स्वार्थ ही नहीं परमार्थ को भी साधें

September 1962

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“मेरा जीवन स्वार्थ के लिए नहीं परमार्थ के लिए होगा। संसार में सत्प्रयत्नों के पुण्य प्रचार के लिए अपने समय, प्रभाव, ज्ञान, पुरुषार्थ एवं धन का एक अंश नियमित रूप से लगाता रहूँगा।”

भगवान ने मनुष्य को इतनी सारी सुविधाऐं, विशेषताऐं इसलिए नहीं दी हैं कि वह उनसे स्वयं ही मौज−मजा करे और अपनी काम−वासनाओं की आग के भड़कने और फिर उन्हें बुझाने के गोरखधंधे में लगा रहे। यदि मौज मजा करने के लिए ही ईश्वर ने मनुष्य को इतनी सुविधाऐं दी होतीं और अन्य प्राणियों को अकारण इससे वंचित रखा होता तो निश्चय ही वह पक्षपाती ठहरता। अन्य जीवों के साथ अनुदारता और मनुष्य के साथ उदारता बरतने का अन्याय भला वह परमात्मा क्यों करेगा, जो निष्पक्ष, जगत पिता, समदर्शी और न्यायकारी के नाम से प्रसिद्ध है।

मनुष्य की उपलब्ध विभूतियाँ

अन्य प्राणियों की अपेक्षा मनुष्य को जो कुछ बुद्धि, प्रतिभा, योग्यता, भावना, वाणी, विद्या, चतुरता, सम्पत्ति कला, सौन्दर्य, विज्ञान, सत्ता आदि विभूतियों का वरदान मिला है, वह एक प्रकार की सार्वजनिक अमानत है। राज्यकोष की चाबी खजानची के पास रहती है, इसका अर्थ यह नहीं कि वह खजाना उसके व्यक्तिगत उपयोग के लिए है। फौजी गोला, बारूद और सेना को आज्ञा देने का अधिकार सेनाध्यक्ष के हाथ में रहता है पर इसका अर्थ यह नहीं कि इन सब चीजों का उपयोग वह अपने लाभ के लिए करने लगे। सिक्का ढालने वाले, नोट छापने वाले कर्मचारी अपने निज के लिए यह ढलाई या छपाई करने लगें तो क्या उचित कहा जायेगा? सरकारी राजकाज चलाने के लिए बड़े−बड़े अफसर अधिकारी नियुक्त रहते हैं। उनको सत्ता प्रदान की जाती है उनका उपयोग उन्हें राजकाज के लिए ही करना पड़ता है, अपने निज के लिए तो वे सिर्फ उतना ही खर्च कर सकते हैं जितना उन्हें वेतन मिलता है। मनुष्य भी परमात्मा का जेष्ठ पुत्र होने के कारण एक प्रकार से युवराज, मन्त्री, खजानची, सेनाध्यक्ष, अफसर जैसे पद पर नियुक्त हुआ है। उसे अन्य प्राणियों की तुलना में जो कुछ अधिक मिला है वह सब ईश्वरीय प्रयोजनों को पूर्ण करने के लिए है।

राजा अपने हाथ में रहने वाली सत्ता का ठीक तरह से संचालन करने के लिए जिस प्रकार अपना मंत्रिमंडल नियुक्त कर लेता है मनुष्य की नियुक्ति इसी प्रकार हुई है। निजी खर्च के लिए तो उसको उतना ही वेतन मिला है जितना अन्य प्राणियों को। साम्यवादी देशों की सरकारें अपने कर्मचारियों के वेतन में उनकी योग्यता के अनुरूप थोड़ा अन्तर तो रखती हैं पर वह अन्तर होता बहुत ही स्वल्प है। अन्य प्राणी आहार, विश्राम आदि की उतनी ही सुविधा पाते हैं जितनी प्रकृति उन्हें देती है। मनुष्य स्वादिष्ट व्यंजन, सर्दी−गर्मी निवारण करने के लिए वस्त्र, सुविधाजनक मकान, वाणी, लेखन, अग्निवाहन, अस्त्र−शस्त्र, वैज्ञानिक उपकरण, संगठित समाज, शासन तंत्र आदि की विशेष सुविधाऐं भी प्राप्त करत है यह उसका विशेष वेतन है। इतना प्राप्त करके उसे सन्तुष्ट और प्रसन्न रहना चाहिए क्योंकि अन्य प्राणियों की तुलना में यह वेतन भत्ता बहुत अधिक है।

