आत्म−निर्माण हमारा प्रमुख कर्तव्य

September 1962

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जिनने अखण्ड ज्योति के इस वर्ष के पिछले सब अंक पढ़े हैं वे जानते हैं कि युग−निर्माण योजना क्या है? और उसकी पूर्ति के लिए हमें क्या करना होगा? युग−निर्माण के तीन अंग हैं—

(1) आत्म−निर्माण (2) कुटुम्ब−निर्माण (3) समाज निर्माण। आत्म−निर्माण कार्यक्रम के अन्तर्गत अपने गुण, कर्म, स्वभाव के भीतर जो अनेकों प्रकार की बुराइयाँ भरी पड़ी हैं उन्हें धीरे−धीरे सुधारते हुए सभ्य, सुसंस्कृत, सज्जन और श्रेष्ठ मानव बनाने की ओर अग्रसर होना पड़ेगा। यह प्रगति धीमी हो सकती है। हम मानते हैं कि सब में इतना बल नहीं होता कि परिस्थितियों और आदतों के कारण गहराई तक जड़ जमाकर बैठी हुई अनेकों बुराइयों और त्रुटियों को एक ही दिन में सुधार लिया जाय। मनुष्य अपूर्ण और दुर्बल है, आत्म−निर्माण का कार्य सब से कठिन कार्य है। इतना होने पर भी असंभव नहीं कि किसी न किसी रूप में अपने सुधार का कुछ न कुछ कार्य आज से ही आरम्भ कर दिया जाय और आत्म−सुधार, आत्म−निर्माण और आत्म−विकास की मंजिल पार करने के लिए कदम−कदम बढ़ाते हुए एक दिन पूर्णता का परम लक्ष प्राप्त कर लिया जाय। हमें यह निश्चय करना ही पड़ेगा कि हमें अब अपनी बुराइयों और दुर्बलताओं से जूझना है।

गीता में अर्जुन और कृष्ण का संवाद मूलतः इन आन्तरिक बुराइयों से लड़ने के लिए ही है। कौरवों और पाण्डवों के रूप में तमोगुण असुरता और सतोगुण मानवता के संघर्ष का ही महाभारत में चित्रण किया गया है। यह महाभारत युग−निर्माण योजना के साथ−साथ आरम्भ किया जा रहा है। हम में से प्रत्येक को अर्जुन बन कर इसी महाभारत की विजय के लिए गाण्डीव उठाना और पाँचजन्य बजाना पड़ेगा। प्रगति कितनी ही मन्द क्यों न हो, कार्यक्रम कितना ही हलका क्यों न बनाया जाय आत्म−सुधार की दिशा में हमें चल पड़ने को अब तत्पर होना ही होगा।

आमतौर से हर आदमी अपने को सही, निर्दोष, निर्भ्रान्त और ठीक काम करने वाला मानता है। जबकि वस्तुतः उसमें अनेकों त्रुटियाँ और बुराइयाँ भरी पड़ी रहती हैं और बुराइयों के कारण शक्तियों की बर्बादी ही नहीं होती रहती वरन् आये दिन नित नई आपत्तियाँ भी खड़ी होती रहती हैं। पर कठिनाई एक ही है कि अपने दोष किसी की समझ में नहीं आते। जीवनक्रम का जो ढर्रा चल रहा है उससे असन्तोष तो रहता है पर यह सूझ नहीं पड़ता कि इसमें क्या परिवर्तन किया जाय और किस प्रकार किया जाय? अपनी आँख का तिल किसी को दिखाई नहीं पड़ता। अपना चेहरा अपनी आँखों से देख सकना कठिन है। यह तभी संभव होता है जब दर्पण का सहारा मिले। अपनी भूलों को ढूँढ़ने के लिए दर्पण के समान आत्म निरीक्षण की सद्बुद्धि अभीष्ट होती है। जिस प्रकार हम दूसरों की आलोचना, बहुत बारीकी से उसके दोषों को बताते हुए कर सकते हैं वैसी ही निष्पक्ष और तीक्ष्ण दृष्टि अपने बारे में पैदा हो जाय तो आत्म-सुधार की आधी मंजिल पार हो जाती है।

