कर्मों का फल ईश्वर के अर्पण कीजिए

December 1965

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कर्मों और कर्म फलों को ईश्वरार्पण कर देने के आदेश में बहुत बड़ा रहस्य एवं मन्तव्य छिपा हुआ है। जिन-जिन धर्म प्रवर्तकों ने इस रहस्य को समझ लिया है, उन्होंने अपने अनुग्रह-पात्रों को वैसा करने का आदेश दिया है।

कर्मों एवं कर्म-फलों का ईश्वरार्पण कर देने में छिपे रहस्य का पता लगाने से अनेक मोटी बातें सामने आती हैं। संसार में जो कुछ क्रिया-कलाप दृष्टिगोचर होता है, उसका मूल प्रेरणा-स्त्रोत ईश्वर ही है, या यों कहना चाहिए कि यह सब कुछ ईश्वर ही करता है। प्रत्यक्ष में अधिकारियों द्वारा किये हुए सारे कार्य परोक्ष में प्रमुख राज-सत्ता द्वारा ही किया हुआ माना जायेगा। मनुष्य ईश्वर का प्रतिनिधि कर्मचारी है, स्वतन्त्र अथवा मूल कार्य-कर्ता नहीं। वह जो कुछ करता है, ईश्वर की प्रेरणा से उसी की शक्ति द्वारा उसी के हेतु करता है। यही कारण है कि जब-जब वह उसके निर्देश के विरुद्ध स्वेच्छाचारिता करता है, तब-तब अपदस्थ होकर दण्ड का भागी बनता है। वह अपनी स्वेच्छाचारिता के उत्तरदायित्व से मुक्त नहीं हो सकता।

जिस प्रकार मनुष्य स्वेच्छाचारिता के रूप में परम प्रभु से विद्रोह करता है, उसी प्रकार कर्मों के स्वामी, संचालक एवं स्त्रोत परमात्मा को न मानकर अपने को मानना भी उसके प्रति चोरी करना है। जो कर्मचारी अपने स्वामी के आदेशों का ठीक-ठीक पालन करता हुआ कर्म करता है, वह उसके फलाफल का उत्तरदायी नहीं होता। उसके कर्मों का सारा परिणाम स्वयं स्वामी संभालता है और कर्मचारी निर्द्वन्द्व तथा निर्भीक अवस्था में यथावत् स्थित रहता है। न उसे चिन्ता करने की आवश्यकता रहती है और न व्यग्र होने की।

समझने के लिए यदि यह भी मान लिया जाये कि मनुष्य स्वयं कर्म करता है और उसके फल का अधिकारी भी वह स्वयं ही है, तब भी अपनी यह पूँजी यदि वह सर्व समर्थ परमात्मा को सौंप दे तो स्वर्ग, नरक, सुख, दुःख, शोक, सन्ताप, अच्छाई, बुराई आदि द्वंद्वों से उसी प्रकार सुरक्षित हो जाये जैसे कोई धनाढ्य अपना धन रिजर्व बैंक में जमा करके चोर डाकुओं, ठगों, उचक्कों और चाटुकारों, शोषकों से छुट्टी पा लेता है। अस्तु अपने प्रत्येक कर्म को, उसके फल को उसी की सम्पत्ति मान कर उसी प्रकार उसे समर्पित कर देने में ईमानदारी और कल्याण है, जिस प्रकार कोई सेनापति किसी भू-खण्ड को जीत कर सम्राट को समर्पित कर देता है।

जिन कर्मों और कर्म-फलों को अपने ऊपर लादे रहने से कोई लाभ नहीं, उल्टे हानि ही है, उन्हें अपने पास रक्खे रखना बुद्धिमानी नहीं। फिर एक कर्म करके उसका फल सिर रख लेने से दूसरा कर्म करते समय वह क्षिप्रता न रह सकेगी जो निर्भार होकर काम करने में। इस प्रकार यदि एक के बाद दूसरे कर्म का भार अपने शिर पर लादते चले जायेंगे, तो शीघ्र ही बहुत बड़े बोझ से दब कर सारी स्फूर्ति तथा क्षमता का अन्त कर लेंगे। प्रतिदिन के असंख्यों कर्मों का बोझ लेकर कोई कितनी दूर तक सुविधापूर्वक जीवन यात्रा कर सकता है? जीवन-रण में जो जितना अधिक स्फूर्तिवान् और निर्द्वन्द्व होगा वह उतनी ही अधिक सफलता प्राप्त करेगा।

यह स्वतः सिद्ध है कि जो कर्म को अपना मानेगा वह उसके फल का भी अधिकारी बनेगा और तदनुसार ही फल की मिठास तथा कड़वाहट को भी चखना पड़ेगा। मनुष्य का स्वभाव है कि वह अपने प्रत्येक कर्म का फल मधुर से मधुर चाहता है। किन्तु ऐसा होना सम्भव नहीं कि उसके सारे कर्म-फल पाने पर वह दुःखी होगा, निराश होगा और रोयेगा। अब क्यों न इस दुःख का कारणभूत भूमिका कर्मों की फलासक्ति से किनारा कर लिया जाए।

