दस सूत्री रचनात्मक योजना

September 1962

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हमने अपना कार्य आरम्भ कर दिया है। अब आपका कर्तव्य है कि आप अपना कार्य आरम्भ कर दें। दोनों हाथों से ही ताली बजेगी। युग−निर्माण योजना साझे की खेती है, सात पाँच का छप्पर है। सब मिलकर कटिबद्ध होंगे तो ही काम चलेगा। शरीर के सभी अंग अपने−अपने हिस्से का काम ठीक तरह करते हैं तो ही स्वास्थ्य ठीक रहता है। यदि थोड़े से कम महत्वपूर्ण लगने वाले अंग प्रत्यंग भी अपना काम करना छोड़ दें तो सारे शरीर के लिए विपत्ति खड़ी हो जाती है। घड़ी के पुर्जों की तरह अखण्ड ज्योति परिवार के हर पुर्जे को अपने जिम्मे का काम निपटाने के लिए प्रसन्नता और उत्साहपूर्वक तत्पर हो जाना चाहिए।

उपासना की अनिवार्यता

(1) प्रातःकालीन ईश्वर उपासना का कोई न कोई रूप हम में से प्रत्येक को नियत और निश्चित कर लेना चाहिए। जो लोग क्रमबद्ध गायत्री उपासना कर रहे हैं, उन्हें निष्ठा को, श्रद्धा−विश्वास को दिन−दिन बढ़ाते चलना चाहिए। अक्टूबर अंक में हर वर्ष उन्हें एक−एक साल का पाठ्यक्रम मिलता रहेगा, उस पर चलने पर गृहस्थ में रहते हुए उच्च स्तरीय आत्मिक भूमिका तक पहुँच सकना नैष्ठिक साधकों के लिए पूर्णतया संभव हो सकेगा। जिन्होंने अभी उपासना को कोई क्रम नहीं रखा है उन्हें यह अंक पहुँचने के बाद गत पृष्ठों पर “केवल हम ही नहीं, हमारा परिवार भी” लेख के अन्तर्गत सुझाये हुए प्रकार से गायत्री उपासना आरंभ कर देनी चाहिए। आध्यात्मिक विकास के लिए उपासना अनिवार्य है। हमारा पहला कदम यही होना चाहिए। इसके साथ ही ‘युग-निर्माण संकल्प’ भी उपासना का एक अंग समझकर पढ़ा जाना चाहिए।

आत्मनिरीक्षण और आत्मचिन्तन

(2) सोते समय आत्मचिन्तन करना जरूरी है। अपनी त्रुटियों और बुराइयों को रोज ही ढूँढ़ना चाहिए और अगले दिन उन्हें घटाने की बात सोचनी चाहिए। रस्सी की थोड़ी−थोड़ी रगड़ रोज पड़ते रहने से पत्थर पर निशान बन जाता है तो सुधार का थोड़ा−थोड़ा प्रयत्न भी यदि चलता रहे, उस मार्ग पर धीरे−धीरे भी हम चलें तो कुछ ही दिनों में हमारा बहुत कुछ सुधरा हुआ स्पष्ट दीखने लगेगा। निरन्तर चलते रहने वाला मंदगामी कछुआ भी जब लम्बी यात्राऐं पूरी कर सकता है तो अपनी खराबियों को सोचने, सुधारने और निरंतर चलने वाला क्रम हमें एक दिन पूर्ण पवित्रता के लक्ष तक क्यों नहीं पहुँचा देगा?

