विश्वशान्ति के तीन आधार

September 1962

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“दूसरों के साथ वह व्यवहार न करूँगा जो मुझे अपने लिए पसंद नहीं। ईमानदारी और परिश्रम की कमाई ही ग्रहण करूँगा। नारी जाति के प्रति माता, बहिन और पुत्री की दृष्टि रखूँगा।”

दुकानदार वही ईमानदार माना जाता है जिस के यहाँ खरीदने और बेचने के बाँट एक ही रहते हैं। कई बेईमान दुकानदार दूसरों का माल खरीदने के लिए भारी बाँट रखते हैं और अपना बेचने के लिए हलके । दूसरों की चीज उचित मात्रा से अधिक प्राप्त हो जाय और अपनी हिसाब से भी कम दी जाय इस नीति को बरतने वाले—दुहरे बाँट रखने वाले बेईमान दुकानदार सब की निगाह में घृणित ठहरते हैं। ऐसे व्यापारियों की हम भर्त्सना करते हैं पर आश्चर्य की बात यह है कि हमने भी वही नीति अपना रखी है और अपने दोष देखने के लिए नजर भी नहीं उठाते।

अपने समान दूसरे भी

हम चाहते हैं कि दूसरे लोग हमारे साथ सज्जनता का, उदार और मधुर व्यवहार करें हमारी प्रगति में सहायक हों और कोई ऐसा कार्य न करें जिससे प्रसन्नता और सुविधा में किसी प्रकार का विघ्न उत्पन्न न हो। ठीक ऐसी ही आशा दूसरे लोग भी हम से करते हैं। जब हम ऐसा सोचते हैं कि अपने स्वार्थ की पूर्ति में कोई आँच न आने दी जाय और दूसरों से अनुचित लाभ उठा लें, तो वैसी ही आकाँक्षा दूसरे भी हम से क्यों न करेंगे? लेने और देने के दो बाँट रखने में ही सारी गड़बड़ी पैदा होती है। यदि यही ठीक है कि हम किसी के सहायक न बनें, किसी के काम न आवें, किसी से उदारता, नम्रता और क्षमा की नीति न बरतें तो इस के लिए भी तैयार रहना चाहिए कि दूसरे लोग हमारे साथ वैसी ही धृष्टता बरतेंगे तो हम अपने मन में कुछ बुरा न मानेंगे।

जब हम रेल में चढ़ते हैं और दूसरे लोग पैर फैलाये बिस्तर जमाये बैठे होते हैं तो हमें खड़ा रहना पड़ता है। उन लोगों से पैर समेट लेने और हमें भी बैठ जाने देने के लिए कहते हैं तो वे लड़ने आते हैं। झंझट से बचने के लिए हम खड़े−खड़े अपनी यात्रा पूरी करते हैं और मन ही मन उन जगह घेरे बैठ लोगों की स्वार्थपरता और अनुदारता को कोसते हैं। पर जब हमें जगह मिल जाती है तो हम भी वैसा ही व्यवहार करते हैं। उसी तरह पैर फैला लेते हैं और नये यात्रियों के प्रति ठीक वैसे ही निष्ठुर बन जाते हैं। क्या यह दुहरा दृष्टिकोण उचित है?

दुमुही नीति

हमारी कन्या विवाह योग्य हो जाती है तो हम चाहते हैं कि लड़के वाले बिना दहेज के सज्जनोचित व्यवहार करते हुए विवाह सम्बन्ध स्वीकार करें, दहेज माँगने वालों को बहुत कोसते हैं, पर जब अपना लड़का विवाह योग्य हो जाता है तो हम भी ठीक वैसी ही अनुदारता दिखाते हैं जैसी अपनी लड़की के विवाह अवसर पर दूसरों ने दिखाई थी। कोई हमारी चोरी, बेईमानी कर लेता है, ठग लेता है तो बहुत बुरा लगता है पर प्रकारांतर से वैसी ही नीति अपने कारोबार में हम भी बरतते हैं और तब उस चतुरता पर प्रसन्न होते और गर्व अनुभव करते हैं। यह दुमुही नीति बरती जाती रही तो मानव समाज में सुख−शान्ति कैसे कायम रह सकेगी?

