आस्तिकता और कर्तव्यपालन

September 1962

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मैं आस्तिकता और कर्तव्यपरायणता को मानव जीवन का धर्म मानता हूँ। शरीर को भगवान का मन्दिर समझकर आत्मसंयम और नियमितता द्वारा आरोग्य की रक्षा। मन को जीवन का केन्द्रबिन्दु मानकर उसे सदा स्वच्छ रखूँगा। कुविचारों और दुर्भावनाओं से इसे बचाये रखने के लिए स्वाध्याय एवं सत्संग की व्यवस्था रखे रहूँगा।

युग−निर्माण की प्रक्रिया में सबसे पहला स्थान आस्तिकता का है। ईश्वर में आस्था रखे बिना हमारी दुष्प्रवृत्तियाँ बिना नकेल के ऊँट की तरह, बिना लगाम के घोड़े की तरह बिना नाथ के बैल की तरह बिना अंकुश के हाथी की तरह उच्छृंखलता, अनीति और उद्दंडता की ओर द्रुत गति से दौड़ने लगती हैं। पानी को ऊँचा चढ़ाने के लिए अनेक प्रयत्न करने पड़ते हैं पर नीचे की ओर तो वह बिना किसी प्रयास के ही बहने लगता है। मन की गति भी पानी के समान है, उसे स्वर्ग पर चलाना हो तो अत्यधिक श्रमसाध्य साधन प्रयत्न करने पड़ते हैं पर कुमार्ग की ओर तो वह सहज ही सरपट दौड़ने लगता है। आस्तिकता मन को कुमार्ग पर दौड़ने से रोकने के लिए सबसे बड़ा अंकुश सिद्ध होता है।

पाप कर्मों से बचाव

पाप को छिपा लेने और तब दण्ड से बचे रहने की अगणित तरकीबें मनुष्य ने ढूँढ़ निकाली हैं। यों अदालत, पुलिस, जेल, कचहरी सब कुछ व्यवस्था अपराधों के लिए मौजूद है, पर उनसे बचे रहकर अनीति बरतते रहने की जितनी कुशलता मनुष्य को प्राप्त है उसकी तुलना में राजदंड के सारे साधन तुच्छ मालूम पड़ते हैं। रिश्वत को ही लीजिए वह एक बड़ा अपराध माना गया है और उसके लेने एवं देने वाले के लिए कई वर्ष की जेल का विधान है। इतने पर भी अदालतों तक में पुलिस तक में, जेल तक में रिश्वत कितने प्रचंड रूप में मौजूद है उसे हर कोई जानता है। अपराधों को रोकने वाले जब अपराध करने से नहीं रुकते तो जन साधारण से तो आशा ही क्या की जाय? डर दिखाते रहने के लिये मर्यादा माध्यम के रूप में यह सब मौजूद है उसे मौजूद रहना भी रहना भी चाहिए, पर समस्या का हल इनके द्वारा होने वाला नहीं है। जब तक मनुष्य अपने कर्तव्य धर्म का कठोरतापूर्वक पालन करने के लिए स्वयं ही श्रद्धा और विश्वासपूर्वक कटिबद्ध न होगा तब तक उसे बलात् सन्मार्गगामी बनाया जा सकना कठिन है। अधिनायकवाद के नृशंस आतंक द्वारा कुछ हद तक पापों की रोक−थाम संभव है। चोर के हाथ काट देने और व्यभिचारी का सिर उड़ा देने जैसे आतंकपूर्ण दंड लोगों को डरा तो देते हैं पर जिनके हाथ में ऐसी दंड व्यवस्था रहती है वे ही आतंकित जनता से प्रतिरोध के बारे में निश्चिन्त होकर स्वयं ही अनीति करने लगते हैं। डिक्टेटरशाही का इतिहास यही बताता है। फिर आतंकित जनता भीरु और कायर बनती है, उसकी आत्मिक स्थिति बहुत दुर्बल हो जाती है जिससे उसके स्वभाव में छोटे छोटे अनेकों दोष दुर्गुण प्रविष्ट हो जाते हैं जिसके फलस्वरूप मनुष्य का व्यक्तित्व दिन−दिन दीन−हीन बनता चला जाता है। आतंकित लोगों में से महापुरुषों एवं नररत्नों का उत्पन्न होना भी संभव नहीं रहता। फिर यह आतंकपूर्ण स्थिति समाप्त होते ही वह दबी हुई अपराधी मनोवृत्ति जब अनेकों गुने भयंकर वेग से विकसित होती है तब उसका रोका जा सकना अतीव कठिन हो जाता है।