समय का सदुपयोग

(3) अपने समय विभाजन की योजना एक दिन पूर्व बना लेनी चाहिए और चौबीस घण्टा पूरा होते ही यह निरीक्षण करना चाहिए कि निर्धारित योजना के अनुसार हमने कार्यक्रम चलाया या नहीं? आकस्मिक कारणों से हेर फेर करना पड़े तो बात दूसरी है, पर आलस्य और प्रमाद पर कड़ा अंकुश रखना चाहिए और उसे निर्धारित कार्यक्रम को बिगाड़ने में सफल न होने देना चाहिये। जिसकी दिनचर्या उद्देश्यपूर्ण दृष्टिकोण का समन्वय करते हुए ठीक बन गई और उसका पहिया भली प्रकार लुढ़कने लगे तो समझना चाहिये कि जीवन की सफलता का आधा लक्ष पूर्ण होने की आशा बँध गई। लोग आमतौर से निरुद्देश्य जीते हैं और अविवेकपूर्ण सोचते और बिना व्यवस्था के करते रहते हैं। फलस्वरूप उनकी भारी दौड़−धूप एवं परेशानी भी कोई कारगर परिणाम नहीं निकलने देती। सोचने का और करने का कोई व्यवस्थित तरीका किन्हीं सिद्धान्तों और आदर्शों के आधार पर हम बनावें तो बहुत कुछ बन सकता है, बहुत कुछ हो सकता है। शरीर चलाने के लिए, रोटी कमाने के लिए और मानवीय धर्म−कर्तव्यों के लिए हमारा समय विभाजित रहना चाहिये और उस बनाये हुए कार्यक्रम पर मजबूती से चला जाना चाहिये।

स्वाध्याय एक आवश्यक नित्यकर्म

(4) स्वाध्याय का स्थान भजन के समान ही है। उसे साधना का एक सुनिश्चित अंग मानना चाहिये। भजन−पूजन की उपासना सरल है। घण्टा, आधा घण्टा पूजा−पाठ की विधि पूरी कर लेना कुछ कठिन नहीं है। ढर्रे पर पड़ जाने पर वह भी दैनिक जीवन का एक अंग बन जाता है और उसकी पूर्ति में कुछ कठिनाई नहीं दीखती। जिसे साधना कहा जाता है वह कार्य कठिन है। उसमें जीवन के हर पहलू को सुधारने और सँभालने का लक्ष रहता है और आन्तरिक अव्यवस्था के हर मोर्चे पर डटकर लोहा लेना पड़ता है। उपासक बनना सरल है पर साधक बनना तो लोहे के चने चबाना है। साधना के अन्तर्गत उपासना का कार्यक्रम आ जाता है पर साधनाविहीन उपासना तो एकांगी अधूरी और विडम्बना मात्र बनकर रह जाती है। ‘अखण्ड−ज्योति’ के पाठकों को साधक बनाया जा रहा है और उन्हें इसके लिए आवश्यक अस्त्र और शस्त्र, औजार और साधना, विचार और सुझाव, प्रेरणा और प्रकाश केवल मात्र स्वाध्याय के भण्डार से ही उपलब्ध हो सकते हैं। जीवन निर्माण के लिए प्रेरणाप्रद विचारों को अपनाते रहने से जिसे ज्ञान उत्पन्न न हो सका, उसका साधना पथ पर चल सकना असंभव जैसा ही है। इसलिए हम में से प्रत्येक को साधना का एक नियत क्रम स्थिर कर ही लेना चाहिए।