इन मोटे कारणों के अतिरिक्त कर्म-फलों की आसक्ति त्याग करने के आदेश के सूक्ष्म कारण और भी महत्वपूर्ण है। मनुष्य जीवन कोई साधारण उपलब्धि नहीं, इसे पाने का हेतु असंख्यों जन्मों का पुण्य ही है। यह न तो यों ही अकस्मात् मिल गया है और न यों ही साधारण रूप में आगे मिल सकेगा। मनुष्य जीवन एक अमूल्य अवसर है। यह बार-बार नहीं आता। मनुष्य जीवन एक ऐसा अवसर है, जिसका सदुपयोग करके कोई भी सच्चिदानन्द परमात्मा को पा सकता है। तुच्छ शारीरिक भोगों की तुलना में जो सर्वमुख रूप परमात्मा के साक्षात्कार और परमपद मोक्ष की उपेक्षा करता है, वह उस मनुष्य की तरह ही गँवार और अभागा है, जो चिन्तामणि को गुँजा फल के लोभ में त्याग देता है।

यह परमात्मा का कितना बड़ा अनुग्रह है कि उसने हमें घोड़ा, गधा, बैल, बकरी आदि न बना कर मनुष्य बनाया है। अब यदि हम इस मनुष्य जीवन को घोड़ों और गधों जैसा बना लेते हैं तो न केवल अपनी हानि ही करते हैं, बल्कि उस दाता को भी लज्जित करते हैं। मनुष्य जीवन देने से बड़ा कोई दूसरा अनुग्रह परमात्मा के पास नहीं है। मनुष्य जीवन देकर मानों उसने अपने सारे वरदान, सारी कृपा और सारी करुणा ही हम पर उड़ेल दी है।

कर्म फल की आसक्ति में एक बहुत बड़ा दोष यह है कि फलाकाँक्षी का सारा ध्यान फल की ओर ही लगा रहता है, जिससे वह निपुणतापूर्वक कर्म नहीं कर पाता और ऐसी दशा में प्रतिकूल फल की तनिक भी सम्भावना होने पर काम करना छोड़ देता है। बहुत बार यह भी होता है कि प्रतिकूल फल की आशंका से कोई काम प्रारम्भ ही नहीं करता। फल लोभी इसी ऊहापोह में पड़ा रहता है कि न जाने ऐसा करने में सफलता मिलेगी अथवा असफलता और यदि वह किसी प्रकार से कुछ करने की हिम्मत भी करता है तो हर समय सफलता के लोभ में असफलता की चिन्ता करता रहता है। सफलता की अत्यधिक कामना असफलता को ही निमन्त्रित करती है।

कर्म को अपना किया हुआ मानने से उसकी असफलता में तो दुःख होता ही है, सफलता में भी मनुष्य अभिमान से अभिभूत होकर अपनी हानि कर लेता है। एक कर्म की सफलता का अभिमान दूसरे कर्म में अदक्षता उत्पन्न कर देता है। सफलताभिमानी की इच्छा रहा करती है कि लोग उसकी योग्यता तथा समर्थता की प्रशंसा करें, उसका आदर तथा सम्मान करें। किसी भी कारण से उत्पन्न हुआ अभिमान मनुष्य को पतन के गर्त में गिराये बिना नहीं रहता।

मनुष्य में एक सीमित शक्ति रही है। किन्तु जब व अपनी शक्ति विश्व के निर्माता या नियामक में समाहित कर देता है, तो वह अनन्त शक्तिवान् हो जाता है। सिन्धु में बिन्दु की तरह मिल कर पूर्णता को प्राप्त कर लेता है। कर्तापन का अभिमान करने वाला, विराट् विश्व चेतना से अलग होकर एक संकुचित सीमा में घिर कर बड़ा ही दीन−हीन बन जाता है। कर्माभिमानी जहाँ छोटे-छोटे काम करने में कठिनाई अनुभव करता है और पग-पग पर सफलता-असफलता से प्रभावित होता है, सुख-दुःख के वशीभूत होता रहता है, वहाँ स्वयं को सम्पूर्ण रूप से परमात्मा को अर्पण कर देने वाला बड़े से बड़े काम को साधारण रूप से कर लेता है।

कोई छोटा काम भी जब ईश्वरीय कार्य समझ कर किया जाता है तो वह भी महान् बन जाता है। किसी कार्य को ईश्वर का कार्य समझ कर उसमें उपासना का भाव रहता है, जिससे मनुष्य अपने पूर्ण पवित्र तन-मन से उसे करता है और ऐसी दशा में कार्य में सफलता मिलना अनिवार्य है। परमात्मा के प्रति किया हुआ छोटा-सा नीराजन भी जिस प्रकार परम पवित्र तथा महान् समझा जाता है, उसी प्रकार प्रभु को समर्पित किया हुआ मनुष्य का साधारण कार्य भी असाधारण माना जाता है। एक गरीब द्वारा की हुई छोटी-सी आरती के प्रति क्या गरीब, क्या अमीर सभी नत-मस्तक होते हैं, पूर्ण पवित्र समझते हैं। उसी प्रकार ईश्वरीय कार्य समझ कर किया हुआ लघु से लघु कार्य भी लोगों की श्रद्धा-भक्ति का कारण बनता है।

इस चिर-दुर्लभ मानव-जीवन को पाकर जो छोटे-छोटे कर्म फलों के लिए लालायित रहता है, वह परमात्मा के साक्षात्कार जैसे परम लाभ से वंचित रह जाता है। प्रत्येक कर्म को परमात्मा का समझ कर करने और उसके फल को भी उसका समझ लेने में मनुष्य का अपना कुछ बिगड़ता नहीं, तब न जाने वह क्यों कर्माभिमानी बन कर अनमोल मानव-जीवन का दुरुपयोग किया करता है?


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