सद्गुणों की सच्ची सम्पत्ति

September 1962

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“नागरिकता, नैतिकता, मानवता सच्चरित्रता, शिष्टता उदारता, आधीनता, मानवता, सहिष्णुता जैसे सद्गुणों को सच्ची सम्पत्ति समझकर उन्हें व्यक्तिगत जीवन में निरन्तर बढ़ाता चलूँगा । साधना, स्वाध्याय संयम एवं सेवा कार्यों में आलस्य और प्रमाद न होने दूँगा। चारों और मधुरता, स्वच्छता एवं सज्जनता का वातावरण उत्पन्न करूँगा।”

युग निर्माण संकल्प का द्वितीय अनुच्छेद (पैराग्राफ) आत्म−सुधार की प्रेरणा उपलब्ध करने के लिये है। इस संसार का एक सुनिश्चित तथ्य है कि अपनी मुखाकृति ही बाहर के दर्पण में दीखती है। संसार एक दर्पण के समान है। हम जैसे भी कुछ सुन्दर कुरूप हैं वैसी ही छाया दर्पण में खड़ी दिखाई पड़ती है। सज्जनों के साथ यह दुनिया सज्जनता का बरताव करती है। सन्तों का सम्मान होता है, परोपकारियों के चरणों में लाखों मस्तक झुकते हैं। स्वार्थियों से घृणा की जाती है, कटुभाषियों का तिरस्कार होता है, कुकर्मियों की प्रताड़ना की जाती है। क्रोधी और आवेशग्रस्तों को भर्त्सनापूर्ण व्यवहार उपलब्ध होता है। अविश्वासी लोग अपने चारों ओर शत्रु ही शत्रु देखते हैं, गन्दे गलीजों को बीमारी और काहिल आलसियों को दरिद्रता घेरे रहती है।

आन्तरिक स्थिति का बाह्य प्रतिबिम्ब

चिन्ता में डूबे रहने वाले अपना खून सुखाया करते हैं। निराश, कायर, संशयी, भयभीत लोगों को अपना भविष्य अन्धकारमय दीखता रहता है तथा कोई अप्रत्याशित विपत्ति टूट पड़ने की आशंका बनी रहती है। इसके विपरीत साहसी पुरुषार्थी और आशावादी लोग पर्वतों की चोटी पर से अपना रास्ता बना लेते हैं। अपने स्वभाव में नम्रता, मधुरता, सदाशयता और भलमनसाहत की समुचित मात्रा समाविष्ट कर लें तो प्रत्युत्तर में हर दिशा से स्नेह, सहयोग और सम्मान उपलब्ध होने के साथ−साथ समृद्धि एवं प्रगति के अवरुद्ध द्वार भी खुल जाते हैं। मुक्ति और स्वर्ग जैसी अध्यात्मिक सफलताऐं ऋद्धियाँ सिद्धियाँ एवं विभूतियाँ भी आत्म−सुधार पर ही निर्भर रहती हैं। यह एक प्रत्यक्ष तथ्य है कि साधना रूपी औषधि तभी काम करती है जब आत्म−सुधार रूपी पथ्य का समुचित ध्यान रखा जाय। दुर्गुणों और दुर्भावों से भरे दुष्ट मानस वाले व्यक्ति न इस लोक में कोई सफलता पाते हैं न परलोक में उनकी सद्गति होती है।

भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों ही दृष्टियों से आत्म−सुधार अत्यन्त आवश्यक कार्य है। अपनी गलतियों को ढूँढ़ना, अपनी बुरी आदतों को समझना, अपनी आन्तरिक दुर्बलताओं को अनुभव करना और उन्हें सुधारने के लिए निरन्तर संघर्ष करते रहना यही जीवन संग्राम है। भगवान ने गीता में इसी महाभारत रूपी संग्राम को निरन्तर जारी रखने की प्रेरणा दी थी और कहा था कि इसमें हारना या जीतना दोनों ही श्रेयस्कर हैं। आत्म−निमार्ण के व्यापक आन्दोलन का नाम ही युग−निर्माण है। एक−एक सींक मिल कर झाडू बनती है, इसी प्रकार सुधरे हुए एक−एक व्यक्ति जब बड़ी संख्या में बढ़ने लगेंगे तब युग बदल जायेगा। युग−निर्माण से तात्पर्य है व्यक्ति निर्माण और व्यक्ति निर्माण का अर्थ है गुण कर्म स्वभाव की दृष्टि से मानवीय विशेषताओं से परिपूर्ण व्यक्तित्व का विकास। इस लक्ष की पूर्ति के लिए यह आवश्यक है कि हर व्यक्ति अपनी निजी त्रुटियों एवं दुर्बलताओं पर अधिकाधिक ध्यान दे और उन्हें सुधारने के लिए प्राणप्रण से प्रयत्न करे। इसी क्रिया प्रणाली को अपना कर हम सब आगे बढ़ रहे हैं। सत् संकल्प के द्वितीय अनुच्छेद में इसी का स्पष्टीकरण किया गया है।

सच्ची और स्थिर सम्पत्ति

आमतौर से धन दौलत को, जेवर जायदाद को सम्पत्ति समझा जाता है। इन्हीं के उपार्जन के लिए हर किसी का मन ललचाता रहता है। अपनी−अपनी परिस्थिति योग्यता और चतुरता के आधार पर लोग इन्हें कमाते भी हैं और जो सुख सुविधा इनके द्वारा प्राप्त की जा सकती है उसका उपयोग भी करते हैं। जन प्रवृत्ति की इस धारा पर गंभीरता पूर्वक विचार करने से यह प्रयत्न अधूरा, एकांगी एवं दोषपूर्ण ही सिद्ध होता है। धन सम्पत्ति भी उसी के लिए सुखदायक हो सकती है जिसके पास सद्गुणों की आध्यात्मिक सम्पत्ति होगी। यदि उसका अभाव रहा तो धन दौलत पाकर लोगों के दिमाग ही खराब होते हैं। वे अहंकारी उद्दंड, अत्याचारी अपव्ययी, शेखीखोर व्यसनी लालची और कुकर्मी बनते हैं। निरन्तर असन्तोष में डूबे रहते हैं और ईर्ष्या द्वेष की जंजीरों से बुरी तरह जकड़ जाते हैं। सद्गुणी व्यक्ति उपलब्ध संपदा के सदुपयोग से जहाँ अपना और अपने परिवार का जीवन क्रम सुविकसित बनाते हैं वहाँ वे समाज के लिए लाभदायक पुण्य परमार्थों का भी आयोजन करते हैं। इस दृष्टि से धन सम्पत्ति की उपयोगिता तभी रह जाती है जब उसके साथ सद्गुणों की सम्पत्ति भी समन्वित हो । सद्गुणी रहने पर सम्पत्ति उपार्जित की जा सकती है, पर दुर्गुणी के लिए उत्तराधिकार आदि प्रारब्धजन्य किसी कारणवश प्राप्त हुई सम्पदा भी न केवल कुछ ही दिन में स्वाहा हो जाती है वरन् अनेकों प्रकार की विपत्तियाँ भी उत्पन्न करके रख देती है। इसलिए धन दौलत को झूठी और सद्गुणों को सच्ची सम्पदा कहा गया है। झूठी सम्पत्ति कमाने से नहीं, सच्ची सम्पत्ति के संग्रह में ही मनुष्य की बुद्धिमत्ता परखी जाती है।

