(प. श्रीराम शर्मा आचार्य द्वारा लिखित और युग-निर्माण योजना मथुरा द्वारा प्रकाशित)
(‘मन्दिर जन-साधारण के केन्द्र बनें’ पुस्तिका का सारांश)
भगवान हर जगह मौजूद है। उसी प्रकार निराकार विधि से कहीं भी-किसी भी प्रतीक माध्यम से पूजा जा सकता है। कागज का चित्र या मिट्टी की प्रतिमा घर पर रखकर भी भावनापूर्वक पूजा से उपासना का प्रयोजन पूरी तरह प्राप्त किया जा सकता है। विशालकाय मन्दिरों का निर्माण करने की प्रक्रिया भारतीय मनीषियों ने अति महत्त्वपूर्ण प्रयोजन की पूर्ति के लिए विनिर्मित की है।
भगवान् की मन्दिरों में स्थापना करके सर्वसाधारण के मन में आस्तिकता की मान्यताएँ परिपुष्ट करना हमारे देवालयों का प्रमुख प्रयोजन है। आस्तिकता का अर्थ है ईश्वर के आदेशों को करना- नैतिक जीवन जीना। दुष्कर्मों से बचे रहना और विश्वात्ममय-परमात्मा को सुरभित बनाने के लिए अपना अधिकाधिक योगदान देना। आस्तिकता का प्रथम चरण जप, ध्यान एवं पूजा पाठ हो सकता है पर उसकी पूर्णता भगवान् को, उनके आदेशों को जीवन में धुला लेना ही है। नेक, सदाचारी, भला और परमार्थ परायण जीवन क्रम ही किसी की आस्तिकता का प्रमाण हो सकता है। इस आस्तिकता के ऊपर ही व्यक्ति और समाज की उत्कृष्टता एवं सुख-शांति निर्भर है। भगवान् हमारे अति समीप अन्तःकरण में विद्यमान् है। उसे किसी की निन्दा स्तुति से कुछ लेना-देना नहीं। उसकी प्रसन्नता, अप्रसन्नता-कृपा-अकृपा इस बात पर निर्भर है कि कौन उसके आदेशों का कितना पालन करता है। इस तथ्य को समझने वाला सज्जनोचित सदाचारी जीवन ही जियेगा और समाज के प्रति अपने महान् कर्तव्यों को ध्यान में रखते हुए लोक-मंगल के लिए अपना बढ़ा-चढ़ा अनुदान देने में तत्पर रहेगा। आस्तिकता व्यक्ति और समाज की भावनात्मक भूमिका को ऊँची उठाने का प्रयोजन पूरा करती है। इसलिए उसे मानव-जीवन की एक महत्तम आवश्यकता माना गया है। पूजा-उपासना का सारा कलेवर इसी प्रयोजन के लिए खड़ा किया गया है। मंदिरों की स्थापना के भूल में मनीषियों का एक मात्र प्रयोजन यही था कि इन धर्म केन्द्रों के द्वारा आस्तिकता के आदर्शों का जन-मानस में व्यापक प्रकाश पहुँचाया जाय।
मन्दिरों के निर्माण में विपुल धन सम्पत्तियों में लगाये जाने में एकमात्र प्रयोजन यह है कि इन धर्म केन्द्रों के द्वारा आस्तिकता की सर्वतोमुखी प्रवृत्तियों का विस्तार किया जाय। पूजा-आरती भी वहाँ होती रहे सो ठीक है। लोग दर्शन करने आयें और यह स्मरण करें कि भगवान् की सत्त इस संसार में विद्यमान् है। अस्तु हमें उसके दण्ड से बचने और अनुग्रहों को पाने के लिए सज्जनोचित जीवन जीना चाहिये। मनुष्य की भावना को भूलकर ही कोई कुकर्म कर सकता है। यदि परमात्मा और उसकी न्याय व्यवस्था हमारी स्मृति में बनी रहे तो अनीति को दिशा में एक कदम भी बढ़ सकना सम्भव नहीं। भावनात्मक परिष्कार की दृष्टि से आस्तिकता का भारी महत्व है। व्यक्ति एवं समाज का कल्याण उसी पर निर्भर है। मंदिरों का प्रयोजन है कि भगवान् की प्रतिभा का दर्शन, पूजन करने के लिए जनसाधारण को आमंत्रित आकर्षित करें सा ही उन आगन्तुकों में आस्तिकता की मूल मान्यतायें हृदयंगम कराने के लिए बहुमुखी प्रवृत्तियों का संचालन करें।