शम और दम

(5) आत्मबल प्राप्त करने के लिए जिस प्रकार ध्यान, अनुष्ठान, स्वाध्याय आदि का पुरुषार्थ करना पड़ता है उसी प्रकार अपने गुण कर्म और स्वभाव को सुव्यवस्थित बनाकर मनोभूमि को संतुलित करने में भारी प्रयत्न करना होता है। आध्यात्मिक पुरुषार्थ के रूप में उपासना और मानसिक पुरुषार्थ के रूप में भावना की गणना होती है। कुविचारों से सद्विचारों की काट होती है। घड़ी−घड़ी पर निराशा के, उत्तेजना के, आवेश के, वासना के, ईर्ष्या द्वेष के, लोभ−मोह के, आलस्य और प्रमाद के विचार मन में उठते रहते हैं। इनसे लड़ने के लिए इनके प्रतिपक्षी विचारों की एक सुव्यवस्थित शृंखला पहले से ही बना रखनी चाहिए। ठंडे लोहे से गरम लोहा काटा जाता है। मजबूत काँटे से पैर में चुभा हुआ काँटा निकलता है। कुविचारों का शमन सद्विचारों से होता है। जिस प्रकार अनेक रोगों से ग्रसित रोगी अपने दर्द, खाँसी, बुखार, दाद, फोड़ा, आदि की अलग−अलग दवायें तैयार रखता है उसी प्रकार देखना चाहिये कि हमारे मन में किस−किस प्रकार के कुविचार रोज उठते हैं और उनकी काट करने के लिए कौन−कौन से विरोधी विचार उपयुक्त हो सकते हैं। उन्हें पहले ही मन में भली प्रकार जमाकर रखना चाहिए और मानसिक शत्रुओं का, कुविचारों का आक्रमण आरंभ होते ही इन काट करने वाली भावनाओं का, दवाओं का प्रयोग आरंभ कर देना चाहिये। शास्त्रों में इसे ‘शम’ के नाम से पुकारा गया है, इसी का स्थूल रूप ‘दम’ है जो अनुचित काम करने की इच्छा हो रही है उसे बलपूर्वक हठपूर्वक आग्रहपूर्वक उसी प्रकार न करने के लिए अड़ जाना, जिस प्रकार शत्रु के सामने न झुकने के लिए तनकर खड़े हो जाते हैं, ‘दम’ कहलाता है। शम और दम की शक्ति हमें अपने भीतर निरन्तर बढ़ाते रहनी चाहिये।

प्रगतिशील जीवन

(6) जिस प्रकार अध्यात्मिक और मानसिक पुरुषार्थ आवश्यक है उसी प्रकार स्थूल जीवन को भी प्रगतिशील और समुन्नत बनाने के प्रयत्न करना भी आवश्यक माना जाना चाहिये। यों आमतौर से सभी लोगों का पूरा मन प्रायः इसी पुरुषार्थ में लगा रहता है। पर उनकी भूल यह है कि वे केवल मात्र धन उपार्जन को ‘उसके संग्रह की’ अपने धनी होने के प्रदर्शन को ही उन्नति का मापदंड मान बैठते हैं। धन की जीवन को सादगी से गुजारने की सीमा तक ही अनिवार्य आवश्यकता है। इसके बाद उसकी उपयोगिता तभी रह जाती है जब उसका कुछ महत्वपूर्ण उपयोग हो सके अन्यथा वह अधिक बढ़ा हुआ धन विपत्तियों का कारण ही बनता है। हमें धन तक ही सीमित न रहकर अपनी विभिन्न क्षमताऐं, योग्यताऐं, और प्रतिभाऐं बढ़ाने को भी समय लगाना चाहिए। व्यायाम मालिश आदि के द्वारा स्वास्थ सुधारना, शिक्षा का स्तर बढ़ाना, संगीत, शिल्प आदि कला कौशल सीखना, आदि अनेकों मार्ग ऐसे हो सकते हैं जिससे अपना व्यक्तित्व प्रभावपूर्ण बने। विपत्ति के समय में परदेश में, धन नष्ट हो जाने की स्थिति में यह योग्यताऐं ही एक विशिष्ट सम्पत्ति के रूप में सहायक होती हैं। इनके अभाव से आपत्तिग्रस्त व्यक्ति को भारी दुर्दशा का सामना करना पड़ता है। धन, जायदाद तो मरने पर यहीं छूट जाता है पर योग्यताऐं संस्कार रूप में मन के साथ अगले जन्म के लिये भी साथ जाती हैं, इसलिए अपनी परिस्थिति के अनुसार हर व्यक्ति को अपनी भौतिक योग्यताएँ बढ़ाने के लिए भी दैनिक कार्यक्रम में कोई स्थान रखना चाहिए।

