ढलती आयु का उपयोग इस तरह करें

September 1969

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(प. श्रीराम शर्मा आचार्य द्वारा लिखित और युग-निर्माण योजना मथुरा द्वारा प्रकाशित)

(‘उनसे जो पचास वर्ष के हो चले’ पुस्तिका का एक अंश)

भारतीय परम्परा के अनुरूप मानव-जीवन चार भागों में विभक्त है। इस विभाजन को चार आश्रम कहते हैं। मनुष्य की यदि सौ वर्ष पूर्ण आयु मानी जाय तो उसमें से 25 वर्ष ब्रह्मचर्य, विद्याध्ययन, शरीर पुष्टि के लिए। 25 वर्ष पारिवारिक उत्तरदायित्वों को निबाहने के लिये। 25 वर्ष परिवार को स्वावलम्बी, सुसंस्कृत बनाने की देख-भाल रखते हुए आत्म-विकास एवं लोक-मंगल की संयुक्त साधना के लिए तथा अन्तिम 25 वर्ष घर परिवार को मोह, ममता से छुटकारा पाकर परि भ्रमण करते हुए विश्व-मानव के लिए-परमात्मा के लिए अपना पूर्णतया समर्पण करने के लिए है। इन चार अवधि विभाजन को चार आश्रम ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास कहते हैं। यह ऐसा संतुलित विभाजन है कि जब तक उसे क्रियान्वित किया जाता रहा, यह देश संसार वासियों की दृष्टि में स्वर्ग और इस देश का नागरिक देवता की तरह आदर्श एवं अभिनन्दनीय माना जाता रहा। जीवन का यह विभाजन क्रम प्राचीनकाल की तरह आज भी आवश्यक एवं उपयोगी है।

यह सभी जानते हैं कि जीवन का आरम्भिक चौथाई भाग शारीरिक और मानसिक विकास के लिए है। संयम, व्यायाम, विद्याध्ययन, अनुशासन आदि सत्प्रवृत्तियों में निरत रहकर ब्रह्मचारी वर्ग भावी जीवन की आधार शिला सुदृढ़ करता है। जिसने यह मूल्यवान् समय उच्छृंखलता में गँवा दिया वह शेष सारा जीवन रोते-कलपते ही गुजरेगा युवावस्था, उपार्जन, उत्पादन, अभिवर्द्धन एवं स्थिरता उत्पन्न करने के लिए है। जो विवाह करना आवश्यक समझते हों और उसके लिए अपने को सुयोग्य, समर्थ मानते हों, बहिन तथा समाज के अन्य दुर्बल परिस्थिति वालों की सहायता किया जा सकता है। विवाह उचित तो है पर अनिवार्य नहीं। गृहस्थ जीवन का अर्थ विवाह नहीं वरन् पारिवारिक सुव्यवस्था के लिए अपना कर्तव्य एवं अनुदान प्रस्तुत करना है। ब्रह्मचारी अवधि में जो शक्तियाँ प्राप्त की थीं, उनका उपयोग परिवार संस्था के विकास में किस तरह किया जा सकता है, यह गृहस्थी जीवन की साधना है।