मंदिर वस्तुतः एक धर्म केन्द्र है। जहाँ से मनुष्य के भावनात्मक निर्माण के लिए आवश्यक हर प्रवृत्ति का संचालन होता रहे। नित्य के कथा-प्रवचन वहाँ इसीलिए होते हैं। जुमा की नमाज के बाद मसजिदों में मुल्ला लोग भाव भरे और दिशा देने वाले प्रवचन करते हैं। गिरजाघरों में पादरी लोग रविवार को प्रार्थना के बाद उपस्थित धर्म-प्रेमियों को उनके व्यक्तिगत एवं सामाजिक कर्तव्यों का बोध कराते हैं। हिन्दू धर्म किसी समय सबसे आगे था, वहाँ कथा प्रवचनों के माध्यम से वह सब कुछ हर दिन नियमित रूप से सिखाया जाता था, जो समग्र स्थिरता एवं प्राप्ति के लिए आवश्यक था। इतना ही नहीं, वहाँ पाठशालाओं, पुस्तकालयों, व्यायामशालाओं, संगीत एवं कला-कौशलों की समस्त उन प्रवृत्तियों का संचालन होता था, जो भावनात्मक निर्माण में सहायक हो सकती है। सर्वतोमुखी विकास की सम्पूर्ण योजनाएँ और प्रक्रियाएँ मंदिरों के धर्म-केन्द्र ही संचालित करते थे। उनका भारी प्रभाव पड़ता है। आस्तिकता की भावनायें किस प्रकार कार्यान्वित की जा सकती है? उनका रचनात्मक, व्यावहारिक स्वरूप क्या हो सकता है? इसका प्रत्यक्ष स्वरूप देखने और प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए हर व्यक्ति मंदिरों में जाता था और उनकी उपयोगिता अनुभव करता था। उनके निर्माण को पुण्य कर्म माना और उनमें विपुल धन लगाया जाना, इसीलिए उपयुक्त माना जाता था कि उस रचना से अगणित व्यक्ति प्रकाश पाने और समग्र
उत्कर्ष के लिए अग्रसर होने में समर्थ होंगे।
धर्म प्रेमी लोग अपनी उपार्जित सम्पत्ति को मन्दिरों के बनाने और चलाने में समर्पित करके अपने को धन्य मानते थे, क्योंकि उससे अच्छा उपयोग किसी पैसे का हो नहीं सकता। जनता भी देव प्रतिमा के आगे कुछ न कुछ श्रद्धाञ्जलि अर्पित करती रहती थी, ताकि उस पैसे से रचनात्मक सत्प्रवृत्तियों का संचालन हो सके। पुजारी लोग पूजा-अर्चा में प्रातः सायंकाल देव प्रतिमा के लिए लगाकर शेष सारा समय मंदिर संस्था द्वारा संचालित सत्प्रवृत्तियों में लगाते रहते थे। वे सुयोग्य विद्वान् ही नहीं, सदाचारी और लोक-सेवी भी होते थे। उन्हें सामाजिक आवश्यकताओं का ज्ञान रहता था, तदनुरूप वे अपने व्यक्तित्व, प्रभाव एवं आधार का उपयोग जनमानस की दिशा सुव्यवस्थित करने में लगाते रहते थे। समर्थ गुरु रामदास ने महाराष्ट्र में सैकड़ों महावीर मंदिर स्थापित किये थे और उन स्रोतों से शिवाजी के स्वतन्त्रता संग्राम के लिए धन एवं जन शक्ति को विपुल मात्रा में उपलब्ध किया था। सिख धर्म के सारे गुरुद्वारे अनुपयुक्त शासन के लिए धन एवं जन शक्ति को विपुल मात्रा में उपलब्ध किया था। सिख धर्म के सारे गुरुद्वारे अनुपयुक्त शासन को हटाने में केन्द्र बिन्दु बनकर अपनी स्थापना का महत्व प्रतिपादित करते रहे। बुद्ध विहार विश्व व्यापी धर्म प्रसार योजना के सुव्यवस्थित केन्द्र थे। यहाँ सदा से यही परम्परा प्रचलित रही और मंदिरों ने अविस्मरणीय भूमिका सदा से प्रस्तुत की।