मानव जीवन की आवश्यक जिम्मेदारी

जीवनोपयोगी अनिवार्य सुविधाऐं उपार्जित करने के बाद मनुष्य को अपनी शेष शक्ति और प्रतिभा का उपयोग जनकल्याण के लिए, लोकहित के लिए, सद्भावनाओं की अभिवृद्धि के लिए करना चाहिए। यही उसकी ड्यूटी और नौकरी है। जो इसे पूरी नहीं करता वह एक प्रकार का अपराधी माना जायेगा और कर्तव्य-पालन की उपेक्षा करने का दंड प्राप्त करेगा। राज कर्मचारियों पर कोई निजी कारोबार न करने का प्रतिबंध रहता है। कारण यह है कि सरकार जानती है कि जीवन निर्वाह के लिए दिये जाने वाले वेतन पर संतुष्ट न रह कर यदि कर्मचारी अधिक उपार्जन के लालच में पड़ा रहेगा तो सरकारी काम की उपेक्षा करेगा इसलिए उसे सचेत कर दिया जाता है कि नियत घंटे तो सरकारी ड्यूटी में लगावे ही, साथ ही बचे हुए घंटे अपनी योग्यता शक्ति और प्रसन्नता बढ़ाने में लगावे ताकि ड्यूटी के काम पूरे करने में कोई विघ्न उत्पन्न न हो। इस प्रतिबंध का उल्लंघन करके निजी सुख साधनों को जुटाने और निजी मौज−मजा करने में यदि कोई कर्मचारी लगा रहने लगे और सरकारी ड्यूटी को तिलाँजलि दे दे तो उसे राजा का कोपभाजन बनना पड़ेगा और अपराध का दंड भी मिलेगा। ईश्वरीय उद्देश्यों को पूर्ण करने में अपनी शक्ति और क्षमता लगाने के लिए गर्भकाल में ही जिससे इकरार नामा लिखा लिया जाता है वह मनुष्य यदि अवसर आने पर धोखा दे, उपलब्धि क्षमताओं को समाज हित की अपेक्षा स्वार्थ साधन में लगाने लगे तो उसका यह कार्य अनुचित भी माना जायेगा और अपराध भी।

खुदगर्जी में ही न लिपटे रहें

युग−निर्माण संकल्प में इस अत्यन्त आवश्यक कर्तव्य की ओर ध्यान आकर्षित किया गया है कि मनुष्य का जीवन स्वार्थ के लिए नहीं, परमार्थ के लिए है। शास्त्रों में अपनी कमाई को आप ही खा जाने वाले को चोर माना गया है। सौ हाथों से कमाने और हजार हाथों से दान करने की नीति पर चलने की प्रवृत्ति हर किसी को अपनानी चाहिए। जो मिला है उसे बाँट कर खाना चाहिए। मनुष्य को जो कुछ अन्य प्राणियों के अतिरिक्त मिला हुआ है वह उसका अपना निज का उपार्जन नहीं, वरन् सृष्टि के आदि से लेकर अब तक के श्रेष्ठ सत्पुरुषों के श्रम और त्याग का फल है। यदि ऐसा न हुआ होता तो मनुष्य भी एक दुर्बल वन्य पशु की तरह रीछ बन्दरों की तरह अपने दिन काट रहा होता। त्याग और उपकार की पुण्य प्रक्रिया का नाम ही धर्म, संस्कृति एवं मानवता है। उसी के आधार पर प्रगति पथ पर इतना आगे बढ़ आना संभव हुआ है। यदि इस पुण्य प्रक्रिया को तोड़ दिया जाय, मनुष्य केवल अपने मतलब की ही बात सोचने और उसी में लगे रहने की नीति अपनाने लगे, तो निश्चय ही मानवीय संस्कृति नष्ट हो जायगी और ईश्वरीय आदेश के उल्लंघन के फलस्वरूप जो विकृति उत्पन्न होगी उससे समस्त विश्व को भारी त्रास सहन करना पड़ेगा। परमार्थ की उपेक्षा करना अपने पैरों आप कुल्हाड़ी मारना है। शान्ति और समृद्धि की आधारशिला के रूप में जो परमार्थ मानव जाति की अन्तरात्मा बना चला आ रहा है उसे नष्ट−भ्रष्ट कर डालना, स्वार्थी बन कर जीना निश्चय ही सबसे बड़ी मूर्खता है। इस मूर्खता को अपना कर हम सर्वतोमुखी आपत्तियों को ही आमंत्रण देते हैं और उलझनों के दलदल में आज की तरह ही दिन−दिन गहरे घुसते चले जाते हैं।

