इस अंक के प्रथम पृष्ठ पर ‘युग−निर्माण सत्संकल्प' दिया गया है। यही संकल्प गत मार्च अंक में भी था। पर उसमें कुछ पुनरुक्तियाँ तथा भाषा संबंधी अशुद्धियाँ रह जाने के कारण अब इसे परिष्कृत एवं संशोधित रूप से प्रस्तुत कर दिया गया है। युग−निर्माण, जिसे लेकर अखण्ड ज्योति परिवार अब निष्ठा और तत्परतापूर्वक अग्रसर हो रहा है, उसका बीज विचार यही है। उसी आधार पर हमारी सारी विचारणा, योजना, गतिविधियाँ एवं कार्यक्रम संचालित होंगे। इसे अपना घोषणा−पत्र भी कहा जा सकता है। हममें से प्रत्येक को एक दैनिक धर्म कृत्य की तरह इसे नित्य प्रातःकाल पढ़ना चाहिए और सामूहिक शुभ अवसरों पर एक व्यक्ति उच्चारण करे और शेष उसे दुहरावें की शैली से इसे पढ़ा एवं दुहराया जाना चाहिए।
संकल्प की महान महत्ता
संकल्प की शक्ति अपार है। यह विशाल ब्रह्मांड परमात्मा के एक छोटे से संकल्प का ही प्रतिफल है। परमात्मा में इच्छा उठी−‛एकोऽहंबहुस्याम’ मैं अकेला हूँ− बहुत हो जाऊँ, उस संकल्प के फलस्वरूप तीन गुण, पंचतत्त्व उपजे और यह सारा संसार बनकर तैयार हो गया। मनुष्य के संकल्प द्वारा इस ऊबड़−खाबड़ दुनिया को ऐसा सुव्यवस्थित रूप मिला है। यदि ऐसी आकांक्षा न जगी होती, आवश्यकता अनुभव न हुई होती तो कदाचित मानव प्राणी भी अन्य वन्य पशुओं की भाँति अपनी मौत के दिन पूरे कर रहा होता।
इच्छा जब बुद्धि द्वारा परिष्कृत होकर दृढ़ निश्चय का रूप धारण कर लेती है, तब वह संकल्प कहलाती है। मन का केंद्रीयकरण जब किसी संकल्प पर हो जाता है तो उसकी पूर्ति में विशेष कठिनाई नहीं रहती । मन की सामर्थ्य अपार है, जब भावनापूर्वक मनोबल किसी दिशा में संलग्न हो जाता है तो सफलता के उपकरण अनायास ही जुटते चले जाते हैं। बुरे संकल्पों की पूर्ति के लिए भी जब साधन बन जाते हैं, तब सत्संकल्पों के बारे में तो कहना ही क्या है। धर्म और संस्कृति का जो विशाल भवन मानव जाति के सिर पर छत्रछाया की तरह मौजूद है, उसका कारण ऋषियों का संकल्प ही है। संकल्प इस विश्व की सबसे प्रचंड शक्ति है। विज्ञान की शोध द्वारा अगणित प्राकृतिक शक्तियों पर विजय प्राप्त करके वशवर्ती बना लेने का श्रेय मानव की संकल्प शक्ति का ही है। शिक्षा, चिकित्सा, शिल्प, उद्योग, साहित्य, कला संगीत, आदि विविध दिशाओं में जो प्रगति हुई आज दिखाई पड़ती है उसके मूल में मानव का संकल्प ही सन्निहित है। इसे प्रत्यक्ष कल्पवृक्ष कह सकते हैं। आकाँक्षा को मूर्त रूप देने के लिए जब मनुष्य किसी दिशा विशेष में अग्रसर होने के लिए दृढ़ निश्चय कर लेता है तो उसकी सफलता में सन्देह नहीं रह जाता।
इस युग को बदला ही जाय
इन दिनों जिस युग में हम रह रहे हैं उसकी ऐसी परिस्थितियाँ दिन−दिन घटती जाती हैं जिनमें रह कर मनुष्य प्रसन्नता और शान्ति प्राप्त करता हुआ प्रगति के पथ पर अग्रसर हो सके। आज तो वही परिस्थितियाँ बढ़ोतरी पर हैं जिनमें रहते हुए दम घुटता है और रोटी पानी खाता हुआ मनुष्य भूखा प्यासा रहता अनुभव करता है। शारीरिक परिस्थितियों पर दृष्टिपात करें तो लगता है कि हमारी बाहरी चमड़ी का लिफाफा मात्र तो सीधा खड़ा है भीतर सब कुछ खोखला हो चुका। न किसी का पेट ठीक काम करता है न मस्तिष्क। रस रक्त से लेकर वीर्य ओज तक सभी धातुऐं निस्तेज, निष्प्राण पड़ी हैं। रोगों ने रोम−रोम में घेरा डाल रखा है, आये दिन किसी न किसी अंग में कोई न कोई बीमारी खड़ी रहती है। दवा और इन्जेक्शनों के बल पर, डाक्टर और हकीमों की कृपा से, गाढ़ी कमाई का एक बड़ा भाग खर्च करने के बाद जीवन नौका किसी प्रकार गतिशील रह पाती है।
