह बात किसी तर्क या कारण की परख पर उचित नहीं उतरती। कोई वंश ऊँचा क्यों हो सकता है? कोई वंश नीचा क्यों कहलाये? इसका न कोई कारण समझ में आता है और न इस प्रतिपादन का कोई औचित्य ही सिद्ध होता है।

किसी वंश में किसी समय कुछ श्रेष्ठ पुरुष हुए थे, इसलिए उस वंश के लोगों को अभी भी उन श्रेष्ठ पुरुषों जैसा सम्मान मिले, यह दावा बेबुनियाद है। ब्राह्मण वंश में वशिष्ठ, मंत्री, याज्ञवल्क्य, भारद्वाज आदि ऋषि-मुनि त्यागी-तपस्वी हुए हैं तो रावण, कुम्भकरण, मरीच, खर-दूषण जैसे दुष्ट भी हुए हैं। यदि उत्तराधिकार का दावा किया जाय तो उसमें श्रेष्ठता ही नहीं, निकृष्टता भी हिस्से आयेगी। तब सम्मान ही नहीं, तिरस्कार का भाजन भी बनना पड़ेगा। किसी भी वंश में न तो सभी लोग अच्छे हुए हैं, न बुरे। सबको उनकी उत्कृष्टता निकृष्टता के अनुरूप मान तिरस्कार मिलता रहा है। उत्कृष्टता किसी वंश की बपौती नहीं। हर वर्ग में श्रेष्ठ व्यक्ति होते रहे हैं। इसी प्रकार कोई वर्ग ऐसा नहीं जिसमें निकृष्ट चरित्र के पूर्व पुरुषों की एक लम्बी शृंखला न मिल सके। फिर उनके वंशजों का दावा केवल उत्कृष्टता पर ही हो और वे उसी आधार पर अपने को ऊँचा घोषित करें और ऊँचे लोगों को मिलने वाले सम्मान को प्राप्त करना चाहें तो यह उनकी अनाधिकार चेष्टा होगी। इसी प्रकार किसी वंश के किन्हीं पूर्व पुरुषों ने कुछ अनुपयुक्त कार्य किये हों और उस कारण उन्हें तिरस्कार मिला हो तो उन दोषों से रहित वंशजों को इसलिए तिरस्कृत किया जाना भी अन्याय है।

जाति-पाँति की बात समझ में आ सकती है पर ऊँच-नीच का विभेद सर्वथा अवांछनीय है। कोई ईमानदार और समझदार व्यक्ति इसका समर्थन नहीं कर सकता है। भारतीय धर्म-शास्त्र इसी मान्यता का सर्वथा विरोधी है। यहाँ अपने श्रेष्ठ कर्मों के कारण शूद्र-वंश के अगणित व्यक्ति ब्राह्मण पद पाते रहे हैं। इन प्रमाणों से भारतीय इतिहास पुराणों का पन्ना-पन्ना भरा पड़ा है। मध्यकाल में भी रैदास, कबीर, नानक, दादू, नामदेव, विवेकानन्द आदि अनेक भक्त ब्राहणेतर जातियों में और कितने ही तो शूद्र वर्ण में पैदा हुए पर उनकी गरिमा किसी ब्राह्मण से कम नहीं आँकी गई, गाँधी बुद्ध, महावीर भी तो ब्राह्मण नहीं थे। राम-कृष्ण क्षत्रिय थे पर उनकी पूजा ब्राह्मण भी कहते हैं। श्रेष्ठता को जातीयता की सीमा में आबद्ध नहीं किया जा सकता।

आज अपने देश की विचित्र दशा है। हिन्दू समाज की एक तिहाई जनसंख्या अछूत अस्पर्श कहलाती है। उन्हें सवर्ण हिन्दुओं के समान नागरिक अधिकार अभी तो नहीं मिले हैं। संविधान ने अस्पर्शता को अवांछनीय और कानून ने उसे दण्डनीय माना है। जन्नत का विवेक ऊँच-नीच को मान्यता की अनर्गल घोषित कर चुका है। पर अभी भी हमारे मस्तिष्क और व्यवहार में वे ही मान्यताएँ जमी बैठी हैं। यह विषय इतना गहरा उतर गया है कि एक ही जाति के लोग अपनी उपजातियों को नीच-ऊँच मानते हैं। ब्राह्मणों की एक उपजाति दूसरी की अपने से नीचा मानती है। एक ही उपजाति के लोग हम इतने विश्वा के हैं- अमुक इतने विश्वा का है, ऐसी मूढ़ मान्यता अपनाकर ऊँच-नीच का ढोंग रचते हैं और विवाह-शादियों में तो इसी आधार पर दहेज का बारा-न्यारा करते हैं। अछूत कहे जाने वाले वर्ग परस्पर इसी ऊँच-नीच की मान्यता को चरितार्थ करते हैं। चमार, धोबी, मोची, भंगी, धनुक आदि अछूत समझे जाने वाले लोग परस्पर भी ऊँच-नीच मानते हैं और आपस में भी बड़प्पन छोटाई की बात कहकर अपने को बड़ा दूसरे को छोटा मानते हैं और वैसा ही व्यवहार करते हैं, जैसा सवर्ण उनके साथ करते हैं।

