विचारणीय और मननीय

June 1961

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प्रेम की कसौटी

नारदजी को अभिमान हो गाया कि मैं भगवान को बहुत प्यार करता हूँ। भगवान ने इस बात को जाना और अभिमान के निवारण का प्रयत्न किया क्योंकि अभिमान ही अध्यात्म मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है।

भगवान नारद को साथ लेकर भ्रमण को चल दिये। चलते-चलते एक तपस्वी ब्राह्मण मिला जो सूखे पत्ते खाकर तप कर रहा था। शरीर अत्यन्त दुर्बल हो गया था। फिर भी कमर में तलवार लटकाए था।

भगवान साधारण वेश में थे। उनने तपस्वी से पूछा “आपके पत्ते खाने और तलवार धारण करने का क्या कारण है?”

तपस्वी ने कहा- पत्ते इसलिए खाता हूँ कि मेरे भगवान की प्रजा को अन्न दूध आदि वस्तुऐं पर्याप्त मात्रा में मिले। मेरे खाने के कारण किसी जीव के आहार में कमी न पड़े, और तलवार इसलिए बाँधे हुए हूँ कि संसार में तीन भक्ति को कलंकित करने वाले है, ये कभी मिल जायें तो इस तलवार से उनका सिर काट दूँ।

नरवेशधारी भगवान ने पूछा- भक्ति को कलंकित करने वाले तीन भला वे कौन-कौन है? तपस्वी ने कहा-एक अर्जुन जिसने मेरे भगवान से अपने स्वार्थ के लिए रथ हँकवाया; दूसरी, द्रौपदी जिसके चीर को बढ़ाने के लिए भगवान को नंगे पैरों दौड़ना पड़ा; तीसरा, नारद जिसे आत्मज्ञान पर संतोष नहीं, कभी कुछ कभी कुछ पूछकर मेरे भगवान का सिर खाता रहता है।

दोनों तपस्वी को प्रणाम करके चल दिए। नारद की समझ में अब आया कि उच्च कोटि के प्रेम का क्या लक्षण है? अपने प्रेमी को ही नहीं उसके प्रिय जनों को भी अपने कारण कुछ कष्ट न पहुँचने देना और अपने सुख के लिये किसी प्रकार की भी प्रेमी से याचना न करना।

नारद ने अपने प्रेम की तुलना उस तपस्वी के प्रेम से की तो उनका अभिमान चूर हो गया।

व्यवहारिक ज्ञान भी चाहिए।

एक पण्डित जी को नाव से नदी पार करनी थी। कोई और यात्री था नहीं। अकेले पण्डित जी को लेकर चलने में मल्लाह तैयार नहीं हो रहा था। पंडित जी का जाना आवश्यक था। मल्लाह ने कहा- कुछ अतिरिक्त मजदूरी मिले तो चलूँ। पंडित जी ने कहा- उतराई के पैसों के अतिरिक्त तुम्हें बड़े सुन्दर ज्ञान भरे उपदेश भी दूँगा। मल्लाह ने बैठे से बेगार भली वाली बात सोचकर नाव खोली और पंडित जी को उस पर ले चला।

रास्ते में पंडित जी उपदेश करने लगे। उन्होंने मल्लाह से पूछा- तुम कुछ पूजा पाठ जानते हो? उसने उत्तर दिया, "नहीं महाराज"। पंडित जी बोले- तब तो तुम्हारे जीवन का एक तिहाई भाग व्यर्थ चला गया। पंडित ने फिर पूछा- कुछ पढ़ना लिखना जानते हो? मल्लाह ने कहा- नहीं महाराज। पंडित जी ने कहा- तो तुम्हारे जीवन का एक तिहाई भाग और व्यर्थ चला गया। अब दो तिहाई जीवन व्यर्थ गँवा देने के बाद एक तिहाई ही शेष है, उसका सदुपयोग करो।

पंडित जी का उपदेश चल ही रहा था कि नाव एक चट्टान से टकराकर टूट गई और पंडित जी पानी में डूबने लगे। उन्हें पकड़ते हुए मल्लाह ने पूछा- महाराज तैरना जानते हो? उनने कहा- नहीं मल्लाह उन्हें पीठ पर रखकर पार लगाने लगा और बोला- महाराज! तैरना न जानने के कारण आपका तो पूरा ही जीवन व्यर्थ चला गया होता। उपदेश करना सीखने के साथ-साथ कुछ हाथ पैर चलाना भी सीखना चाहिए था।

केवल दार्शनिक ज्ञान ही पर्याप्त नहीं, मनुष्य को जीवन समस्याओं को सुलझाने की व्यवहारिक योग्यता भी प्राप्त करनी चाहिए।