अधिक परिश्रम का, ऋतुओं के प्रभाव का, हारी बीमारी का कोई जरा−सा झटका लग जाय तो उसका टी.वी. सरीखा असाध्य रूप बन जाने में देर नहीं लगती। कागज के पुतले को गला देने के लिए पानी की चंद बूँदें काफी होती हैं, हमारे जीवनी शक्ति से रहित शरीरों को मृत्यु के मुख में धकेल देने के लिए एक छोटी−सी बीमारी का कुछ दिन बना रहना पर्याप्त है। जरा−सी असफलता,प्रतिकूलता, शोक सन्ताप, क्षोभ अपमान और आवेश के आघात से पागल हो जाना, स्वास्थ्य खो बैठना, आत्म हत्या कर लेना, दूसरों की जान के ग्राहक बन जाना आदि दुर्घटनाऐं कर बैठने जैसी घटनाऐं आये दिन घटित होती रहती हैं। इससे प्रतीत होता है कि गम्भीरता, सहनशीलता और दूरदर्शिता की दिमागी ताकत समाप्त हो चुकी, शरीर ही नहीं हमारे मस्तिष्क भी खोखले हो चुके। ऐसा खोखला जीवन जीते हुए किसे कुछ आनन्द मिल सकता है? हर कोई अपनी जिन्दगी का भार बड़ी कठिनाई से ढो रहा है निराशा और खिन्नता के साथ मौत के दिन पूरे कर रहा है। बालकपन के बाद सीधा बुढ़ापा ही आ घेरता है यह पता ही नहीं चल पाता कि जवानी कब आई और कब चली गई।
इस स्थिति में कब तक पड़े रहें?
इन शारीरिक परिस्थितियों में क्या कोई जीवन का लाभ ले सकता है? ऐसी जर्जर परिस्थितियों में पुरुषार्थपूर्वक कोई बड़ी सफलता प्राप्त कर सकने की हिम्मत कर सकता है? अस्वस्थ शरीर में रहने वाला अस्वस्थ मन, केवल अस्वस्थ बातें ही सोच सकता है, अस्वस्थ योजनाऐं ही बना सकता है और अस्वस्थ काम ही कर सकता है। ऐसे लोग कोई सीधा शार्टकट ढूँढ़ते रहते हैं जिससे कम श्रम में अधिक लाभ मिल जाय, ऐसे तरीके केवल चोरी, ठगी, बेईमानी, बदमाशी के ही हो सकते हैं सो ही उन्हें अपने लिए सरल एवं उपयुक्त दिखाई पड़ते हैं। उन्हें ही वे करते हैं। अनीति और कुकर्मों की गतिविधियाँ अपनाते हैं। फलस्वरूप मानसिक स्वास्थ्य भी नष्ट हो जाता है। विकृत मन में अनेकों दुर्गुण, अनेकों व्यसन, अनेकों कुविचार अड्डा जमा कर बैठ जाते हैं और मनुष्य विकृतियों का घर मात्र बन कर रह जाता है। ऐसे विकृत व्यक्तियों से मिल कर बना हुआ समाज क्या कभी स्वस्थ समाज कहा जा सकता है? उसमें अपराध और क्लेश, कलह ही बढ़ते हैं। उत्पादन शक्ति के अभाव में दीनता और दरिद्रता ही घेरे रह सकती है। स्वार्थपरता और अनुदारता के बढ़ जाने से पारस्परिक स्नेह, सद्भावों का समाप्त हो जाना स्वाभाविक है। विश्वासघात, छल,शोषण ठगी और खुदगर्जी की बात सोचते रहने वाले लोग भला प्रेम, त्याग, उदारता और सेवा का महत्व क्या कभी समझेंगे? स्वयं कष्ट उठा कर दूसरों की सुविधा का ध्यान रखने की प्रवृत्ति उनमें कहाँ से पैदा होगी? और इसके अभाव में कोई राष्ट्र या समाज सभ्य, समुन्नत कैसे बन सकेगा?
