विश्व-शांति का वैज्ञानिक आधार-सहयोग और सामूहिकता

September 1969

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अलबर्ट का मनोविज्ञान वस्तुतः मानवीय चेतना का मनोविज्ञान न होकर पाशविक वृत्तियों का तोड़ा-मरोड़ा इतिहास मात्र है। वह कहता है-मनुष्य श्रेष्ठ पशु है (मैन इज दि सुपर इनिमन) अर्थात् मनुष्यों में जो पाशविक वृत्तियाँ हैं वह कोई दोष-दुर्गुण नहीं वरन् प्राकृतिक है।” और इस दृष्टि से उसकी जो भी स्वाभाविक आकांक्षाएँ हैं वह अनुचित नहीं है भले ही उसे उसके लिये अन्य प्राणियों का भी शोषण और उत्पीड़न करना पड़ता है। जो जितना उपयोगी है वह उतने ही अधिक अधिकारों का पात्र है भले ही इस स्वायत्तता का उपयोग वह अपने निजी सुख और स्वार्थों के लिये करता हो। उपयोगितावाद की यह संक्षिप्त व्याख्या हुई। आज योरोप ही नहीं संचार के प्रायः सभी देशों के पढ़े-लिखे लोग इसी मान्यता का आचरण व्यवहार कर रहे हैं, भले ही कहने-सुनने को उनके सिद्धांत चाहे कितने ही आदर्शवादी क्यों न हों।

उपयोगिता का समर्थन भी जिस ढंग से किया गया है वह कम हास्यास्पद नहीं। बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है इसलिये कम शक्ति वालों का शोषण कोई पाप नहीं, एक प्राकृतिक प्रक्रिया हुई। जीव-हिंसा पशु-उत्पीड़न और बढ़ता हुआ माँसाहार इसी दुष्ट सिद्धान्त की देन है। इस मान्यता का प्रतिपादन है कि-जो अधिक ताकतवर होता है वही बन्दर अपने समूह का मुखिया होता है।” खरगोश, हिरन, भेड़ और बकरियों की शक्ति न्यूनतम है उन्हें भेड़िये, बाघ, शेर और चीते आदि शक्तिशाली जन्तु खा जाते हैं। यदि सहयोग, सादगी, सहानुभूति और सदाचार ईश्वरीय आदेश हुए होते तो शाकाहारी भेड़ें और बकरियाँ कमजोर न होतीं और न ही वह हिंसक जन्तुओं द्वारा भक्षण कर ली जातीं। बड़ा वृक्ष अपने घेरे में दूसरे वृक्ष को पनपने नहीं देता। हर शक्तिशाली, कम शक्ति वाले को खा जाता है। यदि इन प्राकृतिक सिद्धान्तों को मनुष्य भी अपने व्यवहार में आचरण में लाता है तो यह कोई दोष नहीं।

उपयोगितावाद सच पूछा जाये तो शक्वाद-जिसकी लाठी उसकी भैंस’ और सामंतवादी का ही दूसरा नाम है। इस सिद्धान्त ने ही संसार को नास्तिक और स्वच्छन्दतावादी बनाया है। भावनाओं का अन्त इस सिद्धान्त ने ही किया है। ठीक भी है जहाँ केवल शक्ति और उपयोगिता को ही महत्व देना हुआ वहाँ परस्पर प्रेम, उदारता, सहयोग, सौजन्य, स्नेह, सामूहिकता का क्या मूल्य रहा? जहाँ उत्कृष्टता की भावनायें न होंगी वहाँ क्यों तो व्यवस्था रहेगी और क्यों विश्व-शान्ति जिंदा रहेगी। आज उपर्युक्त प्रकार की मान्यताओं के कारण ही सारा विश्व अशान्ति असन्तोष, कलह-क्लेश और शोषण के जाल में उलझता चला जा रहा है।

इस जड़वादी मान्यता का जो भी परिपोषण करते हों उन्हें मनुष्य शरीर की आन्तरिक स्थिति पर एक बार भावनापूर्वक विचार करने की आवश्यकता है। हमारे शरीर का प्रत्येक कोष एक स्वतन्त्र मानव बीज है उसमें मनुष्य की सारी स्थूल और चेतन क्रियायें विद्यमान् हैं। ‘कोष’ साँस लेता है, खाता है, पीता है, चलता है, डरता है, बचाव करता है, भागता है, मल विसर्जन करता है। ‘अमीबा’

