हमारा आगामी कार्य−क्रम

September 1962

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युग−निर्माण योजना को व्यवहारिक रूप देने के लिए हम ‘अखण्ड−ज्योति’ परिवार को उसी प्रकार प्रयुक्त करेंगे जैसे एक वैज्ञानिक अपनी प्रयोगशाला में तन्मय हो जाता है या एक माली अपने बगीचे में अपने आपको खो देता है। बगीचे का हर खिलता हुआ फूल माली की अन्तरात्मा में प्रसन्नता की लहरें उद्वेलित करता है, हमारी प्रसन्नता का स्त्रोत भी अब ‘अखण्ड−ज्योति’ परिवार से सम्बद्ध स्वजनों के खिलते और निखरते जीवन के साथ सम्बद्ध रहेगा। दुनिया बहुत बड़ी है, व्यक्ति छोटा है। हर व्यक्ति को एक सीमित कार्यक्षेत्र चुनकर उसमें अपने आपको जुटा देना पड़ता है तभी कोई सफलता दृष्टिगोचर हो सकती है। असीम विश्व की असीम आवश्यकताओं को सीमित मानव किस प्रकार पूरा कर सकता है? विश्व कल्याण की भावना रखते हुए भी उसका व्यवहारिक रूप तो किसी सीमित कार्य-क्षेत्र में ही रह सकेगा। हमने अपना कार्य-क्षेत्र ‘अखण्ड−ज्योति’ परिवार के स्वजनों में घुल जाने का बना लिया है। यह क्षेत्र जितना जितना बढ़ेगा उतना−उतना ही हमारी सेवा प्रक्रिया भी विस्तृत होती जायगी।

शिक्षण कहाँ सफल होता है?

उपदेश किसी को भी दिया जा सकता है पर कुछ करने के लिए उसी को दबाया जा सकता है जिस पर अपना कुछ जोर हो । जिस पर अपना कुछ जोर नहीं उससे यह आशा कैसे की जा सकती है कि यह हमारा कहना मानेंगे और हमारे प्रयत्न के अनुरूप अपने को ढालने के लिये तत्पर होंगे? माता अपने गर्भस्थ बालक को अपने शरीर का रक्त −प्रदान करती रहती है और उसी से बच्चे का शरीर बढ़ता है। यह प्रक्रिया एक ‘नाल’ नामक नाड़ी के माध्यम से चलती है यह नाड़ी माता के उदर में से निकलकर बच्चे के उदर में प्रवेश करती है। इसी से होकर माता का रक्त बच्चे के शरीर में प्रवेश करता है। यदि कदाचित यह नाड़ी टूट जाय तो माता का रक्त बच्चे के शरीर में पहुँचना भी बन्द हो जायेगा और फिर गर्भस्थ बालक का पोषण भी माता न कर सकेगी। हम भी अपनी अन्तरात्मा का रस कुछ व्यक्तियों को निरन्तर पिला कर उनके आध्यात्मिक शरीर की वृद्धि और पुष्टि करना चाहते हैं पर ऐसे लोग वे ही हो सकते हैं जो हमसे सच्चे मन से सम्बद्ध रहना पसन्द करें। ‘अखण्ड−ज्योति’ परिवार ऐसे ही लोगों का समूह है, जो हमारे विचारों का आदर ही नहीं करता, उनकी उपयोगिता भी समझता है और उसके प्रमाणस्वरूप चार आना महीना ‘अखण्ड−ज्योति’ खरीदने के लिए भी खर्च कर देता है। निश्चय ही हमारे लिए इसी उर्वरा भूमि में अपनी जोतने बोने की, सींचने सँभालने की प्रक्रिया आरंभ करनी है।

