दाम्पत्य जीवन के सुख और सफलता का आधार शिक्षा नहीं है, धन भी नहीं है। यदि किसी की भी ऐसी मान्यता रही हो, तो उन्हें इसे बदल डालना चाहिये। आज के शिक्षितों में जितना पारस्परिक वैमनस्य, मनमुटाव और सम्बन्ध-विच्छेद की घटनायें घट रही हैं, उनसे यह सिद्ध हो चुका है कि सुखी दम्पत्ति का होना शिक्षा पर निर्भर नहीं। धन पर भी नहीं हैं, क्योंकि वह केवल आवश्यकताओं की पूर्ति का साधन मात्र है। आवश्यकतायें पूरी होती चलें तो पारस्परिक आत्मीयता के बन्धन मजबूत बने रहेंगे, इस बात का कुछ निश्चय नहीं है।
सफल दाम्पत्य जीवन के लिए परिष्कृत भावनायें और परिमार्जित दृष्टिकोण आवश्यक है। स्त्री-पुरुषों के स्वभाव मिलते हों, एक दूसरे के लिए आत्मदान की भावना हो तो अल्प साधन, कम शिक्षा और स्वल्प सौंदर्य वाले दम्पत्ति भी मस्ती का, हँसी-खुशी का जीवन जी सकते हैं। विवाहों में जो कर्मकाण्ड, आदर्श और संस्कार डाले जाते हैं, उनका उद्देश्य भावनात्मक दृष्टि से स्त्री और पुरुष को चारों ओर से खींचकर एक केन्द्र बिन्दु पर लाना ही होता है। जिन घरों में उन आदर्शों पर अमल होता है, वहाँ आमोद-प्रमोद, हास-विलास का जीवन सदैव उभरता हुआ रहता है। उन घरों में स्वर्ग की-सी परिस्थितियों का रसास्वादन किया जाता रहता है।
सन् 1912 की घटना है, एक टाइटैनिक नामक अंगरेजी जहाज समुद्र में डूब रहा था। कर्मचारी लाइफबोटों द्वारा आवश्यक सामान और व्यक्तियों को बचाने का प्रयत्न कर रहे थे। श्रीमती इसाडोर और श्री स्टास नाम का एक जोड़ा उस जहाज में यात्रा कर रहा था। लाइफ बोट में उनमें से केवल एक ही बचाया जा सकता था। श्री स्टास ने अपनी पत्नी को उठाकर लाइफ बोट में पहुँचा दिया ताकि उसकी जीवन रक्षा हो जाय, पर बोट अभी छूटी भी न थी कि श्रीमती इसाडोर उछल कर जहाज में कूद आईं और अपने पति से बोलीं- “स्वामी, हम जीवन भर साथ रहे फिर अन्तिम समय क्यों अलग हों। साथ-साथ जिये हैं, तो मरेंगे भी साथ-साथ।” इन शब्दों में कितनी आत्मीयता, कितना प्रेम, कितनी अभिन्नता थी। जिन दम्पत्तियों में इतना प्रगाढ़ स्नेह होता है, उन्हीं का जीवन सफल माना जाता है।
प्रेम सौंदर्य पर आधारित नहीं है उसके लिए मनुष्य की भावनायें चाहिये। अमेरिका के प्रसिद्ध कमाण्डर एण्ड्रयू जैकसन तथा रेचल की प्रेम-गाथा विश्व विख्यात है। कहते हैं रेचल अनपढ़ और सामान्य रूप वाली थी, जबकी जैक्सन उस समय के इने-गिने रूपवान व्यक्तियों में था। आत्म-निष्ठा के कारण वह सदैव रेचल के प्रेम-पाश में बँधा रहा।
प्रारम्भ में कुछ दिनों तक प्रायः सभी स्त्री-पुरुषों में प्रेम रहता है, किन्तु धीरे-धीरे जब एक दूसरे का स्वभाव प्रकट होने लगता है और एक दूसरे की इच्छा के अनुकूल बर्ताव नहीं होता, तो आकर्षण घटने लगता है और कुछ दिन में तो गृहस्थ जीवन बिलकुल नीरस हो जाता है। अधिक विलासिता तथा पारस्परिक हितों की रक्षा न करने के कारण भी यह स्थिति पैदा हो जाती है, इसलिये कुछ नियम ऐसे हैं जिन्हें स्त्री-पुरुषों को समान रूप से पालन करते रहना चाहिये। उन पर चलकर दाम्पत्य-जीवन को सफल बनाया जा सकता है।
दाम्पत्य जीवन स्त्री-पुरुष की अनन्यता का धार्मिक गठबन्धन है। इसकी सार्थकता तब है जब दोनों में पूर्ण विश्वास रहे। अविश्वास से एक दूसरे के प्रति घृणा उत्पन्न होती है। दुःख, छिपाव, दिखावट तथा बनावटी व्यवहार से कटुता पैदा होती है और दोनों एक दूसरे के प्रति उदासीन हो जाते हैं। जरा-जरा सी बात पर एक दूसरे पर चारित्रिक सन्देह की छींटाकशी प्रारम्भ होती है, जो सारे प्रेम-भाव को समूल नष्ट कर डालती है। अविश्वास और सन्देह का प्रायः कोई आधार नहीं होता। अपनी दुर्बलता के कारण ही यह भ्राँति पैदा होती है। इसलिये यह आवश्यक है कि पति-पत्नी एक दूसरे पर सन्देह न किया करें और यदि कोई ऐसी अवस्था आ जाय, तो उसे सद्भावनापूर्वक बातचीत द्वारा साफ कर लिया करें।
