उद्बोधन-राष्ट्र के लिये (Kavita)

December 1965

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न देखो इस कौतुक को और, अन्त है इसका घोर विनाश।

भला कुछ भौतिकता में नहीं, नहीं कुछ इसमें आत्म-विकास॥

बढ़ रहा दम्भ, द्वेष, पाखण्ड, छल, स्वार्थ, अत्याचार।

रक्त भाई का पीने आज, खड़ा है भाई ही तैयार॥

मरुस्थल हुआ मनुज का हृदय, कहाँ वह दया, प्रेम-व्यवहार।

सत्य, सौजन्य, स्नेह, सम्मान, शील और सदाचार, आहार॥

धर्म ने पाया कारावास- कैद हो गया आज भगवान।

रूप, धन और यौवन पर आज, खो रहा सारा जग ईमान॥

शक्ति, साहस, आशा, आनन्द, दुराग्रह की कारा में बन्द।

चतुर्दिक फैला है पतझर, धरा का खोया मधु मकरंद॥

प्रश्न है जैसे टेढ़ी खीर, समस्या लगती बड़ी दुरन्त।

विश्व के परित्राण का कहीं, दिखाई देता आदि न अन्त॥

अँधेरे जग को देगा कौन, ज्ञान का शुचिता का आलोक।

ग्रस्त विपदाओं में आकंठ, विश्व के कौन हरेगा शोक॥

पुण्य का जागे मधुर विहान, विश्व का हो पावन उत्कर्ष।

विश्व तो है यह कल की बात, आज तो जागे भारतवर्ष॥

यहाँ पर जब जब जली मशाल-ज्ञान की, जागा जब जब धर्म। विश्व ने ली सन्तोषी-साँस, मिटा है तब तब घोर अधर्म॥

मुक्त हो चुके तुम्हारे पाँव, हुये कुछ बढ़ने की स्वच्छन्द। किन्तु जकड़े हैं अब भी हाथ, घिरे अब भी सामाजिक द्वन्द्व॥

मुक्ति इन सब से पाने चलो, करें हम सब मिल कर विद्रोह। जगायें अपना पौरुष आज, शक्ति का स्वयं करें संदोह॥

तुम्हारे ऊपर यह दायित्व, काल की दिशा मोड़नी है।

उठो अब नहीं चैन का वक्त, अभी हथकड़ी तोड़नी है॥

-बलराम सिंह परिहार


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