अस्थिर और चंचल चपला

नागरिक कर्तव्यों का ध्यान रखना, भौतिकता, मानवता, सच्चरित्रता, शिष्टता, उदारता, आत्मीयता, दूसरों के सुख दुख में अपने जैसी सुख−दुख की अनुभूति, दूसरों की भावनाओं का आदर करते हुए सहिष्णुता, समन्वय और समझौता करके चलने की उदारता, मीठा बोलना, शिष्टाचार बरतना और हर कार्य में मुस्तैदी तथा सज्जनता का परिचय देना आदि कितने ही ऐसे सद्गुण हैं जिनको अधिकाधिक मात्रा में निरन्तर बढ़ाते चलने का प्रयत्न हमें करते रहना चाहिए। यह सम्पत्ति जिसने जितनी मात्रा में एकत्रित कर ली, वस्तुतः वही सच्चे अर्थों में उतने धन का धनी माना जायेगा। पैसा अस्थिर है, लक्ष्मी को चंचल कहा गया है। परिस्थितियों के दो थपेड़ों में जीवन भर की कमाई देखते−देखते नष्ट हो सकती है। बीमारी, मुकदमा, चोरी, विवाह−शादी, घाटा, आपत्ति आदि के एक दो थपेड़ों में ही धनवानों को निर्धन होते हम रोज ही देखते हैं। पर सद्गुणों की सम्पत्ति ऐसी है जो हर विपत्ति के बाद और भी अधिक प्रखर बनती है। हर अग्नि संस्कार के बाद सोना अधिक खरा बनता चलता है। विपत्तियों और कठिनाइयों में भी सद्गुणों का जो परिचय दिया जाता है वह इतिहास की एक अमर गाथा बनकर रह जाता है। कर्ण का युद्धस्थल में घायल पड़े होने पर भी अपना दाँत तोड़कर उसमें लगा सोना दान करने का यश तब तक अजर अमर रहेगा जब तक यह धरती आकाश कायम है। हरिश्चन्द्र, शिवि, दधीच, मोरध्वज , शैव्या, सीता आदि ने अपने सद्गुणों की परीक्षा दी थी पर इससे उनकी यह आध्यात्मिक सम्पदा विजय पताका के रूप में सदा फहराते रहने के लिए अजर अमर हो गई। मानव जीवन की यही सच्ची सम्पत्ति है और उसे ही निरन्तर बढ़ाते चलने का प्रयत्न करना चाहिए। छाया की भाँति धन-दौलत की लौकिक सम्पत्ति तो अनायास ही सच्ची सम्पदा के सद्गुणों के पीछे−पीछे चला करती हैं।

साधना अनिवार्य है

शास्त्रों में आत्म निर्माण के चार साधन बताये गये हैं (1) साधन (2) स्वाध्याय (3) संयम (4)सेवा, इन चारों की वही उपयोगिता है जो शरीर में हाथ पैरों की है। इनके बिना आत्म−कल्याण की दिशा में एक कदम भी आगे बढ़ सकना संभव नहीं हो सकता। ईश्वर उपासना को दैनिक जीवन में से बिलकुल हटा देना किसी भी प्रकार उपयुक्त नहीं। मन न लगने पर भी किसी न किसी प्रकार आदत में इसे सम्मिलित करने के लिए साधना का कुछ न कुछ अभ्यास नित्य ही करते रहना चाहिए। आत्म शक्ति जब कभी जिस किसी को भी प्राप्त हुई है तब उसमें आस्तिकता और उपासना का कोई न कोई अंश जरूर रहा है। भले ही हम बिस्तर से उठते और सोते समय पन्द्रह−पन्द्रह मिनट भगवान सर्वव्यापक, निष्पक्ष न्यायकारी, विचार और कार्यों के अनुरूप प्रसन्न एवं अप्रसन्न होने वाले परमात्मा का ध्यान और स्मरण किया करें, पर किसी न किसी रूप से दैनिक उपासना तो किया ही करें। नित्य कर्म से निवृत्त होकर विधिवत् थोड़ी पूजा बन पड़े, इसमें फुरसत का प्रश्न नहीं, अभिरुचि का प्रश्न है। थोड़ी अभिरुचि इधर बढ़ते ही इस मार्ग से आनन्द आने लगता है और फुरसत उसके लिए सहज ही मिल सकती है। आस्तिकता और उपासना की मानव जीवन में कितनी अधिक आवश्यकता और उपयोगिता है इसका उल्लेख मार्च की ‘अखंड−ज्योति’ में किया जा चुका है। उपासना निश्चित रूप में एक श्रेष्ठ आध्यात्मिक पुरुषार्थ है। इस दिशा में लगाया हुआ थोड़ा सा समय भी किसी भी लाभदायक कार्य में किये गये श्रम की अपेक्षा कम महत्वपूर्ण एवं लाभदायक सिद्ध नहीं होता।