निर्माण की आकाँक्षा

हमारा मन है कि ‘अखण्ड−ज्योति’ परिवार का प्रत्येक सदस्य शरीर से निरोग रहे, और हँसी−खुशी का दीर्घ जीवन प्राप्त करे। हम अपने परिजनों की उन आदतों को छुड़ाना चाहेंगे जिनके कारण वे अपने स्वास्थ्य को बर्बाद करते हुए रोगों के चंगुल से फँसने की स्थिति तक आ पहुँचे हैं। दवा दारु से तात्कालिक लाभ हो सकता है। सामयिक कष्टों की निवृत्ति के लिए इलाज की व्यवस्था की जाती है, उसका भी हम प्रबन्ध करने में लगे हुए हैं। प्राकृतिक चिकित्सा की शिक्षण व्यवस्था इसी दृष्टि से आरंभ की गई है। दुर्लभ जड़ी−बूटियों का एक सर्वांगपूर्ण उद्यान भी गायत्री तपोभूमि की बगल में इसी महीने से लगाना आरम्भ कर दिया है, जिनके आधार पर कठिन रोगों का सरलतापूर्वक इलाज हो सके। यह तो सामयिक बात हुई। स्थिर स्वास्थ्य की रक्षा तो स्वास्थ्य को बर्बाद करने वाली आदतें बदलने से ही होगी। हम चाहेंगे कि ‘अखण्ड−ज्योति’ के पाठक केवल हमारे लेख पढ़कर ही सन्तुष्ट न हो जायँ, वरन् उन बातों पर अमल करें, अपने को सुधारें और गिरे हुए स्वास्थ्य को अच्छा बनाकर हमारे हर्ष और सन्तोष को बढ़ावें।

स्वभाव तथा भावना का परिष्कार

सोचने का तरीका गलत होने से जीवन में अगणित गुत्थियाँ उत्पन्न हो जाती हैं। भावना, आकाँक्षा, अभिरुचि और प्रवृत्ति के कुमार्गगामी हो जाने से असन्तोष, अभाव और सन्ताप का बाहुल्य हो जाता है जिसके कारण मनुष्य अपने को नारकीय अग्नि में, चिन्ता की चिता में झुलसता अनुभव करता है। हमारी अभिलाषा है कि ‘अखण्ड−ज्योति’ परिवार का प्रत्येक सदस्य विचार करने की कला सीखे, जिन्दगी जीने की विद्या की प्रवीणता प्राप्त करे और दृष्टिकोण एवं कार्यक्रम में आवश्यक हेर−फेर करके आनन्द और उल्लास के प्रकाश और विकास का जीवन जिए। हममें हर एक का परिवार सीता सावित्री जैसी नारियों से, श्रवणकुमार जैसे बच्चों से, भरत जैसे भाइयों से, कौशिल्या जैसी माताओं से, दशरथ जैसे पिताओं से भरा-पूरा हो। प्रेम और सद्भावना के वातावरण में अभावग्रस्त जीवन भी स्वर्ग जैसा लगता है स्वभाव और दृष्टिकोण में थोड़ा अन्तर कर लिया जाय तो हमारे परिवार में सचमुच स्वर्गीय सुख शान्ति विराजती दीख सकती है और उस वातावरण में पले हुए बालक नररत्न और महापुरुष ही बनकर निकल सकते हैं। ऐसे हीरे मोतियों की खानें अपने परिवार के हर घर में देखने की हमारी आकाँक्षा अब अत्यधिक प्रबल होती जाती है।

जीवन सेवाशून्य न रहे

हमारा मन है कि अपने परिजन कमाने खाने की ही एक बात सोचते−सोचते और उसी के लिए मानव जीवन को बर्बाद करते हुए खाली हाथ दुनिया से न उठ जायँ। उन्हें ऐसा कुछ करने का भी अवसर मिले जिसके लाभ से लाभान्वित होकर वे जीवन−लीला समाप्त करते हुए गर्व अनुभव कर सकें और सन्तोष की साँस ले सकें। इसके लिए सेवा और परमार्थ के लिए अपना कुछ समय और श्रम लगाना ही चाहिए। लोगों ने एक−एक ईंट खिसका कर हमारे आदर्श देश जाति और समाज को बर्बाद किया है। यदि हम उसके निर्माण के लिए एक−एक ईंट प्रस्तुत करें तो हमारी संस्कृति का महल पुनः उतना ही ऊँचा उठ सकता है जितना प्राचीन काल में था। सेवा की अग्नि में पके बिना कोई जीवन पवित्र और परिपक्व नहीं बन सकता। अन्तः प्रदेश में सद्गुणों की जड़ जमाने के लिए भी सेवा धर्म को अपनाना जरूरी है। कुछ न कुछ काम हम नित्य ऐसा किया करें जो समाज के सुखी, समृद्ध, शान्त सन्तुष्ट और सुविकसित होने में सहायक सिद्ध हो सके। यह सेवा अपनी निज की, अपने परिवार की एवं अपने समीपवर्ती लोगों की सुविधा और परिस्थिति के अनुसार हो सकती है। हम लोग सेवा-कार्यों के लिए जीवन में थोड़ा−थोड़ा भी स्थान रखें तो उसके द्वारा युग−निर्माण की दिशा में आशाजनक और आश्चर्यजनक कार्य हो सकता है।