ज्ञानी की पहचान

एक धार्मिक व्यक्ति को गुरु दीक्षा लेने की आवश्यकता पड़ी उसने सुन रखा था कि ज्ञानी गुरु से ही दीक्षा लेनी चाहिए। गुरु बनने के लिए तो अनेकों साधु पंडित तैयार थे पर उस व्यक्ति को यह निश्चय न होता था कि यह ज्ञानी है या नहीं? इसी संदेह में वह चिन्तित रहने लगा।

एक दिन उसकी पत्नी ने चिन्ता का कारण पूछा तो उसने सब बात बता दी। पत्नी हँसी उसने कहा इसकी परीक्षा बहुत सरल है। तुम गुरु बनने को जो तैयार हो उसे घर ले आया करो मैं बता दूँगी कि यह ज्ञानी है या नहीं। पति बहुत प्रसन्न हुआ और प्रतिदिन एक एक गुरू बनने वाले को लाने लगा।

स्त्री ने पिंजड़े में एक कौआ बन्द कर रखा था। जो महात्मा आता उसी से पूछती महात्माजी यह कबूतर ही है न? उत्तर में कई महात्मा हंस पड़ते, कई उसे मूर्ख बताते, कई झिड़कते कि यह तो कौआ है। इस पर वह स्त्री नाराज होती और अपनी बात पर अड़ जाती, नहीं महाराज यह तो कबूतर है। उसके इस दुराग्रह को सुन कर आने वाले महात्मा क्रुद्ध होकर उसकी मूर्खता को निन्दा करते हुए चले जाते।

एक दिन एक महात्मा ऐसे आये जो कौए को कबूतर कहने पर नाराज नहीं हुये वरन् शान्तिपूर्वक बड़े स्नेह के साथ समझाने लगे देखो बेटी कौए में यह लक्षण और कबूतर में यह लक्षण होते है, अब तुम स्वयं ही विचार लो कि यह कौन है? यदि समझ में न आवे तो मैं तुम्हें कौए और कबूतर का अन्तर उन पक्षियों के झुण्ड में ले जाकर या अन्य बुद्धिमान मनुष्यों की साक्षी से समझाने का प्रयत्न करूँगा स्त्री न मानी तो भी उनने क्रोध न किया अपनी बातें बड़े सौम्य भाव से करते रहे।

अपने पति से स्त्री ने कहा- यही महात्मा ज्ञानी है। इन्हें ही गुरू बना लो। ज्ञानी की पहचान यही है कि उन्हें क्रोध नहीं आता।

कर्मकाण्ड ही सब कुछ नहीं है

एक धनी व्यक्ति ने सुन रखा था कि भागवत पुराण सुनने से मुक्ति हो जाती है। राजा परीक्षित को इसी से मुक्ति हुई थी। उसने एक पंडित जी को भगवान की कथा सुनाने को कहा। कथा पूरी हो गई पर उस व्यक्ति के मुक्ति के कोई लक्षण नजर न आये। उसने पंडित जी से इसका कारण पूछा- पंडित जी ने लालच वश उत्तर दिया। यह कलियुग है इसमें चौथाई पुण्य होता है। चार बार कथा सुनो तो एक कथा की बराबर पुण्य होगा। धनी ने तीन कथा की दक्षिणा पेशगी दे दी और कथाऐं आरम्भ करने को कहा। वे तीनों भी पूरी हो गई पर मुक्ति का कोई लक्षण तो भी प्रतीत न हुआ। इस पर कथा कहने और सुनने वाले में कहासुनी होने लगी।

विवाद एक उच्च कोटि के महात्मा के पास पहुँचा। उसने दोनों को समझाया कि केवल बाह्य क्रिया से नहीं आन्तरिक स्थिति के आधार पर पुण्य फल मिलता है। राजा परीक्षित मृत्यु को निश्चित जान संसार से वैराग्य लेकर आत्म कल्याण में मन लगाकर कथा सुन रहा था। वीतराग शुकदेव जी भी पूर्ण निर्लोभ होकर परमार्थ की दृष्टि से कथा सुना रहे थे। दोनों की अन्तःस्थिति ऊँची थी इसलिए उन्हें वैसा ही फल मिला। तुम दोनों लोभ मोह में डूबे हो। जैसे कथा कहने वाले वैसे सुनने वाले, इसलिए तुम लोगों को पुण्य तो मिलेगा पर वह थोड़ा ही होगा। परीक्षित जैसी स्थिति न होने के कारण वैसे फल की भी तुम्हें आशा नहीं करनी चाहिए।

आत्म कल्याण के लिए बाह्य कर्मकाण्ड से ही काम नहीं चलता। उसके लिए उच्च भावनायें होना भी आवश्यक है।


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