सत्प्रवृत्तियों की महत्ता

संसार में जितना भी कुछ सत्कार्य बन पड़ रहा है उस सब के मूल में सत्प्रवृत्तियाँ ही काम करती हैं। लहलहाती खेती तभी देखी जा सकती है जब बीज का अस्तित्व मौजूद हो। बीज के बिना पौधा कहाँ से उगेगा? भले या बुरे कार्य अनायास ही नहीं उपज पड़ते, उनके मूल में सद्विचारों और कुविचारों की जड़ जमी होती है। समय पाकर बीज जिस प्रकार अँकुरित होता और फलता−फूलता है उसी प्रकार सत्प्रवृत्तियाँ ही अगणित प्रकार के पुण्य परमार्थों के रूप में विकसित एवं परिलक्षित होती हैं। जिस शुष्क हृदय में सद्भावनाओं के लिए—सद्विचारों के लिए कोई स्थान नहीं मिला उसके द्वारा जीवन में कोई श्रेष्ठ कार्य बन पड़े यह लगभग असंभव ही मानना चाहिए। जिन लोगों ने कोई सत्कर्म किये हैं, आदर्श का अनुसरण किया है उनमें से प्रत्येक को उससे पूर्व अपनी पाशविक वृत्तियों पर नियन्त्रण कर सकने योग्य सद्विचारों का लाभ किसी न किसी प्रकार मिल चुका होता। कुकर्मी और दुर्बुद्धि मनुष्यों को इस घृणित स्थिति में पड़े रखने की जिम्मेदारी उनकी उस भूल पर है जिसके कारण कि सद्विचारों की आवश्यकता और उपयोगिता को समझने से वंचित रहे, जीवन के इस सर्वोपरि लाभ की उपेक्षा करते रहे, उसे व्यर्थ मानकर उससे बचते और कतराते रहे। मूलतः मनुष्य एक प्रकार का काला कुरूप लोहा मात्र है सद्विचारों का पारस छूकर ही वह सोना बनता है। एक नगण्य तुच्छ प्राणी को मानवता के महान गौरव से गौरवान्वित कर जिसे यह सौभाग्य नहीं मिल सका वह बेचारा भला क्यों कर अपने जीवन-लक्ष को समझ सकेगा? और क्योंकर उसके लिए कुछ प्रयत्न पुरुषार्थ कर सकेगा?

सर्वोत्तम परमार्थ

इस संसार में अनेकों परमार्थ और उपकार के कार्य हैं। वे सब आवरण मात्र हैं उनकी आत्मा में, सद्भावनायें सन्निहित है। सद्भावना रहित सत्कर्म भी केवल ढोंग मात्र बन कर रह जाते हैं। अनेकों व्यक्ति और अनेकों संस्थाऐं आज परमार्थ का आडम्बर ओढ़कर सिंह की खाल ओढ़ कर फिरने वाले शृगाल का उपहासास्पद उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हैं। उससे लाभ किसी का कुछ नहीं होता, विडम्बना बढ़ती है और परमार्थ को भी लोग आशंका एवं संदेह की दृष्टि से देखने लगते हैं। प्राण रहित शरीर कितने ही सुन्दर वस्त्र धारण किये हुए क्यों न हो, उसे कोई पसंद न करेगा, न उससे किसी का कोई भला होगा। इसी प्रकार सद्भावना रहित जो कुछ भी लोकहित, जनसेवा नाम के प्रयास किये जायेंगे वे भलाई नहीं, बुराई ही उत्पन्न करेंगे। इसलिए यदि संसार में सच्चे परमार्थ का स्वर्गीय वातावरण देखने की इच्छा हो तो सद्भावनाओं का वातावरण उत्पन्न करना चाहिए। पत्तों को नहीं जड़ को सींचना चाहिए।

बुराइयाँ कैसे मिटेंगी

बुराइयाँ आज संसार में इसलिए बढ़ और फल−फूल रही हैं कि उनका अपने आचरण द्वारा प्रचार करने वाले सच्चे प्रचारक पूरी−तरह मन, कर्म, वचन से बुराई करने और फैलाने वाले लोग बहुसंख्यक मौजूद हैं। अच्छाइयाँ आज इसलिए घट रही हैं कि उनका ढोल बजाने वाले लोग तो कहीं−कहीं मिलते भी हैं पर अपने कार्यों द्वारा निष्ठात्मक करने वाले लोग दृष्टिगोचर नहीं होते। एक शराबी बीसियों अपने शराबी मित्र और तैयार कर लेता है, एक वेश्या अनेकों व्यभिचारियों का सृजन कर लेती है, एक जुआरी दस नये जुआरी बढ़ा देता है। क्योंकि इन लोगों की शराब, व्यभिचार और जुआ पर पूरी निष्ठा है वे उसका प्रचार अपनी वाणी से ही नहीं क्रिया से भी करते हैं। निष्ठा में सदा शक्ति भरी रहती है। वह भली हो या बुरी अपना प्रभाव जरूर दिखायेगी। निष्ठा की एक ही कसौटी है कि मनुष्य उसके लिए अपना समय श्रम, धन और प्रभाव खर्च करता रहता है। जिन कार्यों का समर्थन हम ऊपरी मन से करते हैं उनके बारे में गाल तो बहुत बजा सकते हैं पर जब कुछ त्याग करने का अवसर आता है तो तुरन्त कन्नी काट जाते हैं। अच्छाइयों के प्रचारक आज निष्ठावान नहीं बातूनी लोग ही दिखाई पड़ते हैं, फलस्वरूप बुराइयों की तरह अच्छाइयों का प्रसार नहीं हो पाता और वे पोथी के बैंगनों की तरह केवल कहने−सुनने भर की बातें रह जाती हैं। कथा−वार्ताओं को लोग व्यवहार की नहीं कहने−सुनने की बात मानते हैं और इतने मात्र से ही पुण्य, लाभ की संभावना मान लेते हैं।

