हम यह करने को कटिबद्ध हों।

December 1965

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विचार-क्रान्ति एवं भावनात्मक पुनरुत्थान पर यह निर्भर है कि जनता की गतिविधियों में आवश्यक परिष्कार उत्पन्न हो। इस परिष्कार से ही राष्ट्र को सर्वांगीण समर्थता एवं सशक्तता उपलब्ध होगी। विचार कार्यों का मूल है। विचार का बीज ही कार्य रूप में परिणत होता है। उत्तम मार्ग पर वही चल सकता है, जिसके विचार ऊँचे हों। हमें जन-मानस में उत्कृष्ट विचारों का बीजारोपण करना होगा, ताकि वे उगें, पल्लवित हों और अपनी हरियाली से इस उद्यान को सुशोभित कर सकें। कुविचारों और कुसंस्कारों का मवाद जब तक हमारे विचारों और भावनाओं में भरा रहेगा, तब तक कष्टकर स्थिति बनी ही रहेगी। इस मवाद को हटाने पर ही घाव पुरेंगे। हमारे सड़े-गले विचार जब हटेंगे, तब सशक्तता उत्पन्न करने वाली परिस्थितियाँ विकसित होंगी। वर्तमान काल की आवश्यकता जन-मानस में भरी हुई सडांद हटाने की है। भावनात्मक दृष्टि से परिष्कृत व्यक्तियों के व्यक्तित्व से ही तो समाज एवं राष्ट्र बलवान् एवं सम्पन्न हो सकता है। विचार-क्रान्ति इस युग की वर्तमान काल की सबसे बड़ी आवश्यकता है। इस आवश्यकता की पूर्ति के लिये, प्रत्येक प्रबुद्ध व्यक्ति के लिये प्राणपण से जुट जाना ही कर्तव्य है।

हमारे सामने (1) अनैतिकता, (2) अनागरिकता, (3) दुर्व्यसन एवं (4) सामाजिक कुरीतियों के उन्मूलन का चतुर्विध विशाल कार्यक्रम फैला पड़ा है। बेईमानी, अपराध, अन्याय, उद्दण्डता जैसे अनैतिक कार्यों द्वारा आलस्य, फूहड़पन, अव्यवस्था, वचन न पालना जैसे अनागरिक स्वभावों द्वारा, नशेबाजी, फैशन परस्ती, शेखीखोरी, नाच रंग जैसे दुर्व्यसनों द्वारा, विवाहोन्माद, नारी तिरस्कार, ऊँच-नीच जैसी सामाजिक अन्ध परम्पराओं द्वारा आज राष्ट्र बुरी तरह जर्जरित हो रहा है। इन चार दुष्प्रवृत्तियों में जितनी शक्ति कुण्ठित एवं नष्ट होती है, उसे यदि बचाया और उपयुक्त मार्ग में लगाया जा सके तो भारतीय समाज का कायाकल्प ही हो सकता है। जो प्रगति दूसरे देशों ने 100 वर्षों में की है, वह हम अपनी दार्शनिक महान् परम्पराओं एवं भारत माता के अतुलित साधनों द्वारा 25 वर्ष के भीतर ही ऐसे अच्छे ढंग से कर सकते हैं कि संसार में फिर अपना स्थान ‘जगद्गुरु’ का हो जाय।

उपरोक्त चार मोर्चों पर जूझने के लिये हमें, (1) प्रचार, (2) संगठन (3) एवं आन्दोलन के त्रिविधि आयुधों का उपयोग करना होगा। लड़ाई में- वायुयानों, जलयानों एवं पैदल सैनिकों की आवश्यकता पड़ती है, उसी प्रकार नव-निर्माण के लिए यह त्रिविधि साधन अनिवार्य रूप से अभीष्ट होंगे। जो लोग विचारक्रान्ति के, भावनात्मक पुनरुत्थान के महान् अभियान को सफल बनाना चाहते हैं, उन्हें इन त्रिविध कार्यक्रमों को अपनाने, परिपुष्ट करने एवं बढ़ाने के लिये कटिबद्ध होना ही होगा। नव-निर्माण अभियान में सम्मिलित होने के लिये जिन प्रबुद्ध आत्माओं का आह्वान किया गया है, उन्हें इस त्रिविध आधार पर विनिर्मित शतसूत्री योजना द्वारा युग-निर्माण के लिये अपने समय दान का प्रयोग करना होगा।