कोई व्यक्ति अपनी जरूरत के वक्त कुछ उधार हमसे ले जाता है तो हम यही आशा करते हैं कि आड़े वक्त की इस सहायता को सामने वाला व्यक्ति कृतज्ञतापूर्वक याद रखेगा और जल्दी से जल्दी इस उधार को लौटा देगा। यदि वह वापिस देते वक्त आँखें बदलता है तो हमें कितना बुरा लगता है। यदि इसी बात को ध्यान रखा जाय और किसी से उधार को लौटाने के लिए अपनी आकाँक्षा के अनुरूप ही ध्यान रखा जाय तो कितना अच्छा हो। हम किसी का उधार आवश्यकता से अधिक एक क्षण भी क्यों रोक रखें? हम दूसरों से यह आशा करते हैं कि वे जब भी कुछ कहें या उत्तर दें, नम्र शिष्ट, मधुर और प्रेम भरी बातों से सहानुभूतिपूर्ण रुख के साथ बोलें। कोई कटुता, रुखाई, निष्ठुरता, उपेक्षा और अशिष्टता के साथ जवाब देता है तो अपने को बहुत दुख होता है। यदि यह बात मन में समा जाय तो फिर हमारी वाणी में सदा शिष्टता और मधुरता ही क्यों न घुली रहेगी? अपने कष्ट के समय हमें दूसरों की सहायता विशेष रूप से अपेक्षित होती है इस बात को ध्यान में रखा जाय तो जब दूसरे लोग कष्ट में पड़े हों, उन्हें हमारी सहायता की अपेक्षा हो तब क्या यही उचित है कि हम निष्ठुरता धारण कर लें? अपने बच्चों से हम यह आशा करते हैं कि बुढ़ापे में हमारी सेवा करेंगे। हमारे किये उपकारों का प्रतिफल कृतज्ञतापूर्वक चुकावेंगे, पर अपने बूढ़े माँ−बाप के प्रति हमारा व्यवहार बहुत ही उपेक्षापूर्ण रहता है। इस दुहरी नीति का क्या कभी कोई सत्परिणाम निकल सकता है?

एक ही तराजू से क्यों न तोलें?

हम चाहते हैं कि हमारी बहू−बेटियों की दूसरे लोग इज्जत करें, उन्हें अपनी बहिन−बेटी की निगाह से देखें। फिर यह क्योंकर उचित होगा कि हम दूसरों की बहिन−बेटियों को दुष्टताभरी दृष्टि से देखें? अपने दुख के समान ही दूसरों को जो समझेगा वह माँस कैसे खा सकेगा? किसी की बेईमानी करने, किसी को तिरस्कृत, लाँछित और जलील करने की बात कैसे सोचेगा? अपनी छोटी−मोटी भूलों के बारे में हम यही आशा करते हैं कि लोग उन पर बहुत ध्यान न देंगे, ‘क्षमा करो और भूल जाओ’ की नीति अपनावें तो फिर हमें भी उतनी ही उदारता मन में क्यों नहीं रखनी चाहिये और कभी किसी से कोई दुर्व्यवहार अपने साथ बन पड़ा है तो उसे क्यों न भुला देना चाहिए।

अपने साथ हम दूसरों से जिस सज्जनतापूर्ण व्यवहार की आशा करते हैं उसी प्रकार की नीति हमें दूसरों के साथ अपनानी चाहिए। हो सकता है कि कुछ दुष्ट लोग हमारी सज्जनता के बदले में उसके अनुसार व्यवहार न करें। उदारता का लाभ उठाने वाले और स्वयं निष्ठुरता धारण किये रहने वाले नर पशुओं की इस दुनिया में कमी नहीं है। कृतघ्न और उपकारी पर ही घात चलाने वाले लोग हर जगह भरे पड़े हैं। उनकी दुर्नीति का अपने को शिकार न बनना पड़े, इसकी सावधानी तो रखनी चाहिए, पर अपने कर्तव्य और सौजन्य को इसलिए नहीं छोड़ देना चाहिए कि उसके लिए सत्पात्र नहीं मिलते। बादल हर जगह वर्षा करते हैं, सूर्य और चन्द्रमा हर जगह अपना प्रकाश फैलाते हैं, पृथ्वी सब किसी का भार और मल−मूत्र उठाती है फिर हमें भी वैसी ही महानता और उदारता का परिचय क्यों नहीं देना चाहिए?