ब्रह्मदान का सर्वोत्कृष्ट पुण्य

सत्प्रवृत्तियों को मनुष्य के हृदय में उतार देने से बढ़ कर और कोई महत्वपूर्ण कार्य इस संसार में नहीं हो सकता। वस्तुओं की सहायता भी आवश्यकता के समय उपयोगी सिद्ध हो सकती है पर उसका स्थायी महत्व नहीं है। हर आदमी स्थायी रूप से अपनी समस्या अपने पुरुषार्थ और विवेक से ही हल कर सकता है। दूसरों की सहायता पर जीवित रहना न तो किसी मनुष्य के गौरव के अनुकूल है और न उससे स्थायी हल ही निकलता है। जितनी भी कठिनाइयाँ व्यक्तिगत तथा सामूहिक जीवन में दिखाई पड़ती हैं उनका एक मात्र कारण कुबुद्धि है। यदि मनुष्य अपनी आदतों को सुधार ले, स्वभाव को बना ले और विचारों तथा कार्यों का ठीक तारतम्य बिठा ले तो बाहर से उत्पन्न होती दीखने वाली सभी कठिनाइयाँ बात की बात में हल हो सकती हैं। व्यक्ति और समाज का कल्याण इसी में है कि सत्प्रवृत्तियों को अधिकाधिक पनपने का अवसर मिले। इसी प्रयास में प्राचीन काल में कुछ लोग अपना जीवन उत्सर्ग करते थे, उन्हें बड़ा माना जाता था और ब्राह्मण के सम्मानसूचक पद पर प्रतिष्ठित किया जाता था। चूँकि सत्प्रवृत्तियों को पनपाना संसार का सबसे महत्वपूर्ण धर्म कार्य है इसलिए उसमें लगे हुए व्यक्तियों को सम्मान का शीर्ष स्थान भी मिलना ही चाहिए। दानों में सर्वोत्तम दान ब्रह्मदान कहा जाता है। ब्रह्मदान का अर्थ है ज्ञान−दान। ज्ञान का अर्थ है वह भावना और निष्ठा जो मनुष्य के नैतिक स्तर को सुस्थिर बनाए रहती है। युग−निर्माण संकल्प में जिन सत्प्रवृत्तियों के पुण्य−प्रसार की प्रेरणा की गई है वह यही ब्रह्मदान है। इसे अमृत जल से सींचा जाने पर मुरझाया हुआ युग−मानस पुनः हरा भरा पुष्प पल्लवों से परिपूर्ण बन सकता है। इसी महान कार्य को वह परमार्थ कहा जा सकता है जिसके पूरा करने के लिए परमात्मा ने मनुष्य को विशेष क्षमता, सत्ता और महत्ता प्रदान की है।

दैनिक जीवन में परमार्थ का स्थान

समय, प्रभाव, ज्ञान, पुरुषार्थ और धन की पाँचों विभूतियों का अधिकाधिक भाग हमें परमार्थ के लिए लगाना चाहिए। व्यक्तिगत जीवन की आवश्यकता पूर्ति में ही इन दिव्य विभूतियों को पूरी तरह नष्ट न कर देना चाहिए वरन् न्यूनाधिक मात्रा में कुछ न कुछ इनका अंश परमार्थ के लिए,सत्प्रवृत्तियों के विकास के लिए सुरक्षित रख लेना चाहिए। दैनिक जीवन में जिस प्रकार अन्य अनेक आवश्यक कार्य नियत रहते हैं और उन्हें किसी न किसी प्रकार पूरा करते ही हैं उसी प्रकार इस परमार्थ कार्य को भी एक नितान्त आवश्यक और लोक−परलोक के लिए श्रेयस्कर महत्वपूर्ण कार्य मानना चाहिए। जिस कार्य को हम महत्वपूर्ण मान लेंगे उसके लिए समय, प्रभाव, ज्ञान, पुरुषार्थ एवं धन का एक नियमित अंश निरन्तर लगाते रहना भार रूप प्रतीत न होगा वरन् उस मार्ग में किया हुआ प्रयत्न जीवन को धन्य बनाने वाला सर्वोत्तम सार्थक हुआ कार्य प्रतीत होने लगेगा।


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