“अपने आपको समाज का एक अभिन्न अंग मानूँगा और सबके हित में अपना हित समझूँगा। व्यक्तिगत स्वार्थ एवं सुख को सामूहिक स्वार्थ एवं सामूहिक हित से अधिक महत्व न दूँगा।”
सामाजिक न्याय का सिद्धान्त ऐसा अकाट्य तथ्य है कि इसकी एक कदम के लिए भी उपेक्षा नहीं की जा सकती। एक वर्ग के साथ अन्याय होगा तो दूसरा वर्ग कभी भी शान्तिपूर्ण जीवन यापन न कर सकेगा। लोहे की छड़ को एक सिरे पर गरम किया जाय तो उसकी गरमी धीरे−धीरे दूसरे सिरे तक भी पहुँच जायगी। सारी मनुष्य जाति एक लोहे की छड़ की तरह है उसको किसी भी स्थान पर गरम या ठंडा किया जाय दूसरे भागों पर उसका प्रभाव अनिवार्य रूप से पड़ेगा। सामाजिक न्याय सब को समान रूप से मिले, प्रत्येक मनुष्य मानवोचित अधिकारों का उपयोग दूसरों की भाँति ही कर सके ऐसी स्थिति पैदा किये बिना हमारा समाज शोषणमुक्त नहीं हो सकता । आर्थिक समता की बात समाजवादी विचारधारा के द्वारा राजनीतिक स्तर पर बड़े जोरों से कही जा रही है। साम्यवादी देश उग्र रूप से और समाजवादी देश मंथर गति से इसी मार्ग पर अग्रसर हो रहे हैं। अध्यात्मवाद की शिक्षा सनातन काल से यही रही है। यहाँ परिग्रह को सदा से पाप माना जाता रहा है। सामान्य जनता के स्तर से बहुत अधिक सुख साधन प्राप्त करना या धन सम्पत्ति जमा करना यहाँ सदा से पाप कहा गया है और यही निर्देश किया है कि सौ हाथों से कमाओ भले ही पर उसे हजार हाथों से दान अवश्य कर दो। अर्थात् अगणित बुराइयों को जन्म देने वाली संग्रह वृत्ति को पनपने न दो।
‘मैं’ नहीं ‘हम सब’
कोई व्यक्ति अपने पास सामान्य लोगों की अपेक्षा अत्यधिक धन तभी संग्रह कर सकता है जब उसमें कंजूसी, खुदगर्जी, अनुदारता और निष्ठुरता की भावन आवश्यकता से अधिक मात्रा में भरी हुई हो । जब कि दूसरे लोग भारी कठिनाइयों के बीच अत्यन्त कुत्सित और अभावग्रस्त जीवन यापन कर रहे हैं उनके बच्चे शिक्षा और चिकित्सा तक से वंचित हो रहे हैं तब उनकी आवश्यकताओं की ओर से जो आँख बन्द किये रहेगा, किसी को कुछ भी न देना चाहेगा, देगा तो राई रत्ती को देकर पहाड़ सा यश लूटने का ही अवसर मिलेगा तो ही कुछ देगा ऐसा व्यक्ति ही धनी बन सकता है। सामाजिक न्याय का तकाजा यह है कि हर व्यक्ति उत्पादन तो भरपूर करे पर उस उपार्जन के लाभ में दूसरों को भी सम्मिलित रखे। सब लोग मिल−जुलकर खायें। जिऐं और जीने दें। दुख और सुख को सब लोग मिल बाँट कर भोगें। यह दोनों ही भार यदि एक के कंधे पर आ पड़ते हैं तो वह दब कर चकनाचूर हो जाता हैं। पर यदि सब लोग इन्हें आपस में मिल कर बाँट लेते हैं तो किसी पर भार भी नहीं पड़ता, सब का चित्त हलका रहता है और समाज में विषमता का विष भी उत्पन्न नहीं हो पाता।
आर्थिक ही नहीं, सामाजिक समता भी