निम्नकोटि का जीवन न जियें
सुखोपभोग, ऐश आराम, मौज−मजा और शान शौकत के लिए हर किसी को अधिक धन की, अधिकाधिक और बहुत अधिक धन की आवश्यकता अनुभव होती है। पर उसके उचित प्रकार से उपार्जन के योग्य न तो क्षमता होती है न योग्यता न शक्ति । इन्हें बढ़ाने में जो श्रम और अध्ययन अभीष्ट है उसके लिए शौर्य, धैर्य और साहस का अभाव रहने से मनुष्यों की योग्यता बड़ी निम्नकोटि की रहती है। निम्नकोटि की योग्यता के मूल्य पर थोड़ा सा ही उपार्जन सम्भव है। मितव्ययिता का अभाव और आकाँक्षाओं के अम्बार मिलकर इतनी अधिक आवश्यकता प्रस्तुत करते हैं कि हीन योग्यता के व्यक्ति के लिए उचित मार्ग से उसकी पूर्ति कर सकना किसी भी प्रकार संभव नहीं होता। ऐसी परिस्थितियों में लोग दिन रात असन्तुष्ट रहते हैं। और तृष्णा से अभिशप्त बेताल, ब्रह्म, राक्षस की तरह न सोचने योग्य सोचते और न करने योग्य करते हुए जीवन यात्रा पूरी करते हैं। जिस युग में इस प्रकार का जीवनचर्या आमफहम बनी हुई हो उसे सन्तोषजनक कैसे कहा जायेगा? उसमें रहते हुए शान्ति लाभ कौन करेगा?
शारीरिक, मानसिक, आर्थिक और सामाजिक परिस्थितियाँ जब विपन्न हो रही हों तब विज्ञान की उन्नति से उत्पन्न हुए अनेकों सुख साधन केवल, लालच,तृष्णा और असंतोष ही उत्पन्न कर सकते हैं। ललचाने वाली भोग वस्तुऐं बढ़ती जा रही हैं,उपार्जन और उपयोग की क्षमता नष्ट हो रही है। दोनों का सन्तुलन ठीक न रहने से असन्तोष की आग का भड़क उठना स्वाभाविक है। आज हर मनुष्य अपनी परिस्थिति से असन्तुष्ट है और यह तलाश कर रहा है कि उसका दोष किसे दिया जाय और उसका प्रतिशोध किससे लिया जाय? कुछ दिन पूर्व सोचते थे कि विदेशी शासन हमारे अभावों का कारण होगा, राजा महाराजाओं, धनी अमीरों, सेठ साहूकारों, जमींदार जागीरदारों के कारण हमारी परिस्थितियाँ बिगड़ी हुई हैं इनके हटते ही सब कुछ सुधर जायेगा। इनमें से अधिकाँश हट चुके,जो थोड़े बने हैं वे भी चंद दिनों में हटने वाले हैं इस पर भी परिस्थितियाँ जहाँ की तहाँ हैं, वरन् सच तो यह है कि और अधिक विषम हो गई हैं। विचार करने पर इसका कारण स्पष्ट हो जाता है। हमारा व्यक्तित्व घटिया होता चला जा रहा है और जब तक इस अधःपतन को रोकने का कोई प्रबल प्रयत्न न किया जायेगा तब तक परिस्थितियाँ दिन−दिन और भी अधिक गिरती चली जायेंगी।
साधन वृद्धि ही पर्याप्त नहीं
पिछले दिनों राष्ट्रीय आमदनी में कुछ वृद्धि हुई है तो साथ ही नशेबाजी, शौकीनी, सिनेमाखोरी, मुकदमेबाजी, फौजदारी, बेईमानी, चालाकी, रिश्वत, मिलावट, फिजूलखर्ची, विवाह शादियों की धूमधाम आदि कितनी ही बातें ऐसी बढ़ गई हैं, जिससे गरीबी पहले से भी और अधिक हो गई है। महँगाई और टैक्सों की बढ़ोतरी का भी कुप्रभाव पड़ा है पर उसकी तुलना में इन अकथनीय विकृतियों ने कहीं अधिक परेशानी का वातावरण उत्पन्न किया है। इसका सुधार करने के लिए अन्य उपाय भी आवश्यक हैं पर सबसे प्रमुख और सब