साधना से शक्ति का अवतरण

December 1965

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शक्ति मनुष्य जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अपेक्षित है। छोटे-छोटे दैनिक कार्यों से लेकर बड़े-बड़े सार्वजनिक निर्माण के कार्य भी सभी व्यक्तिगत या सामूहिक शक्ति के माध्यम से ही पूरे होते हैं। खेत में काम करना है तो शक्ति चाहिए, वजन उठाना हो तो शक्ति चाहिए। विद्यालय में अध्यापन के लिए, कचहरियों में वकालत के लिए, सेना में भरती होकर युद्ध करने के लिए या राजनैतिक सेवाओं के लिए भी शक्ति के बिना काम नहीं चलता। शक्ति का स्वरूप कैसा भी हो, पर मनुष्य जीवन में उसकी आवश्यकता निर्विवाद है।

सत्य और अहिंसा-प्राणि जगत के दो आवश्यक सिद्धान्त हैं, किन्तु उनकी रक्षा भी शक्ति के बूते ही हो सकती है। शक्ति के बिना सिद्धान्त अधूरा है, फिर यह कितना ही अहिंसक, सत्यशील एवं सुकोमल क्यों न हो?

ऋषि आध्यात्मिक, धार्मिक एवं नैतिक जीवन का लोक शिक्षण करते थे। बड़े कोमल सिद्धान्त थे उनके। आचरण और व्यवहार उनका ऐसा सीधा-सादा और सरल था कि सामान्य श्रेणी का व्यक्ति उनकी आन्तरिक पूर्णता का अनुमान भी नहीं कर सकता था। पर उनके जीवन में एक शाश्वत शक्ति कार्य किया करती थी, एक गजब की प्रेरणा प्रस्फुटित होती रहती थी, ऋषि उसके सहारे अभय विचरण करते थे। जो उनके आदर्शों के विपरीत आचरण करता था, उन्हें उनकी शक्ति का सामना करना होता था। ऐसी घटनायें असामान्य समझी जाती थीं और उन्हें देखकर प्रायः सभी लोग उनकी शक्ति को शीश झुका देते थे। ऋषियों की डाली सदाचारी परम्परायें बेरोक-टोक विकसित होती थीं। उनका सामना करने की किसी में शक्ति न होती थी।

दुष्प्रवृत्तियों के विरुद्ध निरन्तर उत्कट संघर्ष, उनकी लगन, शौर्य, सहिष्णुता, कर्मठता और अनवरत क्रियाशीलता को देखकर भी उनकी शक्ति का आभास होता है। वेद इस बात के साक्षी हैं। वेदों के वजन का कोई भी ग्रन्थ इस सृष्टि में नहीं। उनमें जो ज्ञान और विज्ञान भरा है वह ऋषियों की प्रचंड शक्ति का द्योतक है। सच कहें तो ऋषि शक्ति के मूर्तिमान स्वरूप ही थे।

ऋषियों के जीवन से यह भली-भाँति स्पष्ट होता है कि शक्ति का आधार साधना है। चाहे वह भौतिक समृद्धि के लिए हो चाहे आध्यात्मिक उन्नति के लिए। शक्ति अपेक्षित हो तो साधना करनी पड़ेगी।

धन जुटाने के लिए क्या कुछ नहीं करते है, हल चलाते हैं, नौकरी करते हैं, रोजगार करते हैं। बची हुई कमाई बैंक में जमा करते हैं, ताकि ब्याज आये। दूसरे व्यवसाय के लिए साधन जुटाना, दौड़-धूप, बेंच-खोंच, लेन-देन आदि, न जाने कितना श्रम करना पड़ता है। यह क्या हुई? धन जुटाने की साधना। विद्यार्थी प्रतिदिन पैदल चलकर विद्यालय जाता है, फीस के पैसे देता है, मास्टरों की डाँट सुनता है। जब घर वाले सैर-सपाटे को गये होते हैं, तब वह किताबों से जूझता है। पाठ याद करता है। यह क्या हुई? विद्या प्राप्त करने की साधना। ठीक है, बिना साधना के कोई भी तो लौकिक कामना पूर्ण नहीं होती।

