वास्तविक परिवार नियोजन

September 1962

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युग निर्माण योजना के स्वस्थ शरीर, स्वच्छ मन और सभ्य समाज रचना का दूसरा कार्यक्रम कुटुम्ब निर्माण का है। इसे ही वास्तविक परिवार नियोजन भी कह सकते हैं। जिस प्रकार विभिन्न अवयवों के मिलने से एक शरीर बनता है उसी प्रकार कुटुम्ब के सब सदस्यों को मिलकर एक परिवार या पूर्ण व्यक्तित्व बनता है। घर का एक आदमी आदर्शवादी और श्रेष्ठ बने, तथा शेष सारा कुटुम्ब फूहड़पन का ऊबड़−खाबड़ जीवन व्यतीत करे, यह बहुत ही बेतुकी बात है। हम कुल्ला तो रोज कर लिया करें, मुँह तो खूब धो लिया करें पर अन्य सारे शरीर को गंदा ही रहने दें। स्नान और सफाई की व्यवस्था न करें तो यह कहाँ की शुद्धता मानी जायगी। स्त्री, बच्चे, भाई, बहिन जो लोग मिलजुलकर एक साथ एक घर में रहते हैं, एक चौके में भोजन करते हैं उनके गुण कर्म स्वभावों का आपस में तालमेल बैठना चाहिए। सभी को अपने आवश्यक कर्तव्यों का पालन करना और स्वभाव में इतनी सज्जनता उत्पन्न करना आवश्यक है कि जिससे सब लोग शान्तिपूर्वक रह सकें।

परिवार की साँस्कृतिक पाठशाला

जीवन विकास की शिक्षा का अधिकाँश भाग परिवार की पाठशाला में पूर्ण होता है। परिवार के वातावरण को ही संस्कृति कहते हैं, खानदान की अच्छाई की तलाश इस पारिवारिक वातावरण के आधार पर ही की जाती है। विवाह शादियों में लोग ऊँचे खानदान की बात बहुत बारीकी से देखा करते हैं। अब तो वह रूढ़ि मात्र रह गई, पर प्राचीन काल में इस देखभाल का, खानदान का मतलब परिवार के रहन−सहन, आदर्श स्वभाव एवं वातावरण ही समझा जाता था। उन्नतिशील व्यक्तियों और महापुरुषों का निर्माण इस खानदानी वातावरण में पाले−पोसे जाने से ही संभव होता है। निकृष्ट परिस्थितियों के कुटुम्ब में पाले−पोसे जाने पर कोई विरला ही अपवाद रूप से कभी कोई विकसित व्यक्तित्व का महापुरुष बन सका होगा। इसलिए यह आवश्यक है कि जैसे हम अपने स्वास्थ्य, सुविधा, मनोरंजन, उपार्जन आदि की बातें सोचा करते हैं, उसी प्रकार अपने ऊपर जिस परिवार का उत्तरदायित्व भगवान ने सौंपा है उसे सभ्य सुसंस्कृत और सुविकसित बनाने के लिए पूरा−पूरा ध्यान दें और इसके लिए जो कुछ किया जाना संभव हो उसे पूरी तत्परता और दिलचस्पी के साथ एक आवश्यक और महत्वपूर्ण कार्य समझ कर करते रहें। हमारे घर दीक्षा विद्यालय होने चाहिएं। बच्चे स्कूल में शिक्षा प्राप्त करें, पर व्यक्तित्व के विकास की आवश्यक दीक्षा उन्हें घर में मिल सके ऐसा वातावरण उत्पन्न करना, हम में से प्रत्येक को अपना परम पवित्र कर्तव्य मानना चाहिए। कार्य यह भी कठिन है, प्रगति भी मंद हो सकती है, पर उपेक्षा से भी काम चलने वाला नहीं है। कुछ करने से ही तो आगे बढ़ना संभव होगा।

परिवार विकास की आवश्यकता

साधना स्वाध्याय और आत्मोन्नति के लिए परमार्थ के लिए छोड़े गये छह घंटों में से आधा समय अर्थात् तीन घंटे खर्च किये जा सकते हैं। शेष तीन घंटे परिवार और समाज की सेवा में लगाने चाहिएं। जिन्हें अपना परिवार सभ्य और सुविकसित देखना हो तो उन्हें कम से कम एक घंटा अपनी परिवार गोष्ठी के लिए बिलकुल निश्चित रूप से नियत रखना चाहिए। जब सब लोग फुरसत में होते हैं तब परिवार की दैनिक समस्याओं पर विचार विनिमय करने के लिए एक नियत समय पर ज्ञान गोष्ठी का कार्यक्रम रखा जाया करे। आज के दिन किसके मन में क्या भले−बुरे भाव उठे और क्या प्रिय−अप्रिय परिस्थितियों का सामना करना पड़ा इसकी चर्चा इस गोष्ठी में की जाती रहनी चाहिए और उलझनों को सुलझाने वाले सुझाव भी साथ−साथ ही प्रस्तुत किये जाते रहने चाहिए। समाचार पत्रों में छपती रहने वाली, अपने आस-पास घटित होते रहने वाली घटनाओं से लेकर उनकी आलोचना और समीक्षा इस दृष्टिकोण को लेकर की जानी चाहिए कि उस समीक्षा के प्रभाव से अपने परिवार को दुष्टों और दुष्टताओं से सावधान रहने और सज्जनों एवं सत्कर्मों की ओर अभिमुख होने की प्रेरणा मिले। पौराणिक उपन्यास या कहानियों के माध्यम से भी इस प्रकार का शिक्षण हो सकता है। कहानी कहना भी एक बड़ी महत्वपूर्ण कला है और परिवार निर्माण के लिए तो उसकी उपयोगिता बहुत ही अधिक है। व्याख्यान, प्रवचन, भजन, सत्संग आदि के कार्यक्रम सभा सुसाइटियों के उपयुक्त हो सकते हैं पर घर की दैनिक गोष्ठियों में उनका विशेष उपयोग नहीं है। उनमें कृत्रिमता का पुट अधिक रहने से नये−नये लोगों पर ही प्रभाव पड़ता है। घर में सीधी−साधी बातें ही कारगर होती हैं। चर्चा, समीक्षा विचार विनिमय, गप−शप कहानी आदि के हलके फुलके तरीके न तो किसी के मस्तिष्क पर भार बनते हैं और न उन्हें सुनाते सुनते कोई ऊबता है। इसलिए परिवार का प्रशिक्षण इन्हीं साधनों के आधार पर किया जाना चाहिए। हमारी दैनिक परिवार ज्ञान गोष्ठियों की प्रक्रिया ही गतिमान हो सकती है।

