दार्शनिकता को सार्थक बनाने वाले कन्फ्यूशियस

December 1965

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कन्फ्यूशियस का जन्म एवं उदय लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व उस युग में हुआ था, जो धार्मिक अन्ध-विश्वासों का युग कहा जा सकता है। जो धार्मिक वक्ता, धर्माचारी तथा धर्म प्रतिपादक नहीं होता था, जनता में उसका सम्मान तो दूर असम्मान ही हुआ करता था। धर्म की बातों के माध्यम से ही लोग जीवन में आगे बढ़कर जन-साधारण का नेतृत्व किया करते थे।

ऐसे समय में आचार्य कन्फ्यूशियस जीवन दर्शन में एक नई क्रान्ति लेकर जन-जीवन में आये। उन्होंने जनता को जन्म, जीवन तथा मरण की पहेलियों में उलझाने के बजाय मानव जीवन के कलापूर्ण यापन का सन्देश दिया। “जन्म से पूर्व मनुष्य कहाँ था और मृत्यु के पश्चात् वह कहाँ जायेगा”- इस प्रकार के पचड़े में पड़ने के बजाय उन्होंने जन-साधारण को यह बतलाया कि उन्हें यह जो मानव जीवन मिला है, उसको सच्चे मानों में किस प्रकार सार्थक तथा सफल बनाया जाये।

महात्मा कन्फ्यूशियस जीवन में आदर्शवादिता के समर्थक अवश्य थे किन्तु ऐसे आदर्श के जो मानव-व्यवहार में पूरी तरह उतारे जा सकें। वे केवल बौद्धिक आदर्शवादी नहीं थे। उनका कहना था कि मनुष्य जो कुछ कहे अथवा सोचे उसे अपने व्यावहारिक जीवन में मूर्तिमान भी करे। निष्क्रियात्मक आदर्श जीवन उन्नति की सबसे बड़ी बाधा है।

अपने जीवन में किन्हीं ऊँचे आदर्शों की स्थापना करके उनके अनुसार अपने जीवन को न चलाना सबसे बड़ी आत्मप्रवंचना है, क्योंकि कोरा आदर्शवादी बकता बहुत है किन्तु करता कुछ नहीं है। अपने वाक्जाल में सर्व साधारण को फाँसकर उन्हें राह तो दिखाता है किन्तु स्वयं उस मार्ग पर नहीं चलता। बुद्धि कौशल से पथ-प्रदर्शक बन जाने से वह अपनी चतुरता की रक्षा में लगा रहने से अपना आत्मिक सुधार नहीं कर पाता। यह एक भयंकर आत्म वंचना है।

चीन के प्रसिद्ध चाँग राजवंश में पाँच सौ पचास ईसा पूर्व कन्फ्यूशियस का जन्म हुआ। जिस समय उनकी आयु तीन वर्ष की थी, उस समय उनके पिता की मृत्यु हो गई, जिससे उन्हें महान कठिनाइयों के बीच अपना जीवन चलाते हुये अध्ययन करना पड़ा। असहनीय कठिनाइयों के बीच जिनका विद्या प्रेम अक्षुण्ण बना रहता है, वे अवश्य ही एक दिन भारती के वरद पुत्र बनकर रहते हैं। इस उपलब्धि का कोई अलौकिक कारण नहीं होता। इसका सीधा-सा एक कारण होता है कि कठिन परिस्थितियों में रहकर पढ़ने वाले विद्यार्थी का ध्यान अध्ययन के अतिरिक्त अन्य किसी ओर नहीं जाता। विद्या प्राप्त करना उसके जीवन-मरण का प्रश्न बन जाता है, जिसे सफलतापूर्वक हल करने में वह जी-जान से लगा रहता है। यही एक लगनपूर्ण तन्मयता उसकी सफलता का कारण बनती है। जो विद्यार्थी अनावश्यक साधन तथा सुविधायें लेकर अध्ययन किया करते हैं, उनका पूरा ध्यान पढ़ाई में नहीं लगता और न वे अध्ययन के अनिवार्य परिश्रम को ही वहन कर पाते हैं। सुविधाओं की बहुतायत होने से वे आलसी तथा छुई-मुई बन जाते हैं, जिससे क्षण-क्षण पर थकान तथा शिथिलता अनुभव करने के अभ्यस्त हो जाते हैं। विद्या प्राप्ति के इच्छुक व्यक्तियों को सम्भव होने पर भी अपने चारों ओर सुख सुविधाओं के साधन संचय नहीं करने चाहिये। विद्याध्ययन एक तपस्या है, एक साधना है। इसको जीवन का एक सामान्य कार्य-क्रम मानकर अपनाने से अधिकतर असफलता ही हाथ आती है।