जिस प्रकार आर्थिक समता का सिद्धान्त सनातन और शाश्वत है उसी प्रकार सामाजिक समता का− मानवीय अधिकारों की समता का आदर्श भी अपरिहार्य है। इसको चुनौती नहीं दे सकते। किसी जाति वंश या कुल में जन्म लेने के कारण किसी मनुष्य के अधिकार कम नहीं हो सकते और न ऊँचे माने जा सकते हैं। छोटे या बड़े होने की, नीच या ऊँच होने की कसौटी गुण,कर्म,स्वभाव ही हो सकते हैं। अपनी व्यक्तिगत विशेषताओं के कारण किसी का न्यूनाधिक मान हो सकता है। पर इसलिए कोई कदापि बड़ा या छोटा नहीं माना जा सकता कि उसने अमुक कुल में जन्म लिया है। इस प्रकार की अविवेकपूर्ण मान्यताऐं जहाँ भी चल रही हैं वहाँ कुछ लोगों का अहंकार और कुछ लोगों का दैन्य भाव ही कारण हो सकता है। अब उगती हुई दुनियाँ इस प्रकार के कूड़े कबाड़ जैसे विचारों को तेजी से हटाती चली जा रही है। अफ्रीका और अमरीका में जहाँ गोरी, काली जातियों में नीच ऊँच की भावना मौजूद है उनका विरोध विश्व का सारा लोकमत कर रहा है। विचारशील क्षेत्रों से इस भेदभाव की भरपूर भर्त्सना की जा रही है और यह निश्चित है कि यह भेदभाव चंद दिनों का मेहमान है। सामाजिक समता की मान्यता को ही सर्वत्र स्वीकार किया जायेगा। भारत में जातियाँ नियत कामों और व्यवसायों को वंश परम्परा के साथ अधिक दक्षता के साथ उन्नत करते चलने की दृष्टि से बनी थीं। उनके निर्माताओं ने कभी स्वप्न में भी यह न सोचा होगा कि एक दिन इस पुनीत परम्परा में नीच−ऊँच का विष भी मिल जायेगा। पर आज तो यही विडम्बना चल रही है। गुण, कर्म, स्वभाव की उपेक्षा करके लोग केवल वंश और जाति के आधार पर ऊँच या नीच होने की मान्यता माने बैठे हैं। इस निरर्थक मूढ़ता का अन्त होना ही है। विवेक का उदय जैसे−जैसे होता जायेगा यह अन्धकार नष्ट होने ही वाला है। समय रहते हम अपनी समझदारी का परिचय देते हुए कुछ पहले ही छोड़ सकें तो वह एक प्रशंसा की बात ही होगी।
वर्ण और लिंग के अनुपयुक्त भेद भाव
स्त्रियों के बारे में पुरुषों ने जो ऐसी मान्यता बना रखी है कि वे उनकी गाय, भैंस जैसी सम्पत्ति हैं यह बहुत ही अनुपयुक्त है। कुछ शारीरिक अवयवों में भिन्नता या महत्ता नहीं मानी जा सकती है। इतिहासकार जानते हैं कि लाखों वर्षों तक संसार में ‘मातृकुल’ पद्धति का प्रचलन रहा है। माताऐं अपने परिवार की स्वामिनी होती थीं, नर उन्हीं के अनुशासन में रहते थे। अभी भी भारत के केरल प्रान्त में मातृकुलों का प्रचलन है। इससे यह सिद्ध नहीं होता कि स्त्री बड़ी और पुरुष छोटा है। यह सुविधा और व्यवस्था की बात है। उपार्जन कार्य जिसके हाथ होता है वह इस पूँजीवाद युग में स्वतः बड़ा माना जाने लगता है। आमतौर से पुरुष कमाते हैं इसलिए वे स्त्रियों पर मनमानी चलाते है। जहाँ स्त्रियाँ कमाती हैं, वहाँ पुरुषों