एककोशीय जीव है। उसका नाभिक जब दो भागों में बँट जाता है तो वह दो अमीबा बन जाते हैं और दोनों अपनी-अपनी तरह से उक्त क्रियायें और अनुभूति करने लगते हैं। दो विभाज्य अमीबा, दो अलग गुणों वाले अमीबा आत्मा (न्यूक्लियस) की दृष्टि से एक ही है। और उदाहरण के लिये जब दो अमीबा अपनी शक्ति में ह्रास अनुभव करते हैं तो वह एक दूसरे में मिलकर दो नाभिक (न्यूक्लियस) से एक नाभिक (न्यूक्लियस) वाला एक अमीबा बन जाते हैं उस स्थिति में वह नवजात अमीबा की-सी शक्ति अनुभव करता है। इससे सिद्ध हो जाता है कि शरीर के अनेक कोषों (सेल्स) में बँट जाने पर भी उनकी आत्मिक चेतना एक ही है। मनुष्य इस बात का ध्यान रखे या न रखे वह उपयोगितावाद जैसे खण्डनात्मक तथ्य को माने तो मानता रहे पर लघुकोशीय जीव भूल करने को तैयार नहीं।

मनुष्य शरीर के विचित्र अवयव एक ही कोष “स्पर्म” से पैदा होते हैं। स्थान की आवश्यकता के अनुरूप वे अपना आकार बदल कर मस्तिष्क, हृदय, जिगर, तिल्ली, नसें, माँसपेशियाँ आदि बनाते हैं पर उन्हें पता है कि विभिन्न स्थिति में काम की जिम्मेदारियाँ उठाते हुए भी वह सब एक ही पिता की सन्तान, भाई-भाई हैं और इसीलिये वे बराबर प्रेम, दया, सहयोग, सहानुभूति, श्रम, सामूहिकता आदि का व्यवहार करते रहते हैं इसी कारण शरीर स्थिर है।

जिस प्रकार बहुत से कोषों (लगभग 2 अरब) से मिल-कर शरीर बना उसी प्रकार बहुत से मनुष्यों से समाज, देश और विश्व बना। स्थान की स्थिति और जलवायु की भिन्नता के कारण वर्ण-भेद स्वभाव-भेद होते हुए भी सब एक ही आत्मा के अंग हैं यह मानकर जो शरीर की सहयोग-भावना का पालन करते हैं वह विश्व शान्ति बढ़ाने और ईश्वरीय मर्यादाओं का पालन करने का पुण्य करते हैं जो उससे विपरीत जड़वादी आचरण करते हैं प्रकृति उन्हें दण्ड देती है। इसी सूक्ष्म न्याय प्रणाली पर सृष्टि की व्यवस्था अब तक विद्यमान् है। यदि प्रेम, दया, उदारता, करुणा आदि सद्गुणों का अन्त हो गया होता तो सृष्टि का भी अन्त हो गया होता।

मनुष्य-शरीर मानवीय सद्गुणों का जिस रीति से परिपालन करता है उसका वक्तव्य बड़ा ही रोचक है। आन्तरिक क्रिया-शास्त्र (फिजियोलॉजी) का गहन अध्ययन किया जाये तो पता चलेगा कि व्यक्ति और समाज को सुखी सन्तुलित और सुव्यवस्थित बनाने वाले जो भी गुण हैं वह दूध से नवनीत काढ़ने की तरह से ही निकाले गये हैं।

उदाहरण के लिये सहयोग और सहानुभूति को ही ले लें। मनुष्य इतना कठोर हृदय हो सकता है कि अपने भाई, अपने पड़ोसी को कष्ट और पीड़ित अवस्था में देखकर भी चुप रह जाय पर हमारे शरीर के सदस्य ऐसे हृदयहीन नहीं। परस्पर सहयोग और दूसरे के दुःख में हाथ बटाना ही उनका जीवन है। उदाहरणार्थ यदि एक गुर्दा खराब हो जाये जैसा कि पथरी की बीमारी के समय होता है, तो अच्छा गुर्दा दूसरे पीड़ित गुर्दे का सारा कार्य भार स्वयं संभाल लेता है जब तक वह ठीक न हो जाये स्वयं कष्ट सहेगा किन्तु शरीर की साधारण क्रिया में कोई अन्तर न आने देगा।