स्थायी सुख शान्ति का आधार

सदाचार के ऊपर हमारी व्यक्तिगत और सामूहिक सुख−शान्ति निर्भर रहती है। यह सदाचार तभी निभता है जब उसका उद्गम भीतर से प्रस्फुटित होता हो। बाहरी दबाव कोई क्षणिक परिणाम उत्पन्न कर सकते हैं पर स्थायी हल तो अन्तः प्रेरणा पर ही निर्भर रहेगा। कर्तव्य पालन को मानव जीवन का आदर्श लक्ष एवं धर्म मानकर श्रेष्ठ आचरण करने की प्रवृत्ति तभी विकसित हो सकती है जब मन की दुर्बुद्धि पर आत्मा के विवेक का नियंत्रण बना रहे। इस नियंत्रण के वैज्ञानिक स्वरूप को ही आस्तिकता कहते हैं।

ईश्वर के अस्तित्व से इनकार नहीं किया जा सकता। जब हर वस्तु का कोई निर्माता होता है तो इतने विशाल, इतने व्यवस्थित विश्व का कोई निर्माता न हो ऐसा नहीं हो सकता। वह निर्माता धर्म, विवेक और आदर्श से रहित नहीं है। वह हमें जहाँ अगणित प्रकार की सुख सुविधाऐं देता है वहाँ हमारे कर्मों के भले बुरे परिणामों की भी व्यवस्था करता है। घट−घट वासी सर्वान्तर्यामी भगवान अपने असंख्य नेत्रों से हमारे गुप्त प्रकट कार्यों और विचारों को भली प्रकार जानते हैं। उनकी प्रसन्नता अप्रसन्नता इन्हीं सत्प्रवृत्तियों और दुष्प्रवृत्तियों पर निर्भर रहती है। दुख और सुख मिलने का आधार भी यही है। कोई कुकर्मी पाप दण्ड से बच नहीं सकता, कोई सुकर्मी सुख शान्ति का अधिकारी न बने ऐसा भी नहीं हो सकता। निष्पक्ष न्यायाधीश की भाँति परमात्मा हमारे हर भले बुरे कर्मों का प्रतिफल उत्पन्न करता है जिसे यह विश्वास होगा, उसकी असुरता घटेगी और देवत्व विकसित होगा, कर्मों का फल मिलने में देर तो होती है पर अंधेर की कोई गुँजाइश नहीं। जिसे यह विश्वास होगा वह दुष्ट दुर्जन नहीं बन सकता उसके लिए सज्जनता और कर्तव्यशीलता का ही एक मात्र मार्ग अपनाने के लिए रह जाता है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए आस्तिकता की आवश्यकता को युगनिर्माण संकल्प में पहला स्थान दिया गया है। उपासना से हमारा आत्मबल बढ़ता है और कर्तव्य पालन की वह प्रेरणा अनायास ही उत्पन्न होती है जिसके आधार पर जीवन लक्ष की पूर्ति और विश्वशक्ति के दोनों ही उद्देश्य पूर्ण होते हैं।

आस्तिकता का प्रतिफल निश्चित रूप से कर्तव्य पालन है। जो आस्तिक कर्तव्य पालन की उपेक्षा करता है और कुछ पूजा पत्री करके मुफ्त में ही ईश्वर से धन वैभव प्राप्त कर लेने या दुष्कर्मों के फल से छुटकारा पाने की बात सोचता है उसे भोला बहका हुआ, नासमझ या जरूरत से ज्यादा चालाक कह सकते हैं। आस्तिकता की सबसे पहली प्रतिक्रिया अपने कर्तव्य को ईश्वर का आदेश मानकर उस पर चट्टान की तरह अटल बने रहने की प्रेरणा के रूप में परिलक्षित होती है। कर्तव्य परायणता की मात्रा किसमें कितनी है इसी आधार पर उसकी आस्तिकता के स्तर को नापा जा सकता है।