बालक कन्फ्यूशियस जो कुछ पढ़ते थे, उसे अपने जीवन में उतारते जाते थे। इससे केवल 14 वर्ष की आयु में ही उनको महातत्व की अनुभूति होने लगी। आदर्श जीवन की इस तात्कालिक सफलता महानता तथा सुन्दरता को देखकर उन्हें यथार्थ जीवन के कलापूर्ण यापन में अखण्ड विश्वास हो गया और उन्होंने इस वरदान को जन-जन के बीच वितरित करने का संकल्प कर लिया।

बाईस वर्ष की अवस्था में पहुँचते-पहुँचते उन्होंने आवश्यक अध्ययन पूरा करके जन-कल्याण की शिक्षा में पदार्पण किया। सबसे पहले उन्होंने एक पाठशाला की स्थापना की, जिसमें भरती हुये बच्चों को वे स्वयं पढ़ाते थे। यद्यपि आचार्य कन्फ्यूशियस में इतनी योग्यता थी कि यदि वे चाहते तो सीधे जनता के बीच अपने विचारों का प्रचार कर सकते थे। किन्तु उन्होंने ऐसा न करके जो पाठशाला की स्थापना की, उसके पीछे दो कारण काम कर रहे थे। एक तो यह कि बिना कोई साकार कार्य किये सहसा जनता में उतर जाने से वे केवल वाक्-वीर ही समझे जा सकते थे, कर्मवीर नहीं और ऐसी दशा में जन-साधारण के अविश्वास पात्र बनने की सम्भावना थी। जीवन में सही मार्ग दिखलाने के लिये सर्व-सामान्य का विश्वास प्राप्त करना बहुत आवश्यक है, जो केवल शाब्दिक शक्ति से नहीं, कार्यों की मूर्तिमत्ता से ही प्राप्त किया जा सकता है।

दूसरे कन्फ्यूशियस अच्छी प्रकार जानते थे कि बच्चों की मनोभूमि अन्ध-विश्वासों तथा अन्य अविश्वास, संशय, तर्क, ईर्ष्या, द्वेष आदि के विकारों से कंटकित नहीं होती। उनमें बोये हुये सद्विचारों के बीच सरलता से फलीभूत हुआ करते हैं। जहाँ रूढ़ संस्कारों के कारण प्रौढ़ों को धर्म की आड़ लेकर किसी बात को समझाने में बड़ी ही सावधानी तथा सतर्कता को अपनाना पड़ेगा, वहाँ बच्चों के संस्कार बनाने में इस चातुर्य की आवश्यकता न पड़ेगी और शीघ्र ही उनकी निर्मित की हुई नई पीढ़ी समाज के रंगमंच पर उतर आयेगी। ऐसी दशा में वे एक से बहुत होकर सरलतापूर्वक अपने विचारों का प्रसार तथा प्रचार कर सकते हैं।

आचार्य कन्फ्यूशियस की पाठशाला क्या थी, सच्ची मानवता तथा नागरिकता की प्रशिक्षणशाला थी। उस पाठशाला में निर्धन तथा धनी, उच्च तथा निम्न हर प्रकार के छात्रों के साथ पूर्ण समानता का व्यवहार किया जाता था। यद्यपि पाठशाला के व्यय के लिये धनी विद्यार्थियों से कुछ शुल्क लिया जाता था और निर्धन विद्यार्थी शुल्क-मुक्त होकर पढ़ते थे, तथापि उनके बीच किसी प्रकार के पक्षपात अथवा विषमता का कोई व्यवहार नहीं किया जाता था। विद्यार्थियों का क्रियात्मक चरित्र निर्माण तथा अनुशासन इस पाठशाला की एक प्रमुख विशेषता थी। आचार्य शब्द ज्ञान के स्थान पर विद्यार्थियों के आचरण की ओर अधिक ध्यान देते थे। जब तक एक पाठ के उपदेश प्रत्येक विद्यार्थी के व्यक्तिगत आचरण में पूर्ण रूप से नहीं उतर जाते थे, तब तक उन्हें आगे का दूसरा पाठ नहीं पढ़ाया जाता था।