धमनियाँ (आर्ट्रीज) शरीर को रक्त पहुँचाती है। बड़ों के साथ छोटे-छोटे भी रहते हैं और तब उनका कोई विशेष महत्व जान नहीं पड़ता जैसा कि बड़ी धमनियों के साथ कुछ पतली धमनियाँ भी बनी रहती हैं। मनुष्य अपने छोटों को कष्ट दे सकता है, उनका शोषण और उत्पीड़न कर सकता है पर धमनियों को पता है कि छोटे से छोटे जीव का भी कितना महत्व है इसलिये वह पतली धमनियों को भी पोषण देती रहती है। कभी कोई धमनी (आर्ट्रीज) कट जाये तो उस स्थिति पतली धमनियाँ (एनास्टोमोसेस) रक्त प्रवाह के किनारे फूल कर आगे जोड़ देती है और रक्त परिभ्रमण किया को तब तक साधे रहती है जब तक घाव अच्छा न हो जावे। इससे आगे वाला हिस्सा काम करता रहता है। यदि ऐसा न भी हो तो भी पतली धमनियाँ (एनास्टोमोसेस) आजीवन काम करती है।

‘नेमोनेक्टामी’ के अनुसार यदि एक फेफड़ा काटकर निकाल देना पड़े तो दूसरा फेफड़ा साधारण स्थिति के सारे काम संभाल लेता है। यह सहयोग और सहानुभूति क्रियायें बताती हैं कि हम जिस समाज में रहते हैं उसमें आये दिन दुर्घटनायें घटती हैं उनसे कुछ लोग पीड़ित होते हैं उनके प्रति भी हमारे कर्तव्य वैसे ही हैं जैसे स्वयं अपने प्रति। व्यवस्था, विश्व-शान्ति और मानवता ऐसे ही अक्षुण्ण रहती है।

आज लोगों ने इन बातों को भुला दिया। स्वार्थ और प्रवंचनायें प्रबल हो उठी हैं। सारा समाज उन प्रवंचनाओं में धू-धू कर जल रहा है। सर्वत्र शोषण, लूट-पाट बेईमानी, छल-कपट कलह के बाहरी शत्रु आक्रमण कर समाज की भलाई की धराशायी करते जा रहे हैं पर हममें से मुकाबले की शक्ति भी जागृत नहीं होती। शरीर के छोटे-छोटे कोषों को पता है कि जब बुराइयों, बीमारियों की तीव्रता कोषों को पता है तो शरीर सम्बन्धित अंग ही नहीं सारा शरीर बेचैन हो उठता है। इसलिये वे सब के सब एक जुट प्रयत्न करते हुए बुराइयों के उन्मूलन में लग जाते हैं। कई बार चमड़ी खुल जाने या चोट लग जाने के कारण कोई कीटाणु बाहर से आकर शरीर में घुस जाते हैं और लोगों को सताना, काटना, लूटना, भक्षण करना प्रारम्भ कर देते हैं तब शुद्ध रक्ताणु दौड़ पड़ते हैं। (1) सूजन, (2) उस स्थान की चमड़ी का लाल हो जाना, (3) उस हिस्से का गर्म हो जाना, (4) तनाव बढ़ने से नस पर दबाव पड़ता है और दर्द बढ़ता है। इससे पता चलता है कि अच्छे कोषों की सेना एकत्रित हो गई ओर बुराइयों का निष्कासन प्रारम्भ हो गया। दरअसल जिस मनुष्य समाज में बुराई के प्रति इतनी सजगता और तत्परता नहीं बरती जाती वह समाज उसी तरह सड़ जाते, निकम्मे हो जाते हैं जैसे शरीर का कोई हिस्सा जहाँ कीटाणु हमला कर देते हैं। ऐसे विषाक्त वातावरण को जितनी जल्दी साफ कर दिया जाता है शरीर की तरह समाज उतनी ही शीघ्र चैन अनुभव करता है।

कई बार बुराई की मात्रा काफी बढ़ जाती है। रक्त में हानिकारक कीटाणु (इनफैक्टिव बैसिलाई) पैदा हो जाते हैं उससे रोग और विकृति पैदा होती है उसके मुकाबले के लिए रक्त के श्वेत अणु (व्हाइट ब्लड कारपैसल्स) पहुँचते हैं और शरीर रक्षा का पूर्ण प्रयत्न करते हैं पर बेचारों की शक्ति बुराई के मुकाबले हुई कम तो हार जाते हैं और मार दिये जाते हैं किन्तु त्याग और बलिदान की उपयोगिता समझने वाले ये अणु मरते-मरते भी कुछ न कुछ उपकार कर जाते हैं। मरे हुए श्वेत अणु प्रोटियोलाइटिक एन्ज़ाइम बन जाते हैं ओर (1) शरीर के मरे हुए कोच (बैक्टीरिया) (2) एवं नष्ट हुए श्वेत अणु को घोल कर पीब बना देते हैं और उन्हें बाहर निकाल देते हैं इससे दर्द कम हो जाता है।