उदार प्रकृति के लोग कई बार चालाक लोगों द्वारा ठगे जाते हैं और उससे उन्हें घाटा भी रहता है, पर उनकी सज्जनता से प्रभावित होकर दूसरे लोग जितनी उनकी सहायता करते हैं उस लाभ के बदले में वह ठगे जाने का घाटा कम ही रहता है। सब मिलाकर वे लाभ में ही रहते हैं। इसी प्रकार स्वार्थी लोग किसी के काम नहीं आने से अपना कुछ हर्ज या हानि होने का अवसर नहीं आने देते पर उनकी कोई सहायता नहीं करता तो वे लाभ से वंचित ही रहते हैं। ऐसी दशा में वह अनुदार चालाक व्यक्ति , उस उदार और भोले व्यक्ति की अपेक्षा घाटे में ही रहता है। दुहरे बाँट रखने वाले बेईमान दुकानदारों को कभी फलते-फूलते नहीं देखा गया। स्वयं खुदगर्जी और अशिष्टता बरतने वाले लोग जब दूसरों से सज्जनता और सहायता की आशा करते हैं तो वे ठीक दुहरे बाँट रखने वाले बेईमान दुकानदार का अनुकरण करते हैं। ऐसा व्यवहार कभी किसी के लिए उन्नति और प्रसन्नता का कारण नहीं बन सकता।

ईमानदारी की श्रेष्ठ नीति

युग निर्माण सत्संकल्प में यह बलपूर्वक कहा गया है कि हम दूसरों से वैसा ही मधुर व्यवहार करें जैसा अपने लिए दूसरों से चाहते हैं। इस व्यवहार में ईमानदारी का स्थान सर्वोपरि है। चापलूस, ठग और खुशामदी लोग भी मीठी वाणी तो खूब बोल सकते हैं पर उनकी नीयत खराब होने से, स्वार्थ सिद्धि का प्रयोजन छिपा रहने से वह मधुरता निन्दनीय ही बन कर रह जाती है। मधुरता की महत्ता तभी है जब उसके साथ ईमानदारी भी जुड़ी हुई है। ईमानदारी और सद्भावना को सोना कहा जा सकता तो मधुरता शिष्टता को सुगन्ध। सोने का मूल्य अधिक है सुगन्ध का कम। लोहे पर सुगन्ध लगा दी जाय तो उसकी उतनी प्रशंसा नहीं हो सकती बेईमान मधुरभाषी हो तो और भी अधिक खतरनाक होते हैं, उन्हें पहचानना कठिन पड़ता है, इसलिए बहुधा उनसे अधिक धोखा खाया जाता है।

ईमानदारी की कमाई औषधि रूप है जो थोड़ी खाई जाने पर भी बहुत गुण करती है। फिजूलखर्ची को छोड़कर यदि मितव्ययिता के साथ काम चलाया जाय तो कम आमदनी वाले लोग भी आनन्दपूर्वक हँसी−खुशी का जीवन व्यतीत कर सकते हैं। आमदनी बढ़ाने का प्रयत्न करना उचित है, जिससे जीवन विकास के लिए उचित साधन सामग्री जुटाई जा सके और किन्हीं दूसरों का भी भला किया जा सके। धन बुरा नहीं, आवश्यक वस्तु है। अपनी क्षमता, योग्यता और श्रमशीलता के द्वारा कमाया जाना उचित है और साथ ही उसे उपयोगी कार्यों में लगाया जाना भी आवश्यक है। धन निन्दनीय तभी होता है जब उसे अनीतिपूर्वक , कुमार्ग से कमाया जाय, व्यसनों और अपव्यय में बर्बाद किया जाय अथवा जोड़−जोड़कर जमा किया जाय।