बहुत सोचने पर भी इस ऊँच नीच की मान्यता का कोई औचित्य समझ में नहीं आता। शास्त्रों ओर पूर्व पुरुषों की दुहाई देना व्यर्थ है। अन्धकार युग में किसी ने कुछ श्लोक गढ़कर किसी ग्रन्थ में चिपका दिये हों तो बात दूसरी है। पर महान्-हिन्दू धर्म इतना अनुदार और संकीर्ण हो ही नहीं सकता कि वह मनुष्य-मनुष्य के बीच पड़ने वाली और घृणा-द्वेष बढ़ाकर सामाजिक एकता को छिन्न-भिन्न करने वाली खाई खो दें। हमने बारीकी से हिन्दू-धर्म का अध्ययन किया है। और उसमें कहीं इस बात की गन्ध भी नहीं पाई है कि केवल वंश परम्परा के कारण किसी को नीच, किसी को ऊँच माना जाय। फिर यह मान्यता कहाँ से चल पड़ी? लगता है विधर्मियों ने भारतीय जन-जीवन को नष्ट-भ्रष्ट अस्त-व्यस्त और विश्रृंखलित करने के लिये यह षड्यन्त्र रचा होगा और अपनी बन्दूक उस समय के पुरोहितों के कन्धों पर रखकर चलाई होगी।

वर्ण भेद की अनुदार और संकीर्ण विचार-धारा को सम्पूर्ण विश्व में भर्त्सना हो रही है। अमेरिका के काले-गोरे रंग के आधार पर जो ऊँच-नीच की भावना जहाँ-तहाँ पाई जाती है, उसको विश्व के लोकमत ने एक स्वर से धिक्कारा है। अफ्रीका की जो गोरी सरकारें इस नीति पर चल रही है, उनकी राष्ट्र संघ तक ने भर्त्सना की है और इस चाल से बाज़ आने की चेतावनी दी है। महात्मा गाँधी ने इसके विरुद्ध दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह आन्दोलन चलाया था। जहाँ कहीं यह नीति बरती जाती है, जो भी इसका प्रतिपादन करता है, वह विवेकशील लोकमत के आगे अपराधी ठहरता है। न्याय और विवेक की कसौटी पर मनुष्य-मनुष्य के बीच ऊँच-नीच की मान्यता का समर्थन करना मानवता के प्रति एक अपराध ही माना जाता रहेगा।

इस मान्यता ने हिन्दू समाज की अपार क्षति की है। अछूत वर्ग इस तिरस्कृत सामाजिक स्थिति को स्वीकार न करेगा, यह निश्चित है। जैसे-जैसे उनमें चेतना उभरेगी वे इस अवस्था के प्रति विद्रोह करेंगे। यह विद्रोह पिछले पचास वर्ष से दिन-दिन उम्र होता चला जा रहा है। मुसलमानी शासन में अगणित अछूत मुसलमान बने, ईसाई शासन में उनका झुकाव ईसाई धर्म की ओर हुआ। अब वे अपनी स्वतन्त्र चेतना के उभार पर बौद्ध और ईसाई इतनी तेजी से होते चले जाते हैं कि यह आशंका होती है कि कुछ दिन में एक भी अछूत वर्तमान मान्यताओं वाले हिन्दू-समाज में न रह सकेगा। मद्रास में यह विद्रोह शासन सत्ता तक अपने हाथ में ले चुका है। नागालैण्ड का ईसाईस्तान उस मूल की प्रतिक्रिया है। इन दिनों जिस प्रकार के राजनैतिक षड्यन्त्र चल रहे हैं, उन्हें देखते हुए यह असम्भव नहीं कि अछूत सवर्ण हिन्दुओं से अलग होकर ईसाई, मुसलमानों में जा मिलें और बहुमत उनका हो जाय। ऐसी दशा में सवर्ण हिन्दुओं के सामाजिक अन्याय का कैसा कठोर प्रायश्चित्त करना पड़ेगा, उसका अनुमान लगा सकना किसी भी दूरदर्शी के लिए कठिन नहीं होना चाहिये।

वर्तमान ऊँच-नीच परक वंश जाति की मान्यतायें हिन्दू समाज की न्याय-निष्ठा पर भारी कलंक लगाती हैं। इससे विश्व के हर विचारशील वर्ग में हमारी अप्रतिष्ठा होती है। हमें संकीर्ण अनुदार और अन्यायी कहा जाता है। सामाजिक दृष्टि से हम छिन्न-परिछिन्न विभाजित और अस्त-व्यस्त होते हैं। अन्याय का दोष लगाकर अपना ही एक तिहाई वर्ग अपने से अलग हो जाय, यह हमारे लिए हर दृष्टि से लज्जा की बात है। बात यहीं तक सीमित नहीं हमारी अनीति से क्षुब्ध होकर दूसरे धर्मों में गये हुए अपने लोग अगले दिनों प्रतिशोध की भावना से ओत-प्रोत होंगे और हमें अपनी करतूतों का दण्ड कराह-कराह कर भुगतना पड़ेगा।

अच्छा हो हम समय रहते चेतें। अपनी भूल सुधारें और मानव मात्र की एकता एवं समता के सार्वभौम न्याय सिद्धान्त को स्वीकार करें। ऊँच-नीच की मान्यताओं का जितना शीघ्र उन्मूलन हो उतना ही हमारा कल्याण है।


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