इन पंक्तियों में हमारा उद्देश्य आध्यात्मिक जीवन से सम्बन्धित साधना की वैज्ञानिक स्थिति का वर्णन करना है। हम यह बताना चाहेंगे कि आत्म-कल्याण के लिए लौकिक सफलताओं से कहीं अधिक बड़ी और कड़ी साधना की जरूरत है। साधना की आग में तपकर ही वह शक्ति आती है, जिसके द्वारा मनुष्य अपना तथा सैकड़ों औरों का कल्याण कर सकने में समर्थ हो पाता है।

साधना का क्षेत्र बहुत व्यापक, बड़ा विशाल है। अधिकाँश उपनिषद् इसी तत्व की व्याख्या में लिखे गये हैं। अनेक प्रकार के योगों का प्रादुर्भाव हुआ है। उनमें अनेक प्रकार की प्रक्रियाएं चलती हैं। उन सबका उद्देश्य केवल शक्तियों को विकसित करना ही होता है।

आत्म-शक्ति के विकास के लिए अनेक प्रकार की साधनाओं का वर्णन मिलता है। बाह्य कलेवर की दृष्टि से उनमें भिन्नता भले ही दिखाई देती हो, पर उनका दृष्टिकोण एक ही है और वह है पंचकोषों के विकास द्वारा आत्म-साक्षात्कार का पथ प्रशस्त करना।

पाँच कोष जीवात्मा के पाँच आवरण हैं, पाँच साधन हैं, जिनके सहारे लोक और परलोक की सुख और सुविधायें अर्जित की जाती हैं। पाँच कोषों का सुव्यवस्थित होना उसी प्रकार आवश्यक है, जिस तरह रेलगाड़ी की सुविधाजनक यात्रा के लिए (1) इंजन (2) भाप (3) भाप बनाने वाले साधन (4) ड्राइवर और (5) रेल की पटरी आवश्यक हैं। इनमें से किसी एक के भी न होने से यात्रा में कठिनाई होगी। रेल की शक्ति का प्रवाह इन पाँचों का सम्मिश्रित रूप है। जीवात्मा की भी ठीक ऐसी ही स्थिति है।

मनुष्य को विश्लेषण की दृष्टि से देखें तो वह पाँच पदार्थों के सम्मिश्रण से बना हुआ कोई पुतला जैसा जान पड़ेगा। (1) स्थूल शरीर (2) प्राण (3) मन (4) शरीर की वैज्ञानिक स्थिति और (5) आनन्द, यह जीवात्मा के पाँच कोष कहे जाते हैं। यह पाँचों पुर्जे सही काम करते हों तो मनुष्य का जीवन ठीक प्रकार बीतेगा यह आशा करनी चाहिए। इनमें से कोई भी अंग विकृत हुआ कि जीवन-यात्रा कठिन पड़ जायेगी और शरीर धारण का लक्ष्य ही विपरीत पड़ जायेगा।

शरीर दुर्बल हो तो बीमारियों, रोग और शोकों के प्रकोप चढ़ बैठेंगे। मनुष्य का धूर्त अंश बहुत पहले से दुर्बल व्यक्तियों को सताता रहा है। प्रकृति भी निर्बलों को ही सताती है। थोड़ी गर्मी तेज हुई कि वह असह्य हुई। शीत का प्रकोप बढ़ा कि जुकाम, खाँसी आदि दौड़ पड़े। शारीरिक दुर्बलता की स्थिति में इन्द्र के भोग भी सुख नहीं दे सकते। स्वादिष्ट भोजन तो क्या साधारण आहार भी पचाना कठिन हो जाता है। न भोग और साँसारिक सुख, न सामाजिक प्रतिष्ठा। निर्बल शरीर वालों की तो सर्वत्र उपेक्षा और दुर्दशा ही होती है।

साधना का एक उद्देश्य है, शारीरिक शक्ति को जागृत करना। यह भी आध्यात्म का ही एक अंग है। शास्त्रों में बताया है कि “दुर्बल शरीर वालों के लिए तो दैव भी घातक होता है।” अतः आत्म-कल्याण के प्रत्येक इच्छुक की पहली साधना शरीर को स्वस्थ बनाने की करनी चाहिये।