उपेक्षा का भाव भी कभी-कभी सन्देह उत्पन्न कर देता है। स्त्री बीमार हो, उसे कुछ कष्ट हो और पुरुष उसकी परवाह न करे या पुरुष को कोई शारीरिक या मानसिक पीड़ा हो और औरत उसकी उपेक्षा करे तो यह स्थिति दाम्पत्य जीवन को विषाक्त बनाती है। दोनों एक दूसरे के अभावों की पूर्ति और परेशानियों में सहायक बनकर साथ-साथ जीवन संग्राम में उतरते हैं, फिर एक की दूसरे के द्वारा उपेक्षा हो तो सन्देह उत्पन्न होना स्वाभाविक ही है।
मनुष्य में प्रशंसा सुनकर प्रसन्न होने का स्वभाव होता है। परमात्मा से काम निकालने के लिये भी लोग उनकी प्रशंसा करते हैं। स्तुतियों में यही तो होता है कि देवता के गुणों की प्रशंसा की जाती है। ठीक उसी प्रकार अपनी निन्दा सुनकर लोगों को दुःख होता है। पारिवारिक जीवन में इन दोनों बातों का सदैव ध्यान रखना चाहिये।
स्त्री और पुरुष, दोनों एक दूसरे को पारिवारिक सुखों का देवता समझ कर उनकी प्रशंसा किया करें तो प्रेम और सहयोग की भावना पैदा होती है। कुछ न कुछ गुण हर किसी में होते हैं, उनकी प्रशंसा मुक्त कंठ से करनी चाहिए। इसमें हीनता या संकोच नहीं करना चाहिये। अपने जीवन साथी को उत्साहित करना, ऊँचा उठाना, सुसंस्कृत और सभ्य बनाना अपना लक्ष्य होना चाहिए। संभव है उसकी इन कामों में रुचि न हो, पर प्रशंसा में वह शक्ति होती है जो मनुष्य में कठिन से कठिन कार्य करने के लिए उत्साह भरती है।
इस बात के लिए स्त्रियों की अपेक्षा पुरुषों का उत्तरदायित्व अधिक है। उन्हें चाहिये कि वे स्त्रियों के खाना पकाने, सेवा करने, शिशु पालन में सहयोग देने की प्रशंसा किया करें, इससे उनका हृदय उदारता और आत्मीयता से भरा रहता है। उनके प्रत्येक हाव-भाव से प्रेम स्नेह और आत्मदान की भावना टपकती रहती है। इससे उल्लासपूर्ण वातावरण विनिर्मित होता है।
एक दूसरे के रंग-रूप, माता-पिता या ससुराल वालों को लेकर कभी आलोचना नहीं करनी चाहिये। ऐसी कोई भी बात न कहनी चाहिये, जिससे अपने जीवन साथी की अपेक्षा किसी दूसरे का महत्व अधिक जान पड़ता है। लोग अपने आदमियों के सामने दूसरों की प्रशंसा करने में तो बड़े पटु होते हैं, पर चतुर जन वे होते हैं जो औरों के सामने भी अपने ही व्यक्तियों की प्रशंसा करते हैं।
इन बातों में जहाँ पुरुषों के दायित्व बड़े हैं, वहाँ स्त्रियों को भी चाहिये कि वे अपनी इच्छायें, आवश्यकतायें पतियों के सामने रखते समय घर की आर्थिक स्थिति का भी ध्यान रखा करें। जो इच्छायें पति न पूरी कर सकते हों, उन्हें कभी भूलकर भी जबान पर नहीं लाना चाहिये।
दाम्पत्य जीवन की सफलता के लिए भावनात्मक परिष्कार का उद्देश्य स्त्री-पुरुष को नेक और सुशील बनाना होता है। पुरुष में पुरुषत्व के और स्त्री में स्त्रीत्व के गुण विद्यमान हों तो कोई कारण नहीं कि दाम्पत्य जीवन सुख से न बीते। अन्य सारी योजनायें इन्हीं गुणों के विकास की माध्यम हैं। मुख्य रूप से पुरुष में शक्ति , साहस, सक्रियता और निर्भयता आदि गुणों का समावेश हो और स्त्री में कोमलता, मृदुता, दयालुता, स्नेह सौम्यता और सहानुभूति के गुण होने चाहिये। दोनों के स्वभाव में अपने-अपने गुणों का पर्याप्त स्थान हो तो प्रेम, विश्वास, आत्मीयता आदि का परिमार्जन अपने आप होता है और दाम्पत्य जीवन में उत्तरोत्तर घनिष्ठता बढ़ती जाती है और उनका जीवन में आनन्द की कोई कमी नहीं रहती। ऐसे घरों में श्रेष्ठ और सद्गुणी सन्तानें जन्म लेती हैं और उनके सामाजिक एवं राष्ट्रीय जीवन सुखी एवं समुन्नत होता है। इसलिये दाम्पत्य जीवन को पवित्र बनाना, उद्देश्य पूर्ण रखना प्रत्येक गृहस्थ का मूल धर्म कर्तव्य है। इस कर्तव्य की उपेक्षा न की जानी चाहिये।
तिरस्कार प्रगति और प्रसन्नता का विरोधी विचार है, इससे बचना चाहिये। छोटी-मोटी गलतियाँ प्रायः हर किसी से होती रहती हैं, उन्हें लेकर अपने जीवन साथी को झिड़कना, डाँटना, कोसना, अपशब्द कहना, गाली देना मूर्खता का चिन्ह है। इससे दिल टूट जाता है और सहयोग करने की भावना नष्ट हो जाती है।