आजकल बुराइयाँ अधिक बढ़ गई हैं इसलिये असामान्य परिस्थितियाँ पैदा की जा रही हैं। यह परिस्थितियाँ असामान्य इसलिये कहीं जायेंगी कि इनमें समाज के सभी विचारशील लोग अपना ध्यान निजी हितों से हटा कर पूरी तरह समाज सुधार और दुष्प्रवृत्तियों के उन्मूलन में लगाते हुए चले जायेंगे तब समाज-शरीर उसी तरह बच्चा हो जाएगा जिस तरह शरीर के बुरे तत्त्व नष्ट कर देने पर। टी.वी. के जीवाणु (बैक्टीरिया) जब एसिड फास्ट बैसिलाई बन जाते हैं अर्थात् एसिड भी उसका मुकाबला नहीं कर पाते उस समय श्वेत अणुओं के 5 प्रकार के कोष (सेल्स) (1) पोलियोभोर्फ्स 70 से 75', (2) लिम्फोसाइड्स 20 से 30 प्रतिशत, (3) मोनोसाइड्स 5 से 10 प्रतिशत, (4) इजिनेफिल 5 से 6 प्रतिशत और(5) वेसोफिल्स आधा प्रतिशत तैयार होते हैं। लड़ाई के दिनों में जिस तरह सेनापति परस्पर ऐसी योजनाएँ बनाते हैं कि दुश्मन को हर तरह से मात भी दीं जायें उसी तरह शारीरिक बुराई के प्रति यह संघर्ष भी बड़ा प्रेरक होता है। सर्व प्रथम पोलियोमार्फ्स आते हैं यदि वे अपने आपको मुकाबला करने में असमर्थ पाते हैं तब सिम्फोसाइड्स की टुकड़ी आगे बढ़कर दुश्मन को ललकारती है यदि तब भी टी.वी. के कीटाणु शसक्त हुए और लिम्फोसाइड्स हार गये तो कई-कई इपिथेलाइड्स कोष मिलकर दैत्वाकार कोष (जाइन्ट सेल्स) बनाकर टी.वी. के कीटाणुओं को खा जाते हैं। शरीर की यह सुरक्षा-शक्ति आह्वान करती है कि जब कभी सामाजिक बुराइयाँ, पाप, अपराध, अनैतिकता का कुछ ऐसा बाहुल्य हो जाये कि अग्रगण्य लोग भी उन्हें दूर न कर पायें तब संगठित प्रयत्नों द्वारा उन्हें नष्ट करने के लिये अपनी सारी शक्ति जुटा देनी चाहिये।

गुर्दे के ऊपर एक सुआरीनल ग्रन्थि (ग्लैंड) होती है वह एड्रेनेलीन एवं कार्ठिकों स्टराइड्स निकालती है जो शरीर को उसी प्रकार विषम स्थिति में कार्य करने की शक्ति देती है जैसे महापुरुष अपने अनुयायियों को देकर बुराइयों का अन्त कराते हैं। उदाहरण के लिये सामने कोई जंगली जानवर आ जाये तो एड्रेनेलीन रक्त चाप बढ़ाकर पैरों को अधिक कार्य करने के लिये अधिक शक्ति दे देती है। उतनी ही शक्ति मस्तिष्क को मिलती है जिससे वह तुरन्त कोई निर्णय ले सके। दौड़ते समय फेफड़े माँसपेशियों (मसल्स) को आक्सीजन की बहुत मात्रा अनुदान दे देते हैं। उतनी ही शक्ति मस्तिष्क को मिलती है जिससे वह तुरन्त कोई निर्णय ले सके। दौड़ते समय फेफड़े माँसपेशियों (मसल्स) को आक्सीजन की बहुत मात्रा अनुदान दे देते हैं दौड़कर आने के बाद काफी देर तक तेज हांफती रहती है इस तरह फेफड़े अपनी खोई शक्ति पुनः अर्जित कर लेते हैं। सम्भवतः यह व्यवस्था भगवान् ने इसलिये की कि मनुष्य यह जान ले औरों की भलाई में उत्सर्ग की हुई शक्ति और क्षमताएँ नष्ट नहीं होती वरन् एक नई चेतना लेकर भगवान् के वरदान की तरह पुनः मिलती है। मनुष्य अपने उपकार का पुष्य फल उसी प्रकार प्राप्त करता है जिस तरह स्वतन्त्रता संग्राम के सिपाही अपने महत्त्वपूर्ण पदों का आनंद ले रहे हैं।