हमारे शारीरिक कर्तव्य

कर्तव्य पालन का आरंभ अपने सबसे समीपवर्ती स्वजन से होता है। हमारा सबसे निकटवर्ती संबंधी अपना शरीर ही है। उसके साथ सद्व्यवहार करना उसे स्वस्थ और सुरक्षित रखना आवश्यक है। बीमारी और कमजोरी हमारे निमंत्रण पर आती है और स्वागत बन्द करने पर अपने आप चली जाती है। इन्द्रियों का असंयम, आहार−विहार की अनियमितता के कारण पाचन प्रणाली, रक्त संचार, मस्तिष्क, स्नायु संस्थान आदि की प्रमुख प्रक्रियाओं को भारी आघात लगता है और वे दुर्बल एवं विकृत होकर रोग ग्रसित होने लगते हैं। भीतर धीरे−धीरे एकत्रित होती रहने वाली विकृतियाँ कोई छोटा−मोटा अवसर पाकर किसी भी स्थान से किसी भी रूप में फूट पड़ती हैं इसी को हम बीमारी के नाम से पुकारते हैं।

आहार−विहार का संयम रखा जाय और हर कार्य में मर्यादा एवं नियमितता का ध्यान रखा जाय तो बीमार पड़ने का कोई प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता। मनुष्य के सम्पर्क बन्धनों से बचे रहने वाले एवं प्रकृति का अनुसरण करने वाले सृष्टि के सभी जीव जन्तु आजीवन निरोगता का लाभ प्राप्त किये रहते हैं तो हमें भी बीमारी का क्यों शिकार बनना पड़ सकता है? अपनी भूल को सुधारने के लिए जो कटिबद्ध हो गया, आहार−विहार पर संयम रखने और नियमितता बरतने की जिसने ठान ली उसका स्वास्थ्य सुधरने ही वाला है। सबसे बड़ी चिकित्सा− सबसे बड़ी दवा अपनी उन आदतों को सुधार लेना है जो हमारे आरोग्य के लिए घातक हैं पर जिन्हें तुच्छ आकर्षणों के कारण अपनाये रहा जाता है। शरीर भगवान का मंदिर है, इसमें आत्मा का निरन्तर निवास है। जिस प्रकार किसी देवालय को गंदा, विकृत, नष्ट भ्रष्ट एवं तिरस्कृत करना पाप माना जाता है उसी प्रकार आत्मा के निवास मंदिर शरीर को अपनी बुरी आदतों के कारण नष्ट−भ्रष्ट करना एक अपराध है और उस अपराध के फलस्वरूप पीड़ा, बेचैनी, अशक्ति , अल्पायु और आर्थिक क्षति के रूप में विविध प्रकार की यातनाऐं भुगतनी पड़ती हैं। कर्तव्य पालन का आरंभ हमें शरीर रूपी स्वजन से ही आरंभ करना चाहिए और उसे निरोग बनाने के लिए उन गतिविधियों को अपनाना चाहिए जिनका उल्लेख स्वास्थ्य रक्षा के संदर्भ में गत मई और अगस्त के अंकों में विस्तारपूर्वक किया जा चुका है।