स्वाध्याय की महत्ता

स्वाध्याय की उपयोगिता पिछले लेख में बताई जा चुकी है। मैले कपड़े को साफ करने के लिए जो उपयोगिता साबुन की है वही मन पर चढ़े हुए मैल को शुद्ध करने के लिए स्वाध्याय की है। मनुष्य के पास सर्वोत्तम विशेषता उसकी विचार बुद्धि की ही है और इन विचारों का सही एवं सुसंस्कृत बनना स्वाध्याय पर निर्भर है। श्रेष्ठ पुरुषों की कमी, उनके पास समय का अभाव और अपने लिए भी समुचित फुरसत की कमी रहने के कारण अब उपयुक्त सत्संग की व्यवस्था बन सकना कठिन है, ऐसी दशा में जीवन निर्माण के श्रेष्ठ साहित्य का स्वाध्याय ही सत्संग की आवश्यकता को भी पूरी करता है। विचारों का निर्माण ही जीवन निर्माण है, इसलिए स्वाध्याय की उपयोगिता आहार से भी बढ़कर हो जाती है। जिस प्रकार भोजन त्याग कर शरीर को जीवित रख सकना कठिन है, इसी प्रकार स्वाध्याय की उपेक्षा करके, उसका परित्याग करके कोई व्यक्ति न तो अपने आत्मिक स्तर को ऊँचा उठा सकता है और न स्थिर रख सकता है । बिना पढ़े लोगों के लिए भी उचित है कि वे श्रेष्ठ साहित्य का स्वाद किया करें। दुर्भिक्ष काल में जिस प्रकार साधन सम्पन्न लोग भूखों मरते हुओं को अन्न की व्यवस्था जुटाते हुए पुण्य लाभ करते हैं उसी प्रकार स्वाध्यायशील अपने घर के तथा बाहर के अशिक्षितों को पढ़ाकर सयाना करें और उनके आत्मिक जीवन को हरा−भरा रखने में अपने पसीने से सिंचन करने के महान पुण्य प्राप्त किया करें। ज्ञान दान इस संसार का सर्वश्रेष्ठ दान है। इसकी तुलना और किसी बड़े से बड़े पुण्य के साथ भी नहीं हो सकती ।

सर्वांगीण संयम

इन्द्रियों का संयम तो आवश्यक है। चटोरेपन और काम−वासना पर तो कड़ा नियंत्रण होना ही चाहिए। साथ ही स्वभाव और विचारों का संयम भी आवश्यक है। विचारों को अनुपयुक्त दिशा में जाने से रोकने के लिए उनके विरोधी विचार करने की आदत डालनी चाहिए। लोहे को लोहा काटता है, काँटे से काँटा निकलता है, विचारों से विचार कटते हैं। बुरे विचार जब भी मन में आवें तब उनके ठीक विरोधी विचार करना आरम्भ कर देना चाहिए। जिस प्रकार दोनों पक्ष के वकीलों की बहस सुनने पर अदालत सही निर्णय दे सकने के लायक अपना निष्कर्ष निकाल पाती है, उसी प्रकार कुविचारों के साथ−साथ यदि सद्विचारों का पक्ष भी प्रस्तुत किया जाय तभी विवेक द्वारा कुछ सही निर्णय किये जाने की आशा रहती है। यदि कोई अदालत केवल एक ही पक्ष के बयान, गवाह एवं बहस सुने, दूसरे पक्ष की बात कहने सुनने वाला कोई न हो तो अदालत को सही बात समझने में कठिनाई रहेगी और ठीक निर्णय दे सकना उसके लिए कठिन हो जायेगा। एक पक्षीय विचार मन में उठने लगें तो बुद्धि का झुकाव उन्हीं की ओर हो जाता है और वैसे ही कार्य करने का आदेश दे देती है।