परिवार−प्रशिक्षण

(7) परिवार की बौद्धिक शिक्षा−दीक्षा के लिए कम से कम एक घंटा नियत रहे, जिससे कथा कहानियों द्वारा, किन्हीं घटनाओं या समाचारों की आलोचना द्वारा मनोरंजक ढंग से जीवन के आवश्यक अनुभव प्राप्त कराने वाला शिक्षण करना चाहिए। यह शिक्षण हलका−फुलका मनोरंजन गपशप और सबको प्रसन्नतादायक होना चाहिए। गंभीर मुद्रा में, उत्तेजित होकर घर वालों पर व्यंग और कटाक्ष करते हुए यह शिक्षण कदाचित न चल सकेगा, इसका पहले से ही ध्यान करना चाहिए। घर के अशिक्षितों को साक्षर बनाने की प्रौढ़ पाठशाला चल सके तो यह अत्यन्त उपयोगी है। जिनकी स्त्रियाँ बिना पढ़ी हैं और पढ़ने की स्थिति में हैं उन्हें अवश्य ही पढ़ाया जाना चाहिए। जो कम पढ़ी हैं उनकी अधिक शिक्षा की व्यवस्था करनी चाहिए। परिवार निर्माण में और प्रगतिशील जीवन बनाने के लिए पुत्री का भी विचारशील और सुशिक्षित होना आवश्यक है। पारिवारिक शिक्षा−दीक्षा की कोई न कोई प्रक्रिया घर में किसी न किसी रूप में नियमित रूप से चलती रहनी चाहिए।

सभ्यता का छोटा किन्तु महत्वपूर्ण प्रारंभ

(8) दो सुधार हमारे पारिवारिक जीवन में अब चल ही पड़ने चाहिएं। (1) बड़ों का नित्य अभिवादन−चरणस्पर्श (2) तू शब्द का पूर्ण निषेध। बहुत कम परिवार ऐसे होंगे जिनमें बड़ों का अभिवादन करने की प्रक्रिया चलती होगी। चरण स्पर्श में तो बड़े बड़ों तक को झिझक लगती है। बाहर के संत महात्माओं के पैर तो लोग छू लेते हैं पर घर में माता−पिता, बड़े भाई, भावज को नित्य अभिवादन करने और पैर छूने में संकोच करते हैं। पाप कर्म में झिझक तो समझ में आती है पर सत्कर्म में झिझकना और संकोच करना बहुत ही विचित्र लगता है। इस झूठी झिझक को हमें अपने घर से बिलकुल उखाड़ फेंकना चाहिए और प्रातः उठते ही अभिवादन की पद्धति आरंभ करानी चाहिए। यह सुधार हमें अपने से आरंभ कर देना चाहिए। घर में जो बड़े हों उनके नित्य प्रातः उठते ही पैर छुआ करें। जो छोटे हैं उन्हें भी अपनी ओर से नमस्कार के लिए जो शब्द अपने क्षेत्र में प्रचलित हो उसके द्वारा अभिवादन करना चाहिए। वैसे देशव्यापी अभिवादन एकता के लिए नमस्कार या नमस्ते शब्द अधिक उपयुक्त रहेंगे।