कई व्यक्ति लालच के मारे अधिक कमाने की लालसा में अनीति का रास्ता पकड़ लेते हैं और अवाँछनीय रीति से, दूसरों को सताकर बिना परिश्रम के, लोगों की मजबूरियों से समुचित लाभ उठाकर बहुत धन कमाने लगते हैं। कई तो जुआ, सट्टा, चोरी, मुनाफाखोरी, रिश्वत, धोखेबाजी, कमतोल, कमनाप, मिलावट आदि अनैतिक तरीकों को ही अपनी बुद्धिमानी का चिन्ह और जल्दी धनी बनने का तरीका मान बैठते हैं। ऐसे लोग दूसरों के भोलेपन और अज्ञान का अनुचित लाभ उठाकर कई बार जल्दी धनी भी बन जाते हैं पर वह धन देर तक ठहरता नहीं। उसकी बर्बादी ऐसी बुरी तरह होती है कि हृदय में पश्चाताप और सिर पर पाप की पोटली के अतिरिक्त और कुछ हाथ नहीं रहता। किसी कुकर्मी को इस संसार में फलते−फूलते नहीं देखा गया। कुमार्ग से कमाया गया हुआ मन का धन कुछ देर के लिए प्रसन्नता दे सकता है पर अन्त में वह रुलाता हुआ ही विदा होता है। बिना परिश्रम किये मुफ्त में मिला हुआ धन भी बुराइयों को ही जन्म देता है। पैतृक उत्तराधिकार के रूप से जिन्हें बहुत−सा धन अनायास ही मिल गया है वे अपने शील सदाचार को कदाचित ही कभी स्थिर रख पाते हैं। उनमें अनायास ढेरों दुर्गुण उपज पड़ते हैं और वे ही अन्ततः उनके पतन का कारण बनते हैं।

कभी न पचने वाला विष

संखिया का विष खाने से तुरन्त मृत्यु हो जाती है और कुचला खाने से प्राण निकलने में कुछ देर लगती है। बेईमानी की कमाई और मुफ्त में मिली दौलत में इतना ही अन्तर होता है जितना संखिया और कुचला में। अखाद्य दोनों ही है और दोनों ही हानिकर भी। इसलिए हर आदमी को ध्यान रखना चाहिए कि वह ईमानदारी से कमावे और परिश्रमपूर्वक उपार्जन करे। इस प्रकार यदि थोड़ा भी कमाया जा सके तो उसी से काम चला लेना चाहिए। जितनी अक्ल गलत तरीके से कमाने में खर्च की जाती है उतनी यदि खर्च घटाने व्यवस्थित जीवन बनाने और श्रमशीलता एवं योग्यता बढ़ाने से खर्च की जाय तो निश्चय ही अपनी आर्थिक समस्या को हर कोई बड़ी आसानी से हल कर सकता है। ईमानदारी की कमाई से जो आत्म−संतोष रहता है उससे स्वास्थ्य की सुरक्षा, ईश्वरीय प्रकोप से निश्चिन्तता−हर दिशा में फलने−फूलने की संभावना बनी रहती है और हर भले आदमी की दृष्टि में अपना महत्व एवं गौरव बढ़ा−चढ़ा रहने से हर घड़ी आन्तरिक प्रफुल्लता बनी रहती है। आत्मकल्याण और पारलौकिक सद्गति का भी यही मार्ग है। इस सन्मार्ग को अपनाना ही बुद्धिमत्ता और दूरदर्शिता का चिन्ह माना जाता है।

पवित्रता की साक्षात् प्रतिमा

नारी इस संसार की सर्वोत्कृष्ट पवित्रता है। जननी के रूप में वह अगाध वात्सल्य लेकर इस धरती पर अवतीर्ण होती है। नारी के रूप में त्याग और बलिदान की, प्रेम और आत्मदान की सजीव प्रतिमा के रूप में प्रतिष्ठित होती है। बहिन के रूप में स्नेह, उदारता और ममता की देवी जैसी परिलक्षित होती है। पुत्री के रूप में वह कोमलता, मृदुता, सरलता, निश्छलता की प्रतिकृति के रूप में इस नीरस संसार को सरस बनाती रहती है। परमात्मा ने नारी में सत्यशिव और सुन्दर का अनन्त भंडार भरा है। उसके नेत्रों में एक अलौकिक ज्योति रहती है, जिसकी कुछ किरणें पड़ने मात्र से निष्ठुर हृदयों की भी मुरझाई हुई कली खिल सकती है। दुर्बल अपंग मानव को शक्तिवान और सत्ता सम्पन्न बनाने का सबसे बड़ा श्रेय यदि किसी को हो सकता है तो नारी को ही है। वह मूर्तिमान प्रेरणा, भावना और स्फूर्ति के रूप में अचेतन को चेतन बनाती है। उसके सान्निध्य में अकिंचित व्यक्ति का भाग्य मुखरित हो उठता है। वह अपने को कृत−कृत्य हुआ अनुभव करता है।

