देश, धर्म, समाज और संस्कृति के लिए भी कुछ करें

December 1965

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वे वयोवृद्ध व्यक्ति , जिनके ऊपर से कमाने-धमाने की जिम्मेदारी चली गई है, बच्चे परिवार की व्यवस्था संभाल लेते हैं, उन्हें अपने अधिकाँश समय को राष्ट्रीय जागरण के लिए लगाना चाहिए। आज की परिस्थितियों में ईश्वर की सबसे उत्तम भक्ति और आत्म-कल्याण की सर्वश्रेष्ठ साधना यही हो सकती है कि इस देवभूमि भारत को धरती का स्वर्ग बनाने के लिए जन-जन में विवेकशीलता एवं आदर्शवादिता की भावनाएं उत्पन्न की जायें। इस साधना में लगे हुए वयोवृद्ध व्यक्ति अपना लोक परलोक सुधारेंगे, आत्म-कल्याण और ईश्वर प्राप्ति का लाभ प्राप्त करेंगे तथा देश, धर्म, समाज एवं संस्कृति के पुनरुत्थान में योगदान देकर अक्षय पुण्य अर्जित करेंगे।

यों घर में कुछ न कुछ काम तो सदा ही लगा रहता है, पर राष्ट्र के नव-निर्माण का कार्य भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। इस आड़े समय में तो सब काम छोड़कर भी उसे प्रधानता दी जानी चाहिए, फिर अवकाश प्राप्त वयोवृद्ध तो घर वालों की बिना कुछ हानि किये ही अपने अनुभवी व्यक्तित्व का बहुत कुछ लाभ जनता को दे सकते हैं।

जो कई भाई हैं, उनमें से एक को समाज-सेवा के लिये देना चाहिये। शेष भाई उसके पारिवारिक उत्तरदायित्वों का वहन करें और उसे निश्चिन्तता पूर्वक समाज सेवा करने दें। जिस प्रकार युद्ध के लिये कितने ही परिवारों ने अपने यहाँ से एक-एक सैनिक दिया है, उसी प्रकार धर्म-परायण लोग भी अपने घरों से एक-एक सुयोग्य प्रतिभाशाली व्यक्ति धर्म-सेना में भर्ती होने के लिये दें। जिनका धर्म से सीधा सम्बन्ध नहीं है, वे शौर्य और देश-भक्ति से प्रेरित होकर अपने घरों के नौनिहालों को गोलियों का सामना करने के लिये भेज सकते हैं, तो जो लोग धर्म, ईश्वर, अध्यात्म, ज्ञान, वैराग्य आदि की लम्बी-चौड़ी बातें करते हैं, उन्हें गोली के सामने न सही तो समाज-सेवा के लिये तो अपने परिवारों से एक-एक व्यक्ति देना ही चाहिये।

जिन लोगों के पास आजीविका के साधन मौजूद हैं, जमीन या पैसा किराये पर उठा कर जो लोग अपना खर्च चलाने की स्थिति में हैं, उनके लिये यही उचित है कि अब अधिक कमाई के संग्रह करने, जोड़ने और बढ़ाने के कुचक्र में न फँसें। अगला समय ऐसा आ रहा है, जिसमें वैयक्तिक धन अधिक मात्रा में किसी के पास भी न रहेगा। गुजारे-भर के लिये सामान्य लोगों की-सी साधन-सामग्री रह जायगी, ऐसी दशा में जो लोग पूँजी बढ़ाने और भविष्य के लिये दौलत जोड़ने की सोचते हैं, वे भारी भ्रम में हैं। शहद की मक्खी की तरह अनावश्यक श्रम दूसरों के लिये धन कमाने में खर्च किया जाय, तो इसकी अपेक्षा यही उत्तम है कि जब गुजारे की व्यवस्था है तो अपना समय और श्रम लोक-मंगल के लिये ही क्यों न खर्च किया जाय?