दूसरी बात नाम के अन्त में जी लगाकर आप या तुम के साथ बोलने की है। तू शब्द अनन्य आत्मीयता का बोधक तो है पर उसकी सामाजिक उपयोगिता नहीं है। साधारणतया इसमें अशिष्टता का पुट है। व्यक्ति को व्यक्ति का आदर करना चाहिए और यह आदर मन तथा व्यवहार में ही नहीं, वाणी से भी प्रकट होना चाहिए। छोटों को भी, स्त्री बच्चों को भी हमें आप या तुम कहकर बोलना चाहिए और हो सके तो उनके नाम के आगे जी भी लगानी चाहिए। इससे उनकी वाणी मधुर हो जाती है और शिष्टाचार का सभ्यता और संस्कृति का प्रचार होता है। इसलिए इस प्रकार का प्रचलन करना ही चाहिए। आरंभ में एक दो दिन मजाक बन सकता है, अपने को भी अटपटा लग सकता है और कुछ दिन नये अभ्यास के कारण आधा तीतर, आधा बटेर भी हो सकता है। पर यदि दृढ़ता से कुछ दिन इसका अभ्यास चलाते रहा जाय तो अभिवादन और शिष्ट संबोधन की दोनों ही प्रक्रियाऐं अपने परिवार में चल सकती हैं और फिर उनकी देखा−देखी प्रसार दूर−दूर तक हो सकता है।

स्वच्छता और व्यवस्था

(9) सफाई और व्यवस्था को हमें अपनी आदत में सम्मिलित करना ही चाहिए। जिस प्रकार हम आत्मा का सम्मान करते हैं, ईश्वर का सम्मान करते हैं, दूसरों का सम्मान करना चाहते हैं उसी प्रकार हमें अपने साधनों, उपकरणों और वस्तुओं का भी आदर करना चाहिए। कपड़े, जूते बिस्तर, पुस्तकें, कलम, दवात, बर्तन, खाद्य−पदार्थ आदि सभी वस्तुऐं साफ सुथरी और यथा स्थान सुसज्जित रूप से रखी रहनी चाहिये। कला और सौन्दर्य रूप से रखी रहनी चाहिएं। कला और सौन्दर्य भी अध्यात्म के अत्यन्त आवश्यक गुण हैं। जिसे सफाई से प्रेम नहीं, जहाँ-तहाँ गंदगी और अव्यवस्था वगैरह रहती है वह फूहड़ प्रकृति का आदमी अध्यात्मवादी होने का दावा नहीं कर सकता। गंदगी से हमें उसी प्रकार जानी दुश्मनी रखनी चाहिए जिस प्रकार साँप, बिच्छू, पाप और कुकर्म से घृणा करते हैं। गंदगी पैदा होती ही रहती है। उससे बचा नहीं जा सकता, पर उसे तुरन्त स्वयं साफ करना चाहिये। गंदगी से घृणा उसी की सार्थक है जो उसे हटाने की प्रक्रिया में उत्साह रखता है। जो गंदगी साफ करने से जी चुराता है वह सफाई पसंद नहीं, वरन् गंदगी को प्रेम करने वाला है। प्रेमी ही अपनी प्रिय वस्तु को हटाने में संकोच कर सकता है। जो चीज यथास्थान नहीं रखी गई है वह महत्वपूर्ण और कीमती होते हुए भी कूड़ा बन जाती है और कूड़ा भी अपने नियत स्थान पर रखा होने से सुरुचि का परिचायक होता है। हमें अपनी हर वस्तु का आदर करना चाहिए। मकान का, पलंग का, बिस्तर का, कपड़ों का, पुस्तकों का, बर्तनों का भी। इस आदर का एक ही चिन्ह है कि उन्हें यथास्थान रखा गया है या नहीं। साबुन और बुहारी से हमें सच्ची दोस्ती करनी चाहिए। कपड़े धुले हुए साफ रहें, स्नान में शरीर का मैल पूरी तरह छुड़ाया जाय, मंजन करने में चूक न की जाय। घर की नालियाँ साफ रहें, छतों पर मकड़ी के जाले कहीं भी दिखाई न पड़ें, हर चीज अपने स्थान पर सुसज्जित रूप से रखी और साफ सुथरी हो तो अपनी झोंपड़ी भी देव मंदिर से सुन्दर लग सकती है और अपने व्यक्तित्व, संस्कृति, सुरुचि कलात्मक दृष्टिकोण और सुधरे हुए स्वभाव का प्रमाण मिल सकता है। यह सब हमें करना ही चाहिए।