आज सब कुछ उल्टा हो गया है। मंदिर केवल शंख-घड़ियाल बजाने और आरती उतारने तक सीमित है। पुजारी लोग प्रातः साँय की थोड़ी-सी टंट-घट करके अपने कर्तव्य को इतिश्री कर लेते हैं। उन विशाल इमारतों को कोई उपयोग नहीं और जो प्रचुर बन उनमें लगा हुआ है, वह उन मठाधीशों की व्यक्तिगत सम्पत्ति बनता और उन्हीं के उपयोग में व्यय होता देखा जाता है। किन्हीं प्रेरक प्रवृत्तियों के संचालन की बात भी वहाँ सुनाई नहीं पड़ती। ऐसी दिशा में उन्हें प्राण रहित निर्जीव कलेवर की तरह ही जहाँ-तहाँ खड़ा देखा जा सकता है। उपयोगिता खोजने पर जन-आकर्षण का पट जाना भी स्वाभाविक है। किन्हीं मेले उत्सवों पर थोड़ी भीड़ दीखने के अतिरिक्त नियमित रूप से पहुँचने वाले यहाँ थोड़े से ही रहते हैं। जो पहुँचते हैं वे भी समय काटने की दृष्टि से ही जाते हैं। मिलता इन्हें भी कुछ नहीं। अनुपयोगी चीज सड़ने लगती है। इन धर्म स्थानों में धीरे-धीरे अनाचार का प्रवेश जिस प्रकार हो रहा है, उससे दुःख और दोष ही उत्पन्न होते हैं।
अपने मंदिरों में लगभग सौ अरब रुपये की सम्पत्ति लगी है। उनकी दैनिक आमदनी करोड़ों रुपया है। इमारतें इतनी विस्तृत है कि उनमें ईसाई मिशन के द्वारा संसार भर में हो रहे कार्यों से भी कई गुने रचनात्मक कार्य के हों और उन्हें रचनात्मक दिशा में लगाया जा सके तो सारे समाज का काया-कल्प हो सकता है। जनता जिस श्रद्धा से धन इनमें चढ़ाती है, उसके अनुरूप यदि धर्म संस्थापना की बहुमुखी प्रवृत्तियाँ भी इनमें संचालित हो सकें तो हमारा समाज कुछ ही दिनों में कहाँ से कहाँ पहुँच सकता है। साधनों के अभाव में काम रुका रहे यह समझ में आता है, किन्तु प्रचुर सावन होते हुए भी उनका सदुपयोग न हो सके यह बड़ी लज्जा और पीड़ा की बात है।
समय आ गया है कि इन धर्म-केन्द्रों का सदुपयोग करने की दिशा में हम विचार करें और साहसपूर्ण कदम उठाये जिनके हाथ में मंदिर संचालन व्यवस्था है, उन्हें सोचना चाहिये कि-क्या इन केन्द्रों में लगे हुए धन का सही उपयोग हो रहा है? भगवान् की पूजा उचित है और आवश्यक भी, पर यह अबुद्धिमत्तापूर्ण है कि प्रचुर धन-शक्ति और जन-शक्ति का उपयोग इतने भर के लिए ही समाप्त हो जाय। ईश्वर भक्ति, पूजा आरती तक ही सीमित नहीं है। व्यक्ति और समाज का भावनात्मक उत्कर्ष भी ईश्वर भक्ति का ही अंग है। देश-धर्म समाज और संस्कृति की उत्कृष्टता अभिवर्द्धन के लिए जो रचनात्मक कार्य हो सकते हैं उन्हें ईश्वर पूजा से कम महत्व का किसी भी प्रकार नहीं समझा जाना चाहिए। मंदिरों की उपयोगिता तभी अक्षुण्ण रह सकती है, जब उनमें पूजा के साथ-साथ आस्तिकता के अभिवर्द्धन एवं परिपोषण में सत्प्रवृत्तियाँ भी संचालित होती रहें।