से आवश्यक उपाय यह है कि हमारे विचारों और विश्वासों में आवश्यक हेर−फेर का मोड़ उत्पन्न किया जाय। नारेबाजी के रूप में, लोगों को दिग्भ्रान्त करने के रूप में अपनी विपत्तियों का कारण किसी को भी बताया जा सकता है पर सही बात यह है कि मनुष्य का घटिया दृष्टिकोण, घटिया स्तर और घटिया लक्ष ही सारी विपत्तियों का मूल कारण है। उसमें सुधार करने की ओर यदि ध्यान न दिया गया तो आर्थिक सुधार के लिए, रोग निवारण के लिए, सुख साधन बढ़ाने के लिए सरकारी या गैर सरकारी स्तर पर लम्बे चौड़े कार्यक्रम बनने पर भी परिस्थितियाँ जहाँ की तहाँ पड़ी रहेंगी। जमींदार हटेंगे तो नौकरशाह उनकी जगह ले लेंगे। पहले सेठ और जमींदारों के घरों में दौलत जमा होती थी, ब्याज, लगान और बेगार उनका नाम था अब वह नाम नक्शे बदल रहे हैं। अफसरों में रिश्वत और भ्रष्टाचार बढ़ रहा है और वे कोठी हवेली वाले बनते चले जा रहे हैं।
सुधार का मूल संस्थान
कानून के द्वारा इन परिस्थितियों के रोके जाने में थोड़ी सहायता भले ही मिलती हो। पर केवल उन्हीं के आधार पर पूरी तरह रोकथाम हो सकना सम्भव नहीं। अधिनायकवाद के नृशंस कानून भी इन्हें पूर्णतया रोक सकने में समर्थ नहीं हो सके हैं। रूस, जर्मनी, इटली आदि में लम्बे परीक्षण इस सम्बन्ध में हुए हैं उससे बलात् रोकी हुई दुष्प्रवृत्तियाँ अन्य किसी रास्ते से फूट पड़ने के परिणाम सामने आये हैं। अपराधों की रोकथाम और सज्जनता की अभिवृद्धि का एक मात्र आधार अन्तरात्मा की प्रेरणा पर ही निर्भर रहता है। दया, करुणा, मैत्री, उदारता जैसे सद्गुणों को भूगोल, इतिहास, गणित की तरह किसी को सिखाया नहीं जा सकता। त्याग और बलिदान की भावनाऐं किसी के कहने सुनने से नहीं आतीं। उनका उद्भव तो गहन आन्तरिक स्तर से होता है और उनका पनपना तभी सम्भव होता है जब आत्मा निरन्तर इस दिशा में प्रेरणा करती रहे।
हम शाँतिमय परिस्थितियों में, सौहार्द और सज्जनता के वातावरण में, सदाचार और स्नेह के युग में रहना पसंद करते हैं क्योंकि उन्हीं में प्रसन्नता, स्थिरता और प्रगति की संभावना रहती है। द्वेष, रोग, अभाव, क्लेश, अनीति और स्वार्थपरता की परिस्थितियाँ यदि हमारे चारों ओर घिरी रहें तो चैन से रह सकना और शाँति की नींद ले सकना भला कैसे बन पड़ेगा? हममें से कोई भी यह चाहेगा कि उसे अप्रिय अवाँछनीय अवरोध की परिस्थितियों में दिन गुजारने पड़े? अन्तरात्मा की आकाँक्षा है शाँति और सद्भावनापूर्ण वातावरण की स्थिरता। इसी का नाम स्वर्ग है, इसी को सतयुग कहते हैं। इसकी प्रगति असंभव नहीं, पूर्णतया सरल और संभव है बशर्ते कि हम अपने दृष्टिकोण में थोड़ा परिवर्तन करने को तैयार हों, जीवन दर्शन के तथ्यों पर थोड़ा मनन और चिन्तन करें यह खोज करें कि किन गतिविधियों को अपनाने से व्यक्ति और समाज का प्रवाह सही दिशा में विकसित हो सकता है। जीवन को ठीक तरह से जीने की विद्या से हम अनजान जैसे बने बैठे हैं और अपने लिए तथा दूसरों के लिए अवाँछनीय वातावरण उत्पन्न कर रहे हैं।