विचार परिवार की रचना एवं वृद्धि

(10) सज्जनों की अभिवृद्धि और एकता युग−निर्माण का दसवाँ कार्यक्रम है अपनी ओर से अपने परिवार की भलाई सोचते रहना ही पर्याप्त नहीं, वरन् हमें यह भी प्रयत्न करना होगा कि संबंधित लोगों में सज्जनता बढ़े, अपने विचारों के लोगों की संख्या बढ़ती चले और उनमें परस्पर एकता, घनिष्ठता, सहकारिता, एवं सभ्यसमाज की रचना करने के लिए मिलजुल कर कुछ करने की भावना भी पैदा हो। इस युग में संगठन ही सबसे बड़ा है। वोट के द्वारा अब राज पलट जाते हैं। एकाध विद्वान को लोग मखौल में उड़ा देते हैं और संगठित मूर्खों का दल हर प्रकार की मनमानी करने में सफल होता है। वैयक्तिक जीवन में एक संघ शक्ति से सुसज्जित होने के लिए भी और सभ्यसमाज की रचना के लिए भी हमें अपने समीपवर्ती सज्जनों को संघबद्ध करना, उनके विचारों में प्रगतिशीलता उत्पन्न करना होगा। युग−निर्माण के लिए जो बड़ी−बड़ी बातें सोची गई हैं उनकी पूर्ति करना ऐसे संगठन द्वारा ही सम्भव होगा। विचार परिवार की रचना में हमें पूरे उत्साह के साथ अभिरुचि लेनी चाहिए।

यह कार्य हमें ‘अखण्ड−ज्योति’ के प्रेरणा सूत्र को माध्यम बनाकर करना होगा। जिस प्रकार एक धागे में अनेक मनके पिरोये रहते हैं और माला मजबूत बनी रहती है इसी प्रकार ‘अखण्ड−ज्योति’ की सदस्यता उसके पाठकों में मानसिक प्रौढ़ता और परिवार भावना पैदा करती रहेगी। हमारा पिछला गायत्री परिवार का संगठन इसीलिए बिखर गया कि उनकी विचार प्रौढ़ता बढ़ाने और एकता स्थिर रखने का कोई ठीक माध्यम नहीं था। जप साधना भी बड़ा कठिन कार्य है। निरन्तर प्रेरणा के बिना वह श्रद्धा भी आज की परिस्थितियों में देर तक नहीं टिक पाती। अब उस भूल को सुधार लिया गया है और युग−निर्माण योजना के सदस्य, सहयोगी एवं अपने स्वजन केवल उन्हें ही गिनना आरम्भ किया है जो कम से कम हमारी बात सुनने में हमारे विचारों को पढ़ने समझने में तो दिलचस्पी लेते हों।

संगठन से ही समाज निर्माण संभव

सामाजिक बुराइयों, कुरीतियों, अनैतिकताओं में से अधिकाँश ऐसी हैं जिनका उन्मूलन और उनके स्थान पर स्वस्थ परम्पराओं की स्थापना संगठित प्रयत्नों से ही सम्भव हो सकेगी। जुआ, चोरी, रिश्वतखोरी, मिलावट, बेईमानी, व्यसन, व्यभिचार, दहेज, मृत्युभोज, नशेबाजी, माँसाहार, पर्दा, बाल−विवाह, अनमेल विवाह, उच्छृंखलता, गुण्डागर्दी, फैशन, फिजूलखर्ची आदि अगणित बुराइयाँ ऐसी हैं जो अपने समाज में गहरी जड़ जमा चुकी हैं। इनका विरोध करने को एक व्यक्ति खड़ा होगा तो पिस जायेगा, किन्तु यदि संगठित प्रतिरोध करने का और इनके स्थान पर आदर्श परम्पराओं के अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत करने का प्रचलन बढ़ेगा तो सभ्यसमाज की स्थापना का स्वप्न सार्थक ही होकर रहेगा।


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