परिवार की, आत्मीयता की भावना जब बढ़ती है तो मनुष्य अपनों के लिए बहुत कुछ सोचता और करता है। हमारा मन इन दिनों अपने आत्मीयजनों को ऐसा बनाने के लिए मचल रहा है कि इस निर्माण को देखकर देखने वाले आश्चर्यचकित रह जायें और यह अनुभव करें कि युग−निर्माण योजना कोई शेखचिल्ली की कल्पना नहीं, वरन् एक अत्यन्त सरल और पूर्ण व्यवहारिक पद्धति है जिसे अपनाया और व्यापक बनाया जा सकना न तो कठिन है और न असंभव। समझा यह जाता है कि लोगों का स्वभाव जन्म से ही बना आता है उसे बदला और बनाया नहीं जाता। इस धारणा को भ्रान्त सिद्ध करने का हमारा विचार है। हम अपनों को बदलना चाहते हैं। अपनी प्रयोगशाला में हम बबूलों को चन्दन बनाने की तैयारी कर रहे हैं। विज्ञान के द्वारा भौतिक जगत में इतने आश्चर्यजनक परिवर्तन हो रहें हैं तो ज्ञान के द्वारा मनुष्य की अन्तःस्थिति में भी आशाजनक परिवर्तन की आशा की जा सकती है।

जीवनोपयोगी वास्तविक शिक्षा

प्राचीन काल में ऋषियों के गुरुकुलों में निवास करने वाले छात्र वहाँ के वातावरण में लौह पुरुष बनते और ढलते थे। ऐसे गुरुकुलों का चलाना अब अपने वश की बात नहीं दीखती। क्योंकि हर माता−पिता अपने बच्चों को नौकरी कराने की बात सोचता है और इसके लिए नौकरी दिलाने वाले सार्टीफिकिट दिलाने वाली पढ़ाई पढ़ाता है। वह शिक्षा भार पूरा करने पर छात्र में उतनी मानसिक शक्ति शेष नहीं रह जाती कि जीवन की विभिन्न दिशाओं को विकसित करने वाली विशाल शिक्षा का भी भार बहन कर सके। दोनों एक साथ चलाने पर किसी के भी सफल न होने का भय है और केवल वह जीवन विद्या, जिसे पढ़कर नौकरी का टिकट नहीं मिलता, आज की परिस्थितियों में कोई पढ़ने को तैयार होगा, इसमें भारी सन्देह है। इसलिए गुरुकुल की योजना तो नहीं बना रहे हैं पर ऐसी व्यवस्था जल्दी ही करेंगे, जिसके अनुसार, ‘अखण्ड−ज्योति’ परिवार के सदस्यगण अपनी धर्मपत्नी समेत कम से कम दस दिन आकर हमारे पास रहें और दोनों मिलकर एक सुविकसित सुख−शान्तिमय जीवन एवं परिवार बनाने का शिक्षण प्राप्त करें। इसके लिए परिवार के प्रत्येक सदस्य को मथुरा आने का आमंत्रण मिलेगा और इस आशा के साथ उन्हें यहाँ बुलाया जायेगा कि इस दस दिन के शिक्षण में वे एक नई दिशा और नई प्रेरणा प्राप्त करके अपने मुरझाये जीवन में आशा की प्रभात किरणें उठती देखेंगे।