स्वार्थपरता एवं संकीर्णता के विचारों को उखाड़ कर उनके स्थान पर सर्वोपयोगी गतिविधियाँ अपनाने की विचार-क्रान्ति तभी सम्भव है, जब इन आदर्शों के उपयुक्त परिपक्व एवं प्रौढ़ विचार जन-साधारण को अधिकाधिक मात्रा में मिलें। इसके लिए लेखनी और वाणी, दोनों ही माध्यम पूरी तरह अपनाने होंगे। पढ़-लिख सकने वाले लोगों तक उपर्युक्त उद्देश्य की पूर्ति करने वाला साहित्य पहुँचाना होगा और बिना पढ़े लोगों को वे ही बातें सुनानी पड़ेंगी। यह कार्य व्यक्तिगत एवं सामूहिक दोनों ही प्रकार से करना होगा। अपने संपर्क में जितने भी लोग हों, उन्हें प्रेरणाप्रद- प्रकाशवान् विचार देने के लिये संपर्क बनाने में तेजी लानी होगी। अपने परिचितों के पास जायें, उन्हें आवश्यक साहित्य पढ़ने को दें, चर्चा करें और विचार विनिमय द्वारा उनकी मनोभूमि में आवश्यक परिवर्तन प्रस्तुत करें। यह व्यक्तिगत संपर्क की कार्य-पद्धति है।

सामूहिक प्रचार के लिए छोटी-बड़ी गोष्ठियों एवं उत्सव, आयोजनों, समारोहों का प्रबन्ध करना होगा। समय-समय पर लोग किसी न किसी निमित्त से एकत्रित किये जायें और निर्धारित लक्ष्य के अनुरूप भावनाएं उत्पन्न करने वाले प्रवचन प्रस्तुत करके भावनात्मक परिष्कार का प्रयोजन पूरा किया जाय। धार्मिक आधार पर इन प्रयोजनों की पूर्ति- (1) गीता के सप्ताह आयोजनों, (2) रामायण की व्याख्या में प्रस्तुत किये गये प्रवचनों, (3) सत्यनारायण कथा की छोटी गोष्ठियों, (4) परिवारों के प्रशिक्षण के लिए आयोजित सोलह संस्कारों, (5) पर्व-त्यौहारों के अवसर पर किए गए सामूहिक उत्सवों, (6) गायत्री यज्ञों के माध्यम से आमन्त्रित समारोहों में, यदि उपयुक्त प्रवचनों की व्यवस्था रहे, तो भारत की धर्म-प्रिय जनता सहज ही विचार-क्रान्ति के उपयुक्त प्रकाश प्राप्त कर सकती है। इनके अतिरिक्त भी जो कार्य सामूहिक प्रचार के लिए सम्भव हों, वे अपनाने चाहिए। हममें से हर एक का कर्तव्य है- इस प्रकार के व्यक्तिगत एवं सामूहिक प्रचार साधनों को करने और कराने में पूरी-पूरी दिलचस्पी लें और उन्हें अधिकाधिक प्रभावशाली बनाने के लिए साधन जुटाते रहें।

एक विचार के, एक उद्देश्य एवं एक लक्ष्य के लोगों का संगठन आश्चर्यजनक कार्य कर सकता है। इस युग की सबसे बड़ी शक्ति संगठन ही है। युग-परिवर्तन जैसे महान् अभियान तो संगठन की शक्ति पर ही सफल बनाये जा सकते हैं, इसलिए हमें उन लोगों को ढूँढ़ना और संगठित करना चाहिए, जो नव-निर्माण के उद्देश्य, आदर्श एवं कार्यक्रमों में आस्था रखते हों। ऐसे लोगों में अखण्ड-ज्योति परिवार के सदस्यों को अग्रणी माना जा सकता है। विगत 25 वर्षों से उन्हें यही शिक्षण मिलता रहा है। धर्म और अध्यात्म के नाम पर चलने वाली विडम्बना से घृणा करने और वास्तविकता को अपनाने का साहस और विवेक उनमें जागृत हुआ है। साथ ही कुछ काम करने के लिये भी निरन्तर प्रेरणा भरी जाती रही है, इसलिये वे दूसरों की तरह बातूनी न होकर कार्य संलग्न भी रहते हैं। इन लोगों को सुसंगठित किया जा सके तो उस शक्ति का भी चमत्कार प्रस्तुत किया जा सकता है। यों इस क्षेत्र को विस्तृत करके देश-व्यापी ही नहीं, विश्व-व्यापी भी बनाना है। जो भी इस प्रकृति एवं प्रवृत्ति के व्यक्ति मिलें उन सबको एक सूत्र में संगठित करना है, पर अभी तात्कालिक आरम्भ अखण्ड-ज्योति के सदस्यों से किया जा सकता है।

