ऐसे होते है सच्चे ईश्वर भक्त

June 1961

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क्रोध पर अक्रोध की विजय

एकबार सन्त तुकाराम अपने खेत से गन्ने का गट्ठा लेकर घर आ रहे थे। रास्ते में उनकी उदारता से परिचित बच्चे उनसे गन्ने माँगते तो उन्हें एक-एक बाँटते घर पहुँचे। तब केवल एक ही गन्ना उनके हाथ में था। उनकी स्त्री बड़ी क्रोधी स्वभाव की थी। उसने पूछा शेष गट्ठा कहाँ गया? उत्तर मिला बच्चों को बाँट दिया। इस पर वह और भी क्रुद्ध हुई और उस गन्ने को तुकाराम की पीठ पर जोर से दे मारा। गन्ने के दो टुकड़े हो गये। बहुत चोट लगी। फिर भी वे क्रुद्ध न हुए और हँसते हुए बड़े स्नेह से बोले- तुमने अच्छा किया, टुकड़े करने का मेरा श्रम बचा दिया। लो एक टुकड़ा तुम खाओ, एक मैं लिये लेता हूँ। उनकी इस सहनशीलता को देखकर स्त्री पानी-पानी हो गई और चरणों पर गिर कर अपने अपराध के लिए क्षमा माँगने लगी।

ईश्वर भक्त सब में अपनी ही आत्मा देखते है, इसलिये वे किसी पर क्रोध नहीं करते अपनी सज्जनता के प्रभाव से दूसरों के हृदय परिवर्तन का कार्य करते रहते है।

पराया धन, धूलि समान

भक्त राँका बाँका अपनी स्त्री समेत भगवत् उपासना में लगे रहते है। वे दोनों जंगल से लकड़ी काट-काट अपना गुजारा करते है और भक्ति भावना में तल्लीन रहते हैं। अपने परिश्रम पर ही गुजर करना उनका व्रत था। दान या पराये धन को वे भक्ति मार्ग में बाधक मानते थे। रास्ते में मुहरों की थैली पड़ी मिली। वे पैर से उस पर मिट्टी डालने लगे। इतने में पीछे से उनकी स्त्री आ गई। उसने पूछा थैली को दबा क्यों रहे हैं? उनने उत्तर दिया मैंने सोचा तुम पीछे आ रही हो कही पराई चीज के प्रति तुम्हें लोभ न आ जाय इसलिये उसे दाब रहा था। स्त्री ने कहा- मेरे मन में सोने और मिट्टी में कोई अन्तर नहीं आप व्यर्थ ही यह कष्ट कर रहे थे। उस दिन सूखी लकड़ी न मिलने से उन्हें भूखा रहना पड़ा तो भी उनका मन पराई चीज पर विचलित न हुआ।

पराये धन को धूलि समान समझने वाले, अपने ही श्रम पर निर्भर करने वाले साधारण दीखने वाले भक्त भी उन लोगों से अनेक गुने श्रेष्ठ है जो सन्त महन्त का आडम्बर बनाकर पराये परिश्रम के धन से गुलछर्रे उड़ाते हैं।

कोढ़ी का अभ्युत्थान

बंगाल के राजमहल जिले के रूप और सनातन नामक दो भगवद् भक्त हुए है। सनातन को कोढ़ था। चैतन्य महाप्रभु से सनातन की भेंट हुई, उन्हें मालूम हुआ कि यह भगवद् भक्त है तो उन्होंने यह जानते हुए भी कि यह कोढ़ी है, उठा कर छाती से लग लिया। कोढ़ का मवाद उनके शरीर पर लग गया तो भी उनने उससे किसी प्रकार की घृणा न की। उन्होंने सनातन को पढ़ाया भी। उस शिक्षा के आधार पर सनातन ने भक्ति रस के कई ग्रन्थ भी लिखे। कोढ़ी होते हुए भी वे महान भगवद् भक्त बन सके।

पतित और तुच्छ दीखने वाले में भी कितनी ही ऐसी आत्माऐं होती है जिन्हें उत्कर्ष का अवसर मिले तो वे महान बन सकती है।