रोग और उसकी चिकित्सा

रोग का सही निदान हो जाय तो चिकित्सा का कार्य बहुत सरल हो जाता है। बीमारी का पता लग जाने पर फिर उसकी दवा ढूँढ़ निकालना कठिन नहीं रहता। हमारी प्रगति और सुख शान्ति में बाधा पड़ने के कारणों में अधिकाँश अपने दोष होते हैं। कभी−कभी दुष्ट, दुरात्मा अकारण ही दूसरों को सताने में मजा लेते हैं और अपना स्वार्थ साधन करने के लिए शैतानी कुचक्र रचते रहते हैं। इनका प्रतिरोध करने के लिए भी अपने में सज्जनता का होना आवश्यक है क्योंकि दुष्ट दुरात्माओं से निपटने के लिए अपने साथ जिस जनशक्ति की, लोकमत की, राजसत्ता की सहायता आवश्यक होती है उसकी उपलब्धि भी अपने सज्जन होने पर ही संभव है। अपना स्वभाव और चरित्र यदि दूषित हो तो किसी अवसर पर हमें निर्दोष सताया जा रहा हो तो भी अपना कोई सहायक न बनेगा। वरन् उस मुसीबत को मजा चखने की बात कहकर प्रसन्नता अनुभव करेंगे। दुष्टों को आक्रमण करने के लिए कुछ निमित्त चाहिए? उत्कृष्ट कोटि की सज्जनता के सामने उनके भी हौसले परास्त हो जाते हैं। सज्जनता में अपनी एक विशिष्ट शान्ति है जिसके आगे पड़ने में दुष्ट दुरात्माओं को आमतौर से हिचक होती है, यदि वे हमला करते भी हैं तो उन्हें अन्ततः परास्त ही होना पड़ता है। यह एक तथ्य है कि दृढ़ चरित्र के लोगों ने अपनी आत्मिक विशेषताओं के कारण न केवल परास्त किया है वरन् उनका हृदय परिवर्तन करके दुरात्मा से धर्मात्मा भी बना दिया है। इतिहास के पृष्ठ ऐसे उदाहरणों से पूरी तरह रंगे हुए हैं। दुष्टों से निपटने की समस्याऐं रहतीं तो हर मनुष्य के जीवन में हैं पर परेशान उन्हें ही करती हैं जिनमें अपनी त्रुटियाँ कुछ विशेष मात्रा में होती हैं। पर यह समस्याऐं अपवाद रूप ही हैं।

प्रगति और शान्ति का आधार

मूल प्रश्न उन तथ्यों का है जिनके ऊपर हमारी प्रगति और शान्ति निर्भर रहती है। यह तथ्य अपने सद्गुण ही हो सकते हैं। धन, विद्या, बुद्धि, बल, मित्र आदि अनेकों बल इस दुनिया में ऐसे मौजूद हैं जिनकी सहायता से प्रगति का पहिया आगे घूमता है पर सबसे बड़ा बल है, स्वभाव बल, चरित्र बल, विचार बल, व्यवस्था बल। इसका विचार अपनी भीतरी स्थिति को सुधारने पर ही संभव हो सकता है। पर कठिनाई यह है कि अपना पक्षपात करने का ऐसा पर्दा मनुष्य की बुद्धि पर पड़ा रहता है कि अपनी त्रुटियाँ दीख ही नहीं पड़तीं। सारी खराबियाँ और बुराइयाँ दूसरों में दीखती हैं। लोग दूसरों को सुधारना चाहते हैं और स्वयं अपरिवर्तनशील रहना चाहते हैं।

अपनी आलोचना कर सकना, आत्म निरीक्षण करके अपनी बुराइयाँ ढूँढ़ सकना और उन्हें सुधारने के लिए तत्पर हो सकना सचमुच ही एक बड़ी बहादुरी और दूरदर्शिता का काम है। जिसमें इतना साहस आ गया उसे सच्चे अर्थों में अध्यात्मिक व्यक्ति कहा जा सकता है। आत्म कल्याण की पहली सीढ़ी आत्म−निरीक्षण और दूसरी आत्म−सुधार है। जो अपनी समीक्षा करने और अपना सुधार कर सकने की आवश्यकता को समझता है और उसके लिए ईमानदारी से तत्पर रहता है वह गिरी हुई स्थिति में नहीं पड़ा रह सकता। उसके जीवन का विकास होने ही वाला है, उसे प्रगति के पथ पर चलते हुए एक दिन महापुरुषों की श्रेणी में अपनी गणना कराने का अवसर मिलने ही वाला है।