दूसरा विषाक्त पहलू

नारी की महत्ता अग्नि के समान है। अग्नि हमारे जीवन का स्रोत है, उसके अभाव में हम निर्जीव और निष्प्राण बनकर ही रह सकते हैं। उसकी उपयोगिता की जितनी महिमा गाई जाय उतनी ही कम है। पर इस अग्नि का दूसरा पहलू भी है, वह स्पर्श करते ही काली नागिन की तरह लप−लपाती हुई उठती है और छूते ही छटपटा देने वाली—भारी पीड़ा देने वाली परिस्थिति उत्पन्न कर देती है। नारी में जहाँ अनन्त गुण हैं वहाँ एक दोष ऐसा भी है जिसके स्पर्श करते ही असीम वेदना में छटपटाना पड़ता है। वह रूप है—नारी का रमणी रूप। रमण की आकाँक्षा से जब भी उसे देखा, सोचा और छुआ जायेगा तभी वह काली नागिन की तरह अपने विष भरे दंश चुभो देगी। बिच्छू की बनावट कैसी अच्छी है सुनहरे रंग का यह सुन्दर जीव कितना मनोहर लगता है पर उसके डंक को छूते ही विपत्ति खड़ी हो जाती है। मधुमक्खी कितनी उपकारी है। भौंरा कितना मधुर गूँजता है, काँतर कैसे रंग−बिरंगे पैरों से चलती है, बर्र और ततैया अपने छत्तों में बैठे हुए कैसे सुन्दर गुलदस्ते से सजे दीखते हैं, पर इनमें से किसी का भी स्पर्श हमारे लिए विपत्ति का कारण बन जाता है। नारी के कामिनी और रमणी के रूप में जो एक विष की छोटी सी पोटली छिपी हुई है उस सुनहरी कटार से हमें बचना ही चाहिए।

अपने से बड़ी आयु की नारी को माता के रूप में, समान आयु वाली को बहिन के रूप में, छोटी को पुत्री के रूप में देखकर, उन्हीं भावनाओं का अधिकाधिक अभिवर्धन करके हम उतने ही आह्लादित और प्रमुदित हो सकते हैं जैसे माता सरस्वती, माता लक्ष्मी, माता दुर्गा के चरणों में बैठा हुआ उनके अनन्त वात्सल्य का अनुभव करता है। हम गायत्री के उपासक भगवान की सर्वश्रेष्ठ सजीव प्रतिमा को नारी के रूप में ही मानते हैं। नारी में भगवान की अनन्त करुणा हमारी भक्ति भावना का दार्शनिक आधार है। उपासना में ही नहीं, व्यवहारिक जीवन में भी हमारा दृष्टिकोण यही रहना चाहिए। नारी मात्र को हम पवित्र दृष्टि से देखें, वासना की दृष्टि से न उसे सोचें न उसे देखें न उसे छुऐं।

