भाग्यवाद हमें नपुंसक और निर्जीव बनाता है

September 1969

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(प. श्रीराम शर्मा आचार्य द्वारा लिखित और युग-निर्माण योजना मथुरा द्वारा प्रकाशित)

(‘हम भाग्यवादी नहीं कर्मवादी बनें’ पुस्तिका का एक अंश)

एक ही औषधि हर मर्ज पर, हर व्यक्ति के लिए काम नहीं आ सकती इसी प्रकार परिस्थितियों के अनुरूप अनेक सिद्धान्तों का प्रयोग किया जाता है। विद्यार्थियों और वानप्रस्थों के लिए ब्रह्मचर्य धर्म है, किन्तु विवाहित के लिए सन्तानोत्पादन के लिए काम सेवन भी धर्म बन जाता है। साधुओं का सम्मान एवं दुष्टों का प्रताड़न परस्पर विरोधी सिद्धान्त, विपरीत परिस्थितियों में प्रयुक्त होते हैं। भाग्यवाद का सिद्धान्त भी एक ऐसा ही प्रयोग है, जो केवल तब काम में लाया जाता है, जब मनुष्य के पुरुषार्थ करने पर भी अभीष्ट सफलता न मिले। असफलता में निराशा और खीज़ उत्पन्न होती है और अपनी भूल तथा दूसरों के असहयोग के अनेक प्रसंग ध्यान में आते हैं। ऐसी दशा में असफलता की हानि के साथ लोग भावी सतर्कता के लिए शिक्षा तो नहीं लेते, उल्टे अपने या दूसरों के ऊपर झल्लाते, उद्विग्न होते देखे जाते हैं। इन परिस्थितियों में भाग्यवाद को चर्चा करके चित को हल्का किया जा सकता है। उस समय के लिए वह उपयुक्त औषधि है।

पर यह दवा यदि कुसमय काम में लाई जाय तो पुरुषार्थ के उत्साह को ठण्डा कर सकती है और व्यक्ति को अकर्मण्य बना सकती है। अपने देश में ऐसा ही कुछ बहुत दिनों से होता चला आ रहा है और हम अपने कर्तव्यों के प्रति निर्जीव, नपुंसक, अन्यमनस्क और निराशा पसत अनते आ रहे हैं। “जो भाग्य में लिखा है, सो होगा।” होतव्यता टलेगी नहीं। जितना मिलना है उतना ही मिलेगा। कर्म रेख मिटती थोड़े ही है। अब अच्छे दिन आयेंगे, तभी सफलता मिलेगी। जैसी मान्यतायें यदि मजबूती से मन में जड़ जमा लें तो किसी भी मनुष्य को अकर्मण्य और निराशावादी बना देगी। वह यही सोचता रहेगा, जब अच्छा समय आयेगा, सब कुछ अपने आप ठीक हो जायेगा। यदि अपने भाग्य में नहीं है तो मेहनत करने पर भी क्यों बनेगा? ऐसे भाग्यवादी व्यक्ति न अपने पुरुषार्थ पर विश्वास करते हैं और न पूरे उत्साह से किसी काम में लगते हैं, फलस्वरूप उन्हें कोई महत्त्वपूर्ण सफलता भी नहीं मिलती। आशा की ज्योति चलती ही नहीं तो प्रगति पथ पर प्रकाश कैसे उत्पन्न होगा?

यह विचार-धारा भारतीय दर्शन के सर्वथा विपरीत है। अपने यहाँ सदा पुरुषार्थ कर्म, प्रयत्न और संघर्ष को मानव जीवन की अनिवार्य आवश्यकता के रूप में प्रतिपादित किया जाता रहा है। अपना सारा अध्यात्म इतिहास और दर्शन इसी प्रतिपादन से भरा पड़ा है। फिर यह भाग्यवादी विकृत विचार-धारा कहाँ से चल पड़ी? इसकी खोज करने पर स्पष्ट हो जाता है कि सामन्तवादी शोषकों ने अपने अत्याचारों से पीड़ित जनता को किसी प्रकार शान्त, सन्तुष्ट करने के लिए यह मनोवैज्ञानिक नशे की गोली विनिर्मित की। उनके इशारे पर साधु-पण्डित भी इसी पक्ष के किस्से-कहानी गढ़कर पीड़ितों के रोग प्रतिरोध को शांत शमन करने में लगे रहे। पिछले एक हजार वर्ष का हमारा दार्शनिक इतिहास बड़ा विचित्र है। एक ओर तो बन्दा वैरागी, गुरु गोविन्दसिंह आदि सत्ता का बुरी तरह उत्पीड़न हुआ, दूसरी ओर उन्हीं दिनों अनेक सम्प्रदायों के आविष्कर्ता भी फले-फूले अब यह प्रमाण मिल रहे हैं कि आक्रमणकारियों ने उन्हें गुप्तरूप से बहुत धन और सहयोग इस बात के लिए दिया कि वे धर्म सम्प्रदाय भक्ति आदि की अपनी मान्यता के साथ-साथ दैववाद-भाग्यवाद का गहरा पुट अवश्य मिलाये रखें। होता यही रहा है। हमें अनेक किस्से-कहानियाँ सुनाकर पूरा भाग्यवादी बना दिया गया।