जहाँ कहीं भी- जितने भी अखण्ड-ज्योति के सदस्य हों, उन सबको एक शाखा संगठन के रूप में संगठित हो जाना चाहिए। संगठन की एक पाँच व्यक्तियों की संचालन समिति बनाली जाय और वह यह प्रयत्न करती रहे कि वर्तमान सदस्यों का मिलन एवं विचार विनिमय नियमित एवं क्रमबद्ध रूप से चलते रहने की व्यवस्था बन जाय। जन्म दिन मनाने की प्रथा इस कार्य में आश्चर्यजनक रूप से सहायक होती है। जिसका जब जन्मदिन हो, तब उसके यहाँ सब परिजन एकत्रित हों, हवन, प्रवचन के अतिरिक्त पारस्परिक आत्मीयता सुदृढ़ करें। इसके अतिरिक्त समय-समय पर होती रहने वाली गोष्ठियों में निरन्तर यह विचार किया जाता रहे कि उस क्षेत्र में जन-जागरण उत्पन्न कर सकने वाली क्या प्रवृत्तियाँ चलाई जा सकती हैं। शतसूत्री कार्यक्रमों में से जहाँ जो सम्भव हो, वहाँ वह तुरन्त ही आरम्भ कर दिया जाना चाहिए। संगठन का क्षेत्र दिन-दिन अधिक विस्तृत एवं व्यापक बनाने का प्रयत्न पूरे उत्साह एवं धैर्य के साथ चलाते रहना चाहिये। इस प्रकार जो संघ शक्ति विकसित होगी, उसके द्वारा अभीष्ट लक्ष्य प्राप्त कर सकने में कोई सन्देह न रह जायगा।

आन्दोलनात्मक रचनात्मक कार्यों में अनेक ऐसे हैं, जिन्हें अविलम्ब हर जगह आरम्भ कर देना चाहिए। नव-निर्माण की प्रेरणा भरने वाला एक पुस्तकालय हर जगह स्थापित हो जाना चाहिए। इसमें कूड़ा-करकट बिल्कुल भी न हो, केवल चुनी हुई वे पुस्तकें हों, जो पढ़ने वाले के मस्तिष्क एवं हृदय को नव-निर्माण के लिए आवश्यक प्रेरणा एवं प्रकाश प्रदान कर सकें। पुस्तकें एवं पत्र-पत्रिकाएं मँगाने के लिए सदस्यगण आपस में मासिक चन्दा इकट्ठा कर लें। एक जगह पुस्तकें जमा कर देने से भी कोई प्रयोजन सिद्ध न होगा। सदस्यगण उन्हें लोगों के घरों पर पहुँचाने और वापिस लाने का भी काम करें। पुस्तकें जमा न रहकर उस क्षेत्र में घूमती ही रहें तो समझना चाहिये कि पुस्तकालय की स्थापना सफल हो गई।

इस युग के देव-मन्दिर, सरस्वती-सदन, गायत्री-देवालय, सद्विचारों से परिपूर्ण पुस्तकालय ही हो सकते हैं। जहाँ इनकी स्थापना हो जाय, समझना चाहिए कि वहाँ का शाखा-संगठन सजीव एवं जागृत है। जहाँ इतना भी न हो सके, समझना चाहिए लोग उथले मन से लकीर पीटने मात्र की चिन्ह पूजा कर रहे हैं। युग निर्माण शाखाओं के लिये यह लज्जा की बात होगी कि वे ऐसा एक पुस्तकालय भी स्थापित एवं संचालित न कर सकें। उस अभाव की पूर्ति तत्काल कर ली जानी चाहिये। विचार-क्रान्ति के उद्गम स्त्रोत यह युग-निर्माण पुस्तकालय ही होंगे। हमारा रचनात्मक आन्दोलन- युग-निर्माण पुस्तकालय आन्दोलन से ही आरम्भ होना चाहिए।