व्यक्तिगत जीवन की दृष्टि में यह आधा जीवन अपने व्यक्तित्व और परिवार के लिए नियोजित है। यों उससे भी जीवनोपयोग की पूर्ति के लिए समय-समय पर बहुत कुछ करते रहा जा सकता है। इसके उपरांत वानप्रस्थ की स्थिति आती है। उसमें समर्थ और वयस्क बच्चों को स्वावलम्बी बनाना चाहिये। उनके ऊपर पारिवारिक उत्तर दायित्वों का बोझ धीरे-धीरे बढ़ाते चलना चाहिये और अपना हाथ खींचना चाहिये। बूढ़े लोग अपना ही आधिपत्य नियन्त्रण घर, परिवार पर बनाये रहें तो बच्चे अनुभवहीन और अनुत्तरदायी बने रहेंगे और बूढ़ों के न रहने पर भारी कठिनाई अनुभव करेंगे। नवयुवकों में जोश तो बहुत होता है पर अनुभव के अभाव में वे अक्सर भूलें करते रहते हैं। इसलिये परामर्श, मार्ग-दर्शन एवं देख-भाल की आवश्यकता बड़े लोग पूरा करते रहें। बाकी काम उन्हें करने और सँभालने दें। बड़े बच्चे अपने छोटे भाई-बहिनों को सँभाले। इस प्रकार व्यवस्था बना देने पर जो समय और मस्तिष्क बचे उसे अपनी आध्यात्मिक समर्थता बढ़ाने के लिए साधना, स्वाध्याय, संयम एवं सेवा में लगाना चाहिये। यहीं पूर्णता के लक्ष्य की प्राप्ति की दिशा में आगे बढ़ने की तैयारी है। ब्रह्मचारी अवधि में लौकिक जीवन की प्रगति एवं स्थिरता के लिए तैयारी की गई थी। वानप्रस्थ में आध्यात्मिक जीवन की-परमात्मा-विश्व-मानव की सेवा-साधना करने के लिए अग्रसर होते हैं। यह अति महत्त्वपूर्ण समय है। इसमें बच्चे भी सुयोग्य बनते हैं, अपनी आन्तरिक प्रगति का भी अवसर मिलता है और उसी अवधि में लोक-मंगल के वे महत्त्वपूर्ण कार्य बन पड़ते हैं, जिनके ऊपर किसी समाज या राष्ट्र की वास्तविक प्रगति निर्भर रहती है।

जीवन का लक्ष्य पूर्णता प्राप्त करना है। अपूर्णतायें, मानवीय दुर्बलताएँ, आत्म-निरीक्षण आत्म-शोधन आत्म सुधार एवं आत्म-विकास के चार आधारों पर अवलम्बित है। चिन्तन और मनन के द्वारा आत्म-निरीक्षण और आत्म-समीक्षा अपने दोष दुर्गुणों को प्रकाश में लाती है। आत्म-सुधार के लिए शरीरगत बुरी आदतों और मनोगत दुष्प्रवृत्तियों से संघर्ष करके पुराने क्रम में आमूल चूल परिवर्तन करना पड़ता है। तपश्चर्या इसे ही कहते हैं। तप साधना का यही उद्देश्य है। यह वनवास की तरह घर में रहकर भी की जा सकती। वानप्रस्थ इसी प्रयोजन के लिए है। लोक-मंगल में सेवा संदर्भ में संलग्न रहने से आत्म-विकास होता है। जिस स्वार्थपरता के साथ हम अपने निजी प्रयोजनों में अब तक लगे रहे, उसी तत्परता के साथ लोक-मंगल और परमार्थ प्रयोजन में रस लेने लगें तो समझना चाहिये कि आत्म-विकास की प्रक्रिया चल पड़ी। अपनेपन की परिधि को व्यापक बनाना, यह पूर्णता की दिशा में अग्रसर होने का मार्ग है। इसके लिए संकीर्ण स्वार्थपरता की परिधि से निकलकर विश्व-मानव की सेवा में अपने समय मन, तथा धन को नियोजित करना होता है। वानप्रस्थ साधना का यही क्रम है और भारतीय परम्परा के अनुरूप हमारा ढलता जीवन-पचास से पचहत्तर तक की आयु इसी में नियोजित होनी चाहिये।