आचार्य कन्फ्यूशियस की संस्था की इन मौलिक विशेषताओं ने उन्हें तथा उनकी पाठशाला को शीघ्र ही लोकप्रिय बना दिया और वे बालकों के जीवन-निर्माण के सफल शिल्पी के रूप में प्रसिद्ध हो गये।

जीवन-निर्माण की इस प्रारम्भिक पाठशाला की स्थापना करके और उसकी व्यवस्था को दृढ़ बनाकर आचार्य कन्फ्यूशियस लू राज्य की प्रसिद्ध राजधानी चले गये। पाठशाला छोड़कर लू राज्य की राजधानी जाने का विशेष कारण यह था कि वहाँ लाओ-से नाम का दार्शनिक एक नवीन धर्म की स्थापना कर रहा था। एक ऐसे धर्म की स्थापना कि जिसमें एक स्वप्निल आदर्शवाद तथा रहस्यवाद के अतिरिक्त और कुछ न था। वह जन-साधारण को धर्म के नाम पर यथार्थ जीवन से दूर ले जाकर एक स्वप्न-लोक में पटक देना चाहता था, जिससे वह एक दार्शनिक रहस्य बनकर सदैव पुजता रहे।

आचार्य कन्फ्यूशियस ने उससे मिल कर विचारों का आदान-प्रदान किया और व्यावहारिक यथार्थता के साथ सद्गुणों के विकास तथा आत्मोन्नति के सरल सिद्धान्तों के पालन तथा प्रतिपादन की आवश्यकता पर बल दिया और इसी को सच्चा धर्म कहकर उन्होंने जनता के लिये आवश्यक बताया। कथनी तथा करनी में साम्य रखने वाले कन्फ्यूशियस का प्रभाव लाओ-से पर गहरे रूप से पड़ा और वह उनका सहयोगी बन गया। दो प्रभावशाली व्यक्तियों के एक मत होकर कार्य करने का जो सत्परिणाम होता है, वह लू राज्य की राजधानी को प्राप्त हुआ और वहाँ अन्ध-विश्वासों के खंडहर टूटकर मानवीय मान्यताओं के नये महल बनने लगे।

इसी बीच इस नव निर्माण तथा कुछ अन्य कारणों से उक्त राजधानी में राजनीतिक हलचल शुरू हो गई। कन्फ्यूशियस अपने कुछ अनुयायियों के साथ वहाँ से यह सोचकर चल दिए कि जन-निर्माण का कार्य राजनीति की हलचल से दूर रहकर ही किया जा सकता है।

कन्फ्यूशियस के उपदेशों में सच्ची नागरिकता एवं आचरणपूर्ण अनुशासन के दर्शन पाकर तात्कालिक चीन सरकार ने उनकी कार्यकुशलता का लाभ उठाने तथा जनता का भला करने के लिए अनुरोधपूर्वक उन्हें राज्य के चुँगट नामक नगर का गवर्नर बना दिया। एक प्रकार से जहाँ यह कन्फ्यूशियस का राज सम्मान था, वहाँ उनकी योग्यता तथा कार्यकुशलता की परीक्षा भी थी। किन्तु जो निस्पृह है, निःस्वार्थ एवं आचरणवान है, जिसने अपने परिश्रमपूर्ण प्रयत्न से योग्यताओं की सिद्धी की है और सच्चाई के साथ काम करने वाला है, उसके हाथ में हल से लेकर राजदण्ड तक क्यों न दे दिया जावे, वह उसमें उत्तीर्ण ही होकर रहेगा। असफलता का भय तो स्वार्थी, आलसी तथा अयोग्यों के लिये निर्मित किया गया है।