साधु-ब्राह्मणों का तो यह एक परम पवित्र कर्तव्य है कि इस समय जिस धर्म का आश्रय लेकर वे अपनी आजीविका चलाते हैं और पूजा सम्मान प्राप्त करते हैं, उस धर्म की रक्षा के लिये उन्हें कुछ काम भी करना चाहिये, कुछ कष्ट भी उठाना चाहिये। आज जब कि धर्म संकट में है, देश की सुरक्षा एवं प्रगति का प्रश्न है, तब तो उन्हें उन आदर्शों को परिपुष्ट करने के लिये अपना समय लगाना ही चाहिए। ऐसी विषम परिस्थितियों में भी वे दक्षिणा बटोरने और पैर पुजाने का ही धन्धा करते रहे, कर्तव्य को तिलाञ्जलि दिये बैठे रहे तो आगामी पीढ़ियाँ उन्हें क्षमा न करेंगी। उन्हें धर्मध्वजी होने का सम्मान तो दूर, सामान्य नागरिक स्तर पर भी न गिना जायगा। उनकी आज की अकर्मण्यता भविष्य में साधु-ब्राह्मण संस्था का ही महत्व एवं गौरव समाप्त कर देगी, इसलिये उन्हें तो समय रहते चेत ही जाना चाहिए।

हर नागरिक के पास कुछ समय रहता है। आजीविका कमाने और शरीर यात्रा के दैनिक कार्यों के अतिरिक्त हर व्यक्ति के पास कुछ समय बचता है। यदि बचता न होता तो गपशप, यारबाजी, सिनेमा, शतरंज, ताश, यात्रा, मेले ठेले आदि के लिए समय कहाँ से मिलता है? लेखा-जोखा लेने पर हर आदमी के पास कुछ न कुछ ऐसा समय जरूर मिलेगा, जिसे वह नित्य-कर्म और रोटी कमाने के अतिरिक्त अपनी मन-मर्जी के कामों में लगाता है। यह मन मर्जी यदि हल्के और ओछे कामों में न लगे, जन-जागरण और नव-निर्माण के रचनात्मक कामों में लगे तो व्यस्त से व्यस्त व्यक्ति भी इतना कार्य कर सकता है, जिस पर वह आत्म-सन्तोष और आत्म-गौरव अनुभव कर सके। आवश्यकता केवल अभिरुचि बदलने भर की है। दूसरों को उपदेश करने या आलोचना करने की अपेक्षा अब अपने को रचनात्मक कार्य करने में संलग्न करना चाहिए और अपनी आदर्शवादिता की सच्चाई को प्रमाणित करना चाहिये। जिनमें आदर्शवादिता के प्रति आस्था एवं ममता है, जो उसे बढ़ते और आकर्षित होते देखना चाहते हैं, उन्हें अपने समय का एक अंश राष्ट्रीय पुनरुत्थान के लिये कुछ करने के लिये लगाना ही चाहिये। साधारण नागरिक होने पर भी यदि कुछ भावना हो, तो हर व्यक्ति बहुत कुछ कर सकता है और आज ऐसा समय है जब कि कुछ न कुछ हर व्यक्ति को करना ही चाहिये।

अखण्ड-ज्योति परिवार में जितने भी व्यक्ति हैं, उनमें से उपरोक्त परिस्थितियों के कितने ही व्यक्ति होंगे। उन्हें अब अलसाये मन से नहीं, वरन् भावनापूर्वक वस्तुस्थिति को समझना चाहिये और देश-काल को देखते हुए अपने समय और शक्ति का कुछ न कुछ भाग लगाने के लिये कटिबद्ध ही हो जाना चाहिये।

यों समस्त देश वासियों के सामने अपनी देश-भक्ति का परिचय देने का अवसर है, पर अखण्ड-ज्योति परिवार से सम्बद्ध व्यक्तियों ने गत 25 वर्ष में जो शिक्षा प्राप्त की है, उसे वस्तुतः समझा अपनाया है या नहीं, इसकी परख का ठीक यही वक्त है। प्रस्तुत समय की चुनौती को स्वीकार कर हमें अपना खोखलापन प्रमाणित नहीं करना चाहिये।


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