आत्म−चिन्तन और उपासना

अखण्ड−ज्योति के प्रत्येक पाठक को प्रातःकाल का समय ईश्वर चिन्तन के लिए और सायंकाल का समय आत्म−निरीक्षण के लिए नियत करना चाहिए। नित्य कर्म से निवृत्त होकर नियमित संध्या जप ध्यान करना एक उचित धर्म विधान है। उसे पालन करने का प्रयत्न हम सब लोग करें। असुविधा और परिस्थितियों के कारण इसमें कुछ व्यतिरेक होना क्षम्य भी कहा जा सकता है पर शैया पर नींद खुलने से लेकर जमीन पर पैर रखने के बीच का जो थोड़ा−सा समय रहता है वह अनिवार्य रूप से हम में से हर एक को ईश्वर चिन्तन में लगाना चाहिए। इस समय में फुरसत न मिलने जैसे बहाने का भी कोई प्रश्न नहीं है। सर्वव्यापक निष्पक्ष, न्यायकारी, परमेश्वर से सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा प्राप्त करने की प्रार्थना इस समय मन ही मन करते रहनी चाहिए। गायत्री मन्त्र का भावार्थ भी यही है। मानसिक गायत्री जाप इसे कहा जा सकता है। भावनापूर्वक मानसिक जाप और परमात्मा का ध्यान इस समय बहुत आसानी से हो सकता है। जो लोग नियमित उपासना करते हैं उन्हें भी और जो नहीं करते हैं उन्हें भी यह क्रम आरम्भ कर देना चाहिए। चारपाई से नीचे उतरने से पूर्व 15 मिनट की यह प्रार्थना अपने परिवार के हर व्यक्ति को करनी चाहिए और अपने प्रभाव में परिवार के जो−जो सदस्य हों उनसे इसे नियमित रूप से कराना चाहिए।

अपना दैनिक कार्य आरंभ करने से पूर्व “युग−निर्माण का सत्संकल्प” भावनापूर्वक पढ़ना चाहिए। जो पढ़े नहीं हैं उन्हें उतना ही कह लेना चाहिए। उन्हें उस मन्त्र का सार भाग अपने शब्दों में कह लेना चाहिए। मानव−जीवन का आदर्श, कर्तव्य धर्म और सदाचार का इस संकल्प मन्त्र में भावनापूर्ण समावेश हुआ है। इसका पाठ करना किसी धर्म ग्रन्थ के पाठ से कम प्रेरणा और पुण्य फल प्रदान करने वाला नहीं है।

बुराइयों और त्रुटियों का सुधार

सायंकाल को चारपाई पर पड़ने से लेकर सोने तक का समय आत्म−निरीक्षण में लगाना चाहिए। आज के दिन हमने क्या−क्या भूलें और बुराइयाँ कीं इस पर बहुत बारीकी से सोचना चाहिए। भूलें वे हैं जो अपराधों की श्रेणी में नहीं आतीं पर व्यक्ति के विकास में बाधक हैं। चिड़चिड़ापन, ईर्ष्या, आलस, प्रमाद, कटुभाषण, अशिष्टता, निंदा, चुगली, कुसंग, चिन्ता, परेशानी, व्यसन, वासनात्मक कुविचारों एवं दुर्भावनाओं में जो समय नष्ट होता है उसे स्पष्टतः समय की बर्बादी कहा जायेगा। प्रगति के मार्ग में यह छोटे−छोटे दुर्गुण ही बहुत बड़ी बाधा बनकर प्रस्तुत होते हैं इसलिए सायंकाल को आत्म−निरीक्षण के समय यह विचार करना चाहिए कि आज इस प्रकार की भूलों में हमारा कितना समय बर्बाद हुआ। यह भूलें प्रत्यक्षतः अपराध नहीं मानी जातीं तो भी यह अपराधों के समान ही हानिकारक हैं। बुराइयों में नैतिक बुराइयाँ गिनी जाती हैं झूठ, हिंसा, नशेबाजी, व्यभिचार, बेईमानी, चोरी, जुआ, ठगी, क्रूरता, गुण्डागर्दी, अशिष्टता आदि की मोटी बुराइयाँ तो स्पष्टतः त्याज्य हैं। इनके विचारों का मन में प्रवेश करना भी मानसिक पाप कहा जाता है। उससे भी बचना चाहिए। आज दिन में जो बुराइयाँ और भूलें बन पड़ी हैं उनका आत्मा द्वारा मन से उसी प्रकार लेखा−जोखा लिया जाना चाहिए जिस प्रकार कोई उद्योगपति अपने कारखाने के मैनेजर से रोज के कार्य और हिसाब का लेखा−जोखा लिया करता है। दोषों की कमी होते चलना और गुणों की बढ़ोत्तरी होना आत्मिक प्रगति के व्यापार में लाभ होने का चिन्ह है। यदि बुराइयाँ बढ़ रही हैं और अच्छाइयाँ घटें तो समझना चाहिए फर्म दिवालिया होने जा रही है। पूर्ण निर्दोष कोई नहीं, और न कोई पूर्ण गुणवान ही इस दुनिया में है। फिर भी प्रयत्न करते रहा जाय तो हमारी बुराइयाँ और भूलें दिन−दिन घटती और श्रेष्ठताऐं बढ़ती चल सकती हैं। इससे आज का लेखा−जोखा समझने के बाद कल के लिए ऐसी योजना सोचनी चाहिए कि श्रेष्ठता की अभिवृद्धि और क्षुद्रता की कमी होने लगे। रोज−रोज यह कार्यक्रम ठीक तरह बनाया जाता रहे और उस पर अगले दिन चला जाता रहे तो आत्म−सुधार का कार्य निरन्तर गतिवान रह सकता है।