मन और उसके प्रति अपनी जिम्मेदारी

शरीर के साथ मन का अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है। शरीर स्थूल है मन सूक्ष्म। शरीर की शोभा सफाई और सजावट का तो कई व्यक्ति ध्यान रखते हैं पर उसे निरोग रखने के महत्व को भूले रहते हैं फलस्वरूप भीतर ही भीतर खोखली बनती जाने वाली देह सजाव शृंगर से भी सुन्दर नहीं लग पाती और सौन्दर्य की समस्या उलझी हुई ही पड़ी रहती है। इसी प्रकार आहार−विहार से शरीर को तो निरोग रख लिया जाय पर उस मन को जिसका सारे शरीर पर नियन्त्रण है—उपेक्षा की जाय तो भी काम चलने वाला नहीं है। वह आरोग्य उद्दंडता और अहंकार का अथवा कुछ अधिक कमाने खाने का साधन मात्र बन सकता है। मन को जीवन का केन्द्र बिन्दु इसलिए कहा गया है कि उसकी समझ जिस दिशा में भी हो जाती है उसी ओर हमारी सारी गतिविधियाँ संचारित होने लगती हैं। किसी बुरे से बुरे प्रसंग की ओर यदि मन रुचि लेने लगे तो वह कार्य परम प्रिय लगने लगता है और कितनी ही हानि उठा कर भी मनुष्य उधर लगा रहता है। नशेबाजी, जुआ जैसे अगणित व्यसन हैं जिनकी बुराई जानते हुए भी मनुष्य अपना सब कुछ गँवाता रहता है। मन का झुकाव ऐसी बात है जिसमें लाभ या हानि का बहुत महत्व नहीं रहता, प्रिय लगने वाले प्रसंग के लिए सब कुछ खो देने और बड़े से बड़े कष्ट सहने को भी मनुष्य सहज ही तैयार हो जाता है। फिर यही मन यदि अच्छी दिशा में मुड़ जाय, आत्म−सुधार ,आत्म−निर्माण और आत्म−विकास में रुचि लेने लगे तो जीवन में एक चमत्कार ही प्रस्तुत हो सकता है। सामान्य श्रेणी का, नगण्य स्थिति का मनुष्य भी महापुरुषों की श्रेणी में आसानी से पहुँच सकता है। सारी कठिनाई मन को अनुपयुक्त दिशा से उपयुक्त दिशा में मोड़ने की ही है। इस समस्या के हल होने पर मनुष्य सच्चे अर्थों में मनुष्य बनता हुआ देवत्व के लक्ष तक सुविधापूर्वक पहुँच सकता है।

मन को मलीन न होने दें

शरीर के प्रति कर्तव्य पालन करने की तरह मन के प्रति भी हमें अपने उत्तरदायित्वों को पूर्ण करना चाहिए। जिस प्रकार आरोग्य के नियमों की उपेक्षा करने से स्वास्थ्य बिगड़ जाता है, उसी प्रकार मन को स्वच्छ रखने की विधिवत व्यवस्था न रखने से वह भी कुविचारों और दुर्भावनाओं में ग्रसित रहने लगता है। शरीर की भाँति मन को सुधारा और सँभाला जा सकता है उसे पतनोन्मुख दिशा से मोड़ कर उन्नतिशील मार्ग के लिए समझाया और विवश किया जा सकता है। छोटे−मोटे हर प्रसंग को आशंका अविश्वास, सन्देह और छिद्रान्वेषण की पृष्ठ भूमि में सोचते और देखते रहने से न केवल संसार की हर वस्तु डरावनी लगती है वरन् अन्तःकरण भी दिन−दिन क्षुद्र और कलुषित बनता जाता है। व्यभिचार के, चोरी के, अनीति बरतने के क्रोध एवं प्रतिशोध के, ठगने एवं दंभ, पाखंड बनाने के कुविचार यदि मन में भरे रहें तो मानसिक स्वास्थ्य का नाश ही होने वाला है। ऐसे व्यक्तियों का व्यक्तित्व ओछा, भौंड़ा, बेहूदा और बेतुका बनता चला जाता है धीरे−धीरे ये उस स्थिति तक जा पहुँचते हैं कि उनकी सभ्य मनुष्यों में गणना करना भी उचित प्रतीत नहीं होता।