व्यक्ति और समाज दोनों के ही कल्याण की दृष्टि से वानप्रस्थ की उपयोगिता असाधारण है। इससे समय रहते बड़े अच्छे सुयोग्य बन जाते हैं और अपने पारिवारिक उत्तरदायित्व को समझने, निबाहने लगते हैं। उनमें जिम्मेदारी की भावना बढ़ती है और अनुभवी बनते हैं यह व्यावहारिक प्रशिक्षण युवा बालकों को न मिले और वे देर तक परावलम्बी बने रहें तो आगे चलकर उन्हें उत्तरदायित्व सँभालने और निबाहने में बड़ी कठिनाई पड़ती है। परिवार को स्वावलम्बी बना देना-उसकी एक बड़ी सेवा है। उसमें छोटे बच्चे भी अपनी जिम्मेदारी अनुभव करने लगते हैं और वे बिगड़ते नहीं।

उपरोक्त प्रकार की व्यवस्था बनाकर ढलती आयु के हर व्यक्ति को स्वाध्याय, उपासना और आत्म-शोधन की तपश्चर्या के लिए समय निकालना चाहिये और लोक-मंगल की साधना में नियमित रूप से कम-से-कम चार घण्टा समय देना चाहिए प्रातः और सायंकाल का समय व्यक्तिगत साधना के लिए और दिन का बचा समय लोक-मंगल की सेवा प्रक्रिया में लगाने के लिए नियुक्त रहना चाहिये। कहना न होगा कि समय की आवश्यकता को देखते हुए, आज की सबसे बड़ी लोक सेवा विचार परिवर्तन की दृष्टि से किये गये, प्रयत्नों पर ही निर्भर है। आर्थिक, शारीरिक या बौद्धिक सुविधाएँ बढ़ाने वाले कार्य भी यों सेवा क्षेत्र में आते हैं पर उनका भी

महत्व तभी है, जब लोगों की विचार पद्धति का परिष्कार हो। अन्यथा अगणित सुख-सुविधाएँ रहते हुए भी मनुष्य दुःखी ही बना रहेगा। सुखी की मूल भित्ति उच्च विचारणा ही है। समाज में विचारशीलता, विवेकशीलता और सद्भावना बढ़ सके ऐसे लोक सेवा के कार्यों को हाथ में लेना वानप्रस्थ साधना का अविच्छिन्न अंग है। इस साधना को करते हुए आत्म-कल्याण पूर्णता की प्राप्ति और ईश्वरीय प्रकाश की उपलब्धि का पूरा लाभ एवं आनन्द उठा सकता है। सत्कर्मों से हो शुभ संस्कार बनते हैं और वे ही हमारी प्रधान आध्यात्मिक पूँजी है। सद्भावना अभिवर्द्धन की लोक-सेवा उसी प्रयोजन की पूर्ति करती है। वानप्रस्थ में साधु ब्राह्मणों जैसी लोक-मानस को परिष्कृत करने की सेवा, साधना करनी होती है।

जब तक वानप्रस्थ प्रणाली जीवित रही। देश को लाखों लोक-सेवी अनुभवों और सुयोग्य कार्यकर्ता निःशुल्क मिलते रहे। उनके द्वारा ज्ञान कल्याण के असंख्य प्रयोजन पूरे किये जाते रहे। और अपना देश सुसम्पन्न, समर्थ एवं सुसंस्कृत बना रहा। लोग स्वार्थी और संकीर्ण बनकर ढलती आयु को भी घर, परिवार के लिए ही व्यय करने लगे तो लोक-मंगल के लिए उच्च भावना सम्पन्न लोक-सेवियों का मिलना ही बन्द हो गया। व्यवसायों लोगों के हाथ सार्वजनिक क्षेत्र चला गया और समाज की भारी हानि हुई। देश के भावनात्मक अधःपतन का एक बहुत बड़ा कारण वानप्रस्थ परम्परा का लोप हो जाना ही है। समय की माँग है कि पचास वर्ष से अधिक आयु का हर व्यक्ति भले ही घर में रहे पर आत्म-निर्माण और आत्म-विकास की आध्यात्मिक प्रक्रिया में संलग्न होकर अपने और समाज के कल्याण का महत्त्वपूर्ण प्रयोजन पूर्ण करने में संलग्न हों।


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