परिवर्तन का उद्गम स्थल
परिस्थितियाँ बदलनी हों तो उनके उद्गम में काम करने वाले विचारों और कार्यों को बदलना सुधारना आवश्यक होता है। इस व्यक्तिगत परिवर्तन का सामूहिक रूप युग परिवर्तन से रूप में दृष्टिगोचर होता है। मनुष्य बदलता है तो जमाना भी बदलने लगता है। दृष्टिकोण में परिवर्तन आते ही वातावरण बदला हुआ दिखाई पड़ने लगता है। आन्तरिक परिवर्तन की तैयारी में लगा जाय तो बाह्य परिवर्तन स्वयमेव सामने उपस्थित हो जायेगा। एक-एक तिनका मिलकर रस्सी बनती है, एक-एक सींक मिलकर बुहारी कहलाती है, एक-एक बूँद गिरने से घड़ा भर जाता है, एक-एक व्यक्ति का निर्माण होता चले तो युगनिर्माण हुआ दृष्टिगोचर होगा।
मानवीय चेतना की परिशुद्धि
आज प्रत्येक विचारशील व्यक्ति यह अनुभव करता है कि मानवीय चेतना में वह दुर्गुण पर्याप्त मात्रा में बढ़ चले है जिनके कारण अशान्ति और अव्यवस्था छाई रहती है। इस स्थिति में परिवर्तन की आवश्यकता अनिवार्य रूप से प्रतीत होती है पर यह कार्य केवल आकांक्षा मात्र से पूर्ण न हो सकेगा, इसके लिये एक सुनिश्चित दिशा निर्धारित करनी होगी और उसके लिए सक्रिय रूप से संगठित कदम बढ़ाने होंगे। इसके बिना हमारी चाहडडड एक कल्पना मात्र बनी रहेगी। युग निर्माण संकडडड उसी दिशा में एक सुनिश्चित कदम है। इस घोषणापत्र की सभी भावनाऐं धर्म और शास्त्र की आडडड परम्पराओं के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। केवल उसे सामयिक आवश्यकता के अनुरूप एक व्यवस्थित ढंग से सरल भाषा के संक्षिप्त शब्दों में रख लिया गया है। इस घोषणा पत्र को हम ठीक समझें, उन पर मनन और चिन्तन करें तथा निश्चय करें कि हमें अपना जीवन इसी ढाँचे में ढालना है। दूसरों को उपदेश करने की अपेक्षा इस संकल्प पत्र में आत्म निर्माण पर सारा ध्यान केन्द्रित किया गया हैं। दूसरों को कुछ करने के लिए कहने का सबसे प्रभावशाली तरीका एक ही है कि हम वैसा करने लगें। अपना निर्माण ही युग निर्माण का अत्यन्त महत्वपूर्ण कदम हो सकता है । बूँद−बूँद जल के मिलने से ही समुद्र बना है। एक−एक अच्छा मनुष्य मिलकर ही अच्छा समाज बनेगा। व्यक्ति निर्माण का व्यापक स्वरूप ही युग−निर्माण के रूप में परिलक्षित होगा।
प्रस्तुत युग−निर्माण की भावनाओं का स्पष्टीकरण और विवेचन पाठक अगले लेखों में पढ़ेंगे। इन भावनाओं को गहराई में अपने अन्तःकरणों में जब हम जमाने लगेंगे तो उसका सामूहिक स्वरूप एक युग आकाँक्षा के रूप से प्रस्तुत होगा और उसकी पूर्ति के लिए अनेकों देवता अनेकों महामानव नरतनु में नारायण रूप धारण करके प्रकटित हो पड़ेंगे। युग−परिवर्तन के लिए जिस अवतार की आवश्यकता है वह पहले आकाँक्षा रूप में ही अवतरित होगा। इसी अवतार का सूक्ष्म स्वरूप यह युग−निर्माण संकल्प है, इसके महत्व का मूल्याँकन हमें गंभीरतापूर्वक ही करना चाहिए।