नृशंस विदेशी शासन के द्वारा उत्पीड़ित जनता बहुत क्षुब्ध और आवेश ग्रस्त थी। आये दिन कत्लेआम, मन्दिरों का गिराया जाना सयानी लड़कियों को जबरदस्ती ले जाना, बलात् धर्म-परिवर्तन करना जैसी घटनायें किसका खून न खोला देंगी? कौन प्रतिरोध के लिए तैयार न होगा? पर आश्चर्य इसी बात का है कि मुट्ठी भर अत्याचारियों के विरुद्ध समुद्र जितनी विस्तृत और परम तेजस्वी भारतीय जनता प्रतिरोध की दृष्टि से कुछ भी न कर सकी और वे दुष्ट उत्पीड़न लम्बी अवधि तक यथावत् चलते रहें। इस नपुंसकता के पीछे हमारी भाग्यवादी दार्शनिक भ्रष्टता का ही प्रमुख हाथ रहा, जिसने हमारी क्षोभ, रोष, प्रतिरोध एवं संघर्ष की शौर्य प्रवृत्ति को चकनाचूर करके फेंक दिया।

कत्लेआम हुए और हमें कहा गया, जिनको जिस प्रकार, जिस दिन, जिसके हाथों मरना है, वह उसी तरह मरेंगे। उस विधान को कोई मेट नहीं सकता। उनका प्रारब्ध ऐसा ही था, जिसके कारण उन्हें मरना पड़ा। मारने वाले तो निमित्त मात्र थे, उन पर रोष करने से क्या लाभ? लड़कियों को घरों से उठाकर ले गये और कहा गया, जिस लड़की का अन्न-अन्न जहाँ वदा है, जिसके साथ इसका जूरी-संयोग लिखा-वदा है, जहाँ दुःख-सुख इसे भोगना है, वहीं तो यह रहेगी। इस विधि-विधान के प्रतिकूल रोष करने से क्या बनेगा? मुट्ठी भर विदेशी रोमांचकारी लूट-खसोट और नृशंस उत्पीड़न करते रहे और हमें कहा गया- भगवान् की इच्छा के बिना पत्ता भी नहीं हिलता, फिर यह अप्रिय लगने वाली घटनायें भी उन्हीं की इच्छा से हो रही है। उनका पुण्य-फल रहा होगा और हमारा पाप उदय हो रहा होगा। इसी से भगवान् का यह विधान चल रहा है। इसे सहन कर लेना और चुप बैठे रहना ही उचित है।

इन धारणाओं ने हमें नपुंसक बना दिया और एक हजार वर्षों तक हम मुट्ठी भर विदेशी शासकों के पैरों तले बेतरह कुचले जाते रहे। इतना ही नहीं हमारा व्यक्तिगत पौरुष, उल्लास, उत्साह एवं पराक्रम भी सो गया। जब ग्रह-दशा भाग्य-चक्र हस्तरेखा ही अनुकूल न हों, तब प्रयत्न करने का झंझट भी क्यों उठाया जाय? जब समय बदलेगा, तब भाग्य लक्ष्मी का उदय होने से घर बैठे धन-सम्पदा बरस पड़ेगी, इस मान्यता के रहते कठिन कष्टसाध्य पराक्रम करने के लिए किसके मन में उमंग उठेगी? व्यक्तिगत उत्कर्ष और सामाजिक सुव्यवस्था के लिए कौन प्रयत्न करें? क्यों प्रयत्न करें? जब सब कुछ भगवान् की इच्छा से ही हो रहा है, भाग्य-चक्र जब पलटा ही नहीं जा सकता है तो प्रयत्न करने का महत्व ही क्या रहा? ऐसी दशा में कोई कुछ सुधारात्मक बड़ा काम किस आधार पर आरम्भ करें? किसी बड़े परिवर्तन के लिए कोई किस लिए साहस इकट्ठा करें?

