निराश मत हूजिए अन्यथा सब कुछ खो बैठेंगे

December 1965

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निराशा मनुष्य-जीवन की भयंकर शत्रु है। यह जीवन को घुन की तरह चाट कर खोखला कर देती है। निराशा की पकड़ में फँसे हुए मनुष्य का मन-मस्तिष्क निषेधात्मक प्रवृत्तियों का केन्द्र बन जाता है।

जो निराश है, वह निर्जीव है। निराशा व्यक्ति के जीवन से हर्ष-उल्लास, आमोद-प्रमोद, हास-विलास आदि सारी प्रसन्न प्रवृत्तियों का बहिष्कार हो जाता है। निराशा से घिरा हुआ मनुष्य संसार में बिना पंखों के पक्षी की तरह दयनीय एवं दुःखपूर्ण जीवन काटता है।

निराशा का जन्म अधिकतर असफलताओं से हुआ करता है। असफलता जीवन में असम्भाव्य घटना नहीं है। संसार में सभी असफल होते हैं, कोई बिरला ही ऐसा होगा जिसका कभी असफलता का सामना न करना पड़ा हो। संसार के महान् और सफल से सफल व्यक्ति को अनेकों बार असफलताओं का सामना करना पड़ा है। असफलताओं में जो निराश नहीं होता, निरुत्साहित नहीं होता वह अन्त में इतनी बड़ी सफलता पाता है, जो कि स्वर्णाक्षरों में लिखी जा सके। असफलता से निराश होकर बैठे रहना कायरता है। असफलतायें मनुष्य के धैर्य, साहस और पुरुषार्थ की कसौटी हैं। जिस सफलता तक पहुँचते-पहुँचते अनेकों असफलताओं को सहन नहीं करना पड़ता है, उस सफलता का कोई विशेष मूल्य और महत्व नहीं होता। असफलताओं के पीछे पाई हुई सफलता में एक दिव्य सुख, एक अलौकिक रस होता है। असफलताओं से डरना, भागना अथवा निराश नहीं होना चाहिए। उत्थान का ऊर्ध्वगामी भाग सफलता-असफलताओं के सोपानों से ही बना हुआ है। जो सफल होना चाहता है उसे सहर्ष असफलता को वरण करना होगा।

असफलता पाने पर जो निराश हो जाता है, वह कभी भी सफलता प्राप्त नहीं कर सकता। निराश व्यक्ति की सारी शक्तियों को काठ मार जाता है। निराशा एक ऐसा विष है, जो शीघ्र ही मन, मस्तिष्क में फैल कर मनुष्य की सारी स्फूर्ति, सारी कार्य-क्षमता को मूर्छित कर देता है। निराश व्यक्ति निष्क्रिय होकर किसी काम के योग्य नहीं रहता।

निराशा एक क्लीवता है और क्लीव व्यक्ति जीवन संग्राम से भयभीत होकर भागा-भागा रहता है। वह प्रतिकूलताओं से टकराने और प्रतिरोधों के बीच गतिशील रहने की हिम्मत नहीं रखता।

एक कोने में मुँह लटकाये बैठे रहने और नैराश्य पर अपने मन को केन्द्रित किये रहने से मनुष्य इतना नकारात्मक हो जाता है कि छोटे से छोटा काम कर सकने में भी शंकाशील रहता है। काम में हाथ डालते ही उसका पहला भाव यही उठता है- ‘मुझसे यह काम हो सकना कठिन है।’ यह नकारात्मक भावना इतनी अशुभ और अनिष्टकारी होती है कि किसी भी कार्य को न तो सफल ही होने देती है और न पूर्ण!

जो निराश है, वह कायर है और जो कायर है, वह संसार का कोई भी काम नहीं कर सकता। असफलता, आलोचना अथवा अवरोध का भय भूत की तरह हर समय उसके सिर पर सवार रहता है।

निराशा से क्षोभ, क्रोध, आवेग और आवेश जैसे अनेकों विकार उत्पन्न हो जाते हैं। बात-बात में चिढ़ना, कुढ़ना और कुण्ठित होना उसका स्वभाव बन जाता है। निराश व्यक्ति के पास कोई न तो बैठना चाहता है और न उससे बात करना चाहता है। नैराश्य से घिरा हुआ व्यक्ति जहाँ बैठता है, वहाँ के सम्पूर्ण वातावरण को ही विषादपूर्ण बना देता है। उसके संपर्क से दूसरे व्यक्तियों में उसके कीटाणु प्रवेश करने लगते हैं। निराशा क्षय रोग की तरह ही एक छूत की बीमारी है। निराश एवं विषादयुक्त व्यक्ति से हर आदमी बचने और भागने की कोशिश करता है।

नास्तिकता निराशा का सबसे भयंकर एवं अनिष्टकारी फल है। नास्तिक व्यक्ति का आत्म-विश्वास उठ जाता है, जीवन की रुचि समाप्त हो जाती है, जिससे अधिकतर ऐसे व्यक्ति आत्म-हत्या के शिकार बनते हैं। संसार में आत्म-हत्याओं की जितनी घटनाएं होती हैं, उनमें से 95 प्रतिशत आत्म-हत्याएं निराशा के कारण होती हैं।