परोपकारी विसाोबा

महाराष्ट्र के ओढिया नागनाथ नामक ग्राम में विसोवा नामक एक सज्जन रहते थे। वे सोने चाँदी का काम करते थे। धनी भी थे और भगवान के भक्त भी। उस क्षेत्र में दुर्भिक्ष पड़ता है। विसोबा के पास जो कुछ था उसे वे अकाल पीड़ितों को खिला देते हैं। फिर भी लोग भूख से प्राण त्यागते ही जाते है। विसोबा सोचते है मेरी साख है, क्यों न ऋण लेकर भूखों का पेट भरूँ? जब दुर्भिक्ष समाप्त हो जाएगा तब मैं ऋण चुका दूँगा। अपनी पत्नी से सलाह करते है उसे भी यह बात पसंद आ जाती है। और सब तो निर्धन हो चुके थे, एक निर्दय पठान ही धनी था उसी के यहाँ अन्न भी था। विसोबा उसे ऋण लेकर भूखे भरती को अन्न बाँटने लगे। चुगलखोरों ने पठान से विसोबा के दिवालिया होने की बात कह दी। पठान ने अपना ऋण तुरन्त लौटाने का तकाजा किया, मुसलमानी राज्य में पठानों की तूती बोलती थी। कुछ न्याय भाव था नहीं, वे चाहे जिसका जो कर डाल सकते थे, उसने मुश्किल से सात दिन की मोहलत दी। विसोबा ऋण कहाँ से चुकाते उनके पास कुछ भी न था।

जब ऋण चुकाने का कोई प्रबन्ध न हो सका तो पठान बिसोवा को अत्यन्त क्रूरता पूर्वक यातनाऐं देने लगे और अपमानित करने लगे फिर भी बिसोवा क्षुब्ध न हुए बराबर यही कहते रहे मैंने आपका ऋण अवश्य लिया है और जिस दिन भी मेरे पास व्यवस्था हो जाएगी आपको अवश्य चुका दूँगा। आप चाहे तो मुझे और मेरे परिवार को ऋण के बदले में पशु की तरह खरीद कर अपने यहाँ जन्म भर के लिए गुलाम भी रख सकते है।

बिसोबा का मुनीम अपने स्वामी को इस दुर्दशा को न देख सका उसने अपनी सारी संचित पूँजी पठान को देकर अपने परोपकारी स्वामी का उद्धष्ट कराया। इसके बद वह मुनीम भी विसोबा के साथ पूर्ण श्रद्धा के साथ ईश्वर भक्ति एवं परोपकार में लग गया।

ईश्वर भक्ति जिसके हृदय में आती है उसके साथ ही करुणा दिया और परोपकार की भावना भी अवश्य उपजती है। जो भक्त तो बने, पर निष्ठुर और कंजूस हो उसकी भक्ति ढोंग मात्र है।

कुत्ते में भगवान्

पढरपुर में कातिकी का मेला लगा। भक्त नामदेव भी वहाँ पधारे वे भोजन बना रहे थे कि एक कुत्ता उनकी रोटियाँ उठाकर भागा। नामदेव उसके पीछे-पीछे घी की कटोरी भी लेकर भागे कि- भगवान्, रूखी रोटी मत खाओ मेरे पास यह घी बचा है इससे उन्हें चुपड़ भी लो, कुत्ता रुका, नामदेव ने उसकी रोटियाँ चुपड़ दी और उसने उन्हें प्रेम पूर्वक खाया। भक्तों ने अपने दिव्य चक्षुओं से स्पष्ट देखा कि कुत्ते के रूप में भगवान पढरीनाथ ही विराजमान थे। सच्चा भक्त वह है जो प्राणिमात्र में भगवान् का दर्शन करे।

वेश्या से तपस्विनी

अम्वपानी नामक एक वेश्या भगवान् बुद्ध को भोजन का निमन्त्रण देने गई। उनने स्वीकार कर लिया, थोड़ी देर बाद वैशाली राजवंश के लिच्छवि राजकुमार आये और उनने राजमहल में चलकर भोजन करने के लिए प्रार्थना की तो उनने कहा- मैं अम्वपानी के यहाँ भोजन की स्वीकृति दे चुका हूँ। उनने मीठे चावल और रोटी की भिक्षा प्रेम पूर्वक ग्रहण की। कुछ समय बाद वह वेश्या भी बुद्ध भगवान् के उपदेशों से प्रभावित होकर बौद्ध भिक्षुणी बन गई

पाप से घृणा करते हुए भी पापी से प्यार करके उसे सुधारा जा सकता है।

मान बड़ाई का परित्याग

स्वामी रामतीर्थ की विद्वत्ता तथा ओजस्वी वाणी से प्रभावित होकर अमेरिका की 18 युनिवर्सिटियों ने मिलकर उन्हें एल. एल. डी. की उपाधि देने का प्रस्ताव रखा। जिस उन्होंने सधन्यवाद अस्वीकार करते हुए कहा स्वामी और ‘एम. ए.’ ये दो कलंक पहले ही नाम के आगे पीछे लगे हुए है अब तीसरे कलंक को कहाँ रखूँगा?

यश कीर्ति, लोकेषणा, प्रतिष्ठा, प्रशंसा, पूजा, मान बड़ाई के फेर में पड़कर सत्ता और लोक सेवियों का अहंकार उभरता है। इसलिए सच्चे सत मान बड़ाई से सदा बचते रहते है।


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