समय का विभाजन

हम में हर एक को आठ घण्टे रोजी−रोटी कमाने के लिए, दस घण्टे सोने, खाने और नित्य कर्म के लिए लगाने चाहिए। इसके बाद 6 घण्टे शेष बचते हैं। इन्हें आत्म−निर्माण में, परिवार निर्माण में और समाज निर्माण के लिए परमार्थ प्रयोजन में खर्च करना चाहिए। उपासना यदि सच्चे मन से पूर्ण निष्ठा से और तन्मयतापूर्वक की जाय तो वह एक घण्टा भी, बेमन से बेगार भुगत कर किये जाने वाले छह घण्टे जप से भी अधिक महत्वपूर्ण सिद्ध हो सकती है। घट−घट−वासी भगवान विधान को नहीं, भावना को देखते हैं। विशेष व्यक्तियों द्वारा या विशेष अवसरों पर विशेष साधनाओं के लिए विशेष समय भी उपासना में लगाया जाना चाहिए, पर साधारण परिस्थितियों के व्यक्तियों के लिए नियमित रूप से सच्चे मन से की गई एक घण्टे की उपासना भी पर्याप्त हो सकती है। परमार्थ के लिए निकाले गये छह घण्टे में से उपासना का एक घण्टा कम कर देने के बाद शेष पाँच घण्टे जो बचते हैं उनमें से एक घण्टा स्वाध्याय के लिए निश्चित रूप से रखा जाना चाहिए। यह कार्य भजन से किसी भी प्रकार कम महत्व का नहीं है। आत्म−निर्माण की समस्याओं को, जीवन की विभिन्न गुत्थियों को सुलझाने में सहायता करने वाला साहित्य ही स्वास्थ्य की आवश्यकता पूरी करता है। कथा पुराणों की धर्म गाथाऐं सुनना पढ़ना उचित है पर उसे स्वाध्याय नहीं मानना चाहिए क्योंकि उसके द्वारा वर्तमान काल की परिस्थितियों और समस्याओं को ध्यान में रखते हुए कोई क्रमबद्ध सुझाव प्रस्तुत नहीं किये जाते हैं।

प्रतिभा और क्षमता बढ़ावें

ज्ञान वृद्धि के लिए, अपने बौद्धिक विकास के लिए विद्याध्ययन, शारीरिक उन्नति के लिए व्यायाम, टहलना, उपचार, कोई कला कौशल सीखना आदि के कार्यक्रम भी आत्म−निर्माण के अन्तर्गत आते हैं। हम आज जहाँ हैं कल उससे ऊँचे स्तर पर पहुँचे, आज की अपेक्षा कल हमारी क्षमता, योग्यता, शक्ति, सामर्थ्य और प्रतिभा अधिक विकसित हो यह भावना रखते हुए अगले दिन का कार्यक्रम बनाते रहना चाहिए और एक−एक कदम प्रगति की ओर बढ़ाते हुए पूर्ण विकास के लिए हमें निरन्तर अग्रसर होते रहना चाहिए। विभिन्न व्यक्तियों की परिस्थिति अभिरुचि और सुविधा भिन्न−भिन्न प्रकार की होती है इसलिए सब के लिए कोई एक समान कार्यक्रम तो नहीं बन सकता पर सोचने और ढूँढ़ने पर हर व्यक्ति अपनी प्रतिभा और क्षमता को आज की अपेक्षा कल कुछ न कुछ अधिक बढ़ाने के लिए कोई न कोई उपाय निकाल ही सकता है। कोई न कोई मार्ग ढूँढ़ ही सकता है।


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