को उनका अनुशासन मानना पड़ता है, यह अर्थ तन्त्र की एक प्रतिक्रिया मात्र है। मानवीय अधिकारों की मूलभूत आस्था पर इसका प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए। स्त्रियाँ पुरुषों की दास हैं। यह मान्यता किसी भी प्रकार सामाजिक न्याय के अनुकूल नहीं। परस्पर प्रेम और सद्भाव से तो कुत्ते,घोड़े तक मनुष्य के ऊपर प्राण निछावर करने को तैयार हो जाते हैं। फिर स्त्री,पुरुष जिनकी अपूर्णता ही एक दूसरे के द्वारा पूर्ण होती है प्रेम और सौजन्य होने पर दो शरीर एक आत्मा बनकर क्यों न रहेंगे? वह कार्य बन्धनों और प्रतिबन्धों द्वारा संभव नहीं हो सकता।
हमें हर मानव प्राणी के मौलिक अधिकारों को स्वीकार करना ही चाहिए। हर व्यक्ति समान नागरिक अधिकार लेकर जन्मा है इस तथ्य को स्वीकार किया ही जाना चाहिए। जब तक उनके सामाजिक अधिकारों को स्वीकार न किया जायेगा, उन्हें कैदखाने का पशु मात्र बनाकर रखा जायेगा तब तक हमारी आधी जनता गुलाम की गुलाम बनी रहेगी। राजनैतिक स्वतंत्रता मिलने से हमें समता और स्वाधीनता के अधिकार मिलें हैं पर अभी भी स्त्रियों के रूप से आधा भारत उस अधिकार से वंचित है। शूद्रों की एक चौथाई जनता भी इन अधिकारों से वंचित है। इसे यों कहा जा सकता है कि उच्चवर्ण के पुरुषों को, जिनकी संख्या मूल आबादी की एक चौथाई मात्र है। मानसिक स्वाधीनता के अधिकार मिले हैं। तीन चौथाई जनता को भी यह अधिकार मिलने चाहिए। इसके बिना हमारी एक चौथाई स्वाधीनता सर्वथा अपूर्ण और अपर्याप्त ही बनी रहेगी।
व्यक्ति और समाज की अभिन्नता
यह भली प्रकार समझ लेना चाहिए कि हम समाज के अभिन्न अंग हैं। जिस प्रकार एक शरीर से संबद्ध सभी अवयवों का स्वार्थ परस्पर संबद्ध है उसी प्रकार सारी मानव जाति एक ही नाव में बैठी हुई है। घड़ी का एक पुर्जा खराब हो जाने पर सारी मशीन ही बन्द हो जाती है। शरीर का एक अंग पीड़ित होने पर उसका प्रभाव अन्य अवयवों पर पड़ता है। उसी प्रकार हम सब एक ही सूत्र में पिरोये हुए मन को की तरह परस्पर संबद्ध हैं। प्रत्येक कड़ी के ठीक तरह जुड़े रहने से ही जंजीर की मजबूती है। उनका बिखरना शुरू हो जाय तो जंजीर नाम की कोई चीज न रहेगी। तिनके पृथक-पृथक दिशा में अपना स्वार्थ लेकर चल पड़े तो रस्सी कैसे बनी रह सकेगी। सीकें यदि आत्म समर्पण न करें तो बुहारी कैसे बनेगी। पानी की बूँदें अपने अपने स्वार्थ अलग सोचें तो इतना विशाल समुद्र कैसे बन सकेगा? जाति और राष्ट्र का अस्तित्व इसीलिए है कि विशाल जनता उसमें आत्मसात हुई होती है। पृथकता की भावना रखने वाले, भिन्न स्वार्थों, भिन्न आदर्शों और भिन्न मान्यताओं वाले लोग कहीं बहुत बड़ी संख्या में भी इकट्ठे हो जाएँ तो वे एक राष्ट्र, समाज एक जाति नहीं बन सकते। एकता के आदर्शों में बँधे हुए और उस आदर्श के लिए सब कुछ निछावर कर देने की भावना वाले व्यक्तियों का समूह ही समाज या राष्ट्र है। शक्ति का स्त्रोत यही है। परस्पर मिल जुलकर ऐसी भावना का विकास करने से ही हमारी सर्वांगीण प्रगति का मार्ग प्रशस्त हो सकता है।