हमारे निर्णय ठीक हों इसलिए यह नितान्त आवश्यक है कि कुविचारों के ठीक विरोधी सद्विचारों वाला पहलू भी हम बुद्धिरूपी अदालत के सामने निरन्तर प्रस्तुत करते रहें। हर बात के दो पहलू होते हैं, दोनों पर विचार कर लेने से बौद्धिक संयम का लाभ प्राप्त होता है फिर हम आवेश उत्तेजना या भावुकता में कोई एक पक्षीय निर्णय कर बैठने के खतरे में नहीं पड़ते। स्वभाव का संयम आवेश और उत्तेजना से संबद्ध है। छोटी−छोटी बातों पर कई व्यक्ति बहुत अधिक उत्तेजित हो उठते हैं। क्रोध, आवेश, द्वेष, मैत्री, उदारता, भावुकता आदि की दुर्गति कर देते हैं, उस आवेश से उत्पन्न होने वाले दुष्परिणामों के संबन्ध में विचार नहीं करते और समय निकल जाने पर पछताते रहते हैं। स्वभाव का छिछोरापन छुड़ा कर उसे संजीदा और गंभीर बनाना मानसिक संयम की प्रमुख प्रक्रिया है। जब हमारा संयम इन्द्रिय निग्रह तक ही नहीं, विचार और स्वभाव के नियंत्रण क्षेत्र में भी कारगर होता है तब भी संयमशीलता की सफलता मानी जाती है।

सेवा का सोमरस

सेवा वह अग्नि है जिसमें तपे बिना कोई अन्तःकरण शुद्धता निर्मलता, उदारता एवं आध्यात्मिकता की कसौटी पर खरा उतर सकने योग्य नहीं बन सकता। संन्यास लेने से पूर्व जीवन का एक चौथाई भाग वानप्रस्थ में रहकर समाज सेवा करने के लिए नियत किया हुआ है। जो लोग सेवा धर्म की अत्यंत आवश्यक प्रक्रिया से कतराते हैं और केवल भजन करके आत्मिक प्रगति की आशा करते हैं वे वैसे ही बालक हैं जो प्रथम कक्षा से छलांग मार कर अन्तिम कक्षा उत्तीर्ण करना चाहते हों और बीच की सभी कक्षाओं को छोड़ देना चाहते हों। सद्विचारों का क्रियात्मक रूप सेवा है। आत्मशुद्धि का प्रत्यक्ष चिह्न सेवा एवं परमार्थ में रुचि ही है। जो अपने मतलब से मतलब रखने में चौकस है, जिसे अपने दीन दुखी बन्धु बाँधवो की कठिनाइयों का कोई ध्यान नहीं, जो केवल अपनी ही लौकिक या पारलौकिक उन्नति की स्वार्थ साधना में लगा रहता है वह अभागा चाहे योगी यती ही क्यों न हो, आत्म कल्याण के लक्ष को कदापि प्राप्त न कर सकेगा। स्वार्थ जब तक परमार्थ में न बदलेगा तब तक आत्मा भी परमात्मा पद को प्राप्त नहीं कर सकती।

सेवा का आत्म सन्तोष से सीधा सम्बन्ध है। परोपकार की दृष्टि से निस्वार्थ भावना से हम जो कुछ करते हैं उसकी प्रतिक्रिया आत्म संतोष के रूप में तुरन्त ही परिलक्षित होने लगती है। आत्म−सन्तोष को ही शास्त्रों में सोमरस कहा गया है उसे ही पीकर ऋषि−मुनि देवपद प्राप्त किया करते थे। सत्कार्यों द्वारा आत्म संतोष की कुछ बूँद जिन्हें उपलब्ध होती रहती हैं वे अपने को कृतकृत्य माने बिना नहीं रह सकते। सामाजिक दृष्टि से भी सेवा एक अत्यन्त उपयोगी प्रक्रिया है उससे पिछड़े हुए लोगों को ऊपर उठने और दीन दुखियों को राहत प्राप्त करने का अवसर मिलता है। दुख और सुख को बाँट लेना आध्यात्मिक साम्यवाद है। सुखी लोग अपने सुख का एक अंग दुखियों को बाँट दें तो उनके ऊपर लदा हुआ सुविधाओं का अनावश्यक भार घट सकता है और मोटे पेट वाले रोगी को वादी छँट जाने से जैसी प्रसन्नता होती है वैसी ही उन्हें भी मिल सकती है। इसी प्रकार दुखियों का दुख थोड़ा−थोड़ा वे लोग बाँट लें जो समर्थ हैं तो उन बेचारों का दुख भी हलका हो सकता है।