प्राचीन काल में विद्यालयों में शारीरिक-शिक्षा का पर्याप्त स्थान था। आसन, प्राणायाम, व्यायाम, आहार, उपवास आदि उन सभी साधनों का प्रयोग किया जाता था, जिनसे लोगों का स्वास्थ्य सशक्त और जीवन्त बना रहता था। मुग्दर भाँजना, भाले फेंकना, तलवार चलाना, दौड़, कुश्ती, कसरत, यात्रायें आदि चलती रहती थीं। इन सबका मूल उद्देश्य यही होता था कि लोगों के स्वास्थ्य कमजोर न पड़ने पावें। स्वास्थ्य को लौकिक तथा पारलौकिक जीवन का प्रमुख आधार समझा जाता था अतः उसकी ओर पर्याप्त ध्यान रखना आवश्यक भी था।

यह आवश्यकता आज पहले से भी अधिक है। उस समय वातावरण दूषित नहीं था अतः सामान्य नियमों का पालन करते हुए भी लोग स्वस्थ बने रहते थे, पर आज की स्थिति बिलकुल भिन्न है। नियमित जीवन बिताने वाला व्यक्ति भी आज बीमार पड़ सकता है क्योंकि आज का वातावरण बड़ा दूषित, अशान्त, कोलाहलपूर्ण तथा रेडियोधर्मी धूल से विकृत हो रहा है। ऐसी स्थिति में स्वास्थ्य को गम्भीर खतरा उत्पन्न हो रहा है। इस युग में स्वास्थ्य के साधनों पर पर्याप्त ध्यान न रखा जाय तो मनुष्य का इसी एक समस्या से ही छुटकारा पाना कठिन हो जायगा, जैसा कि इन दिनों स्पष्ट देखने में आता है।

आन्तरिक शक्तियों के विकास में असुविधा न पड़े, इसके लिए आपका स्वस्थ रहना अत्यावश्यक है। अतः उन सभी प्रवृत्तियों को चलाना, जिनसे मनुष्य का आरोग्य स्थिर रह सके, आवश्यक है। इन्हें भी साधना का एक उपयोगी अंग मानना चाहिए।

आध्यात्मिक साधना का दूसरा क्षेत्र है- प्राण। यह प्राण शरीर के कण-कण में व्याप्त होकर जड़ देह को गतिमान करता है। निष्प्राण शरीर किसी काम का नहीं होता। उसी प्रकार शरीर के प्राण की विकृति से भी अनेकों रोग-शोक उत्पन्न हो जाते हैं। प्राण का महत्व इससे भी अधिक है। आत्म-साक्षात्कार की गतिविधियाँ प्राण के महत्वपूर्ण नियंत्रण पर आधारित हैं, इसलिए प्राण-तत्व की जानकारी भी जीवन-विकास का परम उपयोगी अंग हो जाती है।

शरीर की दशा में प्राण का नियंत्रण और उससे होने वाली शारीरिक क्रियाओं का विशद् विज्ञान है। उस सब की चर्चा की जाय तो एक बड़ा ग्रन्थ बन सकता है। प्राण की शक्ति अलौकिक है और उसका जागरण प्राणायाम द्वारा किया जाता है, यहाँ इतना ही जान लेना पर्याप्त है।

शक्ति का दूसरा आधार है-प्राण। प्राण- प्राणायाम द्वारा भी मिलता है, अन्न-जल आदि से भी उपलब्ध होता। विचार के माध्यम से भी प्राण धारण करते हैं, दूसरे प्राणवान व्यक्ति अनुदान में भी प्राण दे सकते हैं। दूसरे दें या नहीं, स्वयं की शक्ति का अभिवर्द्धन कर उससे आत्म-कल्याण का मार्ग प्रशस्त करना हो तो प्राण की साधना भी आवश्यक होगी। प्राण जीवन की बड़ी शक्ति है। इसके बिना आत्म-विकास संभव नहीं।