कुविचारों और दुर्भावनाओं से मन गंदा, मलिन और पतित होता है और अपनी सभी विशेषता और श्रेष्ठताओं को खो देता है इस स्थिति से सतर्क रहने और बचने की आवश्यकता को अनुभव करना हमारा पवित्र कर्तव्य है। मन को सही दिशा देते रहने के लिए स्वाध्याय की वैसी ही आवश्यकता है जैसे शरीर को भोजन देने की। आत्म−निर्माण करने वाली जीवन की समस्याओं को सही ढंग से सुलझाने वाली उत्कृष्ट विचारधारा की पुस्तकें पूरे ध्यान, मनन और चिन्तन के साथ पढ़ते रहना ही स्वाध्याय है। यदि सुलझे हुए विचारों के जीवन विद्या के ज्ञाता कोई सम्भ्रान्त सज्जन उपलब्ध हो सकते हों तो उनका सत्संग भी उपयोगी सिद्ध हो सकता है। यों धर्म और अध्यात्म के नाम पर आलस, कर्तव्य त्याग, निराशा, भाग्यवाद परावलम्बन आदि भ्रान्तियों को बढ़ाने वाले प्रवचनकर्ता गली कूँचों में मक्खी, मच्छरों की तरह सत्संग की दुकानें लगाये बैठे हैं, उनमें जाने की अपेक्षा न जाना अधिक उत्तम है। इसी प्रकार स्वाध्याय के नाम पर जीवन निर्माण की ज्वलन्त समस्याओं को सुलझाने में कोई सहायता न देने वाली, किन्हीं देवी देवताओं के गुणानुवाद गाने वाली पुस्तकों का पाठ करते रहने से कोई वास्तविक प्रयोजन सिद्ध नहीं होता।

कुविचारों और दुर्भावनाओं के समाधान के लिए स्वाध्याय,सत्संग,मनन और चिन्तन यह चार ही उपाय हैं। मानव जीवन की महत्ता को हम समझें, इस स्वर्ण अवसर के सदुपयोग की बात सोचें, अपनी गुत्थियों में से अधिकाँश की जिम्मेदारी अपनी समझें और उन्हें सुलझाने के लिए अपने गुण, कर्म, स्वभाव में आवश्यक हेर−फेर के लिए सदा कटिबद्ध रहें । इस प्रकार की विचार शैली आत्म−निर्माण की प्रेरणा देने वाले सत्साहित्य से, प्रबुद्ध मस्तिष्क के सत्पुरुषों से एवं आत्म−निरीक्षण तथा आत्म−चिन्तन करने से किसी भी व्यक्ति को सहज ही उपलब्ध हो सकती है। दृष्टिकोण बदलते ही परिस्थितियाँ भी निश्चित रूप से बदल सकती हैं।

लोहा,लोहे से कटता है। गरम लोहे को ठंडे लोहे की छैनी काटती है। चुभे हुए काँटे को निकालने के लिए काँटे ही प्रयोग करना पड़ता है। विष को विष मारता है। हथियार से हथियार का मुकाबला किया जाता है। कुविचारों के समाधान का एक ही उपाय है उसके स्थान पर सद्विचारों को भर देना। किसी गिलास में भरी हुई हवा को हटाना हो तो उसमें पानी भर देना चाहिए। पानी का प्रवेश होने से हवा अपने आप निकल जायगी। बिल्ली पाल लेने से चूहे घर में कहाँ ठहरते हैं। कुविचारों को मार भगाने का एक ही तरीका है कि उनके स्थान पर सद्विचारों की स्थापना की जाय। मन में जब सद्विचार भरे रहेंगे तो उस भीड़ से भरी धर्मशाला को देखकर अपने आप लौट जाने वाले मुसाफिरों की तरह कुविचार भी कोई दूसरा रास्ता टटोलेंगे। स्वाध्याय और सत्संग में जितना अधिक समय लगाया जाता है उतनी ही कुविचारों से सुरक्षा बन पड़ती है। जीवन को सब प्रकार दुख दारिद्र से भर देने वाले कुकर्मों को अपनाने से ही मनुष्य का पतन होता है और यह कुकर्म, कुविचारों के प्रतिफल मात्र ही हैं। शान्ति और प्रगति के लिए हमें सद्विचारों की ही शरण में जाना पड़ता है, इसी प्रक्रिया का नाम स्वाध्याय और सत्संग है। रोटी और पानी जिस प्रकार शरीर की सुरक्षा और परिपुष्टि के लिए आवश्यक हैं उसी प्रकार आत्मिक स्थिरता और प्रगति के लिए सद्विचारों की प्रचुर मात्रा हमें उपलब्ध होनी ही चाहिए। इस आवश्यकता की पूर्ति स्वाध्याय और सत्संग से, मनन और चिन्तन से पूरी होती है। युगनिर्माण के लिए, आत्म−निर्माण के लिए यह प्रधान साधन है। संकल्प की, मन की शुद्धि के लिए इसे ही रामबाण दवा माना गया है।


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