अभिभावकों का उत्तरदायित्व

कोई अभिभावक अपने स्त्री, बच्चों के लिए, परिवारजनों के लिए भोजन, वस्त्र, दवा, फीस, किताब, जेबखर्च, मनोविनोद आदि का प्रबन्ध कर देने मात्र से अपने कर्तव्यों से उऋण नहीं हो सकता। पैसे खर्च करके जो लोग अपने पारिवारिक कर्तव्यों को पूरा किया मानते हैं वे सारी भूल करते हैं। सुसंस्कारों का प्रदान करना एवं उनकी मनोभूमि को सुरुचिपूर्ण, सुसंस्कृत बनाना भी उन्हीं का काम है, इसके बिना अधिकाँश उत्तरदायित्व अपूर्ण ही माना जायेगा। स्कूलों में शिक्षा मिल सकती है दीक्षा नहीं। संस्कृति की दीक्षा तो उसी वातावरण में मिलती है जहाँ मनुष्य रहता है। प्राचीन काल में ऋषि अपने शिष्यों की शिक्षा और दीक्षा दोनों का ही प्रबन्ध अपने आश्रमों में रखकर किया करते थे। वे आश्रम छात्रों के घर भी थे और शिक्षालय भी। गुरुकुलों में सर्वांगपूर्ण विकास का वातावरण रहता था और उनमें पलकर बालक अपने भावी जीवन को समुन्नत बनाने की शिक्षा साधना किया करते थे। आज वैसा वातावरण बाहर कहीं नहीं दीखता। अब यह कार्य प्रत्येक अभिभावक को स्वयं करना पड़ेगा। अपने घर का वातावरण ऐसा बनाना पड़ेगा जिसमें रहने और साँस लेने से परिवार का प्रत्येक व्यक्ति सभ्य नागरिक बनने की सुविधा प्राप्त कर सके। हमारे घरों को दीक्षा विद्यालयों में परिणत होना चाहिए। बड़ों का जीवन ऐसा हो जिसे देखकर छोटे यह प्रभाव अनायास ही ग्रहण कर लें और स्वयं भी आगे वैसे ही बनने और ढलने की तैयारी करें। एक घण्टे की ज्ञान गोष्ठी के अतिरिक्त निरन्तर अपने परिवार की गतिविधियों पर दृष्टि रखें और समय−समय पर परिजनों का प्रेम, शाँति, धैर्य, एवं सज्जनता के साथ आवश्यक मार्ग−दर्शन करते रहें तो उसका प्रभाव घर के वातावरण को प्रभावित करता ही रहेगा।

प्रणाली और प्रक्रिया सीखिये।

कई व्यक्ति अपने परिवार को सुसंस्कृत तो बनाना चाहते हैं पर इसके लिए केवल अपशब्द कहना, क्रोधित रहना, निन्दा करना, गाली−गलौज या मारपीट करना जैसे बेहूदे तरीके ही उनके पास होते हैं। इन उपायों से किसी का सुधर सकना तो दूर, उलटे अधिक बिगड़ने, चिड़चिड़े होने और विरोधी बनने का ही परिणाम सामने आ सकता है। जिस प्रकार स्कूल के बच्चों को पढ़ाने के लिए अध्यापकों को पढ़ाने की ट्रेनिंग अलग से लेनी पड़ती है उसी प्रकार अभिभावकों को, गृहस्वामियों और कुलपतियों को भी अपने परिवार का प्रशिक्षण करने की क्रमबद्ध शिक्षा प्राप्त करनी पड़ेगी। दुख की बात है कि जहाँ मशीनें चलाने और नौकरी करने जैसे कामों की ट्रेनिंग के लिए अनेकों स्थानों पर प्रशिक्षण चलते हैं वहाँ अपना जीवन भलमनसाहत के साथ जीने और अपने अंगभूत परिवार को सुसंस्कृत बनाने की क्षमता प्राप्त करने का कोई प्रशिक्षण संस्थान नहीं है। लगता है कि इस अभाव की पूर्ति के लिए भी हमें ही एक व्यापक और प्रभावपूर्ण व्यवस्था बनानी पड़ेगी। जब तक ऐसी कोई व्यवहारिक शिक्षण व्यवस्था नहीं बन जाती तब तक अखण्ड ज्योति के पृष्ठों में ही बहुत कुछ मार्गदर्शन प्रस्तुत किया जाता रहेगा।

जो हो, हमें आत्म−निर्माण और परिवार निर्माण की उपयोगिता और आवश्यकता समझनी ही होगी और आज की परिस्थितियों के अनुसार हमें कुछ न कुछ सोचने और करने के लिए कटिबद्ध होना ही पड़ेगा। युग−निर्माण का श्रीगणेश और शुभारम्भ इसी प्रकार तो होने वाला है।


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