निराश व्यक्ति न केवल अपना, बल्कि अपने आसपास के व्यक्तियों का मानसिक स्तर गिरा देता है। उसे संसार की सारी सूचनाओं और घटनाओं में केवल निराशा ही दीखती है, फलस्वरूप वह उसी प्रकार की सूचना दूसरों को देता है, जिससे अन्य लोगों में भी निराशा की प्रवृत्ति उत्पन्न हो जाती है। आहें भरना, उदास रहना, समाज और संसार को कोसते रहने का स्वभाव बन जाने से निराशा-ग्रस्त व्यक्ति को न किसी से प्रेम हो पाता है और न अपनत्व। उसे संसार में हर व्यक्ति शत्रु और स्वार्थी दिखलाई देता है। राष्ट्र के प्रति तक उसकी भावनाएं इतनी दूषित हो जाती हैं कि वह उनको हानि तक पहुँचाने की सोचने लगता है। संसार में जितने भी राष्ट्र-द्रोही हुए हैं, उनके इस कुत्सित कर्म में निराशा का हाथ अवश्य रहा है। निराश व्यक्ति को पुण्य से और परमार्थ कार्यों से घोर घृणा हो जाती है, जिससे वह सक्रिय पापी भले ही न बने, मानसिक पातकी तो अवश्य बन जाता है। भीषणतम अपराधों के पीछे निराशा का हाथ अवश्य रहता है।

नैराश्य को प्रश्रय देने का अर्थ है- संसार के सारे पाप-तापों के लिए जीवन का द्वार खोल देना। जिस प्रकार सुनसान और अन्धकार से भरे खण्डहर में कीड़े-मकोड़ों, घास-फूँस, चमगादड़ तथा उल्लुओं का निवास हो जाता है, उसी प्रकार निराशा से अंधेरे मन में कुत्सित भाव, ओछे विचार और विपरीत बुद्धि का निवास हो जाता है।

निराश व्यक्ति में भय की प्रवृत्ति इस मात्रा तक बढ़ जाती है कि जीवित अवस्था में श्वाँस-प्रश्वाँस लेते हुए भी उसे हर समय चारों ओर मृत्यु ही मृत्यु दिखलाई देती है। उसे संसार का हर व्यक्ति अपने से बलिष्ठ और तेजस्वी दिखाई देता है। सड़क पर चलते, बाग में घूमते और रेल आदि में सफर करते उसे हर समय दुर्घटना और चोट-चपेट लग जाने का भय बना रहता है। अपने इस भय के कारण वह बड़ा ही दब्बू और कायर हो जाता है। किसी को जवाब देना, खुल कर बात करना उसके वश के बाहर हो जाता है। निराशापूर्ण व्यक्ति का जीवन इतना दयनीय हो जाता है कि उस पर उससे निम्न कोटि और निम्न योग्यता के व्यक्ति भी तरस खाने लगते हैं।

मनुष्य को किसी भी अवस्था अथवा परिस्थिति में निराश नहीं होना चाहिए। सौ असफलताएं मिलने पर भी जो एक सौ एकवें बार प्रयत्न करता है, वह अवश्य सफल होता है। सफलता-असफलता से निरपेक्ष रहकर निरन्तर कार्य-रत रहना ही निराशा से बचने का अमोघ उपाय है। जो व्यक्ति अपने पूरे तन-मन से काम में संलग्न रहता है, उसे निराश होने के लिए समय ही नहीं रहता।

निराशा एक भयानक रोग है। जिससे न केवल मानसिक शक्तियों का ही ह्रास होता है, अपितु शारीरिक स्वास्थ्य भी चौपट हो जाता है। निराश व्यक्ति हर समय चिन्ता और क्षोभ से जलता रहता है, जिससे उसे न तो भूख लगती है और न नींद आती है। इससे उसके शरीर-संस्थान पर भयानक प्रतिक्रिया होती है। पाचन क्रिया और रक्त संचार की प्रणाली बिगड़ जाती है, जिससे शरीर व्याधियों का घर बन कर “शरीरम् व्याधि मन्दिरम्” वाली उक्ति चरितार्थ कर देता है। वास्तव में यह उक्ति अवश्य ही किसी निराश हृदय से अपने सजातीय निराश बन्धुओं पर ही चरितार्थ होने के लिए प्रकट हुई है।

जहाँ तक हो निराशा की भयंकर बीमारी को अपने पास न आने देना ही ठीक है और यदि वह किसी कारण से आक्रमण कर भी दे तो उसे अधिक देर तक टिकने नहीं देना चाहिए। इसका अनुभव होते ही हास-परिहास, व्यंग्य-विनोद और मनोरंजन द्वारा उसे तुरन्त भगा देना चाहिए। निराशा को एक क्षण भी प्रश्रय देने का अर्थ है- ‘जीवन में विषाद के गहरे बीज बो लेना।’


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