उपासना और अध्यात्म का मार्ग

‟अखण्ड ज्योति” परिवार के दूरवर्ती देशव्यापी सभी सदस्यगण मथुरा नहीं आ सकेंगे यह हम जानते हैं। इसलिए आगे ऐसा भी प्रयत्न करेंगे कि जहाँ अपने परिजन कुछ अधिक संख्या में हैं वहाँ गोष्ठियों का आयोजन किया जाय और जो विचार विनिमय शिविरों में करने वाले हैं वह इन तीन दिन की गोष्ठियों में भी पूरा कर लें। बड़े सभा-सम्मेलनों के ऐसे आयोजनों में जहाँ घटिया श्रेणी की भीड़ मनोरंजक बातें सुनने आया करती है, हमारा आने जाने का अब विचार नहीं है। विचारशील लोगों की गोष्ठी में जिनमें भले ही पच्चीस−पचास व्यक्ति जमा हुए हों ठोस काम होने की संभावना रहती है और उन्हीं में आने−जाने की बात हमें रुचेगी। भविष्य में विचार गोष्ठियों के लिए ही हम अपना कुछ समय निकाला करेंगे और परिजनों के घरों पर पहुँचने और जीवन विकास में कुछ सक्रिय मार्ग दर्शन का सुख सौभाग्य प्राप्त किया करेंगे। अपने विचार पुत्रों को देखकर हमारा भावुक अन्तःकरण उससे अधिक आह्लादित होता है जितना किसी पिता का अपने बच्चे को गोदी में खिलाते समय होता है।

उपासना और साधन शिक्षा

आध्यात्मिक साधनाओं में जिनकी विशेष अभिरुचि है उनका मार्गदर्शन पूर्ववत चलता रहेगा। साधारण गायत्री उपासना का शिक्षण गत 12 वर्षों से निरन्तर दिया जाता रहा है। अपरिचितों को इससे परिचित कराने और प्रारंभिक मार्ग दर्शन कराने का कार्य अब हमने अपने कंधे पर न रखकर पाठकों के जिम्मे छोड़ दिया है। क्योंकि उनमें से अधिकाँश ऐसे हैं जो इस संबंध में दूसरों को शिक्षण करने की योग्यता प्राप्त कर चुके हैं। गायत्री साधना की उच्च स्तरीय शिक्षा क्रमबद्ध रूप में देते चलने का कार्य−क्रम हम अगले 9 वर्षों तक निरन्तर चलाते रहेंगे। गत अक्टूबर 61 में पंचकोशी गायत्री उपासना का पाठ्यक्रम छापा था, अब दूसरे वर्ष का पाठ्यक्रम आगामी अक्टूबर 62 के अंक में छपेगा। इसी प्रकार एक अंक हर साल निर्धारित पाठ्यक्रम का शिक्षण करते हुए निकलते रहेंगे और इन दस वर्षों में गायत्री का उच्च स्तरीय कोर्स पूर्ण हो जायेगा।

परिवार की नाड़ी परीक्षा

इन दिनों ‘अखण्ड ज्योति’ के सदस्यों की मनोदशा क्या है? उनमें से भावना दृष्टि से कौन हमारे कितने समीप और कौन कितनी दूर है इसकी जाँच करना आवश्यक है। इस नाड़ी परीक्षा के बाद ही यह निश्चित किया जा सकेगा कि आज की परिस्थितियों में युग निर्माण योजना को कितना मूर्त रूप दिया जा सकता है। लेखनी और वाणी तक ही सीमित न रहकर अब हम रचनात्मक कार्यक्रम में प्रवृत्त होने वाले हैं और वैयक्तिक एवं सामाजिक उत्कृष्टता बढ़ाने के लिए कुछ प्रबल प्रयत्न करने के लिए अग्रसर होने वाले हैं। इससे पूर्व हमें अपनी शक्ति को तोल लेना और जान लेना आवश्यक है कि हममें से कौन कितने पानी में है।

इस अंक से अन्तिम पृष्ठ पर जो परिपत्र छपा है उसे भरकर इसी महीने भेज देना चाहिए। इसमें किसी भी पाठक को न तो ढील डालनी चाहिए और न उपेक्षा करनी चाहिए। पूरी और सही जानकारी न मिलने से युग−निर्माण के लिए हमें जो कदम उठाने हैं उनका निश्चय करने में द्विविधा उत्पन्न हो जायगी। इसलिए साथ वाले फार्म को भरकर भेजना पाठक अपना एक आवश्यक कर्तव्य समझें और इसे भर कर इसी महीने निश्चित रूप से भेज दें। हमें अपने परिवार की आध्यात्मिक उत्कृष्टता पर विश्वास है और उसी आधार पर युग−निर्माण की विशाल योजना का क्रियात्मक रूप प्रस्तुत करने जा रहें हैं। सर्वशक्तिमान सत्ता की प्रेरणा और इच्छा तो इस प्रयत्न के पीछे सन्निहित है ही।


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