एक के पास नमक दूसरे के पास शक्कर हो और दोनों अपने−अपने से ही काम चलाएँ तो दोनों के भोजन अस्वादिष्ट रहेंगे पर यदि वे दोनों आपस में बाँट लें तो नमकीन और मीठे स्वाद का व्यंजन दोनों को ही मिल सकता है। धन के बँटवारे की माँग भौतिक साम्यवाद के क्षेत्रों से उठ रही है। आध्यात्मिक साम्यवाद की माँग दुख और सुख के बँटवारे की है। इसी का सक्रिय रूप सेवा धर्म है। सेवा सदाचार का अंग है,अध्यात्म का प्रमुख सोपान समाज की प्रगति का इसे आधार स्तम्भ कह सकते हैं। सहयोग और सामूहिकता की सत्प्रवृत्तियाँ सेवा बुद्धि की उदारता होने पर ही पनप सकती हैं और उनके पनपने पर ही कोई राष्ट्र सुसम्पन्न एवं समुन्नत हो सकता है।

सज्जनोचित शिष्ट व्यवहार

चारों ओर मधुरता, स्वच्छता एवं सज्जनता का वातावरण उत्पन्न करना मनुष्यता का आवश्यक गुण है। चंदन का वृक्ष अपने आस-पास के पेड़-पौधों को भी अपने समान सुगन्धित बना लेता है, दीपक स्वयं प्रकाशित होता है और अपनी आदत से समीपवर्ती क्षेत्र को आलोकित कर देता है, बर्फ के आस−पास की हवा ठंडी हो जाती है और अग्नि के समीप मनुष्य में मानवोचित गुण हैं या नहीं, इसकी परीक्षा यह है कि वह अपने सम्पर्क की वस्तुओं को, देह, वस्त्र, घर औजार आदि उपकरणों को स्वच्छ रखता है या नहीं, गंदा, गलीज, मैला, कुचैला, फूहड़, अव्यवस्थित व्यक्ति एक प्रकार का पशु ही माना जायेगा। मन और स्वभाव में स्वच्छता होगी तो उसके आस−पास भी सफाई का वातावरण दृष्टिगोचर होगा। भीतर की सज्जनता बाहर नम्रता और मधुरता बनकर मुखरित होती है। कठोर वाणी केवल कठोर हृदय व्यक्ति ही बोल सकता है। जिसके व्यवहार में अहंकार, उद्दंडता, कटाक्ष, व्यंग्य, निंदा, तिरस्कार, उपहास जैसे भाव टपकते हैं वह व्यक्ति वस्तुतः दुष्ट है। यदि हम किसी को कुछ दे नहीं सकते तो कम से कम मनुष्योचित नम्र और मधुरवाणी में उत्तर तो दे ही सकते हैं। मीठी और कड़ुई वाणी के कारण ही कोयल को प्रशंसा और कौए को निन्दा का भाजन बनना पड़ता है। हम यदि स्वच्छता मधुरता और सज्जनता का शिष्ट व्यवहार करना भी नहीं जानते तो क्योंकर मनुष्य कहलाने के अधिकारी बन सकते हैं? जिसके आस−पास का वातावरण गंदगी, द्वेष, असन्तोष और क्षोभ से भरा हुआ है उसे मनुष्योचित सद्गुणों से रहित ही माना जायेगा। हमारा कर्तव्य है कि हम चन्दन वृक्ष की तरह बनें और अपनी सुगंधि से सारे समीपवर्ती क्षेत्र को सुवासित बनाएँ।


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