दृष्टिकोण की पवित्रता

दाम्पत्य जीवन में सन्तानोत्पादन का विशेष प्रयोजन या अवसर आवश्यक हो तो पति−पत्नी कुछ क्षण के लिए वासना का एक हलका धूप−छाँह अनुभव कर सकते हैं। शास्त्रों में तो इतनी भी छूट नहीं है, उन्होंने तो गर्भाधान संस्कार को भी यज्ञोपवीत या मुण्डन−संस्कार की भाति एक पवित्र धर्म कृत्य माना है और इसी दृष्टि से उस क्रिया को सम्पन्न करने की आज्ञा दी है। पर मानवीय दुर्बलता को देखते हुए दाम्पत्य जीवन में एक सीमित मर्यादा के अन्तर्गत वासना को छूट मिल सकती है। इसके अतिरिक्त दाम्पत्य जीवन भी ऐसा ही पवित्र होना चाहिए जैसा कि दो सहोदर भाइयों का या दो सगी बहिनों को होता है। विवाह का उद्देश्य दो शरीरों को एक आत्मा बनाकर जीवन की गाड़ी का भार दो कंधों पर ढोते चलना है, दुष्प्रवृत्तियों को प्रोत्साहित करना नहीं। यह तो सिनेमा का, गंदे चित्रों का, अश्लील साहित्य का और दुर्बुद्धि का प्रमाद है जो हमने नारी की परम पुनीत प्रतिमा को ऐसे अश्लील गन्दे और गर्हित रूप में गिरा रखा है। नारी को वासना के उद्देश्य से सोचना या देखना उसकी महानता का वैसा ही तिरस्कार करना है जैसे किसी देव मन्दिर की प्रतिमा को चुरा कर पत्थर को अपनी किसी आवश्यकता को पूर्ण करने के उद्देश्य से देखना। यह दृष्टि जितनी निन्दनीय और घृणित है उतनी ही हानिकारक और विग्रह उत्पन्न करने वाली भी। हमें उस स्थिति को अपने भीतर से और सारे समाज से हटाना होगा और नारी को उस स्वरूप में पुनः प्रतिष्ठापित करना होगा जिसकी एक दृष्टि मात्र से मानव प्राणी धन्य होता रहा है।

समानता और एकता

उपरोक्त पंक्तियों में नारी का जैसा चित्रण नर की दृष्टि से किया गया है ठीक वैसा ही चित्रण कुछ शब्दों के हेर−फेर के साथ नारी की दृष्टि से नर के संबंध में किया जा सकता है। जननेन्द्रिय की बनावट में राई रत्ती अन्तर होते हुए भी मनुष्य की दृष्टि से दोनों ही लगभग समान क्षमता, बुद्धि, भावना एवं स्थिति के बने हुए हैं। यह ठीक है कि दोनों में अपनी−अपनी विशेषताऐं और अपनी−अपनी न्यूनताऐं हैं उनकी पूर्ति के लिए दोनों एक दूसरे का आश्रय लेते हैं। यह आश्रय केवल पति−पत्नी के रूप में केवल काम प्रयोजन के रूप में हो ऐसा किसी किसी भी प्रकार आवश्यक नहीं। नारी के प्रति नर और नर के प्रति नारी पवित्र, पुनीत कर्तव्य और स्नेह का सात्विक एवं स्वर्गीय संबंध रखते हुए भी माता, पुत्री या बहिन के रूप में सखा, सहोदर, स्वजन और आत्मीय के रूप में श्रेष्ठ सम्बन्ध रख सकते हैं वैसा ही रखना भी चाहिए। पवित्रता में जो अजस्र बल है वह वासना की नारकीय कीचड़ में कभी भी दृष्टिगोचर नहीं हो सकता। वासना और प्रेम दो दृष्टिकोण एक दूसरे से उतने ही भिन्न हैं जितना स्वर्ग से नरक में भिन्नता है। व्यभिचार में द्वेष, ईर्ष्या, आधिपत्य, संकीर्णता, कामुकता रूप, सौन्दर्य, श्रृंगार, कलह, निराशा, कुढ़न, पतन, ह्रास, निन्दा आदि अगणित यंत्रणाऐं भरी पड़ी हैं, पर प्रेम इन सबसे सर्वथा मुक्त है। पवित्रता में त्याग, उदारता, शुभ कामना, सहृदयता और शान्ति के अतिरिक्त और कुछ हो ही नहीं सकता।

युग−निर्माण संकल्प में आत्मवत् सर्वभूतेषु की, परद्रव्येषु लोष्ठवत् की, मातृवत् परदारेषु की परम पवित्र भावनाऐं भरी पड़ी हैं, इन्हीं के आधार पर नवयुग का सृजन हो सकता है इन्हीं का अवलम्बन लेकर इस दुनिया को स्वर्ग के रूप में परिणत करने का स्वप्न साकार हो सकता है।


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