शोषक और दुष्ट दुराचारी अपने द्वारा उत्पीड़ित शोषित लोगों की उसी आधार पर ठण्डा करते रहे कि तुम्हारे भाग्य में कुछ ऐसा ही लिखा था, जिसके कारण दुःख दारिद्र सहन कने पड़ रहे है। हम तो निमित्त मात्र है। असली कारण तो तुम्हारा भाग्य है। गायें कटती रहें तो हम बधिकों को किस मुख से कह सकते हैं कि तुम्हारा कृत्य अनुचित है। भाग्य और भगवान् की इच्छा ही जब एक मात्र कारण है, तब उस कुकृत्य के रोकने का विरोध करने की बात सोचना ही बेकार है। हर पाप और अपराध का करने वाला अपने पक्ष में यही दलील देकर अपने को निर्दोष सिद्ध कर सकता है, फिर उस बेचारे को कोई क्यों रोके? संसार के दीन-दुःखी पीड़ित, अपंग जब भगवान् की इच्छा से ही इस स्थिति में पड़े है, विधि का विधान भोग रहे हैं तो उनकी सेवा, सहायता करना व्यर्थ है। इससे तो भगवान् और विधाता दोनों ही नाराज होंगे कि हमारे विधान में क्यों हस्तक्षेप किया? ऐसी दशा में दीन-दुनिया की सेवा, सहायता करना भी एक अपराध बन जाता है।

किसी समाज का दर्शन-दृष्टिकोण भ्रष्ट हो जाय तो उसमें सर्वांगीण भ्रष्टता आती है। भाग्यवाद हमारी दार्शनिक भ्रष्टता है, जिसने हमारी कर्तव्य-निष्ठा को बुरी तरह कुचल-मसल कर फेंक दिया और हम किसी समय के विश्व मूर्धन्य आज दुःख दारिद्र की हीन परिस्थितियों में पड़े बिलख रहे है। बड़े-से-बड़ झटके खाकर भी जर्मनी और जापान पुनः अपनी पूर्व स्थिति पर पहुँच गये पर बाईस वर्ष बीत जाने पर भी हमारी राजनैतिक स्वाधीनता हमें प्रगति पथ पर अग्रसर न कर सकी। इसका एक बहुत बड़ा कारण हमारी दार्शनिक पराधीनता है। बौद्धिक दृष्टि से हम अभी भी गुलाम है। अंग्रेज, मुसलमान भले ही चले गये हों पर हमारे मस्तिष्क को भाग्य, देवता, ग्रह-नक्षत्र विधि विधान, ईश्वर इच्छा, समय का फेर आदि मूढ़ मान्यताओं की जंजीर में उसी तरह जकड़े हुए हैं। वे हमें स्वतन्त्र मिलन से रोकती है, पुरुषार्थ को व्यर्थ बताती है अवांछनीयता के विरुद्ध लोहा लेने को व्यर्थ बताती है। कोई अवतार पैगम्बर आवे तब हमारी दशा सुधरे। हम तो किसी के हाथ की कठपुतली मात्र है, वह जैसे न चाहेगा, वैसे नाचेगा। यह सोचते रहने वाले कर्म रूपी परमेश्वर की निरंतर अवज्ञा करते रहेंगे और दुःख दारिद्र के गर्त में पड़े बिलखते रहेंगे। नास्तिकवादी रूस, चीन आदि कितने थोड़ दिनों में अपने पुरुषार्थ के बल पर कहाँ से कहाँ पहुँच गये और हम भाग्यवादी की ढपली बजाते हुए, जन्म-कुण्डलियाँ ही दिखाते फिर रहे हैं कि कब अच्छा समय आयेगा? और कब कोई सुख साधनों की वर्षा हमारे ऊपर करेगा?

भाग्यवाद के सिद्धान्त का कुछ उपयोग है तो केवल इतना कि हम जब मनुष्य असफल या हताश हो जाय तो थोड़ी देर के लिए अशान्ति को हल्का करने के लिए उसका वैसा ही उपयोग कर लिया जाय, जैसा तेज बुखार के सिर दर्द में ‘ऐस्प्रो’ की गोली खाकर थोड़ी देर के लिए राहत पाली जाती है। इसके अतिरिक्त यदि अपने कर्तव्य क्षेत्र में उसका उपयोग किया जाने लगा तो उससे केवल अनर्थ ही उत्पन्न होगा। लोग अपना कर्तव्य और पुरुषार्थ खो बैठेंगे। आशा और उत्साह, साहस और शौर्य सब कुछ कुण्ठित हो जाएगा न अनीति के विरुद्ध संघर्ष कर सकना सम्भव रहेगा और न सेवा तथा सुधार के लिए किसी के मन में उत्कृष्टता जगेगी। इस मान्यता के रहते हम युग-युगान्तरों तक दयनीय परिस्थितियों में ही निर्जीव और निश्चेष्ट बने पड़े रहेंगे। इसलिए आवश्यक है कि इस बौद्धिक दासता के भ्रष्ट सिद्धान्त को ठोकर मारें जिसे शोषकों ने हमारे रोप की प्रतिक्रिया से बचने के लिए गढ़ा और फैलाया है। कल का कम ही आज भाग्य बन सकता है। कल का दूध आज दही कहला सकता है। इसलिए यदि भाग्य कुछ है ही तो केवल हमारी कर्मठता की प्रतिक्रिया प्रतिध्वनि मात्र है इसलिए हमें भाग्य की ओर न देखकर कर्मनिष्ठा को ही प्रधानता देनी चाहिये।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118