वस्तुतः शरीर रचना की आधारभूत शिक्षायें यदि सम्पूर्ण रूप में मनुष्य समाज में ढाल दी जायें तो विश्वशान्ति के लिये बाह्य साधनों की खोज नहीं करनी पड़े। हम समता के सिद्धान्त पर धरती में जीवित है और एक दूसरे के प्रति त्याग भावना से सुरक्षित हैं। केवल स्वार्थ ही स्वार्थ और अहंमन्यता मात्र रहे होते तो मानवीय संस्कृति का जीवित बने रहना कठिन हो जाता। पहले यह परिस्थितियाँ नहीं थीं पर अब उनकी मात्रा बढ़ रही हैं, अब हर व्यक्ति स्वार्थी होता जा रहा है। खुदगर्जी के कारण ही लोभ-लालच बेईमानी और संग्रहवृत्ति पनप रही है। इससे सामाजिक विषमता पैदा होती है और लोगों में अविश्वास की भावनाएँ भड़कती हैं। इस स्थिति का मुकाबला त्याग और उदारता के बल पर ही किया जा सकता है।

हमारे शरीर की व्यवस्था ऐसी ही जिसके संग्रह तो हैं पर एक अच्छे सहयोग के लिये, त्याग और उदारतापूर्वक औरों की सुविधाएँ बढ़ाने के लिये, त्याग और उदारतापूर्वक औरों की सुविधाएँ बढ़ाने के लिये, त्याग और उदारतापूर्वक औरों की सुविधाएँ बढ़ाने के लिए हैं। (1) हर हड्डी के पोले भाग में, (2) प्लीहा (सप्लीन), (3) जिगर (लिवर) में रक्त की मात्रा संगृहीत रहती हैं। कभी चोट या घाव हो जाने पर वह संस्थान अविलम्ब रक्त पहुँचा कर उस स्थान को ठीक रखने और कमजोर न होने देने का प्रयत्न करते हैं। सामूहिकता की इसी भावना पर समाज की सुख-शान्ति अवलम्बित है।

रक्त ही नहीं शरीर में चर्बी का स्टोर रहता है। चमड़ी और माँस के बीच चर्बी सुरक्षित रहती है। कई दिन तक भोजन न मिले तो भी सब अंग काम करते रहते हैं। चमड़ी पीली पड़ जाती है तो भी किसी की मृत्यु नहीं होने दी जाती। मृत्यु तो हृदय और मस्तिष्क को पोषण न मिलने से होती है पर शरीर-संस्कृति जानती है कि भावनाशील और चरित्रवान् लोगों ने मिट जाने से समाज की सुख-शान्ति मिट जाती है इसलिये अय अपनी सुरक्षित शक्ति उनके लिये खुशी-खुशी दान कर देती है।

यह भलाई की शक्तियाँ ही मनुष्य को जीवन दान देती हैं। डाक्टर जानते हैं कि शरीर में शक्ति ग्लूकोज के टूटने से प्रसारित होती है। जब कोई माँसपेशी या कोष (सेल) काम करता है तो ग्लूकोज लैक्टिन एसिड में परिवर्तित होकर शक्ति प्रदान करता है। जिगर का ग्लाइकोजन ग्लूकोज में परिवर्तित होता है। यह माँसपेशियों में ए.टी.पी. (एडिनोसिन ट्राइ फास्फेट) टूट कर ए.डी.पी. (एडिनोसिन ट्राइ फास्फेट) एवं फास्फोरस में बदलता है यह फास्फोरस क्रियेटिंग फास्फेट से मिलता है जो अपनी शक्ति ग्लाइकोजन से लेता है। विश्राम के समय यही ग्लाइकोजन फिर जिगर में संगृहीत हो जाता है। सामान्य स्थिति में वह रक्त में भी संचारित होता रहता है। हमारे साधन, सत्कार्यों में निरन्तर लगते रहें और आवश्यकता पड़ने पर तो दूसरी बातों को गौण मानकर भी अपनी तमाम शक्तियाँ, प्रतिभाएँ और योग्यताएँ सामाजिक भाई के कार्यों में लग जायें यह प्रेरणा हमें उक्त क्रिया से मिलती हैं।


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