अपने सीमित वर्ग के स्वार्थ की बात सोचना अध्यात्मवादी आदर्शों के विपरीत है, हमें सबके हित में अपना हित सोचना चाहिए। शरीर का एक अंग बहुत बड़ा हो जाय तो वह बेडौल लगेगा। कुछ लोग धनी, समृद्ध, सम्पन्न, विद्वान−धर्मात्मा, ज्ञानी, बलवान बन जाएँ तो इतने मात्र से किसी बड़े उद्देश्य की पूर्ति होने वाली नहीं । हम सब सुखी रहेंगे, सम्पन्न बनेंगे, स्वस्थ रहेंगे, सद्चरित्र बनेंगे तो ही प्रत्येक की सुख शान्ति सुरक्षित रह सकेगी। चोर व्यभिचारी और हत्यारों के बीच में निवास करने वाला कोई सज्जन व्यक्ति भी अपनी शक्ति सुरक्षित नहीं रख सकता। फिर सामाजिक अव्यवस्था के बीच व्यक्तिगत स्वार्थ साधन की बात सोचते रहने पर भी हम कहाँ कुछ लाभ कमा सकेंगे? और यदि कमा भी लिया तो उसे कहाँ कुछ सुरक्षित रख सकेंगे? कहाँ उसका उपयोग कर सकेंगे?
उत्थान और पतन के रास्ते
व्यक्तिगत स्वार्थ को सामूहिक स्वार्थ के लिए उत्सर्ग कर देने का नाम ही पुण्य, परमार्थ है, इसी को देशभक्ति, त्याग, बलिदान, महानता आदि नामों से पुकारते हैं। इसी नीति को अपना कर मनुष्य महापुरुष बनता है, लोकहित की भूमिका सम्पादन करता है, अपने आदर्श से अनेकों को प्रेरणा देता है, और अपने देश समाज का मुख उज्ज्वल करता है। मुक्ति और स्वर्ग का रास्ता भी यही है। भगवान को प्राप्त करने की मञ्जिल भी यही है। आत्मा की शान्ति और सद्गति भी उसी पर निर्भर है। इसके विपरीत दूसरा रास्ता वह है जिसमें व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए सारे समाज का अहित करने के लिये मनुष्य कटिबद्ध हो जाता है। दूसरे चाहे जितनी आपत्ति में फँस जायँ, चाहे जितनी हानि और पीड़ा उठावें पर अपने के लिए किसी की कुछ परवा न की जाय। अपराधी मनोवृत्ति इसी को कहते हैं। नरक का रास्ता यही है। देश द्रोह, समाज द्रोह, धर्म द्रोह इसी को कहते हैं। आत्म हनन का, आत्म पतन का मार्ग यही है। इसी पर चलते हुए व्यक्ति नारकीय यंत्रणा से भरे हुये और सर्वनाश के गर्त में गिरता है।
सबके स्वार्थ में अपने स्वार्थ का समर्पण करके, व्यक्तिगत स्वार्थ से सामूहिक स्वार्थ का अधिक ध्यान रखने का आदर्श युग निर्माण संकल्प में इसीलिये सन्निहित रखा गया है कि हमारा सर्वांगीण विकास संभव हो सके। सब लोग परस्पर मिलजुल कर एक दूसरे को आगे बढ़ाने, ऊँचा उठाने, सुखी बनाने में सहयोग करेंगे तो वह युग समीप ही दिखाई देगा जिसकी पुनः स्थापना के लिये हम कटिबद्ध हुये हैं।