शरीर और प्राण से भी वृहत्तर शक्ति एक और है, वह है- मन की शक्ति । मन समस्त इन्द्रियों से सूक्ष्म और प्रचंड शक्ति वाला माना गया है। मनुष्य जीवन की सम्पूर्ण गतिविधियों का आधार मन है। मन चाहे तो मनुष्य देवता बन जाय, गिरना शुरू कर दे तो वह अत्यन्त निकृष्ट कोटि का व्यक्ति बन जाय।

जप, तप, स्वाध्याय, साधना आदि सम्पूर्ण क्रियाओं का स्वामी मन है। मन की प्रचंड हुँकार से देवासन हिल जाते हैं, राष्ट्र बदल जाते हैं, व्यक्ति का कायाकल्प हो जाता है। जागृत मन मनुष्य को परमात्मा की शक्ति वाला बना देता है।

साधना का मूल्य उद्देश्य भी मानसिक शक्तियों के प्रवाह को रोककर उसे कल्याणकारी मार्ग में लगाना ही है। अतः यह समझ लेना चाहिये कि मनोनिग्रह जीवन निर्माण की प्रमुख शर्त है। हमारे कल्याण के लिए मन की शक्तियों का विकास होना ही चाहिये। उसे स्वाध्याय, सत्संग और चिन्तन आदि के माध्यम से ऊर्ध्वगामी होना ही चाहिये। मन सुधर जाय तो जीवन सुधर जाय। मन बदल जाय तो जीवन की दिशा बदल जाय। शास्त्रों में तो यहाँ तक कहा है कि बन्धन और मोक्ष का कारण भी मन ही है।

इतनी बड़ी शक्ति को उपेक्षित कर आत्म-कल्याण कहाँ संभव है? मन को दुर्गुणों से बचाकर उसे सन्मार्गगामी बना सकें, तो समझना चाहिये कि आज नहीं तो कल अपना मनोबल बढ़ने ही वाला है और उससे आत्म-कल्याण का मार्ग भी खुलने ही वाला है।

मनुष्य का शरीर शक्तियों का अपूर्व भाण्डागार है। शास्त्रकार ने तो यहाँ तक कहा- “यत् ब्रह्माण्डे तत् पिण्डे” जो कुछ इस ब्रह्माण्ड में है वह सब इस शरीर में है। सूर्य की अजस्र उष्णता और अलौकिक प्रकाश, चन्द्रमा की शीतलता, शून्य की विशालता, मेघों की क्षमता, लोक-लोकान्तरों से प्रस्फुटित होने वाले अनन्त रहस्यों का केन्द्र है यह मनुष्य शरीर। संभवतः समस्त सृष्टि में इतनी सर्वांगपूर्ण वस्तु अन्य नहीं, जितना कि यह मनुष्य की देह है। अजब विलक्षणता भरी है परमात्मा ने इसमें। उन सम्पूर्ण शक्तियों का स्वामित्व मनुष्य को मिल जाय तो वह देवता बन जाय, भगवान बन जाय।

इतना उपयोगी उपकरण होते हुये भी लोग अभाव का जीवन, क्षुद्र जीवन, कीट पतंगों जैसा शिश्नोदर परायण जीवन जीते हैं। इससे अधिक और कुछ विशेषता उनमें दिखाई नहीं देती। यह आश्चर्य की बात है। इसका एक मात्र कारण मनुष्य की अज्ञानता है। पिता की गाड़ी हुई रकम घर में ही हो पर बेटे को उसका ज्ञान न हो, तो वह धन उसके किस काम का? मनुष्य की स्थिति भी ऐसी ही है। परमात्मा ने मनुष्य को अनन्त अनुदान दिये हैं। शरीर रूपी तिजोरी में चक्रों, ग्रन्थियों, उपत्यिकाओं एवं नाड़ी-गुच्छकों आदि के रूप में ऐसे महत्वपूर्ण हीरे, जवाहरात भर कर दिये हैं कि वे मनुष्य को मिल जायें तो वह श्रीसम्पन्न हो जाय, मालामाल हो जाय। मनुष्य उन शक्तियों को प्राप्त कर धन्य हो सकता है।


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