मैं आस्तिकता और कर्त्तव्यपरायणता को मानव जीवन का धर्मकर्त्तव्य मानता हूँ। शरीर को भगवान का मंदिर समझकर आत्मसंयम और नियमितता द्वारा आरोग्य की रक्षा करूँगा। मन को जीवन का केंद्रबिंदु मानकर उसे सदा स्वच्छ रखूँगा। कुविचारों और दुर्भावनाओं से इसे बचाए रखने के लिए स्वाध्याय एवं सत्संग की व्यवस्था रखे रहूँगा। अपने आपको समाज का एक अभिन्न अंग मानूँगा और सबके हित में अपना हित समझूँगा। व्यक्तिगत स्वार्थ एवं सुख को सामूहिक स्वार्थ एवं सामूहिक हित से अधिक महत्त्व न दूँगा।
नागरिकता, नैतिकता, मानवता, सच्चरित्रता, शिष्टता, उदारता, आत्मीयता, सहिष्णुता जैसे सद्गुणों को सच्ची संपत्ति समझकर इन्हें व्यक्तिगत जीवन में निरंतर बढ़ाता चलूँगा। साधना, स्वाध्याय, संयम एवं सेवाकार्यों में आलस्य और प्रमाद न होने दूँगा। चारों ओर मधुरता, स्वच्छता, सादगी एवं सज्जनता का वातावरण उत्पन्न करूँगा। परंपराओं की तुलना में विवेक को महत्त्व दूँगा। अनीति से प्राप्त सफलता की अपेक्षा नीति पर चलते हुए असफलता को शिरोधार्य करूँगा। मनुष्य के मूल्याँकन की कसौटी उसकी सफलताओं, योग्यताओं एवं विभूतियों को नहीं, उसके सद्विचारों और सत्कर्मों को रखूँगा।
मेरा जीवन स्वार्थ के लिए नहीं, परमार्थ के लिए होगा। संसार में सत्प्रवृत्तियों के पुण्यप्रसार के लिए अपने समय, प्रभाव, ज्ञान, पुरुषार्थ एवं धन का एक अंश नियमित रूप से लगाता रहूँगा। दूसरों के साथ वह व्यवहार न करूँगा, जो मुझे अपने लिए पसंद नहीं। ईमानदारी और परिश्रम की कमाई ही ग्रहण करूँगा। नारी जाति के प्रति माता, बहिन और पुत्री की दृष्टि रखूँगा। “मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है” इस विश्वास के आधार पर मेरी मान्यता है कि मैं उत्कृष्ट बनूँगा और दूसरों को श्रेष्ठ बनाऊँगा, तो युग अवश्य बदलेगा। हमारा युगनिर्माण संकल्प अवश्य पूर्ण होगा।