शीघ्र ही उनकी योग्यता ने उन्हें शासन के सर्वोच्च पद पर पहुँचा दिया और तब उन्होंने एक ऐसी अडिग शासन व्यवस्था की स्थापना की कि जनता ने नित्य परिवर्तनशील शासन के त्रास से आश्वासन की श्वाँस ली। इस प्रकार एक सन्त शासक के अनुशासन में जनता से बेईमानी तथा दुराचरण दूर भागने लगे। लोगों में शासन के प्रति विश्वास के साथ-साथ राजभक्ति का भी उदय होने लगा।

इस प्रकार आचार्य कन्फ्यूशियस ने न केवल एक अच्छे शासन की नींव डाली, अपितु जनता के हित के लिए अनेकों सराहनीय कार्य किए। उन्होंने कृषि के व्यापार तथा उद्योगों में विकास एवं सुधार कर देश की भुखमरी को भगाया। युवा तथा वृद्ध व्यक्तियों के लिए शक्ति , सामर्थ्य, स्वास्थ्य, कार्य तथा उपयोगिता के मापदण्ड पर तोलकर अलग-अलग भोजन की व्यवस्था की। वस्तुओं का मूल्य निर्धारित करके जन-साधारण को मुनाफाखोरी के अभिशाप से मुक्त किया।

कर के रूप में प्राप्त धनराशि को जनहित के कार्यों में लगाकर सड़कों, पुलों, पाठशालाओं एवं पुस्तकालयों के निर्माण तथा जीर्णोद्धार कराया, जनता में समता तथा सुख संतोष की स्थापना के लिए उन्होंने धनवानों को इतना शक्तिशाली होने से रोका कि आगे चलकर वे शासन पर हावी होकर गरीब जनता का शोषण करने में समर्थ एवं निर्भय हो जावें। कन्फ्यूशियस की शासन सफलता का सबसे बड़ा प्रमाण यह था कि उनकी उस व्यवस्था से क्या धनी, क्या निर्धन, क्या ऊँच तथा क्या नीच सभी प्रकार के व्यक्ति पूर्ण सन्तुष्ट थे।

इस प्रकार एक शान्तिमय सफल शासन व्यवस्था स्थापित करके तथा अन्य शासकों के सामने अनुकरणीय उदाहरण रखकर कन्फ्यूशियस पुनः देशाटन पर चल दिये। उनकी शासन कुशलता की कीर्ति सुनकर अनेक राज्यों के राजाओं ने उन्हें अपने राज्य का शासन भार संभालने के लिए आमंत्रित किया, किन्तु जन-सेवा के कार्य को छोड़कर उन्होंने दुबारा शासक बनना स्वीकार नहीं किया। अनेक राजाओं ने उनके सम्मान में उन्हें वृत्तियाँ देनी चाहीं, किन्तु उनको भी अस्वीकार करके वह जन-सेवी महात्मा कठिन से कठिन परिस्थितियों में जन-कल्याण के लिए देश-देश, गाँव-गाँव तथा गली-गली मानवता के सन्देश सुनाता घूमा।

एक बार भूख से व्याकुल उनके अनेक अनुयायियों ने प्रार्थना की कि इस प्रकार कष्ट उठाने से तो अच्छा है कि किसी राज्य की वृत्ति क्यों न स्वीकार करली जावे। इस पर आचार्य कन्फ्यूशियस ने उत्तर दिया कि श्रेष्ठ पुरुष सदैव ही अपने हाथ से उपार्जित धन ही काम में लाते हैं। कठिन कठिनाइयाँ श्रेष्ठ पुरुषों की कंठहार हैं, जिनके कारण ही वे पहचाने जाते हैं। जो कठिनाई को वरण नहीं कर सकता, आपत्तियों को सहन नहीं कर सकता और विषम परिस्थितियों में भी प्रसन्न नहीं रह सकता वह कभी श्रेष्ठ पुरुष नहीं बन सकता और न कोई श्रेयस्कर कार्य ही कर सकता है।

इस प्रकार तिहत्तर वर्ष की आयु तक जन-सेवा का कार्य करते, मानवता तथा नागरिकता का पाठ पढ़ाते और अन्ध-विश्वासों के युग में सत्य का प्रकाश देते हुए महात्मा कन्फ्यूशियस 480 ई0र्पू0 पृथ्वी तल पर अपनी अक्षय कीर्ति छोड़कर स्वर्ग सिधार गये।


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