प्रौढ़ पाठशालाओं और व्यायामशालाओं की स्थापना भी ऐसे रचनात्मक कार्य है, जिनका ताना-बाना हर जगह बुना जाना चाहिये। साक्षरता- राष्ट्रीय जागरण का आवश्यक अंग है। देश में एक भी निरक्षर न रहने पावे, इस लक्ष्य की पूर्ति के लिये प्रौढ़ पुरुषों और महिलाओं के लिये उनकी सुविधा के समय पर पाठशालायें चलाई जानी चाहिये। व्यायाम का प्रचार घर-घर किया जाय। मुहल्ले-मुहल्ले और गाँव-गाँव व्यायामशालायें खुलें। खेल-कूदों की प्रतियोगिताएं होती रहें। लाठी, तलवार जैसे अस्त्र-शस्त्रों का चलाना सिखाया जाय। पुस्तकालयों के अतिरिक्त जहाँ सम्भव हो सके, प्रौढ़ पाठशालाएं एवं व्यायामशालाएं स्थापित करने को भी पूरी दिलचस्पी के साथ प्रयत्न किया जाय।

दीवारों पर आदर्श वाक्य लिख कर नगर को एक बोलती पुस्तक बनाना, दोहा, अंताक्षरी, खेल-कूद, भाषण, कला-कौशल, पशु पालन, स्वच्छता आदि की प्रतियोगिता, प्रदर्शनी जैसे आयोजन जब-तब होते रह सकते हैं। संगीत, भजनों के प्रेरणाप्रद आयोजन चलते रहें। घरों में कथा-कहानियों द्वारा पारिवारिक शिक्षण होते रहें। टोलियाँ बना कर सदस्यगण लोगों के पास जन-संपर्क के लिये जाया करें और उन्हें सामाजिक कुरीतियों, दुष्प्रवृत्तियों, अनैतिकताओं एवं व्यसनों की हानियों को समझा कर उनके परित्याग का साहस उत्पन्न किया करें, तो यह टोलियाँ अपने क्षेत्र में बहुत बड़ा काम कर सकती हैं और सोये हुए इलाके नये सिरे से नव-जीवन एवं नव-जागरण कर नव-प्रकाश उपलब्ध कर सकते हैं।

आजकल सप्ताह में एक समय अन्नाहार न करने एवं आध्यात्मिक आधार पर राष्ट्र में सर्वांगीण समर्थता उत्पन्न करने के लिये ‘क्लीं’ बीजयुक्त गायत्री महामन्त्र का जो शक्ति पुरश्चरण चल रहा है, उसमें कम से कम एक माला जप करने का नियम लेकर भागीदार बनने की प्रेरणा की जा सकती है। सुरक्षा कार्यों में धन, रक्त , सैनिक देने तथा नागरिक रक्षा दलों की स्थापना करने जैसे कार्य भी बढ़ाये जा सकते हैं। करने के लिये अगणित काम पड़े हैं। युग-निर्माण योजना के शतसूत्री कार्यक्रमों में से जहाँ जो संभव हो सके, उन्हें करना एवं कराना चाहिये। रचनात्मक आन्दोलन द्वारा ही जन-मानस पर यह छाप डाली जा सकती है कि यह प्रवृत्तियाँ अब चल पड़ें। लोग चलते हुए ढर्रे में सम्मिलित होते रहते हैं। सुनने का नहीं, देखने का ठोस प्रभाव पड़ता है। जो कार्य हमें जनता से कराने हैं, वे उसकी आँखों के आगे होने लगें, उसे दीखने लगें, यह व्यवस्था करना ही रचनात्मक आन्दोलन का मूल प्रयोजन है। दृश्य-प्रेरणा से ही परिवर्तन की ठोस नींव रखी जा सकती है। इसलिये रचनात्मक आन्दोलन की व्यवस्था जहाँ कहीं भी संगठन स्थापित हो चुके हैं, वहाँ आरम्भ कर दी जानी चाहिये।

नव-निर्माण के लिये हम में से हर एक को कुछ करना है। जिनकी आत्मा में जितना धर्म-तत्व जागृत हो चुका है, उन्हें उतना ही अधिक करना है। कर्तव्य ही वास्तविकता की कसौटी है। आज देश, धर्म, समाज एवं संस्कृति की पुनरुत्थान वेला प्रस्तुत है, इसमें अपना योगदान देने के लिये हमें हर बहाने और हर कारण को ठुकराते हुए, योगदान देने के लिये कटिबद्ध होना ही चाहिए। चतुर्विधि मोर्चे को जीतने के लिये प्रचार संगठन एवं आन्दोलन के त्रिविध शस्त्र हमें संभालने ही चाहिए।


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